Saturday 22 July 2017
सुधा राजे की कविता - मेरे देश!!!
Tuesday 18 July 2017
सुधा राजे का लेख - सबसे पहले देश।
Saturday 15 July 2017
राष्ट्रवाद का सिरमौर बंगाल हाशिये पर क्यों??? --- सुधा राजे का लेख।
सुधा राजे का लेख - बचाईये बचपन लड़को का भी ।
••••••••••••••••••••••••••••••••(सुधा राजे का लेख )
लड़कियों के बारे में बतियाते लोग प्राय:
लड़कों पर चुप लगा जाते हैं । मलिक राजकुमार के उपन्यास "बाईपास "में जो
समस्या घटनाक्रम में आयी है वह कितने ही पुरुषों के बाल्यकाल का भयानक
सत्य हो सकती है ।
एक मातृविहीन बच्चा जो हमारी संडे क्लासेस इन विलेज का हिस्सा रहा ,
उसका सच सुनकर झुरझुरी छूट जाती है ।
बरसों हो गये हर जगह से दबी सी कहीं खबर मिल जाती है परंतु लोग कान आंख
बंद करते रहते हैं ।
"""""बच्चाबाज़ी"""""
कहकर जिसे अघोषित स्वीकृति कुछ खास तरह के समूह समुदायों में मिली हुयी
है । थर्ड जेंडर और छोटे बच्चे जेल के कैदी और बाॅयज बुलीईंग के शिकार
लड़के ,
कभी इस समस्या पर सजगता नहीं दिखती ।
क्योंकि इससे
""पुरुष पवित्रता अपवित्रता का विचार नहीं जुड़ा है ""
घर के बड़ों और मुहल्ले के बड़ों के बीच बार बार बुलाया जाता ,और तोहफे
पाता आपका बच्चा या बच्चा रिश्तेदार कहीं इस तरह के ,,,,नर यौन शोषण का
शिकार तो नहीं हो रहा ।
बलात्कार की तरह इसपर भी कानून तो बना है ,परंतु लड़के की मर्यादा या
इज्जत आबरू लुटने जैसा विचार इससे जुड़ा न होने के कारण ,प्राय:अपराधी बच
जाते हैं मारपीट या डांट फटकार के बाद ।
म्यूचुअल रिलेशन के आधार पर ऐसे तमाम जोड़े आपकी आँखों के आसपास हो सकते
हैं किंतु सवाल उनका नहीं ,अबोध लड़कों और किशोरों का है जो घर के या पास
पड़ौस या स्कूल के छिपे हिंस्र पशुओं का शिकार बनकर भी चुप रह जाते हैं
और अपराधी को बल मिलता जाता है । ऐसे अनेक युवा प्रौढ़ लोग हैं जो बचपन
में ऐसे पशुवत हिंस्रनरपशुओं के यौनशोषण का शिकार रहे परंतु होश आने बड़े
और सक्षम होने पर भी न तो दंड दिला सकते न ही सामाजिक निंदा करके ऐसे
नरपशुओं का नकाब उतार सके । लड़कियों की सुरक्षा के साथ लड़कों की
सुरक्षा भी आज बहुत बड़ी आवश्यकता है ।©®सुधा राजे
Friday 14 July 2017
सवर्ण कहकर दमन कब तक ?कब तक तिरस्कार ?--(सुधा राजे)
Saturday 8 July 2017
धरती का ऋण कुछ तो हों उऋण - आज का वृक्ष, सहजन
<<<<<<<सुधा राजे *>>>>
वर्षोत्सव मनायें ,चलो कुछ फलदार वृक्ष लगायें
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आज का वृक्ष,
सहजन
सुरोंजना
सुहांजन
मुनगा
शेवगा
सिंगड़
**********
मुनगा या सहजन दो तीन प्रकार का होता है ।दक्षिण भारतीय प्रकार का मुनगा बारहों महीने फलियां देता रहता है ।जबकि उत्तर मध्यभारतीय मुनगा वर्ष में एक बार ग्रीष्म से लेकर पावस तक फलियां देता है ।यह बहुत जल्दी लगने पनपने और बहुत जल्दी ही फलियाँ देने लगता है ।गृहवाटिका चबूतरे पिछवाड़े और बड़े गमले में भी कुछ प्रजातियाँ लगायीं जा सकतीं हैं । मुनगा के फूलों की पकौड़ियाँ कोफ्ते सब्जी साँभरदाल दहीबड़े और सैंडविचेज बनते हैं ।सहजन की फली की सब्जी को मुर्गा मछली मांस की तुलना में शाकाहारियों के लिये विकल्प माना जाता है और उसी विधि से बनायी खायी जाती है ।हम सब तो मुनगे की फलियां चूसकर ढेर लगाते तो सब चिढ़ाते
""जे धरे देखो घास फूस के हाड़ चौँख केँ ""
मुनगा 300से अधिक बीमारियों का समापन करता है ऐसा आयुरवेदाचार्य मानते हैं ।सबसे अधिक पौष्टिक शाकाहार में मुनगा सबसे पहले आता है । यौनदौर्बल्य सहित अनेक कमजोरियों का निदान मुनगा के फूल और फलियों के सेवन से होता है । इसका पेड़ पाँच से पच्चीस फीस तक लंबा घना छायादार हो जाता है ।फूल के समय पत्तियां नगण्य रह जाती हैं और फलियाँ एक से तीन फीट तक लंबी हो सकती हैं ।
बीज को लगाने से पहले रात भर पानी में डाल कर भिगो ले,
अब भिगोए हुए बीज फली को बीच से फाड़ दे
और इसका छिलका निकाल दे |
अब एक 18×12 का प्लास्टिक में 3 भाग मिट्टी और 1 भाग बालू के मिश्रण वाले मिट्टी से भर दे,
अब इसमें 2-3 cm गड्डा कर के 2-3 बीज को लगाए |
अब इस मिट्टी में नमी बनाए रखे |
5-12 दिन में बिज अंकुरित हो कर पौधा निकल आएगा,
जब पौधा 60-90 cm का हो जाए तो इसे अपने खेतो में लगाए |
अगर आप नर्सिंग नहीं करना चाहते है
तो आप 10 cm मोटी वाले डाल 45 cm से 1.5 m लम्बे डाल को सीधा लगा कर पेड़ तैयार कर सकते है |
एक बागवान
लाखों रुपये सहजन की खेती से कमा सकता है ।
इसमें 92 तरह के मल्टीविटामिन्स, 46 तरह के एंटी आक्सीडेंट गुण, 36 तरह के दर्द निवारक और 18 तरह के एमिनो एसिड मिलते हैं।
पशुओं के चारे के रूप में उपयोगी
चारे के रूप में इसकी पत्तियों के प्रयोग से पशुओं के दूध में डेढ़ गुना और वजन में एक तिहाई से अधिक की वृद्धि की रिपोर्ट है। कुपोषण, एनीमिया (खून की कमी) में सहजन फायेदमंद होता है।
एक एकड़ खेत में सहजन के 250 ग्राम बीज की जरूरत होती है,लाइन से लाइन की दूरी 12 फिट और प्लांट से प्लांट की दूरी 7 फिट रखी जाती है, एक एकड़ खेत में 518 पौधे लगाए जाते हैं |
अप्रैल महीने में बुवाई के बाद सितम्बर महीने में फलियां बाजार में बिकनी शुरू हो जाती हैं। "
गर्मी के मौसम में 10 रुपए किलो और सर्दियों के मौसम में 40 रुपए किलो के हिसाब से बिकती हैं। बारिश के मौसम को छोड़कर सहजन के पेड़ में दो बार फलियां लगती हैं और एक बार सहजन लगाने के बाद 4 साल तक लगातार पैदावार होती है। एक पौधे में लगभग 20 किलो तक सहजन की फलियां लगती हैं।
ज्योति -1नामक प्रजाति बहुत फलियां देती है
दमा टीबी कैंसर और हड्डियों के दर्द ,रूसी बाल और त्वचा के अनेक रोग सहजन से दूर होते हैं
बंगाल का एक मुनगा बिलासपुर में रेलवे के इलाके से कई जगह शहर में खूब लोक प्रिय हो रहा है। पांच फीट की डाल काट खेत मे फसल के बाद या इन दिनों गड़ा देते है। बारिश में उसकी जड़ और पीके निकल आते है। फरवरी मे फलियां आ जाती हैं।
यह कलम से भी लगता है और बहुत जल्दी हर तरह के तापमान में कामयाब हो जाता है ।
मुनगे की पत्तियां देह पर से त्वचा रोग खत्म करती है खेत पर से कीट पतंगे
तो चलें न केवल अपने अपितु अन्य सबके लिये भी लगायें मुनगा ,सहजन ,
सादर निवेदन अनुरोॆध सहित
©®सुधा राजे
वर्षोत्सव मनायें कुछ फलदार वृक्ष लगायें - आज का वृक्ष कटहल
§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§§
आज का वृक्ष
कटहल
कँटहफल
जैकफ्रूट
======
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग इसे बड़हल कहते हैं परन्तु यह बड़हल नहीं है "कांटेदार फल होने के नाते कँटहाफल है ।बड़हल पर बाद में लिखेंगे ।
यह बहुत ही अद्भुत वृक्ष है जो जड़ से फुनगी तक तने डालियों पर फलों से लद जाता है । एक फल कम से कम दो किलों से बीस किलो तक का बड़ा हो सकता है ।सामान्य कटहल तीन से पांच किलो तक का होता है ।
इसकी सब्जी तब ही बढ़िया लगती है जब कच्चा फल हो दूध निकल रहा हो डंठल से काटने पर ।पकने पर इसके बीज के ऊपर लिपटी परत बिलकुल केले के पके गूदे समान मीठी नरम और स्वादिष्ट रहती है । पके बीज कवर का कस्टर्ड हलवा खीर कुल्फी मलाईरबड़ी में भी बढ़िया उपयोग होता है ।बीज एक प्लास्टिक जैसी झिल्ली से कवर रहता है और भीतर सिंघाड़े की ही तरह का सफेद स्टार्च होता है ।बीज छीलकर सब्जी में राजमा की विधि से बनाकर खाायी जाती है और पीसकर दूध मावा मेवा डालकर हलवा बीजों के चूर्ण से बनाते हैं । कटहल के कोफ्ते कबाब और पकौड़े खाकर अरविंद जी जेटली जी को कबाब खाता दिखा कर वायरल कर जो दिया। मेरा मानना है कि प्रकृति का वरदान है कांदू कटहल जिमीकंद सूरन रतालू सोयाबीन मृणाल और कटहल अब कोई क्यों मांस खाये ।इनमें तो मांसाहार से भी बढ़िया पौष्टिकता और कबाब बिरियानी पुलाव कोफ्ते पकौड़े परांठे लच्छे पिज्जा सब बनाने की सुविधा है ।व्यंजन विधिया आप "सुधा रसोई "मेरे ब्लाॅग पर बाद में पढ़ लें। यहां वृक्ष लगाने की बात है कि यह बहुत छाया दार बहुत फल देने वाला धनकमाऊ और सब्जी मीठा फल मांसाहार से छुटकारा हरियाली देने वाला दीर्घायु फल है जो बस दो से पांच साल का होते होते फलने लगता है ।पत्ते तक बढ़िया दोने पत्तल पशुआहार है । पनपता भी बहुत जल्दी है ।नम जमीन में बीज गाढ़ दें या नर्सरी से लाकर लगा लें ।कुछ प्रजातियां जिनके कांटे चपटे होते हैं उनकी तुलना में खड़े कांटेदार कटहल की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है ।पके कटहल बच्चों बूढ़ों के लिये ऊर्जा और वजन कम करने वाले ताकतवर आहार हैं । दुर्बलता में भी कटहल के सब्जी फल खीर हलवा बढ़िया है ।एक पेड़ से हजारों रुपये कमाये जा सकते हैं खेत बाग घर चबूतरे कहीं भी लगायें ।बड़ी टंकी गमले में भी लगाये जा सकते हैं। तो निवेदन है अनुरोध है कि कुछ वृक्ष लगायें न केवल अपने लिये अपितु दूसरों के लिये भी जब भी जहां भी जगह मिले यह पावस व्यर्थ न जाये ।सादर नमस्कार ,जयहिंद
©®सुधा राजे
Thursday 6 July 2017
(सुधा राजे) धरती माँ का ऋण ,कुछ तो हों उऋण *** आज का वृक्ष - करौंदा कर्मदा,
कृपया शेयर करें
*************(सुधा राजे)
धरती माँ का ऋण ,कुछ तो हों उऋण
<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>वर्षोत्सव मनायें ,चलो कुछ फलदार वृक्ष लगायें
*************************
आज का वृक्ष _^_
करौंदा
कर्मदा,
करौंदा कर्मदा और क्रेनबेरी पृथक हैं पहले यह समझ लें ।भारतीय करौंदा लाल गुलाबी हरा रानी रंग और काला तथा गहरा जामुनी तक होता है । आकार में छोटे बेर के बराबर होता है । बहुत खट्टा फल है । यह फल बहुउपयोगी है । अचार चटनी मुरब्बा सलाद जैम जैली साॅस सब्जी और सुखाकर पिट्ठी बनाने तथा चूर्ण बनाकर रखने पर अमचूर की भाँति प्रयोग करने हेतु बहुत ही उपयोगी है । तरह तरह की दालों साग सब्जियों तरकारियों और घुघरी ,कोंयीं ,छोले तथा भरवाँ अचार के मसालों के साथ मिलाने के भी बहुत काम का है ।गुड़ चीनी डालकर इसकी कलौंजी ,लौंजी ,खटमिट्टी मैथीदाना ,बनायी जाती है ।
करौंदे का जूस काले नमक के साथ पीने से तेजी से चरबी घटती जाती है । यह विषांतक है कैंसर रोधक तत्व इसमें है । करौंदे की पत्तियां पीसकर पिलाने से मिर्गी रोग ठीक हो जाता है ।गर्भवती स्त्री को प्रारंभ में जो उलटियां होती है तब करौंदा मुख स्वाद ठीक रखता है ।
एक तरह से बहुत शीघ्र पनपने वाला पौॆधा है नींबू की ही भाँति शीघ्र बढ़कर फलने लगता है ।बंगले की बाऊँड्री के लिये बढ़िया कवरिंग फैन्सिंग है । फूल सुगंधित होते हैं । मिर्च करौंदे का अचार बहुत स्वादिष्ट मिश्र अचार बनता है ।चाहें तो किसी भी फल के साथ फ्रूट सलाद चाट या अचार रूप में ले सकते हैं । पेड़ दो से दस फीट तक का हो जाता है । गमले में भी लगाया जा सकता है बस कटिंग समय समय पर करते रहें यह पुनः हरा भरा हो जाता है ।नम भूमि पर लगा दें छह माह की ही देख रेख में पनप जाता है।हमें तो अजवाईन वाली बेसन की बासी पूरी के साथ मिर्ची करौंदे का तला हुआ नमक हींग अजवाईन मिक्स पसंद है । यह हर मौसम में लग सकता है बरसात में बहुत शीघ्र बढ़ता है । तो चलो लगायें केवल स्वयं नहीं सबके लिये कहीं भी जहां भी जगह मिले , एक कर्त्तव्य करे पूरा ,पेड़ लगाये चाहे वन हो घर हो या हो घूरा _/\ _सादर
©®सुधा राजे
सुधियों के बिखरे पन्ने- एक थी सुधा - संस्मरण - सेंवढ़ा।
संस्मरण ..
.........
सेंवढ़ा
सनकुआ मार्ग के मोड़ पर फाॅरेस्ट बंगले के पास ही ऐन सड़क पर एक पंडित जी खूब ऊँचे चबूतरे पर तुलसी चौरे के सामने बैठे देवी जाप और भजन करते रहते थे । हम बच्चे जब सनकुआ प्रपात या गुफा वाले शंकर जी या राजराजेश्वी पूजा के लिये टोली में निकलते या वहीं तब किंडर गार्टन था वहाँ जाते तो पंडितजी जोर से मंत्र बुलवाते राह छेंककर ,हम कुछ तेज थे सीखने में सो जैसा बोलते कह देते ,बाद में याद रह जाता ""नमस्तस्मै""सो उन पंडित का कोड नेम हम बच्चों में हो गया नमस्तस्मै पंडितजी । वहीं पास में बी एस एफ रेजीडेन्स थी और कंपनी कमान्डेन्ट भीम सिंह थापा जी हम लोगों को रोक कर मारवाड़ी गीत सुनाते "
,,,,पैदल चलना मन्ने ना सुहाता ल्याओ मोट्टर कार अजी पम् पम् पम्
"छूट गयी नौकरी मिले न पगार कां से ल्याऊँ मोट्टर कार ""अजी पम् पम् पम् ......
और उनका नाम रख लिया '""पम् पम् काका ""
हमें तब पीछा छुड़ाकर सिन्ध में नहाने और वहां प्रपात की अर्राती धारा को देखने की शीघ्रता रहती सो ""दो पंक्तियाँ जल्दी गा देते फ्राॅक घुमाकर नाचते हुये हमें सिखाने के चक्कर में भीमसिंह काका ,अपनी खाकी हाफ पैन्ट तो कभी खाकी फुल पैन्ट पकड़ कर लड़की वाली मुद्रा बनाते ,हम सब हँस देते और काका हम सबको कुछ चिज्जी देकर जाने देते ।
उधर नमस्तस्मै पंडित जी का यही हाल था कि कन्याओं के चरण छूकर प्रसाद देते परंंतु पहले "
"जय श्रीकृष्ण राधे श्याम ""कहना पड़ता कई बार तब प्रसाद मिलता ।मिश्री तुलसीदल पेड़ा हमारी प्रिय मिठाई रही । हम कह तो देते परंतु हथेली नन्हीं सी ऊपर कर देते और नीचे का प्रसाद छिपाकर दुबारा प्रसाद ठग लेते ।
फिर दूर जाकर मुँह चिढ़ाते हुये कूदकर भागते हुये चिल्लाते """सीताराम सीताराम राम राम राम """
पंडित जी दंड कमंडल धोती सँभालते कुछ दूर पीछा करते _ठैर जाओ ठैर जाओ धौंचाली कऊँ के हमिन सिर्री समज लओ अबई बतईत कैसी राम राम ""
हम सब बहुत प्रसन्न होते । हमारे साथ हमारी सहेलियां भी रहतीं लीडर तो हम ही रहते बालटोली के ।जब किंडर गार्टन या सनकुआ से वापस आते तो फिर पम् पम् काका
राह छेंक लेते , हम कभी मूड होता तो पहले ही सुना देते "
"दादा मारवाड़ में दीनी रे दीनी रे औछौ पहिरौ घाघरो मैं लाजन मर गयी रे ""
,,,बाजरा जी का जंजाल मोरा बाजरा ,,
पम् पम् काका नेपाल के थे और वहाँ मेरी ही आयु की उनकी बेटी थी जो खूब नाचती गाती कूदती रही होगी जैसा वे कहते थे । उनकी आँखें भर भर जातीं कभी कभी और कभी कभी खूब लड़की की तरह बंदूक रिवाॅल्वर सबकुछ बांधे भी नाचने लगते हैट मुँह पर रखकर ।
टैक्स था कविता सुनाना और पुरस्कार थे मैस के फल
,
उधर तनिक ही पग बढ़ते नमस्तस्मै पंडितजी पंथ छेंक कर आ जाते दंड खटकाते अब कओ कितखौं निकर हौ वानर यूथं ??हम सब हँकर हाथ जोड़कर दूर से ही नारा लगाते ""जयश्रीकृष्ण राधे श्याम ""
हाँ अब कई नौनी ,
बौ कभऊँ जिनकईयो जौन पैलऊँ कै रये ते ,
हम सब हाँ में सीधे बनकर मुंडी हिलाते ।
आगे दौड़कर निकलते और फिर नारे लगाते
""सीताराम सीताराम जय श्रीराम राम राम राम ""
पंडित जी फिर पीछे आने का उपक्रम करते दौड़ते फिर ठिठक सुनाते
~""कढ़ियो काल दुआरे सैं हम बतैहें कैसौ सीताराम "
आज यादों में यूँ ही आता है कि न तो पंडितजी कभी ठगे गये न बुद्धू बने बल्कि हम सब को दो बार चार बार हथेली छिपाते देखकर भी अनजान बनते थे और न ही वे हमारी सीताराम या नमस्तस्यै को नमस्तस्मै कहने से ही चिढ़ते थे वह प्रसाद रिश्वत नहीं बालकों को प्रोत्साहन था ।
न ही पम् पम् काका हमें गाने नाचने के बदले फल देते रहे बस उनकी नेपाल में रहती बेटी की यादें उनको हमारी सूरत में कुछ पल का पितृत्व सुख देतीं रहीं ।
नमन आप दोनों को ।पता नहीं कौन कहां है ।
बरसों बाद रिटायरमेन्ट के कहीं दूर से पम् पम् काका आये तो रहे एक बार परंतु तब हम हाईकोर्ट के वकील बन चुके थे । बस दो चार बातें की चकित से देश लौट गये । हम कह ही नहीं पाये कि पम् पम् काका आप हमारे बचपन की सबसे सुन्दर स्मृतियों में से एक हो । शब्द कहां साथ देते हैं हर जगह ।तब हम धाय माँ कौँसाबाई की देखरेख में रहते थे क्योंकि माँ साथ नहीं रहतीं थीं वे बहुत व्यस्त सामाजिक जीवन में दूर नगर में रहतीं थी ।
आज ,
यह क्यों नहीं समझते लोग कि बच्चों में यह प्रवृत्ति होती है कि आप चिढ़ोगे तो वे और और चिढ़ायेंगे । बस हिंसक हो उठते हैं ।
कहीं कोई चिप होती मस्तिष्क के बालपन के चित्रों को निकालने की तो बड़ी मोहक मुद्रा होती थी पम् पम्
काका की
ये तो बाद में पता चला कि यह पम् पम् दरअसल मोटर की आवाज का भोंपू है ,
कुछ स्थूल से ठिगने नेपाली काका ,वरदी में हैट मुख पर लगाकर बिना अपने असिस्टेन्ट कर्मचारियों और सिपाहियों की परवाह के छोटी बच्ची बनने का अभिनय करते नाचते तो हम सोचते काका को ठीक नहीं आता हम अधिक होशियार हैं और सारे स्टेप ठीक करके ठुमकने लगते ।
नमस्तस्मै पंडितजी तो बस राम नाम से चिढ़ने के बहाने ही राम राम कहते कहाते साथ ही देवीसूक्त भी ।
तब कहाँ समझ आता था तब तो लगता था हम बालक ही विजेता है पंडित जी तो बुद्धू बन गये हमने प्रसाद भी दुगुना तिगुना ठग लिया और फिर से रामसीतारमा भी कह दिया
हाँ क्योंकि वे पहले राजस्थान रहे और वहाँ बरसों रहकर आये थे ,हम लोग राजपूत हैं और उनको कदाचित वह सब बढ़िया लगता रहा । वे स्वयं भी राजपूत ही थे । सशस्त्र बल के लोग कब कहां रहते हैं पता नहीं । यहां यहीं बहुत विचित्र बात है आज कि नेपाली वे स्वयं आपस में बतियाते परंतु हम लोगों के लिये हिन्दुस्तानी गीत गाते ।भारत से प्रेम था परिवार के मित्र रहे
हमारे पिताजी और काका शाम की किसी छुट्टी में पीने खाने बैठते तो पिताजी भोजपुरी गीत बहुत गाते थे ।
हमें जैसे बुन्देली प्रानन प्यारी लगती है।
ग्वालियर अथवा झाँसी से बस मार्ग है ,दतिया जिले में कसबा है तहसील है ,और प्राचीन उप रियासत है ,
आदिब्रह्म के चार पुत्रों की तपोभूमि है सेवढ़ा ,यहां सिन्ध नदी पर प्राकृतिक प्रपात है पहाड़ हैं जंगल है और किसी समय बाघ थे ,
परिजनों के साथ शिकार पर फिर लिखेंगे।
नमस्तस्मै पंडित जी के घर के पास ही एक पटैरिया जी का घर था और उन दिनों बहुत धनिक परिवार रहे वे लोग ,उस समय चर्चा करते सब कि उनका पोता ही दादा का पुनर्जन्म है वह पिछले जन्म की बातें सुना रहा है । हम बच्चे कुछ किस्से सुनने के शौकीन थे ही ,घर में ग्वाला रहते थे और एक अर्दली भाई थे ,उनकी कहानियों में धन सदा ही चूल्हे के नीचे ही छिपा निकलता था ,
तो उसी कल्पना में एक बार हमारी बाल टोली उनके घर किसी पूजा में गयी तो पूछ लिया कि ""चूल्हे की नीचे भी खोदकर देखा कि नहीं ""सब ने इतना हँसा कि खिसिया कर रह गये ,,,चले थे विद्वान बनने।
तब बहुसुन्दर हरा भरा और रामलीला कृष्णलीला की नगरी थी । बहुत सारे तो बहुरुपिये रहते थे जो नगर में तब निकलते तो हम लोग चकित होकर पीछे लग जाते । उस समय एक फूफाजी वहां पशुचिकित्सक थे सो पशु अस्पताल के सामने वाले अस्पताल के सामने तक जाने की छूट थी और वहीं डाॅक्टर फूफा जी के बंगले पर छुट्टी के दिनों में एक शाम डाॅक्टर बुआजी को रोज तंग करती बिल्ली हम चारों कजिन्स ने बंद कर ली बच्चों वाले कमरे में । बिल्ली कपड़ों की लकड़ी वाली आलमारी में एक काँच टूटा होने से छिप गयी हम बहादुर बालिका बनने के तमगे में बिल्ली को हाथों से दबोच बैठे ,बिल्ली ने पूरी ताकत से दाँत मार दिये उंगलियों पर हमने चीखकर बिल्ली छोड़ दी बुआ जी घबरातीं आयीं तो देखा मध्यमा के नाखून से पार हो गये दांत ,
बहुत सारी डाँट पड़ी पट्टी सुई और रोज की मरहम पट्टी के बाद जब दर्द कम हुआ तो तमगा मिल ही गया "एक बात तो है हमारी बिटिया है बहुत निडर बहादुर "खदेड़ कर हाथों से बिल्ली पकड़ ली तब से आयी ही नहीं .....
अब तो बहुरुपिया शब्द केवल लेखन में रह गया है तब हम लोग सचमुच के बहुरुपिये देखते थे ,,,
एक कक्का मास्साब थे और कमला भैन जी ,वे हमें विशिष्ट खोपड़ी कहते रहे ।
उस समय कामिनी दी सेंवढ़ा काॅलेज में पढ़तीं थी बहुत सुंदर थी बंगले के ही सामने से सब निकलते काॅलेज तब किले में ही था अब का तो पता नहीं , मामा जी के लड़के उस समय सहपाठी थे उनके और खरे जी तब वहां हिंदी के व्याख्याता थे ,
हमारी यादें कुछ धुँधली हैं परंतु याद हैं कि तब चुनाव हो रहे थे और इंदिरा जी के विरोध में कोॆई कुछ बोलता नहीं था परंतु ऊपर काॅलर पर "गाय बछड़ा "नीचे बटन पट्टी के दीपक का निशान दिखाकर चुपके से सब वोट माँगते थे ।
सायनी मुहल्ला में रामलीला होती थी और नाजिर की बगिया से ताजिये निकलते थे ।हम सब वी आई पी ही जैसे जाकर सबसे आगे बैठते और रामलीला देखकर खूब रोते
बहुत गूढ़ है सेंवढा वहां के कवि रहे ""अक्षर अनन्य ""राजा पृथ्वीसिंह "रसनिॆधी " बहुत सारे डर लगते थे हम बच्चों को जब रात को देर में बड़ों के साथ मरघटों के करीब से निकलते ,रामलीला देखकर । तब चूँकि पहले चंबल किनारे रहे फिर सिन्ध किनारे सो डाकू शब्द से डर नहीं लगता था । कई लोग ऐसे थे बहुत बहुत बाद में पता चला अरे ये तो डाकू थे ।
फूलन के समय हम लोग शिवपुरी क्षेत्र में आरोन थे वहां आगरा बाॅम्बे हाईवे पर फूलन का दल अकसर मँडराता रहता था परंतु आतंक नहीं रहा वैसा जैसा मोहर सिंह माधो सिंह मलखान सिंह और दऊआ का था बेहमई कांड के बाद फूलन कानपुर इलाके में जाकर छिप गयी थी ,
छोटे मोटे डाकू सीधे सामने नहीं पड़ते थे तब "आशा गोपालन बहुत दिलेर एसपी रहीं ग्वालियर की और अनगिनत एनकाऊन्टर कर डाले ""
पूरी रात वहाँ लोकगायक सनकुआ के मेले में नाचते गाते थे । मेला तो पुल पार टेकरी वाली माता तक लगता रहा । तब पुल नीचे वाला था नये की नींव पड़ने लगी थी नीचे पुल पर पावस में जल भर जाता रहा । हम सब मीलों दूर फैले मेले में हिंडोला झूलते । बाद में सेवढ़ा हर साल कवि सम्मेलन में जाते रहे बसंत पंचमी पर मेले में ही राजराजेश्वरी जी के सामने पहाड़ी पर मंच लगता जहां कभी सोमठाकुरजी कभी अवस्थी जी कभी भैयालाल व्यासजी जी और पूरे भारत के अनेक कवियों के साथ देर रात तक काव्य पाठ भी किया हरिकेश जी ने तब किशोरमन की वीर कविताओं पर घर बुलाकर लड्डू खिलाये मैथी सोंठ वाले और "मीरा "पर हस्ताक्षर करके आशीर्वाद स्वरूप कुछ किताबें भी दीं । करये दिनन में जब महालया की लक्षमी पूजा चलती हम कन्याओं को ""रोज सोरह "ढारने जाना बढ़िया लगता । एक बार बह गये होते सनकुआ में कई घूँट पानी पी गये तब सनकुआ से नीचे शांत जल में पत्थर पर स्नान कर रहे थे नियम था सोलह करके एक स्नान हुआ और ये फिर सोलह बार करना है ,लोटे से ही सिर पर दूब लगाकर ढारने थे सो लोटा तेज धार में बह गया ,सोचा पानी कम है पकड़ लेगें किंतु कुँआर का पानी तेज बहाव बह गये ,वे तो वहाँ एक अजब सिंह भदौरिया जी थे बापू के कलीग उनकी पत्नी भदौर्नी काकी रहीं लंबी मजबूत भिंड की ठकुराईन कूद कर पकड़ लिया वरना आज ये कहानी नहीं लिख रहे होते ,
गोलकोठी में अकसर लुका छिपी और उछलकूद के लिये साथियों सहित पहुँच जाते सब ही अपने थे रोक टोक तो थाने से काॅलेज तक कहीं थी ही नहीं । नाक कान तक तो वहीं मेले में बिंधवाये रहे हमारे । पकड़ा दिये पेड़े बताशे और जड़िया जी ने कब कान में बालियां डाल दी पता ही नहीं चला । नाक बिंधी तो बड़ा झगड़े हम धाय मां से और बापू से भी । तब एक रस्म ही थी कर्णवेॆध लड़कों के भी होते थे । गुरूमंत्र वहीं मिला पहली रामायण पाठ वहीं राजराजेश्वरी के दरबार में अखंड पाठ से हुआ और पहली चौपाई ही वही ""संपुट ""याद हुआ ...देवि पूजि पद कमल तुम्हारे सुर नर मुनि सब होंहिं सुखारे ....
तब से बरसों हुये नवाह्न परायण जब भी उठा संपुट कोई रखा परंतु "सहसंपुट यही रहा ,,
पहली रोटी वहीं मेले से खरीदे नन्हे चौका चूल्हा गृहस्थी के उर्साबिल्ना पर ही से सीखी । कौंसाबाई थी एक ढीमर थीं वहीं हमारा भोजन पकातीं थीं एक डोंगर सिंह थे डिरौली पार के एक सेंगुवा के गंधर्व सिंह थे सब की बहुत देखभाल रहती । हुकुमसिंह यादव उस समय परिवार के आल इन वन प्रबंधक रहे । कोंसा बाई डरतीं कि कहीं बापू ने देख लिया रोटी बेलते तो डांट पड़ेगी परंंतु हम जिद करके सीखते । गुड्डे गुड़ियों के घर में एक पिल्ला पाल लिया "मोती" कुछ सहेलियां थीं तो पूजा का लोटा उनकी देखा देखी मांजते रगड़कर रेत से फिर तुलसी कक्का डांटते प्यार से ये आपका काम नहीं हमिन करन देओ ।
जिंदपीर के जंगलों भरे क्षेत्र में तब स्त्रियाँ ""बिलना खाने ""जातीं थीं । और वहाँ खंडहरों में बने मंदिर मजार पर हम लोग डरते कि कहीं यहा भूत आयेगा तो ,
,
दूर लोकेन्द्रपुर के किसी गांव में बहुत ऊँची सी पहाड़ी पर एक मंदिर है देवीमाँ का धुँधली सी याद है कि वहां डिरौली से होकर जीप से हमलोग शिकार पर गये और वहीं ,से बाघ के बच्चे किसी शिकारी से छुड़ाये गये थे एक हिरण शावक भी जो बहुत दिनों तक हमारे साथ ही खेलता कूदता रहा फिर एक दिन राहत कार्य मे वनवासियों को जो अनाज बाँटा जाता था उसके भंडार में हम सब जा छिपे ,वह शावक अनाज खाने लगा ।नादान बालक हम समझ ही नहीं पाये कि यह खतरा है सो खाने दिया ,वह बहुत ही अधिक अनाज खा गया हम खुश कि अब जल्दी बड़ा होगा ,किंतु उसका पेट फूलता गया और जब तक सही इलाज हो पाता शावक मर गया । हम सब कई दिन रोते रहे छिप कर । लाल सफेद सुनहरा वह हिरण शावक आज तक ूाँहों के स्पर्श से मन की वीडियों चलचित्र में जैसे बड़ी बड़ी बड़ी काली आँखों से देखकर हमारी तरफ दौड़ लगा देता है ।
बाघ के बच्चे बिल्ली बराबर बड़े प्यारे थे ,एक चीतल भी बहुत दिन पला रहा ,फिर एक परिजन ले गये ,नेवला गिलहरी सफेद चूहे और भी बहुत सारे जीव आते जाते रहे ।
सचमुच सबसे प्यारी जगह ,,,,तब कन्या जेवाईँ जातीं तो एक नया पैसा मिलता था चौकोर ,उससे पाँच टाॅफी आती थी एक बड़ी कुल्फी आ जाती थी आज तो वैसी कुल्फी बननी ही बंद हो गयीं बस कभी कभी घर पर बनाने का प्रयास करते हैं परंतु फ्रिज से वह पेटी वाली कुल्हड़ की कुल्फी नहीं बन पाती
सुधा राजे की तीन कवितायेँ।
भूमि पुत्र हम कृषक दीन क्यों ?(लेख)-सुधा राजे
Wednesday 5 July 2017
सुधियों के बिखरे पन्ने - एक धी सुधा ,संस्मरण।
.........
सेंवढ़ा
सनकुआ मार्ग के मोड़ पर फाॅरेस्ट बंगले के पास ही ऐन सड़क पर एक पंडित जी
खूब ऊँचे चबूतरे पर तुलसी चौरे के सामने बैठे देवी जाप और भजन करते रहते
थे । हम बच्चे जब सनकुआ प्रपात या गुफा वाले शंकर जी या राजराजेश्वी पूजा
के लिये टोली में निकलते या वहीं तब किंडर गार्टन था वहाँ जाते तो
पंडितजी जोर से मंत्र बुलवाते राह छेंककर ,हम कुछ तेज थे सीखने में सो
जैसा बोलते कह देते ,बाद में याद रह जाता ""नमस्तस्मै""सो उन पंडित का
कोड नेम हम बच्चों में हो गया नमस्तस्मै पंडितजी । वहीं पास में बी एस एफ
रेजीडेन्स थी और कंपनी कमान्डेन्ट भीम सिंह थापा जी हम लोगों को रोक कर
मारवाड़ी गीत सुनाते "
,,,,पैदल चलना मन्ने ना सुहाता ल्याओ मोट्टर कार अजी पम् पम् पम्
"छूट गयी नौकरी मिले न पगार कां से ल्याऊँ मोट्टर कार ""अजी पम् पम् पम् ......
और उनका नाम रख लिया '""पम् पम् काका ""
हमें तब पीछा छुड़ाकर सिन्ध में नहाने और वहां प्रपात की अर्राती धारा को
देखने की शीघ्रता रहती सो ""दो पंक्तियाँ जल्दी गा देते फ्राॅक घुमाकर
नाचते हुये हमें सिखाने के चक्कर में भीमसिंह काका ,अपनी खाकी हाफ पैन्ट
तो कभी खाकी फुल पैन्ट पकड़ कर लड़की वाली मुद्रा बनाते ,हम सब हँस देते
और काका हम सबको कुछ चिज्जी देकर जाने देते ।
उधर नमस्तस्मै पंडित जी का यही हाल था कि कन्याओं के चरण छूकर प्रसाद
देते परंंतु पहले "
"जय श्रीकृष्ण राधे श्याम ""कहना पड़ता कई बार तब प्रसाद मिलता ।मिश्री
तुलसीदल पेड़ा हमारी प्रिय मिठाई रही । हम कह तो देते परंतु हथेली नन्हीं
सी ऊपर कर देते और नीचे का प्रसाद छिपाकर दुबारा प्रसाद ठग लेते ।
फिर दूर जाकर मुँह चिढ़ाते हुये कूदकर भागते हुये चिल्लाते """सीताराम
सीताराम राम राम राम """
पंडित जी दंड कमंडल धोती सँभालते कुछ दूर पीछा करते _ठैर जाओ ठैर जाओ
धौंचाली कऊँ के हमिन सिर्री समज लओ अबई बतईत कैसी राम राम ""
हम सब बहुत प्रसन्न होते । हमारे साथ हमारी सहेलियां भी रहतीं लीडर तो हम
ही रहते बालटोली के ।जब किंडर गार्टन या सनकुआ से वापस आते तो फिर पम्
पम् काका
राह छेंक लेते , हम कभी मूड होता तो पहले ही सुना देते "
"दादा मारवाड़ में दीनी रे दीनी रे औछौ पहिरौ घाघरो मैं लाजन मर गयी रे ""
,,,बाजरा जी का जंजाल मोरा बाजरा ,,
पम् पम् काका नेपाल के थे और वहाँ मेरी ही आयु की उनकी बेटी थी जो खूब
नाचती गाती कूदती रही होगी जैसा वे कहते थे । उनकी आँखें भर भर जातीं कभी
कभी और कभी कभी खूब लड़की की तरह बंदूक रिवाॅल्वर सबकुछ बांधे भी नाचने
लगते हैट मुँह पर रखकर ।
टैक्स था कविता सुनाना और पुरस्कार थे मैस के फल
,
उधर तनिक ही पग बढ़ते नमस्तस्मै पंडितजी पंथ छेंक कर आ जाते दंड खटकाते
अब कओ कितखौं निकर हौ वानर यूथं ??हम सब हँकर हाथ जोड़कर दूर से ही नारा
लगाते ""जयश्रीकृष्ण राधे श्याम ""
हाँ अब कई नौनी ,
बौ कभऊँ जिनकईयो जौन पैलऊँ कै रये ते ,
हम सब हाँ में सीधे बनकर मुंडी हिलाते ।
आगे दौड़कर निकलते और फिर नारे लगाते
""सीताराम सीताराम जय श्रीराम राम राम राम ""
पंडित जी फिर पीछे आने का उपक्रम करते दौड़ते फिर ठिठक सुनाते
~""कढ़ियो काल दुआरे सैं हम बतैहें कैसौ सीताराम "
आज यादों में यूँ ही आता है कि न तो पंडितजी कभी ठगे गये न बुद्धू बने
बल्कि हम सब को दो बार चार बार हथेली छिपाते देखकर भी अनजान बनते थे और न
ही वे हमारी सीताराम या नमस्तस्यै को नमस्तस्मै कहने से ही चिढ़ते थे वह
प्रसाद रिश्वत नहीं बालकों को प्रोत्साहन था ।
न ही पम् पम् काका हमें गाने नाचने के बदले फल देते रहे बस उनकी नेपाल
में रहती बेटी की यादें उनको हमारी सूरत में कुछ पल का पितृत्व सुख देतीं
रहीं ।
नमन आप दोनों को ।पता नहीं कौन कहां है ।
बरसों बाद रिटायरमेन्ट के कहीं दूर से पम् पम् काका आये तो रहे एक बार
परंतु तब हम हाईकोर्ट के वकील बन चुके थे । बस दो चार बातें की चकित से
देश लौट गये । हम कह ही नहीं पाये कि पम् पम् काका आप हमारे बचपन की सबसे
सुन्दर स्मृतियों में से एक हो । शब्द कहां साथ देते हैं हर जगह ।तब हम
धाय माँ कौँसाबाई की देखरेख में रहते थे क्योंकि माँ साथ नहीं रहतीं थीं
वे बहुत व्यस्त सामाजिक जीवन में दूर नगर में रहतीं थी ।
आज ,
यह क्यों नहीं समझते लोग कि बच्चों में यह प्रवृत्ति होती है कि आप
चिढ़ोगे तो वे और और चिढ़ायेंगे । बस हिंसक हो उठते हैं ।©®सुधा राजे