शिक्षा हर व्यक्ति का अधिकार बनामशिक्षकों की दरकार और सरकार .

शिक्षा अगर उस भाषा में प्राप्त
होती है जिसमें बच्चा स्कूल जाने से पहले
माँ से बात करता है तो बच्चे
को ना तो व्याकरण
रटनी पढ़नी पङती है ना ही स्पेलिंग
का श्रम करना होता है । वह केवल
ज्ञान और प्रायोगिक अनुभव पर
अपना बौद्धिक परिश्रम और विचार
विन्यास विश्लेषण करता है । किंतु जब
समूचा विज्ञान तकनीक और विचार
जानकारी उसे उस अजनबी भाषा में दिये
जाते हैं जिसे न परिवार बोलता है न
परिजन पङौसी और समाज तब लगातार
सारा श्रम केवल स्पेलिंग और व्याकरण
लिंगभेद और वचन सही करने में
जाया होता है यही कारण है कि मूल
मातृभाषा से अलग भाषा में पढ़ने
वालों का पढ़ाई के दौरान या पढ़ाई
पूरी होने के बाद भाव संप्रेषण
उतना सटीक मुखर और तीक्ष्ण
सूक्ष्म नहीं हो पाता और
परायी भाषा में वह अपने मनोविकार
आवेग संवेग संवेदना और
अनुभूतियाँ नहीं प्रस्तुत कर पाता । वह
कितना भी विद्वान हो जाये वह उन
लोगों के सामने उस परायी भाषा में
आत्माभियक्ति उतनी सटीकता से कर
ही नहीं पाता जो परायी भाषा उसके
आम मामूली शिक्षित की सशक्त और
गहरी संप्रेषण संचार की भाषा है ।
यही वज़ह है कि वह सपने
तो अपनी ही मातृभाषा के ही देखता है
और पूरा जीवन बिताकर जो ज्ञान वह
रखता है वह उसके वास्तविक बौद्धिक
स्तर का अर्द्धांश भी नहीं हो पाता ।
एक उदाहरण है कि बचपन से ही यह
स्पष्ट हो जाता है मातृभाषा में
शिक्षा पाने वाले के लिये कि वह
कवि लेखक वैज्ञानिक या क्या है ।
अवसर मिले या ना मिले किंतु वे बीज और
अंकुर लगातार उसके मानसिक उर्वर
क्षेत्र पर पनपते रहते हैं ।
जबकि परायी भाषा में शिक्षा प्राप्त
करने वाले का वास्तविक रुचि कौशल
ज्ञान तब प्रकट हो पाता है जब वह
कमसे कम हाईस्कूल पूरा कर लेता है । ये
बिडंबना भारत की है कि केवल
अंग्रेजी बोलने फर्राटे से सीखने भर के
मक़सद और नौकरी रोजग़ार पाने
की अघोषित शर्त हो चुकी है
कि व्यक्ति परायी भाषा में
शिक्षा प्राप्त करने पर विवश है।
यानि सारा शैक्षणिक जीवन काल
इसलिये रट्टा मारने में
जाया हो जाता है कि वह अंग्रेजी में
धाराप्रवाह बोल सके ।
जो कि अपनी भाषा होने पर एक अंग्रेज
बच्चा पहली कक्षा से ही पहले पूरा कर
चुका होता है!!! यही हाल है ।
दूसरा कोढ़ में खाज वाली हालत है
कि मातृभाषा में वैश्विक ज्ञान और
आवश्यक विधि संहिताओं
का पूरा अनुवाद भी प्राप्त नहीं है और
परायी भाषा में शिक्षा पाने वाले
व्यक्ति को अपनी ही भाषा के ज्ञान
विज्ञान के आकलन अध्ययन से वंचित
रखा जाता है यथा एक अंग्रेजी माध्यम
से पढ़ा व्यक्ति पाणिनि नागार्जुन
आर्यभट्ट वाराहमिहिर और चरक सुश्रुत
और तमाम विद्वानों के बारे में विशेष
कुछ नहीं जानता किंतु वह
पढ़ता रहता है यूरोप और अमेरिका जब
जब उसे कहावतें मुहावरे उद्धरण कथन
चाहिये होते हैं तब तब वह
पश्चिमी जगत के ही विद्वानों को कोट
करता है । यह विकलांगता और
भी दयनीय हो जाती है जब
सरकारी शिक्षा बनाम प्रायवेट
स्कूलों और कॉन्वेन्ट
की शिक्षा की तुलना की जाती है।
यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि स्नातक
और बी एड बीटीसी परास्नातक
पीएचडी और एम फिल होकर
भी सरकारी शिक्षक बिलकुल
नहीं पढ़ाते विशेषकर यूपी और बिहार
जैसे राज्यों में यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव
है । कि एक हाईस्कूल में पढ़ने
वाला छात्र जो यूपी बोर्ड से
निकला है अगर हिन्दी में
इमला बोलो चाहे घरेलू राशन और
खरीददारी की सूची का ही श्रुति लेखन
कराओ वह हिन्दी तक शुद्ध
सही वर्तनी और उच्चारण के साथ
नहीं लिख पाता । यदि वह घर पर अलग
से ट्यूशन माता पिता से नहीं पढ़ता है
तो पहाङे और गुणा भाग जोङ
घटाना लघुत्तम भिन्न और व्याकरण
नहीं जानता ठीक ठीक यहाँ तक
कि इंटर मीडियेट पूरा करने वाले छात्र
को अंग्रेजी की ग्रामर टेन्स और वॉयस
डिग्रियाँ और वर्ब के रूप तक नहीं आ
पाते ठीक ठीक । मुरादाबाद मंडल
की अधिकांश पाठशालाओं में
ग्यारहवीं और बारहवीं में हू -ब-हू
वही किताब अंग्रेजी में चला रखी है ।
इसका कारण है कि ग्यारवी में
वही कोर्स पढ़कर आसानी से पास होकर
पुनः जब वही कोर्स बारहवीं में
पढ़ना होगा तो छात्र अनुत्तीर्ण
ना हो जायें ।
इतने के बाद भी हाई स्कूल और इंटर
की परीक्षाओं में भारी संख्या में छात्र
अनुत्तीर्ण हो जाते हैं । गणित और
विज्ञान तो बिना ट्यूशन के
पढ़ना असंभव मान लिया गया है और
इसीलिये आर्थिक विपन्न परिवार
बच्चों को विज्ञान के स्थान पर आर्ट्स
और गृहविज्ञान जैसे विषय दिलवा देते है
। विडम्बना देखिये कि वही शिक्षक
जो कक्षा में पाठशाला में छह घंटे
लगातार समूह में रहकर साधन होते हुये
भी नहीं पढ़ा पाते वही ""ट्यूशन पर
अपने घर या कोचिंग के
छात्रों को मात्र एक घंटा प्रतिदिन
पढ़ाकर पास करा देते है!!!!!!
क्या विद्यालय में प्रवेश करते
ही सरकारी शिक्षकों की बुद्धि कार्य
करना बंद कर देती है????
तुलनात्मक रूप से देखा जाये
तो सर्वाधिक वेतन समकक्ष
नौकरियों में
सरकारी शिक्षकों को प्राप्त होता है
। जबकि उस वेतन का मात्र दस
प्रतिशत वेतन पाने वाले
अस्थायी शिक्षक जो प्रायः बी एड
बी टीसी या पीएच डी एम फिल नहीं है
बमुश्क़िल एक हज़ार से पाँच हजार रुपये
तक वेतन पाने वाले हैं अपने
विद्यार्थी को कक्षा यूकेजी तक
पूरा बुनियादी ज्ञान प्राप्त
करवा चुके होते हैं । आप कक्षा एक के
कॉन्वेंट के बच्चों को इमला /डिक्टेशन
बोल कर देखिये और उसके पास ही यू
पी बोर्ड का आठवीं पास छात्र
बिठाकर उसको भी वही इमला बोलिये
। जाँचने पर आप पायेंगे कि यू पी बोर्ड
के सरकारी स्कूल के पढ़े आठवीं पास
बारह चौदह साल के छात्र को कॉन्वेन्ट
के पाँच या साल के बच्चे बराबर
भी हिन्दी तक की इमला लिखनी अकसर
नहीं आती ना ही गणित
ना ही सामान्य ज्ञान!!!
ये अनुभव अपने गृह मंडल ग्वालियर के
साक्षरता स्वयंसेवा के लिये पहले
स्काऊट गाईड रहने फिर एन एस एस
की दल नायिका रहने फिर
साक्षरता मास्टर ट्रेनर होने फिर
अनेक एन जी ओ के माध्यम से कार्य करके
पश्चिमी यूपी में आने के बाद
यहाँ व्याप्त अशिक्षा और कन्या बालक
भेदभाव से जूझने के दौरान साक्षरता के
लिये घर घर घूमकर लङकियों को स्कूल
भेजने के अभियान घर पर पढ़ाने और सतत
शिक्षा केंद्र चलाने के दौरान खूब अनुभव
किया । निजी तौर पर मैं मानती हूँ
कि सरकारी शिक्षकों में विद्यालय में
पूरे छह घंटे मुस्तैदी से और पूरे मन से
पढ़ाने की कर्त्तव्य भावना का बेहद
अभाव है और पूरा ध्यान छात्र
को ज्ञानी बनाने की बज़ाय बोर्ड
परीक्षा में पास कराने पर रहता है ।
इसीलिये ट्यूशन करप्शन का सबसे
बङा कैंसर है और मेरी अपील है
कि सरकारी शिक्षकों के निजी ट्यूशन
पढ़ाये जाने पर फिलहाल दस वर्षों के
लिये प्रतिबंध लगा दिया जाये और यह
व्यवस्था की जाये कि यदि छात्र
कमजोर है किसी विषय में तो उस विषय
के शिक्षक को पाठशाला में
ही अतिरिक्त कक्षा लेकर पढ़ाया जाये
। हमें याद है कि सन् 1980में जब
हमारी कक्षा के कुछ छात्रों के
छमाही परिणाम खराब निकले
तो गणित और अग्रेजी विज्ञान के
शिक्षक जो दूसरे नगर से आकर प्रतिदिन
पढ़ाते थे वहीं स्कूल में रहने लगे और हर
दिन कक्षायें शाम को बारी-बारी से
अलग अलग छात्रों के घर पर तय करके
लगायीं जातीं केवल हम छात्र
इतनी सेवा करते
कि तीनो शिक्षकों को एक कप चाय
या कभी कभी भोजन करवा देते ।
कदाचित यही एक समर्पित
कर्त्तव्यपरायण शिक्षक की निशानी है
। वाटारकर सर श्रीवास्तव सर और
प्रेमबहादुर सिंह सीसौदिया सर तोमर
सर जहाँ भी हैं उनको शत शत नमन । वे
कहते थे ट्यूशन क्यों? क्या हम
सबकी नाक कटवानी है? । हमारे प्रथम
गुरू तो माता पिता ही रहे किंतु पहले
बाहरी गुरू स्व.मोहन
मुरारी तिवारी सर जी रहे और ये
भाषा पर पकङ उनकी ही देन है । आज
तक कभी श्रुतिलेखन पर एक
आधी वर्तनी तक ग़लत
नहीं हुयीं हाँ विचार प्रवाह सोच में
डूबे होने से भले ही शब्द खा जाने की एक
त्रुटि यदा कदा आ जाती है किंतु कृतज्ञ
हैं उन शिक्षकों के जिन्होंने
कभी नहीं कहा कि पाठशाला से पृथक
ट्यूशन पढ़ना होगा वरना अंक काट लिये
जायेंगे । इस बीमारी का प्रकोप
तो स्नातक पर आकर झेलना पङा। और
कङवाहट से मन भर गया । कितनी डूब
मरने वाली बात है कि शिक्षक कक्षा में
जानबूझकर अच्छे से नहीं पढ़ाते
ताकि मजबूर होकर छात्र ट्यूशन
पढ़े??!!! देखा तो यहाँ तक गया है कि कई
बढ़िया परीक्षा परिणाम देने
वाली संस्थाओं के शिक्षक स्वयं ही ट्यूशन
पढ़ने रिश्वत देने वाले छात्रों को धङल्ले
से नकल कराते है और ऐसा केवल हाईस्कूल
इंटर मीडियेट नहीं बल्कि उच्च
शिक्षा के संस्थानों तक में हो रहा है ।
तब यह तो सरकार को विद्वान
देशचिंतकों को सुनिश्चत
करना ही चाहिये कि ट्यूशन मास्टर
किसी संस्था में टीचर लेक्चरर
नहीं होना चाहिये ट्यूशन केवल-""
शिक्षित बेरोज़ग़ार को ही करने का हक़
होना चाहिये ।
आप देखे कि मात्र एक वर्ष
का प्रायोगिक अभ्यास कराकर
किसी भी मातृभाषा में शिक्षा पाये हुये
हाईस्कूल पास व्यक्ति को इंगलिश
स्पीकिंग कोर्स कराने वाले संस्थान देश
विदेश में कहीं भी बढ़िया धाराप्रवाह
अंग्रेजी बोलना सिखा देते हैं ।
जबकि व्यर्थ कर दिया जाता है सत्तरह
साल का श्रम स्नातक तक
परायी भाषा में शिक्षा पाने के चक्कर में
जो कि केवल एक अतिरिक्त विषय रूप
रखकर भी सचमुच शिक्षक पढ़ाने लगें
प्रतिदिन तो कोई कारण
नहीं कि स्नातक तक आते आते व्यक्ति कम
से कम त्रिभाषा वाची हो न जाये।
©®sudha raje

Comments