Wednesday 29 June 2016

सुधा राजे का लेख :- मीडिया "नायक"---स्त्री और सोच।

मीडिया ',नायक ',स्त्री और सोच '
:::::::::लेख ::••सुधा राजे '
स्त्री विमर्श के नाम पर जब भी लोग एकत्र होतें हैं या तर्क वितर्क होते
हैं तो लोगों को बहुत बार यही कहते लिखते सुना पढ़ा देखा जा सकता है कि
'स्त्री विमर्श ले देकर सेक्स और शादी की समस्याओं से ऊपर उठ नहीं पाता
',या लोग ले देकर स्त्री के जिस्म और ससुराल मायके के इर्द गिर्द चक्कर
लगाते रह जाते हैं । सवाल उठता है तो लगता है बहुत हुआ स्त्री विमर्श चलो
कुछ और बात करते हैं 'परंतु क्या,? चलिये देखते हैं सबसे पहले घर 'फिर
समाज फिर गाँव नगर कसबा महानगर और फिर राज्य देश और अपने महाद्वीप की ही
बात करते हैं, । एशिया महाद्वीप में स्त्री अब तक चाहे वह फाईटर प्लेन
ही क्यों न चलाने लगी हो ',सर्वाधिक चर्चा का विषय है तो केवल "स्त्री
"हो कर भी 'ऐसा कर पाने के कारण । अर्थात यह खबर में आना कि अमुक क्षेत्र
में अमुक स्त्री ने कोई सफलता प्राप्त अपने आप में खबर या चर्चा समाचार
का विष्य है तो सिद्ध यही होता है कि, ऐसा करना कठ्न रहा है और ऐसे अवसर
स्त्रियों के लिये उपलबध नहीं हो पाते । स्त्रियों के पिछङने का कारण तो
प्रागैतिहासिक काव के सांस्कृतिक क्षरण आक्रमणकारियों द्वारा किये गये
अपहरण अपमान अत्याचार धर्मपरिवर्तन तो रहे ही है ',जीववैज्ञानिक कारण
"मातृत्व भी रहा है । माता बनने की ही एक सबसे कठिन प्रक्रिया से गुजरती
स्त्री अंततः घर की कैद में ढलती अनुकूलन करती गयी और अधिक संताने मतलब
अधिक बार गर्भधारण अधिक बच्चे और अधिक देखभाल मतलब अधिकाधिक कमजोरी
जिम्मेदारी और परिवार की मोहमाया ममता और बंधन पराश्रितता । हर मानव किसी
न किसी स्त्री की संतान है यह आज तक की सच्चाई है इसके बाद भी ''माँ बनने
की महत्ता उसे देने के स्थान पर शनैः शनैः सोच बदलती गयी क्योंकि पुरुष
के पास लंबे समय तक स्वस्थ और स्वतंत्र विचरण का समय और अवसर रहा ।
परिवार से किसी को भी सिवा कर्त्तव्य बोध के और किसी कारण से नहीं बाँधा
सहेजा जा सकता । स्त्री और पुरुष अन्योन्याश्रित जीव होकर भी 'माता होने
की स्त्री की महत्ता मानने के स्थान पर उसे विवशता समझने लगे अधिक संताने
अधिक बलवान कुटुंब का प्रतूक बनती गयीं और बहुविवाह जैसी स्थितियाँ बनी,
। प्राचीन स्त्री बलिष्ठ और स्वतंत्र थी । उसको मान सम्मान प्राप्त था कि
वह घर बनाती बसाती संतान देती और प्रेम करती है । परंतु जब आक्रमण कारी
शत्रु आ आ कर स्त्रियों का इन्ही सब कारणों से अपहरण करने और चुराने
अपमान करने लगे तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिये उनको हर समय पहरे में
रखा जाने लगा और यह सुरक्षा चक्र धीरे धीरे परंपरा बनता गया, '। भारतीय
परिवेश में कालांतर में विदेशी बसकर घुल गये और उनकी परंपरायें अनेक
स्तरों पर जा मिलीं और मुगल तथा आंग्ल शासन काल का "काला युग "स्त्रियों
के लिये रच दिया गया । स्वतंत्र भारत में दहेज प्रथा' विधवा विवाह 'बाल
विवाह 'सती प्रथा 'बंन्ध्या होने पर प्रताङना, कन्या जन्मने पर प्रताङना,
पुत्री होकर पिता माता की अकेली संतान होकर भी माँ बाप को साथ में न रख
पाने की विवशता, कन्या की कमाई खाना पाप, जमाई पूजा जैसे रूढ़ि, और
स्त्री को पति तथा पिता की संपत्ति में हिस्सा जैसे कानून बहुत बाद में
बङी कठिनाईयों के बाद बन पाये । संविधान और कानूनों से लिखित अधिकार
प्राप्त होना दूसरी बात है और वास्तव में समाज के नित्य प्रति क्रियाकलाप
और अभ्यास में किसी तरह का अभ्यास या आदत होना और दूसरी बात है ।
यह कहने से हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि स्त्रियों के मामले में
सभ्य नहीं हुआ अभी तक एशिया ',और न ही भारतीय पुरुष । मंदिरों में देवी
पूजा करने वाला नवरात्रियों में कन्यापूजन करने वाला हिंदू समाज हो चाहे
माँ को मरियम कहता ईसाई या माँ के कदमों में ज़न्नत बताता मुसलिम हो, बात
जब स्त्री की आती है तो "स्वामित्व जैसी क्रूर अवधारणा चेतन अचेतन दोनों
ही अभ्यासों में पुरुष ही नहीं स्त्री तक के मन में भर चुकी है । पति
स्वामी नाथ और भरतार जैसे शब्द इन्हीं बातों के अर्थ बताते है । घर के
भीतर स्त्री तरह तरह के दुःख झेलकर लगातार समझौते करके पलती बढ़ती है ।
एक एशियाई लङकी को हर पल पता होता है कि वह "वांछित संतान नहीं है और
उसके तथा भाई के आहार अधिकार और प्यार दुलार में भारी अंतर है । लाख
आधुनिक हो चुका हो ज़माना किंतु अब भी टेलिविजन सिनेमा पत्रिकाओं सब जगह
"स्त्री का शरीर गी नग्न कर करके दिखाया जाता है । अंतर सिर्फ इतना है
पहले लोग धन या धमकी देकर कपङे कम करते थे अब स्त्री स्वयं ही देह को
अपनी सफल व्यवसायिक ढाल बनाकर प्रयोग करती है । कपङे तो रुपहले परदे पर
पुरुष भी कम करते हैं अपने मसल्स और गठन सौष्ठव दिखाने के लिये 'परंतु
अश्लीलता फैलाने का आरोप सदैव स्त्री पर ही लगता है । भारतीय पुरुष और
यूरोपीय स्त्री की नग्नता किसी को अटपटी नहीं लगती । परंतु स्त्री भारतीय
हो और पुरुष यूरोपीय हो तो वस्त्र कम होना 'असभ्यता मानी जाती है । कैमरे
के सामने स्कर्ट और बिकनी पहनने वाली एक भी अभिनेत्री, मॉडल या एंकर में
इतना साहस नहीं कि वह समाज में कहीं भी आम लोगों के बीच उन्ही कपङों में
घूम सकें । यहाँ कारण कट्टरपंथी तो हैं हा, स्त्री को जिस्म, मादा और
भोग्या मात्र समझने वाली सोच भी है । हर समय कोई सेक्स नहीं कर सकता न
किसी की हिम्मत है कि वह हर स्त्री को हासिल कर सके, परंतु इसी सोच के
कारण अकसर पुरुष स्त्रियों को डराता है । भारतीय स्त्रियों के हुनर कमरों
में बंद घरों में ही दम तोङ देते हैं, केवल इस डर से कि वे बाहर घूमेगी
फिरेगी मौके खोजेगी प्रतिभा और हुनर के लिये तो कहीं किसी हवस के शिकारी
शैतान की नजर न पङ जाये ।

नारीवाद?
क्या कोई भी 'स्त्री मुक्ति की मुहिम बिना पर्याप्त संख्या में पुरुषों
के सहयोग के चल सकती है? नहीं कर सकती क्योंकि स्त्री विशेषकर भारतीय
स्त्री का सारा जीवन तो 'आत्मरक्षा में ही बीत जाता है । बचपन में
भेदभावों के बीच अपने लिये खिलौने भोजन पढ़ाई पोषण औऱ ममता वात्सल्य पाने
की लङाई किसी भी लङकी को पहले ही स्तर पर तोङ डालती है । दूसरे स्तर की
लङाई साथ साथ चलती रहती है यौन बुभुक्षित नरदानवों से देह की पवित्रता की
रक्षा 'वह लङाई उसकी अपनी भी होती है और साथ साथ उसके अपनों की भी होती
है ।सैद्धांतिक तौर पर पूरे देश समाज कानून व्यवस्था और धर्म जाति वर्ण
संप्रदाय गाँव नगर तक की लङाई बनी हुयी है एक स्त्री के 'अस्तित्व की
बलात्कार यौनशोषण छेङछाङ और दैहिक आक्रमण से रक्षा!!!!!!!!!!!
माँ बाप भाई बहिन दादा दादी काका काकी ताई ताऊ नाना नानी मामा मामी बुआ
फूफा जीजी जीजा भाई भाभी भतीजे भांजे बेटे """"""सब के सब की जिम्मेदारी
है स्त्री को छेङछाङ बलात्कार यौनशोषण और दैहिक आक्रमण से बचाना । यहाँ
तक कि त्यौहार मनाकर बाकायदा भाई को लाज का पहरेदार ही घोषित कर दिया गया
है ।
पुलिस सेना मंत्रालय और खाप बिरादरी सब के सब स्त्री की लाज के पहरेदार
हैं । किंतु क्या इसके बाद भी आज तक यौनहिंसा बलात्कार और दैहिक आक्रमण
रुक गये?????
बहुत डरावने और भयानक आँकङे हैं भारतीय स्त्रियों के मामले में जहाँ सौ
में से केवल दस प्रतिशत हमलावरों को सजा मिल पाती है जबकि अधिकतर मामले
घर परिवार कुटुंब और पंचायतों द्वारा ही समाप्त कर दिये जाते हैं । दूसरे
स्तर पप ग़वाह सुबूत और जाँच की कमी से आरोपी बरी हो जाते हैं । तीसरे
स्तर पर स्त्री को ही बदचलन और सहमति से संबंध बनानेवाली आवारा कुलटा
करार देकर जलील किया जाता है । चौथे स्तर की तकलीफें न कहने की न सुनने
की अकसर बलात्कारी से ही विवाह करके मामला खत्म कर दिया जाता है । पाँचवे
स्तर की शर्मनाक सच्चाई ये है कि घरेलू नाते रिश्तेदार भाई नाना मामा
मौसा जीजा फूफा चाचा पङौसी तक नाबालिग और अबोध लङकियों को यौनशिकार
बनाते हैं यह स्वीकार कर भी नकार दिये गये अपराध हैं जिनको दबा दिया जाता
है परिवार चलाने की मजबूरी बदनामी औऱ लङकी की माँ की निर्भरता के नर्क
में ।
कैसे करेंगी उन्नति उस देश में लङकियाँ जहाँ कपङों से लादकर दीवारों के
पीछे बंद करने के बाद भी लङकी "मादा समझकर मानव रूपी यौनपिपासु नरदानवों
की हवस का शिकार बन जाती है!!!!
सारी समस्याओं की जङ ही यही डर है हर लङकी और लङकी वाले परिवार के लिये
कि उस लङकी की दैहिक रक्षा कैसे हो
©®सुधा राजे

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