Thursday 30 June 2016

सुधा राजे का लेख "स्त्री ":- ""विशेष सम्मान स्त्री का हक।""

जी बिलकुल '"बराबरी नहीं हम लोगों को अधिक हक और विशेषाधिकार चाहिये
"""""जायज भी है क्योंकि दो बच्चे भी जनने वाली माँ नौ माह गर्भ धारण करे
दो दो बार तो "भी देह का खोखला हो जाना स्वाभाविक है ।तो """गर्भिणी को
सीट चाहिये, ""उठिये ।""""तीन साल तक बालक गोद में रहता है सात साल तक
कोंछे में सो धात्री को सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री हर महीने इसी माँ बनने के प्रावधान में रजस्वला होने के दर्द
सहती है सो """"सब लङकियों को भी पुरुष से पहले सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री को छूना घूरना उस पर कमेंट करना ""पुरुष ही पहले करते हैं सो
हर बच्ची को सुरक्षा चाहिये """"""और बिलाशक """औरतें कुदरती कमजोरियों
से जूझकर भी मरदों से अधिक मेहनत करती हैं सो ""सम्मान चाहिये """""पुरुष
पिता बनता है गोद में बच्चा लेने पर """स्त्री माँ बनती है बीज गर्भ में
आने से चिता यी कब्र पर स्वयं मर जाने तक """"बराबरी नहीं विशेष सम्मान
हक सुरक्षा हमारी ""आधी दुनियाँ को """"क्योंकि हर बार अकसर स्त्री ही
पितृकुल छोङकर घर बसाती है """पीङा सहकर पुरुष जनती है । बराबरी पर तो हम
घट जायेंगे ।
आखिर हर पुरुष किसी न किसी स्त्री की संतान है ""माँ बहिन बेटी पत्नी हर
रुप में स्त्री को हक अधिक चाहिये चाहे किसी जाति मजहब की हो । वही सभ्य
है जो स्त्री को विशेष हक सम्मान दे '"घर में भी सफर में भी !
"""""बराबरी न न न न """"""केवल गृहिणी होकर भी जननी होने भर से
"""कन्या माता भावी होने भर से ही स्त्री का ""मान पुरुष से अधिक हो ही
जाता है """"फिर यदि वह खेलकूद ""कला ""संगीत अभिनय "विज्ञान "मल्लयुद्ध
""और """ये जनाना शरीर लेकर हर जगह जाकर काम करके भी दिखा रही है """"तब
तो वह सात पुरुष के बराबर एक ही स्त्री हो गयी """
हाँ !!सही है ,,अपनी रक्षा स्वयं करनी पङेगी ', सो वह इसलिये कि समाज
में 'भङवे दल्ले नल्ले छक्के बढ़ गये और दूसरी तरफ नरपिशाच '।
परंतु ये रक्षा जब यौन हमले से करनी पङे तो """"""समझो कि समाज राजनीति
शासन संस्कृति सब पर लानत्त है "
।।
,,,, स्त्री को अपने होने का अहसास ही कब होता है ??अकसर ब्रैनवाश्ड और
टाईप्ड स्त्री को ही ""प्रतिनिधि मान लिया जाकर बात केवल """कपङों और यौन
आक्रमण तक ही रह जाती है """"""सभ्य समाज में व्यक्ति रूप में स्त्री की
स्थापना अभी शेष है
!!!
हाँ; सही कहा कि अपनी रक्षा स्वयं करनी पङेगी ',
सो वह इसलिये कि समाज में 'भङवे दल्ले नल्ले छक्के बढ़ गये और दूसरी तरफ नरपिशाच '
वरना जब गर्भ में नर हो या नारी तो स्त्री को तनिक सी ठोकर तक नहीं लगने
दी जाती थी कि 'जीवन न केवल स्त्री का वरन आशा पूरे कुटुंब की भी स्त्री
की कोख से ही प्रस्फुटित होती है ।
प्रसव पीङा, रजस्वला होना, गर्भधारण, पितृकुल छोङना 'रसोई सँभालना ",अब
भी बहुल रूप में लगभग शतप्रतिशत स्त्री के ही हिस्से में हैं ।
अपनी रक्षा स्वयं तो करनी ही पङेगी, जब पङौस के लङके ही बुरी नीयत रखने
लगेगे बहिन होती थी पङौसी की बेटी ।
अपनी रक्षा आप करनी ही पङेगी जब कि पिता की आयु के बूढ़े भी युवती को
बेटी नहीं "मादा "समझकर देखने लगे हैं ।
अपनी रक्षा आप ही करनी पङेगी जब ब्रेनवाश्ड शोषित औरतें 'अपने पुरुष की
खुशी के लिये 'सखी ननद बहिन अनजानी स्त्री को कपट से पुरुष का शिकार
बनाने लगीं हैं ।
किंतु कङवा सच है कि "लाख अपनी रक्षा आप कर ले ''''''''समाज से स्त्री का
शोषण तब तक नहीं खत्म होगा जब तक """दद्दा राजकुमार मलिक जी जैसी सोच
वाले 'पापा और पति नहीं होंगे ।जब तक पुरुष ही पुरुष की टाँगे नहीं तोङ
देगें किसी बहिन बेटी बहू के अपमान पर जब तक हर पुरुष अपने "पुरुषत्व की
तौहीन समझकर विरोध में खङा नहीं हो जायेगा "कृष्ण की तरह ''
ये औरतें औरतों की दुश्मन वाला ज़ुमला भी मर्दवादी सोच के पुरुष का
ब्रेनवॉशिंग षडयंत्र है । ताकि वह मालिक बना रहे और हर औरत को यह डर रहे
कि 'अगर बहू बेटी छोटी बहिन की भूल हुयी तो 'उसे भी उन यातनाओं से गुजरना
पङेगा या अपमान उसके ज्येष्ठत्व का होगा, चाहे सास हो माँ हो या शिक्षिका
। वह यातना के दौर से गुजर कर 'टाईप्ड हो चुकी होती हैं और 'ढल चुकी होती
है, इस समझौते में कि ""अब तू भी सरेण्डर कर तुझे 'हॉर्स ब्रैकिंग जैसा
मैं तोङूँगी "ये हाथी पर चढ़कर हाथी का शिकार करने जैसा मनोवैज्ञानkजो
स्त्री कुतल दी जाती है खुद भी ड्रैकुला बन जाती है जैसा सच है ।
इसलिये जागो और समझो "बराबरी नहीं ""विशेषाधिकार चाहिये । सदियों के सङन
गलन के बाद चंद स्त्रियाँ अगर ओवर रियेक्ट कर भी रहीं हैं तो भी "सारा
एशिया त्राहि त्राहि कर रहा है स्त्री पर जुल्मतों का दौर न जाने कब
थमेगा । जो भी बोलो 'स्त्री के पक्ष में ही बोलो वह 'अगर टाईप्ड हो गयी
तो "ईसा की तरह माफ करो कि ""वे नहीं जानतीं वे क्या कर रहीं हैं "उनको
ढाल दिया गया है ऐसा ही ।
जब सास कहे घूँघट लो तब उसको 'मोल्डेड ही मानो 'यहाँ जंग नहीं
'मनोविज्ञान है ।जब औरतें भारतीय नारी की मूर्ति बनने में इतरायें तो
"व्यंग्य नहीं, उनको टाईप्ड समझो, वे ढाली जा चुकी हैं बरसों के कुचक्र
में, । सभ्य समाज में दो शरीरों का प्रकार है स्त्री पुरुष और तीसरा भी
उतना ही कुदरती नपुंसक या उभयलिंगी । यहाँ शरीर एक यंत्र ही तो है, जन्म
और जीवन यापन की सब जरूरतों के साथ अन्योन्याश्रित!!!!!! गुंजाईश कहाँ है
पृथ'??? पशुनर पिशाच नर न महसूस करें परंतु हर पौरुषवान बङा या छोटा लङका
हो या युवक बुजुर्ग या प्रौढ़, 'सह नहीं सकता स्त्री का दर्द स्त्री के
आँसू स्त्री का अपमान स्त्री की असहाय स्थिति में अनजान भी मदद करने उठ
पङेगा ।
समस्या बढ़ रही है "पहले स्त्री मुक्ति का झंडा लहराने वालीं माने कि
प्राकृतिक कटु सत्य है स्त्री का गर्भाशय, प्रजनन अंग, और देह का डिजायन
ही नहीं मन बुद्धि और भावना तक पुरुष से हर तरह से भिन्न है ।
भारतीय साङी न पहनने पर दुखङा रोते है तो सुदूरपूर्व के लोग बुरके पर
बंदूक ताने खङे हैं ',
यूरोप में स्त्री बिकनी स्कर्ट और मिडी में बतियाती है और पुरुष टाईकोट
में ',तब जाकर अंतर समझ आयेगा "सदियों से दबी घुटी औरतें अचानक हक
माँगेगी तो " जनानी औरतों और व्यक्ति स्त्रियों में ही पहला संघर्ष होगा
''पुरुष तो बिलबिला ही उठता है स्त्री का चाहे घूँघट सरके या रसोई से
बगावत हो "परमानुकूलता दासीपन से मुक्त स्त्री """मर्दवादियों को क्यों
भली लगेगी???
©®सुधा राजे

Email- sudha.raje7@gmail.com

सुधा राजे का लेख "स्त्री ":- ""विशेष सम्मान स्त्री का हक।"" ›

जी बिलकुल '"बराबरी नहीं हम लोगों को अधिक हक और विशेषाधिकार चाहिये
"""""जायज भी है क्योंकि दो बच्चे भी जनने वाली माँ नौ माह गर्भ धारण करे
दो दो बार तो "भी देह का खोखला हो जाना स्वाभाविक है ।तो """गर्भिणी को
सीट चाहिये, ""उठिये ।""""तीन साल तक बालक गोद में रहता है सात साल तक
कोंछे में सो धात्री को सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री हर महीने इसी माँ बनने के प्रावधान में रजस्वला होने के दर्द
सहती है सो """"सब लङकियों को भी पुरुष से पहले सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री को छूना घूरना उस पर कमेंट करना ""पुरुष ही पहले करते हैं सो
हर बच्ची को सुरक्षा चाहिये """"""और बिलाशक """औरतें कुदरती कमजोरियों
से जूझकर भी मरदों से अधिक मेहनत करती हैं सो ""सम्मान चाहिये """""पुरुष
पिता बनता है गोद में बच्चा लेने पर """स्त्री माँ बनती है बीज गर्भ में
आने से चिता यी कब्र पर स्वयं मर जाने तक """"बराबरी नहीं विशेष सम्मान
हक सुरक्षा हमारी ""आधी दुनियाँ को """"क्योंकि हर बार अकसर स्त्री ही
पितृकुल छोङकर घर बसाती है """पीङा सहकर पुरुष जनती है । बराबरी पर तो हम
घट जायेंगे ।
आखिर हर पुरुष किसी न किसी स्त्री की संतान है ""माँ बहिन बेटी पत्नी हर
रुप में स्त्री को हक अधिक चाहिये चाहे किसी जाति मजहब की हो । वही सभ्य
है जो स्त्री को विशेष हक सम्मान दे '"घर में भी सफर में भी !
"""""बराबरी न न न न """"""केवल गृहिणी होकर भी जननी होने भर से
"""कन्या माता भावी होने भर से ही स्त्री का ""मान पुरुष से अधिक हो ही
जाता है """"फिर यदि वह खेलकूद ""कला ""संगीत अभिनय "विज्ञान "मल्लयुद्ध
""और """ये जनाना शरीर लेकर हर जगह जाकर काम करके भी दिखा रही है """"तब
तो वह सात पुरुष के बराबर एक ही स्त्री हो गयी """
हाँ !!सही है ,,अपनी रक्षा स्वयं करनी पङेगी ', सो वह इसलिये कि समाज
में 'भङवे दल्ले नल्ले छक्के बढ़ गये और दूसरी तरफ नरपिशाच '।
परंतु ये रक्षा जब यौन हमले से करनी पङे तो """"""समझो कि समाज राजनीति
शासन संस्कृति सब पर लानत्त है "
।।
,,,, स्त्री को अपने होने का अहसास ही कब होता है ??अकसर ब्रैनवाश्ड और
टाईप्ड स्त्री को ही ""प्रतिनिधि मान लिया जाकर बात केवल """कपङों और यौन
आक्रमण तक ही रह जाती है """"""सभ्य समाज में व्यक्ति रूप में स्त्री की
स्थापना अभी शेष है
!!!

Email- sudha.raje7@gmail.com

सुधा राजे का लेख "स्त्री ":- ""विशेष सम्मान स्त्री का हक।""

जी बिलकुल '"बराबरी नहीं हम लोगों को अधिक हक और विशेषाधिकार चाहिये
"""""जायज भी है क्योंकि दो बच्चे भी जनने वाली माँ नौ माह गर्भ धारण करे
दो दो बार तो "भी देह का खोखला हो जाना स्वाभाविक है ।तो """गर्भिणी को
सीट चाहिये, ""उठिये ।""""तीन साल तक बालक गोद में रहता है सात साल तक
कोंछे में सो धात्री को सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री हर महीने इसी माँ बनने के प्रावधान में रजस्वला होने के दर्द
सहती है सो """"सब लङकियों को भी पुरुष से पहले सीट चाहिये ""उठिये ।
"""स्त्री को छूना घूरना उस पर कमेंट करना ""पुरुष ही पहले करते हैं सो
हर बच्ची को सुरक्षा चाहिये """"""और बिलाशक """औरतें कुदरती कमजोरियों
से जूझकर भी मरदों से अधिक मेहनत करती हैं सो ""सम्मान चाहिये """""पुरुष
पिता बनता है गोद में बच्चा लेने पर """स्त्री माँ बनती है बीज गर्भ में
आने से चिता यी कब्र पर स्वयं मर जाने तक """"बराबरी नहीं विशेष सम्मान
हक सुरक्षा हमारी ""आधी दुनियाँ को """"क्योंकि हर बार अकसर स्त्री ही
पितृकुल छोङकर घर बसाती है """पीङा सहकर पुरुष जनती है । बराबरी पर तो हम
घट जायेंगे ।
आखिर हर पुरुष किसी न किसी स्त्री की संतान है ""माँ बहिन बेटी पत्नी हर
रुप में स्त्री को हक अधिक चाहिये चाहे किसी जाति मजहब की हो । वही सभ्य
है जो स्त्री को विशेष हक सम्मान दे '"घर में भी सफर में भी ©सुधा राजे

Wednesday 29 June 2016

सुधा राजे का लेख :- मीडिया "नायक"---स्त्री और सोच।

मीडिया ',नायक ',स्त्री और सोच '
:::::::::लेख ::••सुधा राजे '
स्त्री विमर्श के नाम पर जब भी लोग एकत्र होतें हैं या तर्क वितर्क होते
हैं तो लोगों को बहुत बार यही कहते लिखते सुना पढ़ा देखा जा सकता है कि
'स्त्री विमर्श ले देकर सेक्स और शादी की समस्याओं से ऊपर उठ नहीं पाता
',या लोग ले देकर स्त्री के जिस्म और ससुराल मायके के इर्द गिर्द चक्कर
लगाते रह जाते हैं । सवाल उठता है तो लगता है बहुत हुआ स्त्री विमर्श चलो
कुछ और बात करते हैं 'परंतु क्या,? चलिये देखते हैं सबसे पहले घर 'फिर
समाज फिर गाँव नगर कसबा महानगर और फिर राज्य देश और अपने महाद्वीप की ही
बात करते हैं, । एशिया महाद्वीप में स्त्री अब तक चाहे वह फाईटर प्लेन
ही क्यों न चलाने लगी हो ',सर्वाधिक चर्चा का विषय है तो केवल "स्त्री
"हो कर भी 'ऐसा कर पाने के कारण । अर्थात यह खबर में आना कि अमुक क्षेत्र
में अमुक स्त्री ने कोई सफलता प्राप्त अपने आप में खबर या चर्चा समाचार
का विष्य है तो सिद्ध यही होता है कि, ऐसा करना कठ्न रहा है और ऐसे अवसर
स्त्रियों के लिये उपलबध नहीं हो पाते । स्त्रियों के पिछङने का कारण तो
प्रागैतिहासिक काव के सांस्कृतिक क्षरण आक्रमणकारियों द्वारा किये गये
अपहरण अपमान अत्याचार धर्मपरिवर्तन तो रहे ही है ',जीववैज्ञानिक कारण
"मातृत्व भी रहा है । माता बनने की ही एक सबसे कठिन प्रक्रिया से गुजरती
स्त्री अंततः घर की कैद में ढलती अनुकूलन करती गयी और अधिक संताने मतलब
अधिक बार गर्भधारण अधिक बच्चे और अधिक देखभाल मतलब अधिकाधिक कमजोरी
जिम्मेदारी और परिवार की मोहमाया ममता और बंधन पराश्रितता । हर मानव किसी
न किसी स्त्री की संतान है यह आज तक की सच्चाई है इसके बाद भी ''माँ बनने
की महत्ता उसे देने के स्थान पर शनैः शनैः सोच बदलती गयी क्योंकि पुरुष
के पास लंबे समय तक स्वस्थ और स्वतंत्र विचरण का समय और अवसर रहा ।
परिवार से किसी को भी सिवा कर्त्तव्य बोध के और किसी कारण से नहीं बाँधा
सहेजा जा सकता । स्त्री और पुरुष अन्योन्याश्रित जीव होकर भी 'माता होने
की स्त्री की महत्ता मानने के स्थान पर उसे विवशता समझने लगे अधिक संताने
अधिक बलवान कुटुंब का प्रतूक बनती गयीं और बहुविवाह जैसी स्थितियाँ बनी,
। प्राचीन स्त्री बलिष्ठ और स्वतंत्र थी । उसको मान सम्मान प्राप्त था कि
वह घर बनाती बसाती संतान देती और प्रेम करती है । परंतु जब आक्रमण कारी
शत्रु आ आ कर स्त्रियों का इन्ही सब कारणों से अपहरण करने और चुराने
अपमान करने लगे तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिये उनको हर समय पहरे में
रखा जाने लगा और यह सुरक्षा चक्र धीरे धीरे परंपरा बनता गया, '। भारतीय
परिवेश में कालांतर में विदेशी बसकर घुल गये और उनकी परंपरायें अनेक
स्तरों पर जा मिलीं और मुगल तथा आंग्ल शासन काल का "काला युग "स्त्रियों
के लिये रच दिया गया । स्वतंत्र भारत में दहेज प्रथा' विधवा विवाह 'बाल
विवाह 'सती प्रथा 'बंन्ध्या होने पर प्रताङना, कन्या जन्मने पर प्रताङना,
पुत्री होकर पिता माता की अकेली संतान होकर भी माँ बाप को साथ में न रख
पाने की विवशता, कन्या की कमाई खाना पाप, जमाई पूजा जैसे रूढ़ि, और
स्त्री को पति तथा पिता की संपत्ति में हिस्सा जैसे कानून बहुत बाद में
बङी कठिनाईयों के बाद बन पाये । संविधान और कानूनों से लिखित अधिकार
प्राप्त होना दूसरी बात है और वास्तव में समाज के नित्य प्रति क्रियाकलाप
और अभ्यास में किसी तरह का अभ्यास या आदत होना और दूसरी बात है ।
यह कहने से हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि स्त्रियों के मामले में
सभ्य नहीं हुआ अभी तक एशिया ',और न ही भारतीय पुरुष । मंदिरों में देवी
पूजा करने वाला नवरात्रियों में कन्यापूजन करने वाला हिंदू समाज हो चाहे
माँ को मरियम कहता ईसाई या माँ के कदमों में ज़न्नत बताता मुसलिम हो, बात
जब स्त्री की आती है तो "स्वामित्व जैसी क्रूर अवधारणा चेतन अचेतन दोनों
ही अभ्यासों में पुरुष ही नहीं स्त्री तक के मन में भर चुकी है । पति
स्वामी नाथ और भरतार जैसे शब्द इन्हीं बातों के अर्थ बताते है । घर के
भीतर स्त्री तरह तरह के दुःख झेलकर लगातार समझौते करके पलती बढ़ती है ।
एक एशियाई लङकी को हर पल पता होता है कि वह "वांछित संतान नहीं है और
उसके तथा भाई के आहार अधिकार और प्यार दुलार में भारी अंतर है । लाख
आधुनिक हो चुका हो ज़माना किंतु अब भी टेलिविजन सिनेमा पत्रिकाओं सब जगह
"स्त्री का शरीर गी नग्न कर करके दिखाया जाता है । अंतर सिर्फ इतना है
पहले लोग धन या धमकी देकर कपङे कम करते थे अब स्त्री स्वयं ही देह को
अपनी सफल व्यवसायिक ढाल बनाकर प्रयोग करती है । कपङे तो रुपहले परदे पर
पुरुष भी कम करते हैं अपने मसल्स और गठन सौष्ठव दिखाने के लिये 'परंतु
अश्लीलता फैलाने का आरोप सदैव स्त्री पर ही लगता है । भारतीय पुरुष और
यूरोपीय स्त्री की नग्नता किसी को अटपटी नहीं लगती । परंतु स्त्री भारतीय
हो और पुरुष यूरोपीय हो तो वस्त्र कम होना 'असभ्यता मानी जाती है । कैमरे
के सामने स्कर्ट और बिकनी पहनने वाली एक भी अभिनेत्री, मॉडल या एंकर में
इतना साहस नहीं कि वह समाज में कहीं भी आम लोगों के बीच उन्ही कपङों में
घूम सकें । यहाँ कारण कट्टरपंथी तो हैं हा, स्त्री को जिस्म, मादा और
भोग्या मात्र समझने वाली सोच भी है । हर समय कोई सेक्स नहीं कर सकता न
किसी की हिम्मत है कि वह हर स्त्री को हासिल कर सके, परंतु इसी सोच के
कारण अकसर पुरुष स्त्रियों को डराता है । भारतीय स्त्रियों के हुनर कमरों
में बंद घरों में ही दम तोङ देते हैं, केवल इस डर से कि वे बाहर घूमेगी
फिरेगी मौके खोजेगी प्रतिभा और हुनर के लिये तो कहीं किसी हवस के शिकारी
शैतान की नजर न पङ जाये ।

नारीवाद?
क्या कोई भी 'स्त्री मुक्ति की मुहिम बिना पर्याप्त संख्या में पुरुषों
के सहयोग के चल सकती है? नहीं कर सकती क्योंकि स्त्री विशेषकर भारतीय
स्त्री का सारा जीवन तो 'आत्मरक्षा में ही बीत जाता है । बचपन में
भेदभावों के बीच अपने लिये खिलौने भोजन पढ़ाई पोषण औऱ ममता वात्सल्य पाने
की लङाई किसी भी लङकी को पहले ही स्तर पर तोङ डालती है । दूसरे स्तर की
लङाई साथ साथ चलती रहती है यौन बुभुक्षित नरदानवों से देह की पवित्रता की
रक्षा 'वह लङाई उसकी अपनी भी होती है और साथ साथ उसके अपनों की भी होती
है ।सैद्धांतिक तौर पर पूरे देश समाज कानून व्यवस्था और धर्म जाति वर्ण
संप्रदाय गाँव नगर तक की लङाई बनी हुयी है एक स्त्री के 'अस्तित्व की
बलात्कार यौनशोषण छेङछाङ और दैहिक आक्रमण से रक्षा!!!!!!!!!!!
माँ बाप भाई बहिन दादा दादी काका काकी ताई ताऊ नाना नानी मामा मामी बुआ
फूफा जीजी जीजा भाई भाभी भतीजे भांजे बेटे """"""सब के सब की जिम्मेदारी
है स्त्री को छेङछाङ बलात्कार यौनशोषण और दैहिक आक्रमण से बचाना । यहाँ
तक कि त्यौहार मनाकर बाकायदा भाई को लाज का पहरेदार ही घोषित कर दिया गया
है ।
पुलिस सेना मंत्रालय और खाप बिरादरी सब के सब स्त्री की लाज के पहरेदार
हैं । किंतु क्या इसके बाद भी आज तक यौनहिंसा बलात्कार और दैहिक आक्रमण
रुक गये?????
बहुत डरावने और भयानक आँकङे हैं भारतीय स्त्रियों के मामले में जहाँ सौ
में से केवल दस प्रतिशत हमलावरों को सजा मिल पाती है जबकि अधिकतर मामले
घर परिवार कुटुंब और पंचायतों द्वारा ही समाप्त कर दिये जाते हैं । दूसरे
स्तर पप ग़वाह सुबूत और जाँच की कमी से आरोपी बरी हो जाते हैं । तीसरे
स्तर पर स्त्री को ही बदचलन और सहमति से संबंध बनानेवाली आवारा कुलटा
करार देकर जलील किया जाता है । चौथे स्तर की तकलीफें न कहने की न सुनने
की अकसर बलात्कारी से ही विवाह करके मामला खत्म कर दिया जाता है । पाँचवे
स्तर की शर्मनाक सच्चाई ये है कि घरेलू नाते रिश्तेदार भाई नाना मामा
मौसा जीजा फूफा चाचा पङौसी तक नाबालिग और अबोध लङकियों को यौनशिकार
बनाते हैं यह स्वीकार कर भी नकार दिये गये अपराध हैं जिनको दबा दिया जाता
है परिवार चलाने की मजबूरी बदनामी औऱ लङकी की माँ की निर्भरता के नर्क
में ।
कैसे करेंगी उन्नति उस देश में लङकियाँ जहाँ कपङों से लादकर दीवारों के
पीछे बंद करने के बाद भी लङकी "मादा समझकर मानव रूपी यौनपिपासु नरदानवों
की हवस का शिकार बन जाती है!!!!
सारी समस्याओं की जङ ही यही डर है हर लङकी और लङकी वाले परिवार के लिये
कि उस लङकी की दैहिक रक्षा कैसे हो
©®सुधा राजे

Thursday 23 June 2016

सुधा राजे की टिप्पणी:- "चलते चलते".

चलते चलते
""""""""
भारत में पुरुष नग्न होकर घूमे तो साधु!!!! और स्त्री यदि मॉडलिंग या
अभिनय के लिये कैमरे पर भी कपङे कम या खुले पहने तो "अश्लीलता?
ये सोच अगर नहीं बदलेगी तो कभी समरस स्वतंत्र समाज नहीं बनेगा ',
हिजाबों में बंद औरतें अगर कभी सुरक्षित हैं की गारंटी हो तो दावे किये
भी जाये, 'जानबूझकर टाँगे दिखाना किसी का व्यवसाय है वैसी ही जैसे पहलवान
या बॉडी बिल्डर अपना कसरती बदन दिखाते हैं । कतई भी नग्नता की हम पैरवी
नहीं कर रहे 'परंतु कोई अभिनय या मॉडलिंग के लिये स्कर्ट या बिकनी पहने
भी तो यह उसका निजी मामला है तब तक जब तक कि वह आपके घर पर न आ जाये बिना
बुलाये ',और जब तक कि उसे देखने के दाम देने और मजदूरी पर वाले मौजूद है

इसका मतलब यह नहीं वह 'सबकी हवस के लिये शिकार है ।
क्या हमारी सोच कपङों के आधार पर चरित्रप्रमाण पत्र बाँटते रहने की ही रहेगी?????
©®सुधा राजे
शुभ रात्रि

सुधा राजे का लघु लेख :- स्त्री और समाज --सोच कैसे बदले????

सलनान है कौन??
एक नाचगाकर लोगों का मनोरंजन करने वाला व्यक्ति ही तो!!!!
जनता को उसका नाचना गाना तरह तरह की शकलें बनाना आवाजें निकालना रंग रोगन
पोत कर 'भाँति भाँति के स्वाँग रचना मनोरंजक लगता है """""""""""
""""""""'

ये तो गलती सरासर मीडिया और जनता की है जो हमारे हीरो फौजी नहीं पुलिस
नहीं कृषक नहीं लेखक कवि चित्रकार संगीतकार नही और तो और वैज्ञानिक भी
नहीं!!!!!!!!!!!!!!पहलवान और खिलाङी नहीं """


,,,,,,
और बात करते हैं ''इन्ही सब लोगों की नकल उतारने वालो """स्वाँगची की!!!!!



एक महिला पत्रकार है एन डी टीवी की 'मिस शर्मा "
जिनको बुरा तो लगा किंतु "ऐसा कुछ खास बुरा भी नहीं कहा बेचारे ने कि
उसको माफी माँगनी पङे ये लंबा सा लेख उनका काफी चर्चा में हैं ।


उनको लगता है जो पिछली कतार में ठहाके मार रहे थे रिपोर्टर पत्रकार
कैमरामेन वे सब अधिक दोषी है,,, """"
क्योंकि उनको हँसना नहीं चाहिये था!!
और ऑफ द रिकॉर्ड रखना था उस कथन को '''


"""""'"""""""
यहीं सबसे बङी बात है कि जो लोग हँस रहे थे उनमें से किसी में भी इतना
नैतिक साहस नहीं था कि उठ कह सके """ऑब्जेक्शन मिस्टर सलमान """""
?????
बल्कि कुछ लोगो के चुप रहने से पैदा अटपटे पन से खुद सलमान को ही लगा कि
उसने कुछ गलत बोल दिया''


सवाल गलत बोलने का है तो ऑफ द रिकॉर्ड बिग बॉस में अश्लीलता गाली गलौज और
फूहङ पन की हद हो गयी ।

""""""""""""""
क्या सारे पत्रकारों में इतना नैतिक साहस था कि ""सभा में बोलते???
या उठकर चले जाते??

"""कैसे जाते?
बढ़िया खाना पीना भेंट उपहार कौन देता है!!
सबसे अधिक तो फिल्म ''फिर नेता लोग 'फिर क्रिकेट और फिर मत कहलवाईये """""""""
कि खबर देने से अधिक दाबने का खर्चा हो जाता है जब खबरची से आदमी
"जर्नलिस्ट हो जाता है ''लेखक से संपादक हो जाता है ''।
""""""
एक घटना की बात नहीं है 'धर्मेन्द्र से लेकर रणबीर तक की फिल्मों में
'अधिकतर स्त्रीपात्र हीरो की "मरदानगी को हाईलाईट करने के लिये रखी जाती
रही हैं ।

बहुत कम फिल्मे ""गाईड और मदर इंडिया या चोरी चोरी की तरह बन पाती रहीं हैं ।

नायक मिथ्या हो गये '
लोगों को मथुरा कांड में शहीद पुलिस अधिकारियों के नाम बहुक कम को याद
हैं 'क्योंकि वहाँ मीडिया को मसाला नहीं है ।

लोगों को मुंबईकांड में शहीद और मृतक लोगों की कोई खबर नहीं '
क्योंकि मीडिया के लिये मसाला नहीं ।
फुल पेज पर सिनेमा नकली हीरो '""'
और कोने में दो इंच के कॉलम में "कुपवाङा के कारगिल के जम्मू के कश्मीर
के शहीद!!!!!
ओलंपियन!!!!
आत्महत्या करते किसान!!!!!
गरमगोश्त बेचता है टीवी और रंगीन कागज वाला मीडिया '''''
जो बार बार एलानिया पढ़वाया दिखाया जाता है वह दिखता है ।

कैराना कांधला दिखता है '''
सूखा बुँदेलखंड थार और उजङता गढ़वाल कुमाऊँ नहीं दिखता '''''''
'''''
इसमें मसाला कहाँ??
सलमान को चलते समय रेप्ड वुमैन जैसा दर्द होता है ""
ये सोचकर कितनी माँसल कल्पना हुयी होगी माननीय "कलम कैमरा कीपैडधारियों
को ''कि हँस हँस कर लोट पोट हो रहे थे!!!!!!!

""""""""
बात ऑफ द रिकॉर्ड भी रख देते तो गजब न था '
क्योंकि लगभग सारे ही पुरुष ऐसी बहुत कम को छोङकर ""ऐसी भाषा बोल पाते है
जिसमें स्त्री तत्व को गाली न दी गयी हो """""
ये चाहे किसी भी व्यवसाय में हो """"
माँ बहिन बेटी को गाली तो जरूर देते है '''
कई बार तो अपने ही मुख से अपनी ही माँ बहिन बेटी को गाली देते और ठहाके लगाते हैं ।


भारतीयों की सोच ही एक ही ट्रैक पर अटकी है, '
स्त्री सेक्स पैसा सिनेमा शराब और कट्टरपंथी जात मजहब '''

"""""""
सबसे खराब सोच "स्त्री पर उजागर होती है ।
एक स्त्री एक्टिविस्ट पर बमला करने का बढ़िया उदाहरण है ""शनिमंदिर में
प्रवेश को लेकर लङने वाली महिला "
कभी शकल देखने तक से उबल जाने वाले ""मौलवी और पुजारी दोनों ही टीवी पर
एक सुर में सुर मिलाकर """इस मुद्दे पर ति मंदिर मजार में औरत न जाये
""चीखकर भाईचारा जताकर लताङ रहे थे ",,


तो पुरुष बहुल समाज में जब स्त्री पर फिकरा कसा जाता है को "वह मेल टॉक "
न सुनने लायक होता है न लिखने और कहने लायक ""

चेन्नई एक्सप्रेस में शारुख कहता है ""ये मोबाईल बना इसलिये था कि हम माँ
बैन से बात कर सके इसी ने हमारी माँ भैन कर रखी है """

आमिर "थ्री इडियट में चमत्कार की जगह "बलात्कार को अनेकबार
कहलवाकर "चतुर रामलिंगम से ""
सबको ठहाके लगवाता है!!!!!!!!!
!!!!!
बेनाम बादशैह में अनिल को गुंडे से आदमी बनाने का ट्रीटमेंट ""एक लङकी
शादी करके सुहाग बनाकर सुधार देती है जिसका उसने केवल पैसा लेकर रेप
किया!!!!
लङकियाँ जायें और बलात्कारी से शादी कर लें सारा पाप पुण्य बन जाये!!!!


सोच
कौन बदलेगा?????????
कानून बना लोगे
लेकिन एकांत में घूरती आँखें लगते ठहाके उङते अश्लील मजाक कैसे रोकोगे????
ये मीडिया भी 'अभी तक तो मर्दवादी मीडिया ही है '''
आधी दुनियाँ स्त्रियों की है ',
परंतु टीवी पर सिनेमा में """गजनी छाप भय दिखाया जाता है """
अगर बहुत हिम्मत की तो?,, "

??
??
,?और
लोगों को अच्छा भी लगता है
औरतें आयें टाँगे हिलायें कमर मटकायें छाती दिखायें तो सिनेमा में रहे और
टीवी पर ""
औरतें आयें दहेज लायें चुपचाप रसोई बिस्तर बच्चे सँभाले और मन बहलायें
कमाकर भी लायें तो रहें घर पर """""
"""''
वरना,,,
,,,
हर कदम पर ""बोलने को सलमान, 'हँसने को मीडिया और उपेक्षा करने को कानून
पुलिस वकील हैं ।
घृणा और प्रतिशोध के लिये दूसरे मजहब के लोग है, '
हिंसा के लिये पति पिता भाई और हवस का निवाला बनाने के शिकार में घूमते
'मर्दवादी वहशी हैं """"

""""'
सोच कौन बदलेगा???
????
गंगा में नहाते समय भी औरतों की वीडियो बनाते लोगों की?
शादी में चोरी से किसी भी लङकी की फोटो खींच लेते बरातियों की,,
सोशल मीडिया पर भी चोरी से फोटो कॉपी क्रॉप दूषित करते लोगों की???

???
जीना इसी सबके बीच में है तो जो जो जहाँ जहाँ है
आधी आबादी हैं स्त्रियाँ उनको हर स्तर पर रोकना लताङना दंडित करना ही होगा ",,

बिगङैल औलादों के बाप भी माफी माँगे और माफी माँगने में लाज क्यों हो गलत
बोलने कहने करने पर????
सलमान को देश की हर रेप्ड विक्टिम से माफी माँगनी ही चाहिये जिनमें मर
चुकी अमर दामिनी भी है और जीते जी मर मर कर जी रही नाबालिग बूढ़ी युवा
लाशें भी """"
©®सुधा राजे

Friday 17 June 2016

सुधा राजे की टिप्पणी:- जाति मजहब के चौसर मॆं हारता लोकतंत्र ।

सारी समस्या ""अपराध और अपराधी को बढ़ने देने की है,,,,
,
,
,
कहकर सब बात का पटाक्षेप नहीं किया जा सकता

अपराध और अपराधी क्यों और कहाँ कहाँ बढे???
जब मुद्दा उठा है तो डिसेक्शन इस बात का भी जङ तक तल तक हो ही जाना चाहिये ।
बरसों पहले हमारे अनेक मित्र बंधु टिहरी गढ़वाल रहते थे ',
उनका दावा था कि बस से उतरने के बाद रुपये और कीमती सामानों से भरे बैग
वे लोग बस अड्डे या बस या यात्री विश्राम गृह कहीं भी किसी भी पहाङी के
हवाले छोङकर "ऊपर चले जाते पहाङ पर कॉटेज या स्कूल तक ',
संदेह तक न था कि सामान का कुछ हश्र बुरा हो सकता है ।
हम जैसे बहुत लोगों को अपना बचपन याद होगा जब अकसर लोग मेहमान बढ़ने पर
बाहर बरामदों चबूतरों दालानों में ही अतिथियों के बिस्तर लगवा देते
थे!!!!!!
गौवंश तो चारण के लिये रेवङ के रेवङ मात्र दो किशोर ग्वाले ही ले जाते थे!!!!!
बच्चे दिनभर बाहर मैदान में पङौसियों के घर बिना लिंगभेद के खेलते रहते थे!!!!!
महिलाएँ बहिन बेटियाँ भोर से देर रात तक मंदिर पनघट तालाब नदी 'दिशामैदान
शौच 'आदि के लिये घरों से दूर दूर तक जातीं थीं!!!!

क्यों अब न गाय भैंस द्वार पर बाँध कर सो सकते हैं न बाबा दादा तक चबूतरे
दालान में खाट डालकर सो पाते हैं? न महिलायें सरकारी नल तक पर देर सवेर
जल भर पातीं हैं,
न लोग "मैदान "के आदमी औरत पर भरोसा करते हैं?
न पङौस की गाँव की मुहल्ले की लङकी बहिन बेटी बुआ भतीजी लगती है सबकी
बिना जात बिरादरी मजहब के??
क्यों,, लोग घर पर ताला लगाकर भी तीर्थ या शादी रिश्तेदारी में नहीं जा पाते??
क्यों? लोग ळटो बस रेल में बिना सूटकेस जंजीर से बाँधे टॉयलेट तक नहीं जा पाते?
"""""""
आबादी बढ़ी है संसाधन कम हुए हैं ',
राजनीति ने आरक्षण रूपी खाई खोदकर रख दी है सबके बीच ',
अपराध और अपराधी को जाति और मज़हब देखकर पहचाना जाता है ।
जनसंख्या नीति मजहब जाति देखकर तय की जा रही है ।
जो लोग अपराध की गिरफ्त में फटाफट आ रहे हैं "उनकी पहचान पर सवाल क्यों
नहीं उठाये जाते ""
अपराधियों को ढँककर दिखाते हैं और पीङित को जमकर खुलेआम गवाह की पहचान
नहीं छिपाते ।
मीडिया अब
एक दो तीन चार पार्टी का मीडिया है ।
दलित परस्त देश परस्त मजहबपरस्त अलग अलग लोगों ने मिलकर शिक्षा और भिक्षा
सबमें खाई डाल दी है ',
अब लोग भिखारी का भी मजहब देखकर भीख देते हैं ।
अपराधी "चुनाव चक्रव्यूह के भंजक वोटदिलावनहार ""
हो गये
"""'''
फलानेभाई ठिकानेभाई
सब
दरबार हो गये क्यों??
पुलिस वाले की तो इज्जज उतार के रख दी गयी!!!!!!
एक प्रायमरी के टीचर से कम वेतन मिलता है कांस्टेबल को जो दिन भर एक डंडा
लेकर लाखो आते जाते 'अंटी में तमंचा खोंसे "कार बाईक वालों को ""काबू
""में रखने को अधिकृत है ।

पहले अपराध ""घृणा की दृष्टि से देखा जाता था ""
लङकियाँ छेङने वाला पापी कहाता था
आज 'महिमामंडित है!!!!!
ये माईंडयैट रातों रात नहीं बदले
बदलवाये गये हैं "नियोजित तकरीरें कर करके ""
याद कीजिये पकङे गये हर कट्टरपंथी के बयान ''
लोग यूपी बिहार में सिवा जात मजहब खेलने के और किसी बात पर वोट नहीं माँगते ।
विकास के लिए ""पहले जात मजहब ""
नौकरी के लिए पहले जात मजहब ""
इलाज के लिए पहले जात मजहब,,
आपदा पर संकट पर मदद के लिए पहले जात मजहब!!!!!
स्कॉलरशिप और प्रवेश परीक्षा पास करने के लिए "पहले जात मजहब!!!!
अरे
इन
दुष्ट वोटडकैत नेताओं ने ""लोकतंत्र को """ठगतंत्र में बदलकर रख दिया है ।
यूपी बिहार सिर्फ समस्या नहीं है पश्चिम बंगाल और जम्मूकश्मीर भी धधकचुको हैं
'''''''''
रिसर्च कीजिये
सबसे घिनौने अपराध आजादी के दस साल पहले से अब तक भारत में """"""किस
जाति किस मजहब और किन किन जिलों के लोगों ने किये हैं ""उठाईये AIR, और
सब के सब थानों अदालतों के ""बाईज्जत बरी और सजापाये लोगों की
सूची,,,,,,,
कहाँ कहाँ
अपराध कम है या नहीं है तौलिये इस बात से
कि स्त्रियाँ कितनी समान हक रखती है??
बच्चे कितने स्वतंत्र है गली कूचे में खेलवे को किन किन जाति मजहब के??
जॉब और पढ़ाई के अलावा स्वावलंबी आर्थिक और निर्णायक भूमिका में कितनी है
महिलाएँ कहाँ कहाँ किस जाति किस मजहब से???
किन जिलों में """बलात्कार दंगे बच्चों के साथ कुकर्म गौवध तस्करी ड्रग्स
जाली मुद्रा जुआ सट्टा और मानव बेच खरीद """"
कम है और
कहाँ कहाँ
ये घिनौने अपराध अधिक है लङकों से कुकर्म लङकियों के अपहरण बलात्कार
छेङछाङ महिला जॉब में कमी महिला साक्षरता में कमी लिंगानुपात में कमी और
नशा ड्रग्स शराब राजनीतिक दंगे,,,,,,,,, वोटिंग के समय झगङे ""
कहाँ कहाँ अधिक है
,,,,,
आपको जवाब मिल जायेगा ।
जब मिल जाये उत्तर तो ""सार्वजविक जरूर कीजियेगा "'''विश्वव्याप्त समस्या
का समाधान भी मिल जायेगा """"अपराध कहाँ कहाँ और क्यों बढ़े???
कहाँ कहाँ स्त्रियों की स्वतंत्रता छिनती जा रही है या उनपर यौन हमले या
छेङछाङ लिंगभेद बढ़ रहा है???
""""'''"'''''
उपाय किया है????
हमारा ठोस सुझाव है """सारे आरक्षण खत्म कर दो ""एक ही रहे गरीब महागरीब,
मध्यमनिम्न वर्ग "मध्यम उच्चवर्ग ""धनिकसामान्य वर्ग महाधनिक वर्ग """
सरकारी मदद के यही पैमाने """धर्मनिर्पेक्ष गुटनिर्पेक्ष ""
लोकतंत्र की निशानी है ।
मजहब जात परस्ती नेता, """""वोट """""के लिए करेगा और
वोटर """क्यों नहीं अपने मजहब जात पर गोलबंद होगा???????
दूसरा उपाय है ।
जिसके सिर्फ दो बच्चे हों वही सरकारी सेवा कर सके वही ''चुनाव लङ सके
वही, सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों में जॉब पा सके वही सरकारी सबसिडी
पा सके """"
""""""
किसी भी प्रवेश परीक्षा में सफलता का आधार मैरिट समान अंकों की कट ऑफ
लिस्ट सबके लिये हो ताकि मेधावी """ही देश की स्किल्ड कमांडिंग बॉडी बने
"""
""""""
किसी भी निकाय के चुनाव के लिए नयूनतम शैक्षणिक योग्यता इंटरमीडिएट उतीर्ण हो """""
""""
जन्म मृत्यु विवाह का पंजीकरण अनिवार्य बनाया जाये ।
सब संस्थानों में चालीस प्रतिशत स्थान स्त्रियों और दस प्रतिशत तीसरे
लिंग वालों के लिए पहले रखे जायें ''''जब वे न मिले तब दूसरों को """आय
वर्ग केहिसाब से जगह मिले ""
जाति और मजहब ""को न लिखना पङे किसी कागज में सिवा """थाने के ""सिवा कचहरी के ""
ताकि अगले दशक तक स्पष्ट हो सके कि ""अपराध और अपराधी '''
आखिर किस किस कार्य में किसन किस जाति मजहब के अधिक हैं ।
और वहाँ अभियान चलाया जाये """मानसिक शारीरिक आर्थिक सब सुधारों का ।
कठोरता से एक देश एक नागरिकता एक ही समान स्त्रियाँ सब एक ही समान पुरुष
सब ',और योग्यता ही प्रतियोगिता हो ""ताकि देश को अच्छे सैनिक वैज्ञानिक
इंजीनियर डॉक्टर और शिक्षक मिले ।
ये रोज आज फलाँ जाति ने आरक्षण माँगने को हंगामा किया कल अमुक ने हङताल
की बंद हो जाये """""
""""
अफसोस परंतु हम जानते है
लालू
नीतिश
पासवान
मुलायम
अखिलेश
ममता
और मायावती आजम जैसे """देश को चिंदियामँ
बनाकर लूटना तो चाहते हैं
ताकि उमकी सत्ता बनी रहे
परंतु संप्रभु स्वतंत्र अखंड शांति समृद्ध भारत उनकी प्राथमिकता नहीं ।
और जिनकी है
उनको इस लूटो वजीफा इमदाद फ्री के सामान आरक्षण की ठगहोङ में सुनता समझता कौन है ।
©सुधा राजे
विद्वान मित्रों की निष्पक्ष राय के लिए एक अपील सादर
सुप्रभात
"""


सुधा राजे की टिप्पणी:- देसी खाय, बिदेसिया गाए!!!

अच्छा जी!!!!!
तुम उससे तो हँसकर बतिया रही थी? और हमसे जरा सा मुस्कराना भी पसंद नहीं!!!!!
!!!!
!!!!
क्योंकि हमारी जात फलानी है,,, हमारा मजहब फलाना है,,,,,,
,,,,,
हाँ है तो? चलो ऐसा ही सही तो?
नहीं है किसी स्त्री को किसी एक या कुछ खास खास लोगों के साथ हँसना
मुस्कराना पसंद तो?
वह भी देश की नागरिक है और, वरिष्ठ महिला है '"
इस मुद्दे पर चापलूसी करनेवाली स्त्रियों को ही सर्वाधिक धिक्कार है,,,,,,,,
पार्टी राजनीति में स्त्री अस्मिता और ये उत्तरभारतीय हिंदी भाषी पट्टी
की ""डियर '''बोलने की मानसिकता क्या """"ये स्त्रियाँ नहीं समझती?????
जो बङे बङे पोस्टर लेकर """बेचारे अशोक चौधरी """
को डियर अशोक ""
लिख लिख कर दिखा रही है?????
????
लानत्त है ।
",
अरे हमारा कोई सगा अपना सुपरिचित हमे प्रिय कहे डियर कहे डार्लिंग कहे
हमारी मरजी,,,,,,, अपने से आधी आयु के अनेक भतीजे भांजे "प्यारी बुआ मौसी
"
लिख देते हैं
जिन के लिये दिल में मान प्यार दुलार होता है उनको मिट्ठी झप्पी हम सब भी
लिख देते है ',
किंतु
अनेक बार केवल इसलिए ही कुछ महाशय लोग हमारी लिस्ट से मुक्ति पा गये
"क्योंकि हमको उनका यूँ 'डियर कहना पसंद नहीं आया '"
मरजी हमारी हमारा मन कि हम किससे दोस्ती करें और किससे नहीं ।
वैसे भी आधुनिक अंग्रेजी पढ़े लिखे किशोर नवयुवाओं की बात को छोङ दीजिये
परंतु पैंतीस से ऊपर के सब """उत्तरभारतीय ""
बिहार मध्यप्रदेश दिल्ली यूपी हरियाणा राजस्थान तक सब जानते हैं कि """"
औपचारिक संबोधन में हिंदी भाषी सिवा आदरणीय,माननीय, पूज्यनीय,
के कोई संबोधन बङों को या बराबर की महिलाओं को नहीं देता
माँ दीदी तक को नहीं ",
",,
डियर पिताजी
डियर बाऊजी
डियर बाबा
डियर दादा
डियर ताई
डियर भाभी
डियर दीदी
कहकर देखिये तो घर में!!!!
सवाल पश्चिमी सभ्यता का मत कीजिये
अहिंदी भाषी अंग्रेजी में भी भारतीय परंपरानुसार नमस्कार चरणस्पर्श और रिसपेक्टेड
ऑनरेबल
ही लिखते हैं
डियर का प्रचलित अर्थ अनौपचारिक होना ही है "प्रिय "कहने के संदर्भ मे.
और हर स्त्री को ये हक है कि
वह जिसे न चाहे अनौपचारिक न होने दे
ऊपर से वह एक मंत्री है ""
और दूसरे किसी भी विधायक मंत्री राजनेता को अनौपचारिक होने का हक नहीं ।
""""""""
मामला संस्कारों का है
एक सभ्य परिवार में छोटों को भी आप कहकर बुलाते है और अपनी पत्नी को भी
आप कहकर सीट देकर कार का दरवाजा खोलकर सीढ़ियों से उतरने या मंच पर चढ़ने
में मदद देकर मान सम्मान दिया जाता है । जबकि एक असंस्कृत परिवार में माँ
बाप को भी बच्चे गरियाते रहते हैं ।
अफसोस
उन स्त्रियों की दुर्बुद्धि पर है जो केवल किसी नेता को खुश करने के लिए
चाटुकारिता वश विरोध के लिए विरोध में आकर ""डियर लिखकर प्रदर्शन पर उतर
आयीं ।
जो कि अपनी जाँघ उघाङो खुद ही लाजन मरो जैसी बात है ।
पश्चिम में लोग चुंबन लेकर गले मिलते है बॉलीवुड में भी किंतु क्या
आप हिंदी भाषी लोग """अपने घर पङौस स्कूल में चुंबन लेकर गले मिल सकते हैं?????
हाथ मिलाना तक तो ग़वारा नहीं बीबी का """एक्स क्लासमेट से!!!!!
बात करते है ।
पूछो कि उस महाशय की बीबी बेटी बहिन को सब परिचित "क्यों न डियर कहने लग जायें???
यूँ तो अंगरेजी हमने भी भतेरी पढ़ रख्खी है ।
परंतु
अंग्रेज होना पसंद नी
""""""
©सुधा राजे

email - sudha.raje7@gmail.com



बंद गली के बिकाऊ घर ''('''लेख '')सुधा राजे ''

अच्छा जी!!!!!
तुम उससे तो हँसकर बतिया रही थी? और हमसे जरा सा मुस्कराना भी पसंद नहीं!!!!!
!!!!
!!!!
क्योंकि हमारी जात फलानी है,,, हमारा मजहब फलाना है,,,,,,
,,,,,
हाँ है तो? चलो ऐसा ही सही तो?
नहीं है किसी स्त्री को किसी एक या कुछ खास खास लोगों के साथ हँसना
मुस्कराना पसंद तो?
वह भी देश की नागरिक है और, वरिष्ठ महिला है '"
इस मुद्दे पर चापलूसी करनेवाली स्त्रियों को ही सर्वाधिक धिक्कार है,,,,,,,,
पार्टी राजनीति में स्त्री अस्मिता और ये उत्तरभारतीय हिंदी भाषी पट्टी
की ""डियर '''बोलने की मानसिकता क्या """"ये स्त्रियाँ नहीं समझती?????
जो बङे बङे पोस्टर लेकर """बेचारे अशोक चौधरी """
को डियर अशोक ""
लिख लिख कर दिखा रही है?????
????
लानत्त है ।
",
अरे हमारा कोई सगा अपना सुपरिचित हमे प्रिय कहे डियर कहे डार्लिंग कहे
हमारी मरजी,,,,,,, अपने से आधी आयु के अनेक भतीजे भांजे "प्यारी बुआ मौसी
"
लिख देते हैं
जिन के लिये दिल में मान प्यार दुलार होता है उनको मिट्ठी झप्पी हम सब भी
लिख देते है ',
किंतु
अनेक बार केवल इसलिए ही कुछ महाशय लोग हमारी लिस्ट से मुक्ति पा गये
"क्योंकि हमको उनका यूँ 'डियर कहना पसंद नहीं आया '"
मरजी हमारी हमारा मन कि हम किससे दोस्ती करें और किससे नहीं ।
वैसे भी आधुनिक अंग्रेजी पढ़े लिखे किशोर नवयुवाओं की बात को छोङ दीजिये
परंतु पैंतीस से ऊपर के सब """उत्तरभारतीय ""
बिहार मध्यप्रदेश दिल्ली यूपी हरियाणा राजस्थान तक सब जानते हैं कि """"
औपचारिक संबोधन में हिंदी भाषी सिवा आदरणीय,माननीय, पूज्यनीय,
के कोई संबोधन बङों को या बराबर की महिलाओं को नहीं देता
माँ दीदी तक को नहीं ",
",,
डियर पिताजी
डियर बाऊजी
डियर बाबा
डियर दादा
डियर ताई
डियर भाभी
डियर दीदी
कहकर देखिये तो घर में!!!!
सवाल पश्चिमी सभ्यता का मत कीजिये
अहिंदी भाषी अंग्रेजी में भी भारतीय परंपरानुसार नमस्कार चरणस्पर्श और रिसपेक्टेड
ऑनरेबल
ही लिखते हैं
डियर का प्रचलित अर्थ अनौपचारिक होना ही है "प्रिय "कहने के संदर्भ मे.
और हर स्त्री को ये हक है कि
वह जिसे न चाहे अनौपचारिक न होने दे
ऊपर से वह एक मंत्री है ""
और दूसरे किसी भी विधायक मंत्री राजनेता को अनौपचारिक होने का हक नहीं ।
""""""""
मामला संस्कारों का है
एक सभ्य परिवार में छोटों को भी आप कहकर बुलाते है और अपनी पत्नी को भी
आप कहकर सीट देकर कार का दरवाजा खोलकर सीढ़ियों से उतरने या मंच पर चढ़ने
में मदद देकर मान सम्मान दिया जाता है । जबकि एक असंस्कृत परिवार में माँ
बाप को भी बच्चे गरियाते रहते हैं ।
अफसोस
उन स्त्रियों की दुर्बुद्धि पर है जो केवल किसी नेता को खुश करने के लिए
चाटुकारिता वश विरोध के लिए विरोध में आकर ""डियर लिखकर प्रदर्शन पर उतर
आयीं ।
जो कि अपनी जाँघ उघाङो खुद ही लाजन मरो जैसी बात है ।
पश्चिम में लोग चुंबन लेकर गले मिलते है बॉलीवुड में भी किंतु क्या
आप हिंदी भाषी लोग """अपने घर पङौस स्कूल में चुंबन लेकर गले मिल सकते हैं?????
हाथ मिलाना तक तो ग़वारा नहीं बीबी का """एक्स क्लासमेट से!!!!!
बात करते है ।
पूछो कि उस महाशय की बीबी बेटी बहिन को सब परिचित "क्यों न डियर कहने लग जायें???
यूँ तो अंगरेजी हमने भी भतेरी पढ़ रख्खी है ।
परंतु
अंग्रेज होना पसंद नी
""""""
©सुधा राजे

email - sudha.raje7@gmail.com


Thursday 16 June 2016

सुधा राजे का लेख :- मेरा शहर मेरी कहानी।

"मेरा शहर मेरी कहानी "
==================
सुधा राजे "
१४.६.२०१६
।।।।।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°इत चंबल उत बेतवा
',इत धसान उस टौंस ',छत्रसाल सौं लङन की रही न काहू हौंस ',
जब जब अपने नगर की स्मृति हृदय के बीहङ में हिलोर मारती है ऐसी अनेक
कहावतें मुहावरे और गाथायें गीत संस्मरण मन के किसी गहन गह्वर से किसी
झरने से प्रस्फुटित होकर लोचनों में झिलमिला ही उठते है हठात्,मन दौङ
उठता है सायंकाल को वन से लौटी लावरी गैया लक्ष्मी और जमुना के बछङों की
भाँति ',अपनी मिट्टी अपनी बोली अपनी जन्मभूमि से बिछङे मुझे एक एक दिन
करके लगभग बीस वर्ष हो गये, आज भी जब कोई नवेली वधू पास पङौस में आती है
तो मन की करुणा, पुनः गीली सीली मिट्टी सी अपने आरंभिक दिन याद कर लेती
है जब हम "दतिया "मध्यप्रदेश को छोङकर पाँच सौ किलोमीटर दूर बिजनौर उत्तर
प्रदेश आ गये थे ।
दतिया मध्य प्रदेश की एक शक्तिशाली रियासत रही है और बुंदेले राजाओं की
द्वितीय राजधानी । पहले पहल गढ़कुढ़ार से ओरछा फिर टीकमगढ़ फिर दतिया ।
दतिया के पुरातात्विक महत्तव को इसी से समझा जा सकता है कि यहाँ अशोक का
शिलालेख 'ग्राम परासरी 'में मिला था, यह नगरी अनेक पठारी ऊँची पहाङियों
के बीच कटोरे की भाँति बसी है इसीलिये शासकों ने हर पहाङी पर एक सैन्य
चौकी बना रखी थी जिस पर प्राचीन मंदिर और भवन आज भी है, विन्ध्य पर्वत
श्रंखला की ये पहीङियाँ है "उङनू की टौरिया, पंचकविजू की टौरिया, चिरई
टौरिया, भरतगढ़ की टौरिया हङापहाङ की टौरिया, और बङौनी के पहाङ ',इन सब
ओर से घिरे पहाङों ने नगरी को सुरक्षा दे रखी थी तेज हवाओं और शत्रु की
दृष्टि से भी, 'हम लोग बचपन में इन सब पहाङों पर खूब खेले लगभग हर
त्यौहार पर या जाङों की छुट्टियों में सहपाठी सखियाँ परिवार के सब बच्चे
और कुछ बङे जिनमें अकसर दो तीन भाभियाँ भी रहतीं 'गिटार बाँसुरी और छोटा
ड्रम लेकर अपने अपने लंच बॉक्स के साथ चल पङते नगर से खूब पथरीले पत्थरों
पर चढ़ने का ऐसा अभ्यास पङ गया कि जब कॉलेज में आए तो 'ऊँची हील्स के साथ
भी खटाखट हाथ पैरों की सहायता से चौपाये की भाँति सब मित्रों से पहले चढ़
जाते थे । खूब धौंकनी की तरह चलती साँस और तेज प्यास के साथ भी सबसे ऊँचे
शिखर पर चढ़कर विहंगम दृश्य सैकङों मील दूर तक फैली बिखरी लुढ़कती
चट्टानें हरे भरे गेंहूँ कभी बाजरा ज्वार मक्के तिलहन कभी दालों और
सब्जियों के खेत और चारागाह में चरते पशु भरभराकर चलती तेज हवा में उङते
हम सबके बाल कपङे और पूरी छाती भर खींचकर भरी ताजा हवा की सांस सारी थकान
दूर कर देती, 'मन कहता जो पहाङ कभी नहीं चढ़ा वह तो रह गया सङा का सङा
'आज ऐसा ही तो लगता है ',तराई भांबर खादर के बीच उमस और गरमी के दिनों
में दुर्गंध युक्त अजीब सी हवा आलस से भरी '। उङनू की टौरिया पर तब तीन
सौ पैसठ सीढ़िया थी, खङी चढ़ायी परंतु हम लोग पहाङी ढाल से लुढ़कती
शिलाओं वाले मार्ग से चढ़ते बंदरों की तरह, बचपन ऐसा ही होता है न, जब
सीढ़ी चढ़ते तो आधी सीढ़ियों पर हनुमान जी का मंदिर था और मन्नत माँग
लेते "जीतने की साथियों से "अक्सर जीत जाते, जब हार जाते और कोई और पहले
चढ़ जाता तो हनुमान जी पर कुट्टी करके गुस्सा निकालते, न जाने कितने चने
लायची दाने बकाया रह गये । दतिया नगर के बीचों बीच टाऊन हॉल है, 'घंटाघर
जहाँ बङी सी घङी लगी है हर कोण से दिखती, तब समय देखना आता ही नहीं था और
तिस पर रोमन लिपि के अंक तो बिलकुल समझ नहीं आते थे, परंतु उसी टाऊनहॉल
में बना पुस्तकालय खूब समझ में आता था और वहीं प्राथमिक पाठशाला के फरार
बच्चे भी, चूकगेक टॉलसटॉय शेक्सपियर गोर्की और प्रेमचंद जयशंकर महादेवी
सबको पढ़ डालते, 'सदस्यता तो घर के बङों की थी और उनकी पहचान हमें चाहे
जब चाहे जिस टेबल पर बँधी किताब पढ़ने देती, नंदन चंपक चंदामामा पराग
लोटपोट आर्ची फैण्टम मधुरमुस्कान सुमनसौरभ और अनेक विदेशी अनूदित
बालकथाये हम लोग थोक के हिसाब से पढ़ जाते, विशेषकर हम, लायब्रेरियन सर
ढेंगुलाजी अकसर चकित हो जाते, अरे!!! अभी इत्ती जल्दी कैसे पढ़ ली??
बिन्नू राजा फोटू देख कें धर दई का? हम हँस पढ़ते, इतनी तेज गति से
किताब पढ़ना, उन दिनों आश्चर्य की बात थी, दो घंटे में एक 'नवाह्न परायण
'पढ़ जाने का बालपन का अभ्य़ास भी उसी की देन था । दतिया को पहलवानों और
संगीतकारों की नगरी का नाम यूँ ही नहीं मिला था, वह गामा की नगरी रही,
जिसने विश्व विजेता पहलवान जेविस्को तक को एक नहीं तीन तीन बार हराया था
। राजगढ़ पैलेस जो कभी स्टेट की कचहरी था फिर भारतीय सरकार की अदालत वहीं
लगने लगी, 'बाद में वहाँ "म्यूजियम "बन गया उसी म्यूजियम में गामा की
पत्थर की नाल रखी है जिसे वह सैंकङों बार पहन कर व्यायाम करते थे और आज
तक कोई उसे उठा भी नहीं पाता, दतिया के चार दिशाओं में आठ महाफाटक है जिन
के दोनों तरफ सैन्य निवास बने हैं और आठों फाटकों के नगर बाहर की सीमा पर
तालाब बने हैं ',आज ये तालाब सरकारी सौतेलेपन के शिकार हैं परंतु हमारे
बचपन के तालाब पक्के घाट की सीढ़यों तक लबालब भरे थे, 'जिनके हर तरफ भोर
चार बजे से नगर के लोग पूजा पाठ स्नान ध्यान करते थे, 'कार्तिक स्नान के
एक माह के फलाहारी कठोर व्रत को धारण करके बुँदेलखंड की कन्यायें
सुहागिनें "कृष्णोपासना के भाव से भरी भोर अँधेरे ही गाती ''हरि कौं खोजत
खोजत आए, हमारे श्याम कितखों गये"""कार्तिक नाम से ही विशिष्ट भजन गाये
जाते है ''''सखियाँ बनाने की एक बङी सुहानी रीति है "घाट से स्नान करके
लौटती स्त्रियाँ पत्थर सङक से चुनकर किनारे डालतीं नित्य और कहती "डारो
ढेली मिले सहेली ""और पूर्णिमा के दिन पूरे इकतीस व्रत होने पर सखी
परस्पर "पेङा खिलाकर सखी पक्की गुइयाँ बन जाती,,, आगे से न उसी बुराई
करनी न सुननी और बुलावे पर मिलने भी जाना है "कार्तिक की गुइयाँ को आसान
नहीं निभाना । कर्ण सागर, लाला का ताल नया ताल बक्शी का ताल रामसागरताल
अगोरा का ताल बङौनी का ताल, सिरौल का ताल और अनेक तलैयाँ,,, । तलैयाँ पशु
स्नान और धोबी घाट के लिए थी वहाँ शुद्ध जल के लिये हर मुहल्ले में एक
पक्का कुआँ और कुएँ पर ही पीपल मंदिर महादेव और घिर्रा डोरी पत्थर की जगत
ढोरों के लिये जगत के जल को संचित करता हौज, 'प्यासे के लिए बाल्टी सदा
ही देखी,, अनोखी परंपरा थी तब, कन्याओं के पाँव छूने वालों की नगरी वहाँ
जल भरने कौन देता!!! हम लोग जल पीने जाते और पनिहारिन पनिहारा कोई न केवल
जल पिला देते बल्कि हम लोग नहा भी लेते और कपङे अनजानी वधुएँ धो देतीं,
ऊपर से पूजा करते लोगों से भरपेट प्रसाद मिला गौ दुग्ध के पेङे या देशी
घी की लपसी पूङी, नवरात्रि पर इन मंदिरों के आसपास से बिना भोजन किए किसी
कन्या का गुजर पाना असंभव रहता । ये उन दिनों की बात है जब टेलीविजन नहीं
था नगर में न थे मोबाईल और न ही कंप्यूटर थे न था सबमर्सिबल और न हैंडपंप
थे न ही लोग घरों में कैद थे । नगर के भीतर ही एक ऊँची पहाङी पर
सातमंजिला पुराना महल नाम से एक भव्य महल है जिसके पीछे ग्वालियर आगरा
हाईवे नंबर 75है और लाला का तालाब है आगे नगरकोट की नवदुर्गा "बङीमाता
"का मंदिर है 'जो कालान्तर में सटकर बसे भवनों से क्लिष्ट हो गया है
',मबल को वर्ल्ड हैरिटेज में तो अब शामिल किया गया, हमारी तो बालपन की
क्रीङास्थली रही है 'घर में दूर पास के कोई भी अतिथि आते या पूजा पर्व
नववधु आगमन बालजन्म होता "बङी मातन "के मंदिर पर उपस्थिति अनिवार्य रहती
और हम सब वहाँ "पुराने महल "में घुस जाते जो राजा वीरसिंह जू देव ने
बनवाया था "बङी हँसी आती है जब लोग "जूदेव "को जाति समझ लेते हैं!!! जू
"जी का ही बुँदेली रूप है बृज में भी जी के स्थान पर रहीम रसखान सूरदास
पद्माकर घनानंद आदि ने यथा तथा "जू "का ही प्रयोग किया है । देव शब्द
आदर सूचक पुछल्ला है जो बङी हस्तियों के लिए प्रयोग किये जाने का आज भी
रिवाज है । बुँदेली बोली ही सत्कार मिठास कर्णप्रिय ललित संगीतमय स्वर
सुर और शब्द लय से भरी है । दतिया का पुराना महल वास्तुकला का अद्भुत
नमूना है, यहाँ के हर बुर्ज हर खंबे पर हीरे जङे गये थे किवाङ सोने चाँदी
के थे जो अंगरेज और मुगल बाद में उखाङ ले गये हर कलश हर नोक हर खंबा भग्न
यूँ ही नहीं । एक मंजिल तो तलघर है । स्वस्तिक चिह्न की नींव पर बने चार
आँगनों का हिडोलेनुमा विशाल महल मध्यमंजिल पर एक भूल भुलैयाँ बनाता है ।
इनमें हम लोग खूब खेलते, और "गौरापत्थर "से लाख बार निशान लगावे पर भी भू
जाते "सिमिट्रीआर्टस "का जबरदस्त कमाल, हम जब नहीं पहुँच पाते कहीं तब
रोने लगते और महल के शिखर पर बने गणेश जी को पुकारने लगते "हे गनेश बप्पा
"जल्दी बचाओ कऊँ भूत न आ जाये । और सब बङे टोली के प्रकट होकर चिढ़ाने
लगते 'डरपोक '। हम
डरपोक तो नहीं थे वरना इसी महल के भीतर बनी 'जिंदपीर "की मज़ार पर जिन्न
से न डर जाते!! कहीं देखा है छठीं मंजिल पर मजार को?? कहते हैं गामा ने
बकरी चराते समय यहीं पर जिंदपीर से पहलवानी सीखी दूब खा कर बदन बनाया और
एक दिन? पीर को ही दीवार में ठूँस दिया 'आज भी रोशनदान पर पत्थर के बीच
पाँवों के कटाव जैसे निशान बने हैं ।
दतिया नगर से हर दिशा में जंगल के प्रारंभ पर प्राचीन शिकारगाह और
विश्राम स्थल के रूप नें बावङी बनी है ''खैरापति के हनुमान की बावरी,
चँदेवा की बावरी असनेई की झील जलमहल जो आज गोविंदनिवास पैलेस कहा जाता है
',नगर के हर ओर बसे गाँव में "गढ़ी है " ये सामंतों ताल्लुकेदारों
जागीरदारों सैन्यअधिकारियों के महल हुआ करते थे ।गढ़ी पर जाने के लिए एक
से दो किलोमीटर खङी चढ़ाई की सङक होती थी फिर सीढ़िया फिर पहाङी पर बना
छोटा किला या बङी हवेली को "गढ़ी कहते "। ये अधिकांश परमार या पँवार
क्षत्रियों के निवास थे जिनके सैन्य बल से बुँदेलखंड सुरक्षित रहता था ।
यदि आपने सनी दयोल फरहा वाली यतीम फिल्म देखी है तो उसमें 'बङौनी की गढ़ी
"की झलक देख सकते हैं । दतिया के सटे हुए कसबे "उनाव में बालाजी
सूर्यमंदिर 'के सामने बहती बेतवा के जल का चमत्कार माना जाता है कि
'असाध्य चर्मरोग भी ठीक हो जाते हैं । कुष्ठ रोगियों की वहाँ कतारें
लगीं रहती है "यह मंदिर भी छोटी सी पहाङी पर है एक फर्लांग चढ़ाई वाली
सङक से मंदिर के कई आँगनों वाले विशाल मंदिर में प्राचीन वास्तुकला के
साथ अखंड ज्योति के दर्शन भी होते है । आप वहाँ आदर्श दहेज रहित विवाह
होते भी देख सकते हैं मंदिर में अनेक बारातें रुक सकतीं हैं इतनी जगह है
। चर्मरोग से मुक्ति और उच्चपद प्राप्ति हेतु "सूर्यआराधना का बहुत
प्राचीन स्थान है ।
भाग 1

भाग ||
स्मृतियों के घने वनों में सब कुछ स्पष्ट तो नहीं, फिर भी अपनी जन्मभूमि
से स्वाभाविक जुङाव सबका रहता ही है 'दतिया नगर को छोटा वृन्दावन कहते
हैं 'हर सौ कदम पर एक भव्य मंदिर मिल जाता है 'आधा किलो मीटर भर के अंतर
से हर सङक पर एक महलनुमा मंदिर है विशाल द्वार और भव्य वास्तुकला से सजे
कुछ मंदिरों के नाम है "गोविंदजू का मंदिर " अटल बिहारी का मंदिर
"अवधबिहारी का मंदिर ''बाँकेबिहारी का मंदिर " कुंजबिहारी का मंदिर
''रामलला का मंदिर "तैलगमंदिर 'छोटी माता का नंदिर मङियामहादेव मंदिर,
वनखंडेश्वरमहादेव मंदिर, जो दो दशक से पीताम्बरापीठ के नाम से प्रसिद्ध
हो चुका है, खैरीवाली कालीमाता का मंदिर, भरतगढ़ का रामलक्षमण जी का
मंदिर ' बङे गणेश की बावरी, करनसागर का हनुमानमंदिर ।ऐसे अनेक मंदिरों का
आजादी के बाद स्टेट का हक खत्म होने से हश्र यह हुआ कि राजपरिवार ने जिन
जिन को पुजारी बनाकर जमीने देकर वेतन पर रखा था वे ब्राह्मण परिवार उन
मंदिरों में रहने लगे और वह उनका घर बन गया ',प्राचीन वास्तु से छेड़छाङ
करके नवीन निर्माण कर लिये गये । सब मंदिरों पर स्वर्ण कलश थे जो चोरी हो
गये और पूजापाठ तो चलता है, किंतु हमारे बचपन में जो भोर संध्या नगर
भ्रमणकर दर्शनों की परंपरा थी वह समाप्त हो गयी । करये दिन 'यानि
पितृपक्ष में घर घर अपने चबूतरे और बैठक में ''साँझी "सजाने की परंपरा थी
हम बालक सब उत्साह से अनेक दृश्य बनाते खिलौनों दीपको और भगवत्चित्रों
प्रतिमाओं के माध्यम से रँगोली और कृष्ण बाललीला ',रामबाल लीला के सजीव
दृश्य '। तब लोग संध्या को नगर भ्रमण पर निकलते घर घर साँझी देखते हुये ।
आज सोचकर अजीब लगता है जब लोग महीनों बाहर नहीं निकलते स्कूल ऑफिस तो तब
भी थे, रचनात्मकता का गजब कमाल थी साँझी । नवदुर्गा के दिन से क्वाँर
वाली, 'कुमारी लङकियाँ पूरेमुहल्ले की एक टोली बनाकर 'सूरज वेदी बनाती
सोलह सीढ़ी का वर्गाकार पिरामिड शेप का चबूतरा लगभग दो फुट वर्गाकार 'उस
पर गौरी शंकर और सूर्य चंद्रमा दीवार पर, जिनको काँच दर्पन कौङी मनका
'आदि से सजाते ये सब मिट्टी और कांकेरिया पतली ईट की सहायता से बनते ।
प्रथमा से पूर्णिमा तक तारों की छाया में भोर ही सब कुमारिया गौ गोबर से
चबूतरा लीपकर रँगोली बनाती "पत्थर के चूर्ण को विविध रंगों में ररँगकर
रँगोली चूरन तैयार होता 'गीत प्रभाती गाती, और पूर्णिमा को साऱे बच्चों
की दावत होती सब बच्चे मिलजुलतर स्वयं भोजन पकाते, नित्य संध्या को
''ढिरिया माँगी जाती "मिट्टी की बङी सी मटकी में सावधानी से अनेक छेद
करके अंदर तली में बारीक छनी हुयी राख रखकर उसपर बङा सा चौमुख दिया जलाकर
सिर पर रखकर लङकियाँ पूरे मुहल्ले " के घर घर जातीं गीत गाती और लोग
चंदा देते अनाज पैसा, और कन्याओं के चरण पूजते । पूर्णिमा को उसी राशन
चंदे से सब कुमारियाँ भोजन बनाकर खातीं और "वृत्तासुर वध " के उपरांत शेष
सामग्री 'ग्वालों में बाँट दी जाती । जिस लङकी का विवाह हो जाता वह
"सुआटा "उजमन करके बाहर हो जाती ।


दतिया नगरी भव्य और शालीन परंपराओं की नगरी रही है । बहिन बेटी भांजी की
प्रतिष्ठा ईश्वर के समकक्ष रही है । हर शुभ कार्य का प्रारंभ इनके आगमन
से ही होता है । जिसके भी बहिन नहीं है वह पास पङौस की लङकी को बहिन बना
लेता है क्योंकि बिना "मानदान की डलिया आये 'न तिलक चढ़ता है न विवाह का
दस्तूर हो पाता है । आधुनिकता सब लीलती जा रही है । नगर से कुछ किलोमीटर
की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ "सोनागिर "है जहाँ पहाङ पर सैकङा भर बङे
और सैकङों छोटे मंदिर है प्रतिवर्ष जैन महासंगम होता है । इनमें सर्वोच्च
शिखर पर "पीतल की भाँति आवाज करने वाली विशाल बजने वाली शिला बङे पठार से
प्राकृतिक सुषमा भरा मनोरम विहंगम पहाङी क्षेत्र मयूर और दुर्लभ पक्षियों
के दर्शन देखने लायक है, इसी पर बारीक मीनाकारी काँच कला का भी कार्य है
और समरसता का बढ़िया उदाहरण दतिया से अन्यत्र कहाँ मिलेगा कि हम सब तब ये
जानते नहीं थे जैन कोई पृथक धर्म है!! हम सब पूरी श्रद्धा से गर्शन करने
और कविसम्मेलन में कविता कहने भी जाते रहे । मेरी कवितायें प्रायः
सामाजिक विकृतियों को ललकारतीं सो बाल कवियत्री के तौर पर सराही भी जाती
। भारत के मूर्धन्य कवियों के साथ काव्यपाठ दतिया ग्वालियर सेंवढ़ा के
मंचों से ही संभव हो सका । दतिया से तीस किलोमीटर पर झाँसी और सत्तर पर
ग्वालियर है, दतिया की ही उप राजधानी "सेंवढ़ा "है जो कदाचित "शिवमढ़ा
"से विकृत है , सिंध नदी के सुंदर प्रपात और ब्रहमाजी के पुत्रों "सनक
सनंदन सनत्तकुमार की तपोस्थली रही है । यही लोकेंद्रपुर में एक बार हम
अपने वनअधिकारी पिताजी के साथ शिकारियों को पकङने के लिये गयी उङनदस्ता
काररवाही में मिले बाघ के शावकों तो कभी हिरण के छौनो तो कभी चीतल के
बछङों के साथ खेलते पढ़ते और सिंध के जल में तैरते, वहीं "राजराजेश्वरी
माता के मंदिर 'राजा पृथ्वीसिंह कवि रसनिधि "की मढ़िया से 'घूमते जिंदपीर
को पुराने किले और नये किले की बङी बालकनी से झाँकते तो हर तरफ से सिंध
के विहंगम दृश्य दिखते, जब बरसात आती तो पुल डूब जाता और डिरौली पार के
पहाङ पर बने मंदिर पर हवन में भाग लेने जाते तो ग्रामीण स्त्रियाँ तरह
तरह के वन फल भेंट में देतीं । दतिया के ही उपनगर इंदरगढ़ के आबादी से
बाहर वाले क्षेत्र, में कुंजावती की बावङी है । जो ओरछा महाराज "जुझार
सिंह की बहिन थीं "उनकी बङी मार्मिक कहानियाँ बुँदेली लोकगीतों को समृद्ध
करतीं हैं । जुझार सिंह और कुँवर हरदौल सिंह में रामलखन सा प्रेम था,
बहिन कुंजा का विवाह परमारों में हुआ , इस प्रेम को खटकना ही था मुगलिया
दरबार के चाटुकारों को क्योंकि वार हरदौल की तलवार से सब थर्राते थे, सो
जुझार के कान भरे गये रानी के देवर पर स्नेह को संदेह में रखकर जुझार ने
विष देकर "सतीव्रत "की परीक्षा देने को कहा, 'रानी के लाख रोने पर भी
जुझार नहीं पिघले । रानी ने विष खाकर मरने की बात कही तो "असती "होकर
मरना सिद्ध होगा, का कलंक लगे, की बात कही । विवश रानी ने देवर के समक्ष
विषैली खीर प्रिय आहार रखा, 'भाभी की दशा देखकर देवर सब समझ गया और
चुपचाप खाने लगा तो रानी ने विनती की लला आप न जीमो हम तो मजबूर हैं,
परंतु हरदौल भाभी पर कलंक न सह सके और मर गये । उस विष को ही उनके सब
समर्थकों तक ने खा लिया छीनकर और हाथी सहित सब मर गये ।

कुंजवती की बेटी के विवाह के समय जब वह 'भात माँगने "गयी तो जले भुने
सौतेले भाई ने कह दिया जाकर श्मशान में भेंट लो वहीं तेरा भाई है, 'कुंजा
वहीं गयी औऱ विलाप करते रोयी कि अब "चीकट उतारने कौन आयेगा कन्नर लेने ,
भात देने "।कहते हैं नगर सेठ दतिया 'मित्र थे हरदौल के, उनको सपना देकर
हरदौल ने गाङियाँ भर भर सामान बहिन के घर भिजवाया 'और मंडप में जब भाँनेज
दामाद ने घी परसते लोटे को पकङ लिया तो दरशन भी दिये ''कुंजा ने पूछा सब
हो गया नेग मगर मैं भैया कहकर किसके कंधे से लिपट कर भेंटूँ?? तो हरदौल
ने मंडप के खंबे से भेंटने कहा ',तब से लाला का ताल स्थित हरदौल के मढ़
पर सब निमंत्रण देने और नववधू के हल्दी हाथ छापने जाते हैं ',विवाह में
पलाश या आम का खंबा भी रखा जाता है ',जिससे कन्या की माँ हरदौल वीरन कहकर
भेंटती है ।हरदौल सबके मामा हुये इस तरह ।
दतिया नगरी वर्तमान में "बगसामुखी पीतांबरा पीठ के लिए सर्वाधिक विख्यात
है । हमारे बाल्यकाल में हमारे पिताजी के वन विभाग के बँगले के करीब ही
था 'राजगढ़ फाटक का 'वनखंडी "महादेव मंदिर ''जिसे स्थानीय लोग बलखंडी
कहते थे । तब वहाँ एक प्राचीन शिवलिंग और एक कुटिया तथा एक चौपरा था ।
चौपरा यानि चौकोर पत्थर से बना चौकोर छोटा तालाब । कुटिया में पचास साठ
के दशक में कहीं से एक वीतरागी "स्वामी जी "आकर रहने लगे और 'देश के
शत्रुओं के विनाश के लिए 'महाविद्या बगलीमुखी पीतांबरा ''की घोर आराधना
की । हमें याद है स्वामी जी कन्यापूजन करते थे मूढ़े पर बैठे रहते, और तब
सब खुला था माँसाहिब अकसर प्रसाद बनाकर ले जातीं "स्वामी जी प्रेम से
ग्रहण करते । आज कई एकङ में फैला भव्य पीठ है ।शास्त्री जी ने पैंसठ के
समय यज्ञ कराया माता धूमावती का यज्ञ प्रमं इंदिरागांधी ने बहत्तर के
युद्ध के समय करवाया था । लगभग सब राजनैतिक हस्तियाँ यहाँ विजय श्री का
रवदान माँगने आतीं है 'शांत और स्वच्छ वातावरण में हफ्तो रहकर यजन भजन
करतीं थीं राजमाता विजयाराजे और अटलबिहारीवाजपेयी तक । दतिया आज आधुनिकता
की चूहादौङ का शिकार है । यहाँ करीर ही काँक्सी बजरंगबली का जंगल में
स्थित सिद्ध धाम है, । संस्कृत हिंदी और संगीत की नगरी दतिया । यहाँ के
राजा कुदऊँ सिंह जू प्रसिद्ध पखावजी थे, जो पागल हाथी तक को पखावज बजाकर
वश में कर लेते थे । हमारे बचपन में अनेक शरदपूर्णिमाओं की यादें हैं जब
किले में 'असनई राजमहल में, अवध बिहारी, गोविंद मंदिर, अटलबिहारी, या
रामलला पर 'कविगोष्ठी और संगीतसभा चलती रही रात भर और बादाम काजू वाली
गाढ़ी सौंधी खीर मिट्टी के 'कुल्लहङ में भर भर कर सबको राह रोक रोक कर
बाँटी गयी । करीब ही जंगलों में है रतनगढ़ की माता का मंदिर 'जहाँ विष और
सर्प दंश बच्छू दंश का उपचार होता था ',करीब ही चंबल के भरके टीले ढांग
ढूहे चालू हो जाते है, 'डाकुओं की देवी कहा जाता है रतनगढ़ की माता को ।
किसी जमाने में डाकुओं से सिर्फ अत्याचारी धनवान डरते थे स्त्रियों का
डाकू सम्मान करते थे, क्योंकि वे लोग बागी क्रांतिकारी थे । बाद में डाकू
पापी हत्यारे होने लगे । ऐसे ही एक डाकू जिससे सब थर्राते थे हम कंधे
चढ़कर नीम पर झूला डलवाते थे बाद में समझा जाना डाकू कौन होता है ',जब
उनके एनकाऊंटर की खबर पढ़ी । दतिया किसी समय घने वन का क्षेत्र था ।
रामायण काल महाभारत काल की नगरी दतिया 'मुंडिया ब्राह्मणों की नगरी थी
गहरवाङ राजपूतों की नगरी थी 'शिशुपाल के साले दंतवक्त्र की नगरी थी जो
'शिव मंदिरों से भरी पङी थी । बाद में एक कवियत्री महारानी ने कृष्ण के
मंदिर सैकङों बनवा डाले । दतिया के राजा वीरसिंहजू देव 'ने बावन नींवे
डलवायीं थी झाँसी का किला, हर की पैङी हरिद्वार, मणिकर्णिकाघाट वाराणसी
बाँकेबिहारी वृंदावन, लगभग सवामन सोने का दान उन्होने किया था । हमारे
बचपन की दतिया में दो पार्क भी थे 'भवानी पार्क और गोविंद पार्क 'बङे थे
जहाँ हम रविवार की शाम माँ बापू के साथ फव्वारे के साथ खेलते ""ठंडी सङक
पर दोनों ओर नहर थी और खजूर के हजारों पेङ चथा दो फव्वारे और शीतल हवा
'आज सब नगरीकरण लील गया 'पक्की फुटपाथ दतिया के अलावा कहीं कहीं ही
बमुश्किल देखने को मिला । भारत पाक बँटवारे के समय सर्वाधिक सिंधी
शरणार्थी दतिया बसे घर घर लोगों ने शरण दी "महल अस्तबल हाथीखाने और
घुङयाल जेल मंदिर सब "सिंधी शरणार्थियों के लिए खोल दिये गये । बचपन में
तमाम हादसे के शिकार परिवार देखे पागल गोदूबाबा बीका देखा, बुरेधमधे में
बेटी को धकेलती माँ देखी, गली गली पीठ पर बरफ बेचते बच्चे देखे 'शूमर
चाचा की कुल्फी का स्वाद तो आज भी भूला नहीं 'मुँहबोला भाई था माँसा का
'कन्हैया सिंधी 'जो रोज चिढ़ाता " गुड्डो मरै मलीदा होय सब पंचन कौ
न्यौतौ होय, हम खाँए गुड्डो ललचाएँ " । सिंधङ मामा हम क्यों न खाएँ मलीदा
'पैले? सब हँस पङते तब कहाँ पता था ये पश्चिमी यूपी बदा है भाग में रोज
रोज का मरना । दतिया में यक्ष पूजा रक्क्स बाबा, और बाँबीपूजा का भी
रिवाज है । एक परंपरा और है "मामुलिया "जिसमें कँटीली बेर की डाल को खूब
फूलों मिठाईयों खिलौनों से सजाकर लङकियाँ तालाब में 'सिराती हैं "और लङके
तैरकर किनारे खींचलाते है पैसा खिलौने और मिठाई की पोटली बाँटकर खाते हैं
। लङके पलाश का पुलता बनाकर टेसू और होली का चंदा भी वसूलते हैं । दतिया
की अनोखी परंपरा देखी कि ',ताजिया जब निकलता है तो पहला कंधा राजपरिवार
का तिलकधारी राजा देता है । हिंदू मुसलिम कौन है पता न था खूब जर्दा
पुलाव बङी बङी बैलगाङियों पर देग भरकर गाँव गाँव से आते और सब बच्चे
"दोना भर कर बुला बुला कर जिमाये जाते । प्यार वहाँ देखा था हिंदू मुसलिम
के बीच जब बापू के लिए जानपर खेल गये अहसान चाचा और शाकिर हमारा भाई हर
राखी पर पिटकर भी बँधाने आ जाता राखी, हम सखियों में राबिया सूबिया आसमा
शमीम तो मुसलिम ही
थी, ये कब याद था 'खूब जाती सब मंदिर हम मजार और किसी को खसरा निकलता तो
चची बङीमाता पर जल देवली यानि चने की दाल चढ़ातीं । गौकशी न कभी सुनी न
जानी 'हर घर के सामने से जब ग्वाले गौओं की रेवङ लेकर गुजरते महिलाएँ
पूली भर दूबपत्ते और पहली रोटी खिसाकर गरदन सहलाती पाँव पूजती । गाएँ भी
चुपचाप चबूतरे के पास खङी हो जाती अलग अलग गाय का अपना ही द्वार, । जैसे
प्रशिक्षित हों ।
रूही तो संस्कृत से एम ए थी पीएचडी भी । साङी में ही देखी सब मुसलिम
महिलाएँ सफेद चादर ऊपर से । बुरका तब न फिल्मों में दिखता था न नगर में ।
मुसलिम औरतें बिंदी भी लगाती थी काँच प्लास्टिक की । संदल से माँग भरती
थी । न मानो पुरानी सौदागर देख लो अमिताभ नूतनवाली । आज यहाँ बरसों हो
गए एलियन ही रह गये । न सावन के झूले हैं न अक्ती की सोन का नेग न दूज के
अखाङे न होरी की पंद्रह दिन दमकती घमकती फागलीला है न कतिकारिनों को राह
में छेृकर गीत गवाते कृष्णवेशी गोप न बहिनों के चरन पूजते भाई न अनजानी
बेटी की विदाई पर गाँठ के पैसे देते नगर वासी । संस्कार और नगर 'बस
यादों में रह गये । सामने है चूहादौङ और बस सामान जुटाने की चिंता 'रात
को कविगोष्ठी?? संगीत?? तौबा औरतजात और पश्चिमी यूपी में ऐसी बात!!!
©सुधा राजे
"""""""
पूर्णतः मौलिक रचना ।


सुधा राजे का संस्मरण:- मेरा शहर मेरी कहानी

"मेरा शहर मेरी कहानी "
==================
सुधा राजे "
१४.६.२०१६
।।।।।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°इत चंबल उत बेतवा
',इत धसान उस टौंस ',छत्रसाल सौं लङन की रही न काहू हौंस ',
जब जब अपने नगर की स्मृति हृदय के बीहङ में हिलोर मारती है ऐसी अनेक
कहावतें मुहावरे और गाथायें गीत संस्मरण मन के किसी गहन गह्वर से किसी
झरने से प्रस्फुटित होकर लोचनों में झिलमिला ही उठते है हठात्,मन दौङ
उठता है सायंकाल को वन से लौटी लावरी गैया लक्ष्मी और जमुना के बछङों की
भाँति ',अपनी मिट्टी अपनी बोली अपनी जन्मभूमि से बिछङे मुझे एक एक दिन
करके लगभग बीस वर्ष हो गये, आज भी जब कोई नवेली वधू पास पङौस में आती है
तो मन की करुणा, पुनः गीली सीली मिट्टी सी अपने आरंभिक दिन याद कर लेती
है जब हम "दतिया "मध्यप्रदेश को छोङकर पाँच सौ किलोमीटर दूर बिजनौर उत्तर
प्रदेश आ गये थे ।
दतिया मध्य प्रदेश की एक शक्तिशाली रियासत रही है और बुंदेले राजाओं की
द्वितीय राजधानी । पहले पहल गढ़कुढ़ार से ओरछा फिर टीकमगढ़ फिर दतिया ।
दतिया के पुरातात्विक महत्तव को इसी से समझा जा सकता है कि यहाँ अशोक का
शिलालेख 'ग्राम परासरी 'में मिला था, यह नगरी अनेक पठारी ऊँची पहाङियों
के बीच कटोरे की भाँति बसी है इसीलिये शासकों ने हर पहाङी पर एक सैन्य
चौकी बना रखी थी जिस पर प्राचीन मंदिर और भवन आज भी है, विन्ध्य पर्वत
श्रंखला की ये पहीङियाँ है "उङनू की टौरिया, पंचकविजू की टौरिया, चिरई
टौरिया, भरतगढ़ की टौरिया हङापहाङ की टौरिया, और बङौनी के पहाङ ',इन सब
ओर से घिरे पहाङों ने नगरी को सुरक्षा दे रखी थी तेज हवाओं और शत्रु की
दृष्टि से भी, 'हम लोग बचपन में इन सब पहाङों पर खूब खेले लगभग हर
त्यौहार पर या जाङों की छुट्टियों में सहपाठी सखियाँ परिवार के सब बच्चे
और कुछ बङे जिनमें अकसर दो तीन भाभियाँ भी रहतीं 'गिटार बाँसुरी और छोटा
ड्रम लेकर अपने अपने लंच बॉक्स के साथ चल पङते नगर से खूब पथरीले पत्थरों
पर चढ़ने का ऐसा अभ्यास पङ गया कि जब कॉलेज में आए तो 'ऊँची हील्स के साथ
भी खटाखट हाथ पैरों की सहायता से चौपाये की भाँति सब मित्रों से पहले चढ़
जाते थे । खूब धौंकनी की तरह चलती साँस और तेज प्यास के साथ भी सबसे ऊँचे
शिखर पर चढ़कर विहंगम दृश्य सैकङों मील दूर तक फैली बिखरी लुढ़कती
चट्टानें हरे भरे गेंहूँ कभी बाजरा ज्वार मक्के तिलहन कभी दालों और
सब्जियों के खेत और चारागाह में चरते पशु भरभराकर चलती तेज हवा में उङते
हम सबके बाल कपङे और पूरी छाती भर खींचकर भरी ताजा हवा की सांस सारी थकान
दूर कर देती, 'मन कहता जो पहाङ कभी नहीं चढ़ा वह तो रह गया सङा का सङा
'आज ऐसा ही तो लगता है ',तराई भांबर खादर के बीच उमस और गरमी के दिनों
में दुर्गंध युक्त अजीब सी हवा आलस से भरी '। उङनू की टौरिया पर तब तीन
सौ पैसठ सीढ़िया थी, खङी चढ़ायी परंतु हम लोग पहाङी ढाल से लुढ़कती
शिलाओं वाले मार्ग से चढ़ते बंदरों की तरह, बचपन ऐसा ही होता है न, जब
सीढ़ी चढ़ते तो आधी सीढ़ियों पर हनुमान जी का मंदिर था और मन्नत माँग
लेते "जीतने की साथियों से "अक्सर जीत जाते, जब हार जाते और कोई और पहले
चढ़ जाता तो हनुमान जी पर कुट्टी करके गुस्सा निकालते, न जाने कितने चने
लायची दाने बकाया रह गये । दतिया नगर के बीचों बीच टाऊन हॉल है, 'घंटाघर
जहाँ बङी सी घङी लगी है हर कोण से दिखती, तब समय देखना आता ही नहीं था और
तिस पर रोमन लिपि के अंक तो बिलकुल समझ नहीं आते थे, परंतु उसी टाऊनहॉल
में बना पुस्तकालय खूब समझ में आता था और वहीं प्राथमिक पाठशाला के फरार
बच्चे भी, चूकगेक टॉलसटॉय शेक्सपियर गोर्की और प्रेमचंद जयशंकर महादेवी
सबको पढ़ डालते, 'सदस्यता तो घर के बङों की थी और उनकी पहचान हमें चाहे
जब चाहे जिस टेबल पर बँधी किताब पढ़ने देती, नंदन चंपक चंदामामा पराग
लोटपोट आर्ची फैण्टम मधुरमुस्कान सुमनसौरभ और अनेक विदेशी अनूदित
बालकथाये हम लोग थोक के हिसाब से पढ़ जाते, विशेषकर हम, लायब्रेरियन सर
ढेंगुलाजी अकसर चकित हो जाते, अरे!!! अभी इत्ती जल्दी कैसे पढ़ ली??
बिन्नू राजा फोटू देख कें धर दई का? हम हँस पढ़ते, इतनी तेज गति से
किताब पढ़ना, उन दिनों आश्चर्य की बात थी, दो घंटे में एक 'नवाह्न परायण
'पढ़ जाने का बालपन का अभ्य़ास भी उसी की देन था । दतिया को पहलवानों और
संगीतकारों की नगरी का नाम यूँ ही नहीं मिला था, वह गामा की नगरी रही,
जिसने विश्व विजेता पहलवान जेविस्को तक को एक नहीं तीन तीन बार हराया था
। राजगढ़ पैलेस जो कभी स्टेट की कचहरी था फिर भारतीय सरकार की अदालत वहीं
लगने लगी, 'बाद में वहाँ "म्यूजियम "बन गया उसी म्यूजियम में गामा की
पत्थर की नाल रखी है जिसे वह सैंकङों बार पहन कर व्यायाम करते थे और आज
तक कोई उसे उठा भी नहीं पाता, दतिया के चार दिशाओं में आठ महाफाटक है जिन
के दोनों तरफ सैन्य निवास बने हैं और आठों फाटकों के नगर बाहर की सीमा पर
तालाब बने हैं ',आज ये तालाब सरकारी सौतेलेपन के शिकार हैं परंतु हमारे
बचपन के तालाब पक्के घाट की सीढ़यों तक लबालब भरे थे, 'जिनके हर तरफ भोर
चार बजे से नगर के लोग पूजा पाठ स्नान ध्यान करते थे, 'कार्तिक स्नान के
एक माह के फलाहारी कठोर व्रत को धारण करके बुँदेलखंड की कन्यायें
सुहागिनें "कृष्णोपासना के भाव से भरी भोर अँधेरे ही गाती ''हरि कौं खोजत
खोजत आए, हमारे श्याम कितखों गये"""कार्तिक नाम से ही विशिष्ट भजन गाये
जाते है ''''सखियाँ बनाने की एक बङी सुहानी रीति है "घाट से स्नान करके
लौटती स्त्रियाँ पत्थर सङक से चुनकर किनारे डालतीं नित्य और कहती "डारो
ढेली मिले सहेली ""और पूर्णिमा के दिन पूरे इकतीस व्रत होने पर सखी
परस्पर "पेङा खिलाकर सखी पक्की गुइयाँ बन जाती,,, आगे से न उसी बुराई
करनी न सुननी और बुलावे पर मिलने भी जाना है "कार्तिक की गुइयाँ को आसान
नहीं निभाना । कर्ण सागर, लाला का ताल नया ताल बक्शी का ताल रामसागरताल
अगोरा का ताल बङौनी का ताल, सिरौल का ताल और अनेक तलैयाँ,,, । तलैयाँ पशु
स्नान और धोबी घाट के लिए थी वहाँ शुद्ध जल के लिये हर मुहल्ले में एक
पक्का कुआँ और कुएँ पर ही पीपल मंदिर महादेव और घिर्रा डोरी पत्थर की जगत
ढोरों के लिये जगत के जल को संचित करता हौज, 'प्यासे के लिए बाल्टी सदा
ही देखी,, अनोखी परंपरा थी तब, कन्याओं के पाँव छूने वालों की नगरी वहाँ
जल भरने कौन देता!!! हम लोग जल पीने जाते और पनिहारिन पनिहारा कोई न केवल
जल पिला देते बल्कि हम लोग नहा भी लेते और कपङे अनजानी वधुएँ धो देतीं,
ऊपर से पूजा करते लोगों से भरपेट प्रसाद मिला गौ दुग्ध के पेङे या देशी
घी की लपसी पूङी, नवरात्रि पर इन मंदिरों के आसपास से बिना भोजन किए किसी
कन्या का गुजर पाना असंभव रहता । ये उन दिनों की बात है जब टेलीविजन नहीं
था नगर में न थे मोबाईल और न ही कंप्यूटर थे न था सबमर्सिबल और न हैंडपंप
थे न ही लोग घरों में कैद थे । नगर के भीतर ही एक ऊँची पहाङी पर
सातमंजिला पुराना महल नाम से एक भव्य महल है जिसके पीछे ग्वालियर आगरा
हाईवे नंबर 75है और लाला का तालाब है आगे नगरकोट की नवदुर्गा "बङीमाता
"का मंदिर है 'जो कालान्तर में सटकर बसे भवनों से क्लिष्ट हो गया है
',मबल को वर्ल्ड हैरिटेज में तो अब शामिल किया गया, हमारी तो बालपन की
क्रीङास्थली रही है 'घर में दूर पास के कोई भी अतिथि आते या पूजा पर्व
नववधु आगमन बालजन्म होता "बङी मातन "के मंदिर पर उपस्थिति अनिवार्य रहती
और हम सब वहाँ "पुराने महल "में घुस जाते जो राजा वीरसिंह जू देव ने
बनवाया था "बङी हँसी आती है जब लोग "जूदेव "को जाति समझ लेते हैं!!! जू
"जी का ही बुँदेली रूप है बृज में भी जी के स्थान पर रहीम रसखान सूरदास
पद्माकर घनानंद आदि ने यथा तथा "जू "का ही प्रयोग किया है । देव शब्द
आदर सूचक पुछल्ला है जो बङी हस्तियों के लिए प्रयोग किये जाने का आज भी
रिवाज है । बुँदेली बोली ही सत्कार मिठास कर्णप्रिय ललित संगीतमय स्वर
सुर और शब्द लय से भरी है । दतिया का पुराना महल वास्तुकला का अद्भुत
नमूना है, यहाँ के हर बुर्ज हर खंबे पर हीरे जङे गये थे किवाङ सोने चाँदी
के थे जो अंगरेज और मुगल बाद में उखाङ ले गये हर कलश हर नोक हर खंबा भग्न
यूँ ही नहीं । एक मंजिल तो तलघर है । स्वस्तिक चिह्न की नींव पर बने चार
आँगनों का हिडोलेनुमा विशाल महल मध्यमंजिल पर एक भूल भुलैयाँ बनाता है ।
इनमें हम लोग खूब खेलते, और "गौरापत्थर "से लाख बार निशान लगावे पर भी भू
जाते "सिमिट्रीआर्टस "का जबरदस्त कमाल, हम जब नहीं पहुँच पाते कहीं तब
रोने लगते और महल के शिखर पर बने गणेश जी को पुकारने लगते "हे गनेश बप्पा
"जल्दी बचाओ कऊँ भूत न आ जाये । और सब बङे टोली के प्रकट होकर चिढ़ाने
लगते 'डरपोक '। हम
डरपोक तो नहीं थे वरना इसी महल के भीतर बनी 'जिंदपीर "की मज़ार पर जिन्न
से न डर जाते!! कहीं देखा है छठीं मंजिल पर मजार को?? कहते हैं गामा ने
बकरी चराते समय यहीं पर जिंदपीर से पहलवानी सीखी दूब खा कर बदन बनाया और
एक दिन? पीर को ही दीवार में ठूँस दिया 'आज भी रोशनदान पर पत्थर के बीच
पाँवों के कटाव जैसे निशान बने हैं ।
दतिया नगर से हर दिशा में जंगल के प्रारंभ पर प्राचीन शिकारगाह और
विश्राम स्थल के रूप नें बावङी बनी है ''खैरापति के हनुमान की बावरी,
चँदेवा की बावरी असनेई की झील जलमहल जो आज गोविंदनिवास पैलेस कहा जाता है
',नगर के हर ओर बसे गाँव में "गढ़ी है " ये सामंतों ताल्लुकेदारों
जागीरदारों सैन्यअधिकारियों के महल हुआ करते थे ।गढ़ी पर जाने के लिए एक
से दो किलोमीटर खङी चढ़ाई की सङक होती थी फिर सीढ़िया फिर पहाङी पर बना
छोटा किला या बङी हवेली को "गढ़ी कहते "। ये अधिकांश परमार या पँवार
क्षत्रियों के निवास थे जिनके सैन्य बल से बुँदेलखंड सुरक्षित रहता था ।
यदि आपने सनी दयोल फरहा वाली यतीम फिल्म देखी है तो उसमें 'बङौनी की गढ़ी
"की झलक देख सकते हैं । दतिया के सटे हुए कसबे "उनाव में बालाजी
सूर्यमंदिर 'के सामने बहती बेतवा के जल का चमत्कार माना जाता है कि
'असाध्य चर्मरोग भी ठीक हो जाते हैं । कुष्ठ रोगियों की वहाँ कतारें
लगीं रहती है "यह मंदिर भी छोटी सी पहाङी पर है एक फर्लांग चढ़ाई वाली
सङक से मंदिर के कई आँगनों वाले विशाल मंदिर में प्राचीन वास्तुकला के
साथ अखंड ज्योति के दर्शन भी होते है । आप वहाँ आदर्श दहेज रहित विवाह
होते भी देख सकते हैं मंदिर में अनेक बारातें रुक सकतीं हैं इतनी जगह है
। चर्मरोग से मुक्ति और उच्चपद प्राप्ति हेतु "सूर्यआराधना का बहुत
प्राचीन स्थान है ।
भाग 1

भाग ||
स्मृतियों के घने वनों में सब कुछ स्पष्ट तो नहीं, फिर भी अपनी जन्मभूमि
से स्वाभाविक जुङाव सबका रहता ही है 'दतिया नगर को छोटा वृन्दावन कहते
हैं 'हर सौ कदम पर एक भव्य मंदिर मिल जाता है 'आधा किलो मीटर भर के अंतर
से हर सङक पर एक महलनुमा मंदिर है विशाल द्वार और भव्य वास्तुकला से सजे
कुछ मंदिरों के नाम है "गोविंदजू का मंदिर " अटल बिहारी का मंदिर
"अवधबिहारी का मंदिर ''बाँकेबिहारी का मंदिर " कुंजबिहारी का मंदिर
''रामलला का मंदिर "तैलगमंदिर 'छोटी माता का नंदिर मङियामहादेव मंदिर,
वनखंडेश्वरमहादेव मंदिर, जो दो दशक से पीताम्बरापीठ के नाम से प्रसिद्ध
हो चुका है, खैरीवाली कालीमाता का मंदिर, भरतगढ़ का रामलक्षमण जी का
मंदिर ' बङे गणेश की बावरी, करनसागर का हनुमानमंदिर ।ऐसे अनेक मंदिरों का
आजादी के बाद स्टेट का हक खत्म होने से हश्र यह हुआ कि राजपरिवार ने जिन
जिन को पुजारी बनाकर जमीने देकर वेतन पर रखा था वे ब्राह्मण परिवार उन
मंदिरों में रहने लगे और वह उनका घर बन गया ',प्राचीन वास्तु से छेड़छाङ
करके नवीन निर्माण कर लिये गये । सब मंदिरों पर स्वर्ण कलश थे जो चोरी हो
गये और पूजापाठ तो चलता है, किंतु हमारे बचपन में जो भोर संध्या नगर
भ्रमणकर दर्शनों की परंपरा थी वह समाप्त हो गयी । करये दिन 'यानि
पितृपक्ष में घर घर अपने चबूतरे और बैठक में ''साँझी "सजाने की परंपरा थी
हम बालक सब उत्साह से अनेक दृश्य बनाते खिलौनों दीपको और भगवत्चित्रों
प्रतिमाओं के माध्यम से रँगोली और कृष्ण बाललीला ',रामबाल लीला के सजीव
दृश्य '। तब लोग संध्या को नगर भ्रमण पर निकलते घर घर साँझी देखते हुये ।
आज सोचकर अजीब लगता है जब लोग महीनों बाहर नहीं निकलते स्कूल ऑफिस तो तब
भी थे, रचनात्मकता का गजब कमाल थी साँझी । नवदुर्गा के दिन से क्वाँर
वाली, 'कुमारी लङकियाँ पूरेमुहल्ले की एक टोली बनाकर 'सूरज वेदी बनाती
सोलह सीढ़ी का वर्गाकार पिरामिड शेप का चबूतरा लगभग दो फुट वर्गाकार 'उस
पर गौरी शंकर और सूर्य चंद्रमा दीवार पर, जिनको काँच दर्पन कौङी मनका
'आदि से सजाते ये सब मिट्टी और कांकेरिया पतली ईट की सहायता से बनते ।
प्रथमा से पूर्णिमा तक तारों की छाया में भोर ही सब कुमारिया गौ गोबर से
चबूतरा लीपकर रँगोली बनाती "पत्थर के चूर्ण को विविध रंगों में ररँगकर
रँगोली चूरन तैयार होता 'गीत प्रभाती गाती, और पूर्णिमा को साऱे बच्चों
की दावत होती सब बच्चे मिलजुलतर स्वयं भोजन पकाते, नित्य संध्या को
''ढिरिया माँगी जाती "मिट्टी की बङी सी मटकी में सावधानी से अनेक छेद
करके अंदर तली में बारीक छनी हुयी राख रखकर उसपर बङा सा चौमुख दिया जलाकर
सिर पर रखकर लङकियाँ पूरे मुहल्ले " के घर घर जातीं गीत गाती और लोग
चंदा देते अनाज पैसा, और कन्याओं के चरण पूजते । पूर्णिमा को उसी राशन
चंदे से सब कुमारियाँ भोजन बनाकर खातीं और "वृत्तासुर वध " के उपरांत शेष
सामग्री 'ग्वालों में बाँट दी जाती । जिस लङकी का विवाह हो जाता वह
"सुआटा "उजमन करके बाहर हो जाती ।


दतिया नगरी भव्य और शालीन परंपराओं की नगरी रही है । बहिन बेटी भांजी की
प्रतिष्ठा ईश्वर के समकक्ष रही है । हर शुभ कार्य का प्रारंभ इनके आगमन
से ही होता है । जिसके भी बहिन नहीं है वह पास पङौस की लङकी को बहिन बना
लेता है क्योंकि बिना "मानदान की डलिया आये 'न तिलक चढ़ता है न विवाह का
दस्तूर हो पाता है । आधुनिकता सब लीलती जा रही है । नगर से कुछ किलोमीटर
की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ "सोनागिर "है जहाँ पहाङ पर सैकङा भर बङे
और सैकङों छोटे मंदिर है प्रतिवर्ष जैन महासंगम होता है । इनमें सर्वोच्च
शिखर पर "पीतल की भाँति आवाज करने वाली विशाल बजने वाली शिला बङे पठार से
प्राकृतिक सुषमा भरा मनोरम विहंगम पहाङी क्षेत्र मयूर और दुर्लभ पक्षियों
के दर्शन देखने लायक है, इसी पर बारीक मीनाकारी काँच कला का भी कार्य है
और समरसता का बढ़िया उदाहरण दतिया से अन्यत्र कहाँ मिलेगा कि हम सब तब ये
जानते नहीं थे जैन कोई पृथक धर्म है!! हम सब पूरी श्रद्धा से गर्शन करने
और कविसम्मेलन में कविता कहने भी जाते रहे । मेरी कवितायें प्रायः
सामाजिक विकृतियों को ललकारतीं सो बाल कवियत्री के तौर पर सराही भी जाती
। भारत के मूर्धन्य कवियों के साथ काव्यपाठ दतिया ग्वालियर सेंवढ़ा के
मंचों से ही संभव हो सका । दतिया से तीस किलोमीटर पर झाँसी और सत्तर पर
ग्वालियर है, दतिया की ही उप राजधानी "सेंवढ़ा "है जो कदाचित "शिवमढ़ा
"से विकृत है , सिंध नदी के सुंदर प्रपात और ब्रहमाजी के पुत्रों "सनक
सनंदन सनत्तकुमार की तपोस्थली रही है । यही लोकेंद्रपुर में एक बार हम
अपने वनअधिकारी पिताजी के साथ शिकारियों को पकङने के लिये गयी उङनदस्ता
काररवाही में मिले बाघ के शावकों तो कभी हिरण के छौनो तो कभी चीतल के
बछङों के साथ खेलते पढ़ते और सिंध के जल में तैरते, वहीं "राजराजेश्वरी
माता के मंदिर 'राजा पृथ्वीसिंह कवि रसनिधि "की मढ़िया से 'घूमते जिंदपीर
को पुराने किले और नये किले की बङी बालकनी से झाँकते तो हर तरफ से सिंध
के विहंगम दृश्य दिखते, जब बरसात आती तो पुल डूब जाता और डिरौली पार के
पहाङ पर बने मंदिर पर हवन में भाग लेने जाते तो ग्रामीण स्त्रियाँ तरह
तरह के वन फल भेंट में देतीं । दतिया के ही उपनगर इंदरगढ़ के आबादी से
बाहर वाले क्षेत्र, में कुंजावती की बावङी है । जो ओरछा महाराज "जुझार
सिंह की बहिन थीं "उनकी बङी मार्मिक कहानियाँ बुँदेली लोकगीतों को समृद्ध
करतीं हैं । जुझार सिंह और कुँवर हरदौल सिंह में रामलखन सा प्रेम था,
बहिन कुंजा का विवाह परमारों में हुआ , इस प्रेम को खटकना ही था मुगलिया
दरबार के चाटुकारों को क्योंकि वार हरदौल की तलवार से सब थर्राते थे, सो
जुझार के कान भरे गये रानी के देवर पर स्नेह को संदेह में रखकर जुझार ने
विष देकर "सतीव्रत "की परीक्षा देने को कहा, 'रानी के लाख रोने पर भी
जुझार नहीं पिघले । रानी ने विष खाकर मरने की बात कही तो "असती "होकर
मरना सिद्ध होगा, का कलंक लगे, की बात कही । विवश रानी ने देवर के समक्ष
विषैली खीर प्रिय आहार रखा, 'भाभी की दशा देखकर देवर सब समझ गया और
चुपचाप खाने लगा तो रानी ने विनती की लला आप न जीमो हम तो मजबूर हैं,
परंतु हरदौल भाभी पर कलंक न सह सके और मर गये । उस विष को ही उनके सब
समर्थकों तक ने खा लिया छीनकर और हाथी सहित सब मर गये ।

कुंजवती की


Wednesday 15 June 2016

सुधा राजे का लघु लेख :- एलियन होने की वेदना

बङी अभागी है वह लङकी जो जन्मी हो गढ़वाल कुमाऊँ जयपुर मुंबई केरल भोपाल
"""""कहीं और विवाह हो जाये कमनसीबी से 'मेरठ अलीगढ़ मुरादाबाद
मुजफ्फरनगर अमरोहा बिजनौर नगीना शेरकोट चाँदपुर अफजलगढ़ रामपुर कांधला
कैराना कोतवाली स्योहारा नजीबाबाद """या आसपास "।
आप पूरी उम्र मिठाईयाँ भेजिये इफ्तार कराईये ईद मिलिए और सिवईयाँ खाईये
'देश देश कीजिये ।परंतु सांस्कृतिक खाई नहीं पाट सकते न ही उस सबको अपना
सकते हैं न अपने मुताबिक रह सकते हैं ।"""""ये एक "वे ऑफ लिविंग का ही
अंतर नहीं है बंधु ये है दर्द डिफरेंस ऑफ एटीकेट्स एंड थॉट्स का । जिस
क्षेत्र में बहिन बेटी माँ भाभी को बराबरी से अधिक पूजनीय अधिकार मिले
हों जहाँ देर रात तक भी स्त्रियाँ निडर होकर जॉब करती हों पढ़ती हो
बराबरी दावत पार्टी पर्यटन और खेलकूद का हिस्सा हो मेला बाजार पूजा
त्यौहार सब में बढ़चढ़कर शामिल हो ',
वहाँ ',की लङकी ',
जब केवल स्त्री होने के नाते दिन में भी बाजार जाना धीरे धीरे स्वयं ही
त्याग देती है "क्योंकि लोग घूरते हैं 'बुरी तरह घूरते हैं ',बिना
जानपहचान के भी पहनावे रहनसहन और कार्य शिक्षा आदि पर टोक देते हैं ।
',तीन सवारी की सीट पर ऑटो में चार मोटे तगङे वयस्क बिठाकर गोद में और
बाहर द्वार पर जबरन बच्चे अनेक ठूँस दिये जाते हैं ""।
दूध दही मावा दवा मसाले सब मिलावटी मिलते है ""
"घी पर शाकाहारी का निशान लगाकर पशुचर्बी पकङी जाती है, '
मिठाईयाँ दीवाली पर मिलावटी मिलती है ""दवाई और पढ़ाई ब्हद घटिया और मँहगी है ।
"जॉब पर आते जाते रोज की अपडाऊन में ""तुम अलग हो हम जैसी नहीं ""की
शिकायत हर आँख में उठती है तो जॉब छोङकर घर बिठा दी जाती हैं स्त्रियाँ ।
और "सिर्फ काली कैबिन में घूमती तमाम नकली गहने मेकअप इत्र मेंहदी सुरमा
से सराबोर हर पल लङने को तैयार, ब्रैनवॉश्ड कठपुतलियों से वास्ता पङता है
और तमाम सफेद कपङों में लिपटी मैली निगाहें घूरती है मैत्री करने के सारे
प्रयास विफल हो जाते हैं । हर तरफ से अपने देश ईश्वर पुरखों और संस्कारों
की निंदा सुनाई पङती है । न घर में सुरक्षा महसूस होती है न नगर में ।
शुकायतें किससे करे कोई हाक़िम से ही शह मिलती हो तब?
सैकङों नगरपालिकायें ऐसी हैं जहाँ सत्तर साल से एक ही मजहब के लोग जीतते है ।
जब सहन नहीं होती घुटन तो पब्लिक वाहन से आना जाना छोङना पङ ही जाता है
। इन जगहों और आसपास "बिना पुरुष को साथ लिये या झुंड बनाये बिना जाने पर
भी घूरना और टोकना फिकरे कसना टहोकना बराबर जारी रहता है ।
विधवा कुँवारी अनाथ अकेली स्त्री को तो डर लगता ही है लगे भाई बहिन भी
साथ जाते डर जाते हैं । कोई नाबालिग लङका स्टंटबाईकिंग करने या रेस लगाने
में जाने कब ठोक दे ',शिकायत करने पर बाद में न जाने क्या बदला ले बैठे
""।
लोग शाम से घरों में बंद होने लगते है ""बिजली तो दस बारह घंटे ही आती है
',कभी बाढ़ कभी ओला तो कभी जेबकट चोर ठग जहरखुरान जीवन को खतरों की डोर
पर टाँगे रखते है ''गंदगी गलियाँ कबङे के ढेर ,'बङे बङे गैरकानूनी कांड
होते रहते है कोई कारगर कदम उठाया नहीं जाता गौकशी और खुलेआम मांस लटकाकर
बेचना कच्ची शराब बेचना और भाँग शराब गाँजा गुटखा तंबाकू पान से माहौल
गंदा रखना आम मामूली बात है । स्कूल ट्यूशन कोचिंग अकेली लङकी भेजते डर
लगता है ',हर हफ्ते कोई कांड, 'सङक बेकाबू ट्रैफिक और रोडएक्सीडेंट
"महिलाओं के साछ घर घर मारपीट अपमान ',,'इस इलाके में जिनकी शादी नहीं
होती दस बीस हजार की मोल की बहू लो आते है "पहाङन पुरबिनी बंगालन "यही
नाम है खरीदी गयी बहुओं को ',,',,लङकियाँ घास काट सकती है गन्ना बो सकती
है, गोबर उठा सकती है लेकिन ""बाईक या साईकिल नहीं चला सकतीं '
मुशायरे और शेरी नशिस्त तमाम किंतु कविगोष्ठी कवि सम्मेलन एक नहीं "तीज
त्यौहार दुर्गापूजा गणपति कब आते जाते हैं पता ही नहीं ',रामलीला में
अश्लील नाच और गणगोर करवाचौथ वटसावित्री सब घर में बंद मनालो????
'बङी कहानी पता करनी हो तो देखे जाकर कि "सपाई बाँट गये लङकियों को
साईकिल परंतु चलाते बाप भाई है या बेच दी ।
कागज पर सब है आँगनबाङी, आशा 'अस्पताल, सस्ते गल्ले की दुकाने परंतु कहाँ
और कब चलती हैं ये बङी खोज का विषय है 'बच्चों को गाली देते, बङे बङे
श्रम करते और वयस्कों वाले गुनाह करते पाया जाना रोज मर्रा की बात है
लोग राशन की सामग्री खरीदकर ब्लैक करते हैं और सङे गेहूँ के बोरों पर
राजनीति होती है ', '',,,औरतें सिनेमा नहीं जातीं, काली कैबिन में बंद
औरतें सब जगह ढेर सारे बच्चे लेकर चली जाती हैं ठेलमठेल हंगामा मचातीं,
किंतु किसी शालीन संस्कार वान स्त्री का सलवार कमीज साङी या पैन्टशर्ट
में आना जाना सूक्ष्मदर्शी एक्सरे से देखने गिनने पहचानने और कुरेदकर
पूरी कुंडली तक खँगालने की कोशिश दिल दिमाग सपने सबको जलाने लगती है '।
खेलकूद में लङकियाँ भाग नहीं लेती । चाहे आपकी बेटी पत्नी बहिन कितनी भी
इंटेलीजेंट क्यों न हो आप जब भी उसके कैरियर की बात करेंगे बाहर किसी
दूसरे ही नगर प्रांत या देश भेजने की सोच विवश कर देगी ',रात तो रात दिन
में भी आती जाती स्त्रियाँ समूह बनाकर''निकलती हैं अकेली तो जैसे कोई पाप
कर रही हो नंदिर जाते भी ।
शादियों के अलावा पार्टी नहीं होती ।''कानफोङू हो जाती है, इबादतगाहों की
आवाजें पूरे रामदान और शबे ब बरात बारा बफात को जमकर बल प्रदर्शन
स्टंटबाजी होती है ",,खुलेआम तकरीरों में इज्तमा के बहाने सरकारी महकमे
तक के सामने अमेरिका भारत सरकार की निंदा, और हर अविष्कार का श्रेय
अंग्रेजों को दिया जाता है । उर्दूस्कूलों में से पढ़े लोग अंग्रेजी तो
बोलना पढ़ना सीखना चाहते हैं और हर जगह जहाँ उचित शब्द नहीं मिलता उर्दू
अरबी फारसी का वहाँ अंग्रेजी शब्द रखते हैं परंतु हिंदी या संस्कृत नहीं
लेते । जमातों की माईक पर बयानबाजी के बाद का ऐसा हाल होता है कि कच्चे
मन सङकों पर जुलूसों में चीखने निकलपङते हैं '। वोट की गुटबंदी वजीफे की
गुटबंदी मुआवजे की गुटबंदी पट्टे और इमदाद की गुटबंदी । आरक्षण तो है ही
तमाम गैर सरकारी एन जी ओ भी सरकारी मदद से ऐसे ही गुट बनाये हुये हैं ।
लोग अरब ईरान ईराक़ आदि देशों में मजदूर कारीगर बनकर जाते हैं और फटाफट
करोङपति बन जाता है सारा कुनबा!!!!
और भी तो लोग जाते है दूसरे पंथ मजहब समुदाय के हुनर कला मजदूरी के लिए
परंतु उनको घर का दरिद्र निकालने में बरसों लग जाते हैं ।
भू स्वामी सङक किनारे और कीमती मौके की ज़मीनों के गरीब किसान विवश हो
जाते हैं जब गरीबी के चक्रव्यूह से परिवार को कैद मेम रखकर अकेले जूझते
पुरुष तब पूँजी भरकर लाए अरबदेशों की कमाई वाले परिवार ही सबसे अधिक दाम
देकर जमून खरीद लेते हैं । जिनके पाँच साल पहले झोपङी थी उनके महल हो गये
दुकान हो गयी होटल या स्कूल खुल गये ।
अनेक हकीम झोलाछाप हर गली में बैठे प्रशासन की नाक के नीचे 'भीङ लगी रहती
है । काली पोशाक वालियों को सर्वोत्तम सद्व्यवहार मिलता है और बाकी
स्त्रियों को तगङी फीस चुकानी पङती है जाने कब ऑटोचालक किसी परदानशीन को
जगह देने के लिए किसी पढ़ने या जॉब करने वाली लङकी से आगे ड्राईवर सीट के
बगल में बैठने को कह दे ।
,खेतों से मोटरपंप चोरी हो जाते हैं,' घर के दरवाजे से खिलौने पौधे वल्ब
। 'घर के सामने से बच्चों को उठाने की भी कोशिश, 'साईकिल बाईक कार चोरी
या कहीं जाने पर गाय बैल भैंस या बरतन भाँडे चोरी कोई बङी बात नहीं "।
""आँधी आते ही लोग सङक के आसपास के पेङ काटने चल पङते है और दूर टर्की
कुवैत इराक अफगान कही भी कोई ''काररवाही होती है "असर यहाँ सबसे अधिक
होता है ।
सोशल साईट पर तमाम आपत्तिजनक बातें की जाती है और, 'क्या क्या घुटन है एक
मुंबई जयपुर कुमाऊँ मणिपुर केरल आसाम टीकमगढ़ जोधपुर की ही बेटी समझती
है,,,।
, या फिर समझे वो जो कुछ पढ़ गुन ले बाहरकी दुनियाँ जान समझ ले ""कितने
ही कसबे,, अपना देश नहीं लगते """"""

समस्या पर खास उँगली नहीं रख सकते परंतु ये घुटन सब अरमान पी जाती है
""मॉर्निंग वॉक पर नहीं जाती महिलाएँ, शाम को पार्क मंदिर या पास पङौस के
मेल मिलाप बंद हैं ',अश्लील फिल्मों के तमाम पोस्टर यात्री विश्राम ग्रह
स्कूल कॉलेज अस्पताल और लङकियों के आने जाने की जगह के आसपास शराब के
अड्डे ",,अमूमन लङके लङकियाँ हाईस्कूल से पहले ही पढ़ना छोङ देते हैं और
""सिपारा "सब जगह पढ़ाने की व्यवस्था है परंतु एक पंडित कथा कराने को
मृतात्मा का गरुङपुराण बाचन कराने या विधिविधान से विवाह कराने को नहीं
मिलेगा 'पितामह की त्रयोदशी पर तेरह ब्राह्मण अनेक गाँव से खोज कर लाने
पङे अन्यथा एक ही ब्राह्मण को तेरह बार सामग्री सौंप कर पूजा करली
",,श्मशानों की दुर्दशा है और कब्रिस्तानों की जगह बढ़ती जाती है
बाउंड्री पियाऊ हैंडपंप सब 'हाईवे किनारे अनाचक 'मजारे नजर आने लगती है
और अगरबत्ती चादर शुरू ''
अपराध और अपराधी हावी हैं हर जगह तमाम छोटे बच्चे बैंक्विट हॉल में
बाराती या घराती बनकर आ जाते है दावत खाते खाना चुराते और पकङना किसी
फसाद की वजह ''अलवियों को लोग गरीब समझते होंगे 'घर जाकर देखा तो टीवी
फ्रिज कूलर पंखे बङे बङे मकान और बाईक सब है । अमीर और अमीरी का प्रदर्शन
हावी है 'कोई भी कांड हो जाये गिरफ्तारी को जल्दी हिलती नहीं पुलिस ',उस
पर भी पत्थर फिंक जाते है दविश के लिये जाने पर 'बिजली की धङल्ले से चोरी
होती है लोग हीटर पर मांस के हंडे चढ़ाये रहते है "शरीफ आदमी कानून को
मानकर बिल भरभर कर परेशान और बेखौफ तंग गलिओं में कटुआ बाँस से खंबे पर
लगाकर बिजली चोरी, 'सरकारी नल में निजी सबमर्सिबल का कनेक्शन ठोकर पानी
भरा जाता है ',रजाईकंबल बँटते है ''जरूररतमंद जा नहीं पाते और ठेलमठेल
मचानेवाले झपटकर पुनः बेच लेते हैं ',हर सरकारी राशन की दुकान ब्लैक करती
है चीनी गेहूँ कैरोसिन

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Thursday 9 June 2016

सुधा राजे का गद्यचित्र -" मोहांत"

बैठक से तेज तेज आवाजें आ रहीं थीं और मुन्ना छत पर परेशान था घरकी छत
कैसे बने गत्ते तो सारे भीग गये रात की बारिश में बङकी को अखबार में
खोजना था नया कॉलेज और मँझली चुपके से किताब के बीच धरकर कॉमिक्स पढ़ रही
थी मुझे नाराज होना बङबङाना था सब पर ',शेयर मार्केट की नयी पॉलिसी के
निवेश में घाटा हो गया था और पूरा नहीं हुआ था मेरा लेख 'आया आज फिर नहीं
आई और बिजली भी सुबह से गुम थी चार बजे से नींद ही कहाँ
मुनियाँ की अंकसूची खोजते गिर पङी काली डायरी से निकल गिरा एक तरुण चित्र
और एक पैराग्राफ में लिखी सरल इबारत जिसके बाद कुछ शब्द जिन पर प्रथम बार
दृष्टि पङी तो बूँदें टपक पङीं थी अक्षर धुल गये थे दशकों पहले 'इस बार
लगा 'कि सफर तो कट गया रेलगाङी का परंतु हमें एक ही डिब्बे में सीट अलग
अलग कूपे की मिली थी और फिर साथ के भरम में कट गयी पूरी दोपहर पूरी साँझ
पूरी रात ''
आज तुम पर न नाराजगी है न क्रोध न शिकवा '
एक दया सी उठी '
अब कब सीखीगे अपना खयाल रखना कनपटियों के करीब कई सारे बाल पकने लगे हैं '
कल ही तो मँगाकर रखी है नयी हेयर डाई ',और सारे हिसाब चढ़ा तो दिए है
रजिस्टर में ',तब से अब में अंतर बस इतना है पहले तुम गुस्साते थे तो रो
पङती थी अब ',सिर्फ दया आती है '
कब समझोगे कि उस तरुण चित्र से तुम बिलकुल नहीं मिलते और मैं उस पीली पङी
कुरकुरी चिट्ठी की तरह ही बची हूँ जिसे तुम बाँच तो सकते हो पर छू नहीं
सकते और न फेंक सकते हो कहीं ',स्वमेव ही होना है मुझे कायान्तरित और ही
किसी रूप में ढलने रे लिए ',तुम बस अपना भोजन परोसकर कर खाने लगो तो मेरी
'यात्रा शुरू हो ',
तुम्हें नही पता न मैं कहूँगा परंतु 'मुझे अभी जीना है उस वीरान समुद्र
तट के किनारे गीली रेत पर अकेले चलने और गुनगुनाने के लिए वे सब गीत ',
जो मैं कभी सोचती थी तुम्हें सामने बैठाकर गाऊँगी, '
देखनी हैं वे सारी पगडंडियाँ ऊँचे पहाङों की कहानियों के जंगल में खोकर
रहना है उन डाकबंगलों में जहाँ हर बार कल्पनाएँ की थी तुम्हारे साथ गरम
कॉफी और कङक सरदियों की ',
तुम्हें कहाँ बता सकी मैं कि मुझे देखने हैं बहुत सारे गहन रोमांस से भरे
चलचित्र सिनेमाघर में सबसे पीछे कोने वाली सीट पर बैठ कर रोते हुए
तुम्हारे कंधे पर टिककर कथापात्रों की संवेदना से सराबोर 'तुम्हारी जकङन
के साथ, 'अपनी नयी कहानी का प्लॉट सोचते सोचते ',
अभी तो शेष है बैकवाटर पर नौकाविहार में खोना और तुम्हारी पीठ पर नयी
कमीज के कोरेपन की खुशबू के साथ खोकर नये गीत के शब्द पिरोना,,,,
अब वहाँ जाना चाहती हूँ अकेली बिना लिए कोई रिश्ता कोई मित्र बंधु कोई सहेली ',
और बिना आँखे भिगोये डूबना चाहती हूँ नायक नायिका की पीङा विरह मिलन और
कथाके बहाव में ',
अब मैं खुद ही बिलकुल अकेले जाना चाहती हीँ तराई और पहाङ से दूर नौका
चलाती स्वयं ही मुक्त एकाकी बिना किसी तनाव में भरभराकर रोने और सुधबुध
खोने के लिए ',,
बस तुम अपना खयाल रखना सीख लो ',
सुबह दूध के साथ फल ले लेना और हाँ चने रखे है मिट्टी के बरतन में भिगोने
के लिए """"""
आज न क्रोध है न रोष न राग है न अनुराग
बहुत दया आ रही है तुम पर ',
तुम अपनी कमीज आँगन में टँगी मत छोङा करो छत से कभी कभी कभी बंदर भी आ
जाते हैं और ',हाँ रात को खिङकी खुली मत छोञ़ा करो बाहर वाली 'बरसात में
अकसर तुमहें सरदी हो जाती है ',
मुझे बहुत सारे काम करने है ',बहुत लंबी यात्रा पर जाना है ',और अब अकेले ही
वहाँ वहाँ जहाँ जहाँ तुम कभी कल्पनाओं में साथ होते थे हम सपने पिरोते थे ',
आज मैं रोई नहीं हू, ये बात और है कि तुम्हें पता ही कब है कि कितनी ही
रातें मैं ठीक से खाना तो दूर सोई नहीं हूँ ',
मैंने सब सोच लिया है क्या छोङना और क्या ले जाना है ',
बस तुम अब तो सँभल भी जाओ ',शाम की चाय खुद बना कर पी लिया करो आया तो
पाँच बजे बाज ही आएगी और अदरक इलायची लौंग कालीमिर्च बेअनुपात दे मिलाएगी
',
ऐसी चाय भला तुम्हें कैसे पसंद आएगी ',
मुझे अब पुकार रहे है 'पुराने महल हवेलिआ पहाङ नदियाँ समंदर और झरने ',
खुद से किए गए कुछ वादे थे जो अब है पूरे करने ',
शब्दों के सैलाब को अब नहीं पी पा रही हूँ सच कहती हूँ मुझे हर जगह
तुम्हारे साथ जाना था
हर कृति को सबसे पहले तुम्हें ही दिखाना था ',पर
अब मैं उमङते वैराग में बहती जा रही हूँ '
बंधा तो थी ही कब परंतु अब यूँ ऐसे अजनबी दीवारों के बीच भी साथ न होकर
भी साथ रहना नहीं जी पा रही हूँ
मुझे तो चला ही जाना था पहले ही
परंतु तुम अपना खयाल रखना सीख ही नहीं पाये, '
पर अब तो तुम्हें सारे हिसाब खुद ही रखने हैं ',
मुझे वे सारे प्रदेश देखने हैं जहाँ तुम मुझे टकटकी लगाये देखते और मैं
कुलाँचती फूल तोङ लाती तुम टाँक देते बालों में ',
खयाल ही तो था जाने दो खयालों में अब सचमुच मैं बाँध चुकी हूँ सारे सामान
कैमरा कलम कागज चंद यादें और बस ',
अपने शब्दों को स्वर देने के अरमान ',
आज से अखबार बंद कर दिया है तुम तो पढ़ते ही नहीं हो ',
टीवी का रिचार्ज खत्म होने को करा लेना और ',
रात को गैस सिलेण्डर से बंद करना मत भूल जाना 'तुम्हारी मल्टीमिनरल
विटामिन की गोलियाँ रखी है तीसरे नंबर के रैक में 'याद से रोज खाने के
बाद दूध के साथ खा लेना ',
मैं तुम्हारा कुछ भी लेकर नहीं जाऊँगी ',
अगर यात्रा पूरी हो सकी इस जीवन में तो शायद एक बार तुम्हें,
भी लौटकर सुनाउँगी सारे वृतांत पर एक बार मुझे जीना है वहाँ वहाँ सब सब
वही वही जोजो कल्पित था साथ तुम्हारे पूरी पीङा के साथ ',एकाकी और एकांत
"""""बस तुम अपना खयाल रखना शुरू कर दो '::::::::::::::""""""""©®सुधा राजे