Saturday 22 July 2017

सुधा राजे की कविता - मेरे देश!!!

मेरे देश !!
अक्सर ही तो सब  कहते हैं 
बहुत भावुक हूँ मैं 
मेरा मन भर आता है हर बार 
जब भी देखतीं हैं आँखे अमर जवान ज्योति की लौ 
टकटकी लगाकर बस यूँ ही 
किसी सैनिक की बेटी की तरह 
और उसमें से हँसने लगता है 
लपटों से दहकता मुखड़ा किसी पिता का 
मन कहने लगता है जयहिंद और हिचकियों से रुँध जाती है मेरी गूँजती आवाज वन्देमातरम् !!!!
मेरे देश 
सब कहते हैं बहुत कल्पनाशील हूँ मैं 
मेरा मन यूँ ही सोच लेता है 
वे सब दर्द बहिनों के 
जब जाते हैं वर्दियों में आँखें भरकर हँसते हुये वीर
 जल्दी आने को कहकर
 फिर तकती रहती है लड़की 
चुपचाप रोज दरवाजा और डरती रहती है 
कहीं कुछ अनहोनी न हो जाये 
आ ही जाती है किसी न किसी के घर
 एक हृदय चीरती खबर 
और मैं भरभरा कर रो पड़ती हूं 
हर बार हर खबर हर सैनिक की अमर यात्रा पर 
अपने हाथों में कल्पना की रोली अक्षत रेशमी डोरियां थामे सिसकती आँखें मेरी  हो हो जाती हैं केसरिया 
तिरंगे में लिपटे हर अमरबलिदानी के साथ मेरी पुकार कहने को बिलखती है भारत माता की जय ,
मेरे देश !!
सब कहते हैं बहुत जिद्दी हूँ मैं 
मुझे हर बार ही तो धुन सवार होती है 
देश की माटी छानने की 
जिसमें से हर गद्दार नमकहराम देशद्रोही
 बीज खाद पौधे फल कलम सब 
समूल सवृन्त सशाख पत्र नष्ट करने की 
और मैं जब कुछ नहीं कर पाती 
तो लिखने लगती हूँ कुश की जड़ों पर मट्ठे से अक्षर
 और डालती रहतीं हूँ कंटकों की जड़ों पर 
मुझे लगता है अभी कोई वीर यहां से निकलेगा
 और यह समूल कंटक कुचला ही जायेगा 
रोज ही यमद्वितीया के कांटेकूचने की प्रथा निभाती ही रहती है मेरी कलम 
और मैं इतने प्रहार से लिखने लगती हूँ कि
 चीखने लगते अक्षर जयहिंद जयभारत वन्देमातरम् !!! 
मेरे देश सब कहते हैं बहुत आस्तिक हूँ मैं ,
मेरे लिये प्रेम की पराकाष्ठा का रूप हो जाता है मेरा अमूर्त राष्ट्र और परमात्मा की प्रतिमा हो जाता है हिमालय सिन्धु अरावली विन्ध्य गंगा यमुना कावेरी कृष्णा व्,यास चिनाब रावी झेलम सतलज चंबल पहूज गोदावरी तुंगभद्रा ब्रह्मपुत्र और थार से लेकर अरुणाचल तक सारा विराट् ब्रह्म विग्रह मेरे प्रेम के परमध्यान में मुस्कराने लगता है ,
गाने लगता है ,हर स्वर पर तिरंगा ऊँचा और ऊँचा और ऊँचा लहराने लगता है ,जनगणमन जय हे जय हे जय हे 
मेरे देश !!
सब कह देते हैं लिखने से क्या होगा 
बावली हूँ मैं !!
और मैं उठा लेती हूँ उसमें से एक शब्द 
"बावली"उस के लिये पत्थर की तरह
जिसमें  मेरा राष्ट्र साकार हो जाता है 
हवा में पानी में आग में आकाश में मिट्टी में और मुझमें
 मैं नन्हे बच्चों को फूलों के पौधों की तरह
 राष्ट्र के नक्शे पर रखने लगती हूँ 
यह आकाश का प्रहरी यह सागर 
का यह शिखर का यह हवा का 
यह मिट्टी का और यह मेरी स्वतंत्रता का 
ये अभिनय जीवंत होने लगता है 
और हर सैनिक हर देश रत्न युवा 
मुझे मेरा सुपुत्र लगने लगता है 
मेरी ममता भरभरा कर हृदय में हूकने लगती है 
हाथ में रोटी माखन फल दूब तिलक लिये मैं कल्पित तिलक कर करके हर पुत्र को कहने लगती हूँ 
देश नहीं रुकने देना देश नहीं झुकने देना 
उन सब चौड़े माथों 
और ऊँचे कंधों पर मेरे अंतरमन के आशीष बरसने लगते हैं और हर दिन हर शाम हर पुत्र को विजयी देखने के लिये दीप धरने लगते हैं ,
दूर कहीं से आवाजें आती हैं वन्दे मातरम मां तुझे सलाम ,मन हुलस कर कहने लगता है
 मेरे लाल तू है देश की शान 
,जयहिंद के तीखे स्वरों के बीच 
हर बार हर माँ की कराह और आह  सुनकर भिगो लेती हूँ अपनी भी आँखें चुपचाप ,
चाहें तो पागल भावुक कल्पनाशील जिद्दी बावला भी कह सकते हैं मुझे आप !!
©®सुधा राजे

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