Friday 31 January 2014

सुधा राजे का प्रकाशनार्थ लेख -- ""एक सेर आशा। ""

एक सेर माँस काटने की शर्त
रखी थी समय के सूदखोर ने
जब
भावुककोमल मन के संवेदनशील कवि ने
सहिष्णुतावश उधार दे दीं बहुत
सारी स्वर्णिम
घङियाँ
नातों की याचिका पर
शुभकामना के मंगलपर्व के लिये
ताकि
जीवित रहे कहीं भी प्रेम
न सही मुझमें
कहीं अन्य किसी टापू पर
कहीं किसी अन्य हृदयालिंगन के बीच ।
किंतु डूब गये जहाज आशाओं के
और
सारी मुहरें भी हुनर की डूब
गयीं ।
अवसर के स्वर्णभंडार जो जहाज पर थे आशा के कभी नहीं लगे किनारे ।
दरिद्र मन कैसे चुकाता सूद समेत
मूलधन!!!!
शर्त थी ताऱीख पर ऋण अदा करने
की
सो हाज़िर हो गया वचन कर्त्तव्य
के दरबार में ।
एक सेर मांस जिजीविषा का अदा करने के लिये ।
किंतु कब सोचा था ये जीवन का मांस पसली के ठीक
ऊपर बांयी तरफ से काटा जायेगा ।
कोई नहीं आया इस बार न्यायधीश
बनकर दया के गुण बखान करने रस्मों रीतियों के संविधान केवल सूदखोर समय के
पक्ष में रचे गये ।
और किसी सूदखोर को किसी मित्र
नातेदार ने नहीं रोका कि मांस
काटलो किंतु शर्त है कि साहस प्राण प्रत्याशा का रक्त
नहीं बहना चाहिये ।
मांस काटा गया और रक्त बहता रहा मैं
मांस कटने से नहीं मरती किंतु रक्त बहने
से मरी हूँ ।
कदाचित रक्त बहने से
भी नहीं मरती अगर मांस
बायीं पसली के ठीक ऊपर की बजाय
बायीं जांघ के सामने से लिया जाता ।
मगर किसी टापू पर मेरे स्वर्ण मुद्राओं
के ढेर पर प्रेम मिलन सुख संग्रह र से थके नाते भूल चुके
थे कि उनको दिये उधार के बदले नियत
तिथि पर मेरा एक सेर मांस गिरवी है ।
मैं
वह ऋण चुका देती ।
किंतु मेरी आशाओं
का जहाज डूब गया तकदीर के किनारे आते आते ।
मैं नहीं मरती अगर
जहाज समय पर मेरी विनिवेशित
अवसर की मुद्रायें ले आता ।
जिजीविषा प्रत्याशा का रक्त बहता रहा और बांयी पसली के
ठीक ऊपर रिक्त मांस से खाली स्थान
पर रखा स्वाभिमान का चाकू कहता रहा मैं निर्दोष हूँ
क्योंकि मांस तो तुमने
गिरवी रखा था ।
सूदखोर समय से ऋण लेते
तुमने ही शर्त मानी थी कि मुहरें
अदा नहीं कर पायीं तो नियत
तिथि पर समय रहते एक सेर मांस कहीं से
भी सूदखोर ले सकता है ।
मित्र अगर आते तो चाकू रोक सकते थे
मुहरें अदा करके क्योंकि जहाजतो मेरी अपनी आशाओं
का डूबा था ।
उनको तो तुम्हारे दिये
निवेश से लाभ के बेड़े मिले थे ।

तो सुनो अंतिम बयान
अब कोई किसी मित्र नातेदार के लिये
एक सेर मांस कहीं से भी निकालने
की शर्त पर उधार मत
देना ।
न देना वचन ।
क्योंकि हो सकता है आशा और नाते
दोनों ही समय पर मुहरें अदा करने ना आ
सकें ।
मुझे शाईलॉक ने नहीं मेरे आशावाद ने
मारा है ।
©®सुधा राजॆ
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
bijnor
U.P
7669489600
sudha.raje7@gmail.com
प्रकाशनार्थ मौलिक रचना।

अकविता :मैं क्यों हूँ हताश

एक पतले झीने आवरण के सुनहरे सुहाने तारों वाली शायिका के पीछे छिपा
आभासीय अस्तित्व सतत निकट पहुँचने की चेष्टा और स्पर्श करते ही अदृश्य हो
जाने का भय आशंका वह चाहिये ही था किंतु हाथ लगाते ही कहीं फिर कभी सदा
को लुप्त न हो जाये भ्रम या आभास
पलता रहा
पलता रहा
मन हर कर्म क्रिया कलाप से असंबद्ध संबंधित सा हर बार उस पटावरण के
स्वर्णाभ रजताभ आभासीय परिकल्पित को देखता सोचता विचारता चलता रहा ।

एक के बाद एक कटते गये वर्ष के शाल्मली द्रुम और रह गया केवल एक साँस भर
अंतर पटवास के पंथावासीय आवरण और अंतश्चेतना के साक्षात्कार में ।
बहुत डरते डरते हटा दिया नयनतारिका के नेत्रपटल से करपल्लव की अवगुण्ठन
वाली आशंका की यवनिका
ओहह!!!!!!
ये क्या वहाँ तो कुछ भी नहीं था ।

एक सत्य जो निर्मम था ।
वह मेरी ही परिकल्पना की जिजीविषा के प्रत्यावर्तन का प्रतिबिंबित आलोक
था मेरा अपना ही छायारूप जो केवल आवरण पर ही पङ रहा था मेरी
अंतःप्राणोर्जा के आयाम से गुंफित
शेष न कुछ अतीत था न वर्तमान जिस प्रतीक्षा के लिये रोक दिये थे
रेणुघटिका के कण पतन से चलन से क्षण ।
वह निस्पंद आभास वास्तव में था नहीं ।
न स्पंदित न चित्रित न लिखित ।
आघात के शिविर से बाहर अब गाने का कोई बहाना नहीं था औऱ रोने का कोई कारण भी नहीं ।
जब कुछ कहीं था ही नहीं तो मैं क्यों हूँ हताश?
©®सुधा राजे

लेख नक्सलवाद

Sudha Raje
क्या नक्सल
वादी नक्सलवादी लगा रखी?????
विदेशी हथियार?
फर्राटेदार अंग्रेजी???
शातिर निशानेबाज।
लैपटॉप मौबाईल कैमरे
????
ये गरीबो के मसीहा है???
अरे ये 1910से चल रहा विश्वयुद्ध है जो
अमेरिका
और
रूस
के बीच ।।।
नास्तिक और ईसाईयों के बीच चल
रहा है
।।
ये चौथी दुनियाँ और तृतीय विश्व के
देशों में
नवसाम्राज्यवाद
का बीज बोकर दुनिया को अपने अपने
पक्ष में करना चाहते है।।।
जिसको दुख है उसको पुटियाते है
और
माँ
के थप्पङ पै अब्बू
को मारगिराना सिखाते
हैं ।
ये
लाल सलाम गरीबों की नहीं ।।।
विश्व से ईसाईयत और
अमेरिकी पूँजीवाद
खत्म करने की लङाई लङ रहे हैं ।
ये अफ्रीका से बंगाल बिहार जंगल तक
फैले
है ।।
हिप्नोटिज्मिक लेखन और मरहम लगाकर
दोस्त बनाकर ।।
अपने देश शासन और व्यवस्था के खिलाफ
भङकाकर बागी करना हथियार
थमाना इनका काम है ।
आप का समझते है विकास वहाँ होने देगे
ये?????
नक्सली
जब स्कूल उडाते है तो क्यों
किसी के मानने न मानने से
क्या होता है?????
जो यहाँ शहर में आराम से बैठे पक्ष ले रहे
हैं
उनसे कहो
घर बेचकर लाल वादियों को दे दो ।।
क्योंकि मसीहा वही जो सलीब उठाये
।।
सेना पुलिस बल
क्या पेङ पर लगते है ं
ये किसी निजी दुश्मनी से वहाँ जाते है
।????
85ॆसैनिक विगत वर्ष मारे गये और
आरोपी छुङाने को एङी चोटी का जोर
लगा दिया ।
ये पूँजीपति ल़ालविचारकों ने ।।।
सबूत के अभाव में सब बरी हो गये ।।
ये सिपाही क्या पूँजीपतियों के घर से
आते
है???
मामूली तनख्वाह पर गरमी सरदी रात
दिन अँधेरे उजाले सुरक्षा में लगे ।।।।।।
गाँव में इनके भी कच्चे घर और बच्चे बूढे है

आखिरी बची गोली से रक्षा न कर पाने
की ग्लानि से जिस सिपाही ने खुद
को गोली मार ली ।
उसका
परिवार नही है???
हजारों बेवायें ।।।
अनाथ
ये सिपाही न हो तो सबसे पहले
नक्सली आतंकवादी
इन्ही ढोगी
धनवान लाल विचारकों को लूटकर मार
डालें
अंदर की बात है सेना का इस्तेमाल
गृहक्लेश में बङी खबर बनता है ।।
लेकिन
हमारे पास सी आर पी एफ है
होमगार्ड्स
है और पुलिस में भी करकरे जैसे लोग
जिंदा है
सही कहा ।।।
गरीब पर दोहरी मार ।।
ये स्कूल बम से उङाते है क्यों????
ये अस्पताल तोङ देते है क्यों???
इनके साथ बङे क्वालीफाईड डॉक्टर है ।
वो कहाँ से आते हैं ।।
औरतों पर अत्याचार की बात सुनने में
बङी लोमहर्षक लगती है ।। जो औरते
बम
बारूद और रोज दरजन भर हत्यायें करके
लाशों पर ठोकरें मारती हों उनको पकङ
कर क्या
मंदिर में बिठायें???
ये ऐयाशी का सामान बनाकर
नैतिकता के सारे नियम ताक पर धरकर
गैंग में रखी जाती है और सिवा मौत
बाँटने के कुछ नहीं करती ।
गाँव वालो को बंदूक की नोक पर इनके
लिये राशन रोटी सामान
गुलामी करनी पङती है । बाजार नगर
से
सूचना लेने देन् को गाँव वाले भेजे जाते है
जब बेटी बच्चा गिरवी रख
लिया जाता है ।।। सेना ऐसा नही कर
सकती इसलिये लोग सेना से नहीं नक्सल
से
डरते है वो मार देगा मामूली बात पर
बिलकुल सही ..यही सच्चाई है ..मूल
आदिवासी बेचारा तो न घर का न घाट
का ...इधर कुआँ उधर खाई ....
मुखबिर है पुलिस का
कह कर
किसी भी वनवासी के हाथ पैर काट देते

Jun 1, 2013

लेख :बँट गये शब्द

Sudha Raje
आकाशवाणी छतरपुर ।।ग्वालियर ।।
नज़ीबाबाद ।।
से जब किसान मजदूर पंचायत
चलती तो सब राम राम कहते ।।
हिंदू ही नहीं
सिख सिंधी दलित मुसलमान तक आपस में
राम राम कहने में कोई भेदभाव
नहीं करते

फिर आडवाणी का रामरथ चला ।।
और मंदिर वहीं बनायेगे का नारा ।
उस साल हम टैगोर टाऊन इलाहबाद में
रहकर IASके सपने देख रहे थे प्रिलिम
टेस्ट पास कर लिया था और मेन का सेंटर
अटाला मस्जिद चौक का इंटर कॉलेज
था ।और कदाचित् पहली बार
IASकी परीक्षा लेने के बाद पहली बार
रद्द हुयीं ।।
जय श्रीराम ।
अब केवल एक खास पार्टी का नारा रह
गया था ।
और वन्देमातरम को एक पार्टी ने सबसे छीन लिया ।
जो जय श्रीराम कहे या वन्दे मातरम वह संघी कहकर दुत्कारा जाने लगा ।जो
खुदा हाफिज खुदा खैर करे की जगह अल्लाह हाफिज
अल्लाह खैर करे
कहने लगे वे कट्टरवादी समझे जाने लगे ।अब समीना शाकिर आकर बापू के पाँव
नहीं छूते सलाम कहते हैं
नमस्ते नहीं ।और ना ही अब अरमान आलिया को विदा करते वक्त भाभी हल्दी पैसे
रूमाल में बिटिया मानकर बाँधती है न कोई कहता है खुदा हाफिज शब ब खैर

उस वर्ष
जब घबरायी हुयी लङकियों से हॉस्टलखाली कराया गया तो ।।सपने टूट चुके
थे।
बार बार रिस्क कोन लेता है
छोरियों की कैरियर का????
मैंने फिर कभी राम राम
नहीं कहा किसी से वनवास
जो हो गया था जीवन से
ये राम किसी एक राजनैतिक दल
का नारा कैसे हो गया ।
खुदा हाफिज़ सब कहते थे गाते भी ।
तब फारसी लफ्ज़ ज्यादा थे ।
फिर अल्लाह हाफिज़ कहाँ से आ
गया अरबी निकटता और ये
संघवादी फासिज्म हमें कितना बाँट
रहा है


कभी कोई राह निकलेगी क्या जो एक
का मजहब दूसरे की नफरत की वजह न बने
गुण दोष पर ध्यान दें जाति पर नहीं ।
पंचो राम राम ।
सलाम भाईज़ान
खुदा हाफिज़
माशाअल्लाह
सुभान अल्लाह
खुदा ख़ैर करे
©Sudha Raje
Apr 30
2013

Thursday 30 January 2014

लेख :जल हाय जल जल छल छल कल कल

Sudha Raje
विश्व जल दिवस!!!!!
मनाने की जरूरत आ पङी!!!!
आगरा के पास रहने का अवसर
मिला कस्बे में तीन दिन में एक
बार सरकारी नल चलते कुओँ
का पानी सौ फीट से नीचे तीन
सौ तक
और तालाब एक भी नहीँ कोई बीस
मील दूर एक नदी बहुत गहरे
किनारे कि कोई नदी में उतर
ना सके
लोग बरतन को सूखी राख के तसले
में रगङते जब चमक जाते तो कपङे से
पोंछ देते ।
खाट पर बिना साबुन के नहाते
बेसन या आटा मलकर नीचे नाँद में
पानी इकट्ठा होता ढोर पीते
और पौधों में डालते
कपङे कम झाग वाले साबुन में खूब
फचीट कर धोते कम पानी में सब
कपङों का साबुन बारी से धोकर
निचोङते फिर दूसरी बार
पानी से धोते ये
पानी भी गली पर छिङक देते
सारी नालियाँ किसी ना किसी स
खेत को मुङती रहती
पीने को पानी उतना देते
जितना जरूरी होता गिलास
की बजाय लोग बिना जूठा किये
ऊपर से पानी डालकर पीते
तबसे एक आदत
पङ गयी
पानी व्यर्थ मत करो दोस्तो ।
अगर हमारे इलाके में
पानी की कमी नहीँ तो क्या ये
पानी ट्रांसपोर्ट के जरिये प्यासे
गुजरात राजस्थान बुंदेलखंड और
गढ़वाल को भेजा जा सकता है ।
कहीँ भी रहे पानी इतना रहे
कि हर इंसान तक पहुँचे ।
शावर । जेट । वाटर पार्क । घर
को रोज धोना । गाङी धोने में
पेयजल बरबाद करना । अपराध है
। आज नहीँ तो कल पानी पर ये
अंकुश लगेगा । इसी हिंदुस्तान में
पानी पर कत्ल और मुकदमे हो रहे
हैं चालीस मील तक सुबह जाकर
शाम तक लोग परिवार का एक
सप्ताह का पानी लाते हैं । टैंकर
ट्रेन से पानी राशन कार्ड पर
कतार में लग कर लेना पङता है ।
1980 का सूखा जब पङा तब हमारे
तमाम रिश्तेदारों ने पशु दान कर
दिये कि वहाँ पानी है
चिङियाँ और पशु
पानी कभी आवश्यकता से अधिक
बरबाद नहीँ करते । ये
धरती माँ का क्षीर है हम संताने
उतना पीये
जितना पुनः बनता रहे
नहीँ तो माँ नहीँ बचेगी
Happy water day
©®¶©®¶
Sudha Raje
एक समय में समाज जिन
कामों को स्वधर्म की तरह
निभाता था, आज वे
विशेषज्ञों की शोध का विषय बन
गए है।
Unlike · 1 · Delete · Mar 22
Sudha Raje
पहले किसान खेत को काटने के बाद
कई जगह खेत में
थोङी थोङी दूरी पर 4×8के गड्ढे
खोद डालते थे । बरसात में पूरे खेत
तर रहते गढ़ोँ में जल भर
जाता सतह सूखने पर जोत जेहल कर
बीज बो देते जो नमी से एक खास
ऊँचाई तक बढ़ जाते । जब
शुष्कता बढ़ती बारी बारी इन
गड्ढों का पानी सीँचने के काम
आता
आज बोरिँग तीन सौ फीट पर ले
जाकर आलसी हो रहा इंसान
धरती के खात्मे की तैयारी कर
रहा है
Like · Edit · Mar 22
Sudha Raje
नदियों का पानी माँस काटने
धोने बहाने और चमङा धोने
वाली फैक्ट्रियों में सबसे
ज्यादा जहरीला होकर
देह की धमनियाँ इन
नदियों का जल जहरीला करके
अपंग कर रहा है । वरना उद्गम से
समागम तक हर नदी अगर
ना लो और रिफानरियों माँस
कसाई खानो और
चमङा कपङा कागज मिलों के गंदे
पानी डाले जाने से एकदम रोक
दीं जायेँ तो
भारत आज से दस बरस में
ही हरा भरा और जल संपन्न होकर
पूरे विश्व की प्यास बुझा दे ।
Like · Edit · Mar 22
ै। किसी भी ठीक
जल प्रबंध का पहला काम
मिट्टी संरझण का होना चाहिए।
ज्यादा से ज्यादा पानी थामें
रखने के लिए धरती पर पूरी तरह
पेड़ पौधे होने चाहिए। और इसके
लिए मिट्टी उपजाउ होने
चाहिए। भूमिगत जल
की पुनः पूर्ति बराबर होते रहने
के लिए मुख्य जरूरत है अच्छे जंगल
और हरे भरे घास की।
पानी को जमा करना भी उतना ह
पानी के संग्रह के शायद सवसे
ज्यादा सक्षम और
किफायती साधन तालाब ही है।
अपने देश में जहाँ भी 50 सेंटीमी.
बारिश होती है वहां सब जगह
पानी को रोककर
उसका पूरा पूरा उपयोग करने
की रणनीति सरकार और पंयायत
की होनी चाहिए। पर दुर्भाग्य
से ऐसा हो नहीं सका
Unlike · 1 · Delete · Mar 22
Sudha Raje
पूँजीपतियोँ का नुकसान
ना हो इसीलिये
सरकारी और राजनीतिक भ्रष्ट
लोग विश्व और ब्रह्मांड के लिये
घातक और देश के लिये विनाशक
गुटखा सिगरेट शराब दुधारू पशुओं
गाय भैंसो की हत्या चोरी से
बरसो पुराने पेङ काटने के अपराध
पुराने
गङही तलैया तालाबों झीलों पर
आवासीय व्यवसायिक इमारतें
बनना रोक ही नहीँ पाते ।
क्योंकि कोई ईमानदारी से
धरती का भला नहीँ चाहता ।
दो साल पहले बिजनौर में बाढ़
आयी और भीषण
तबाही मचा गयी खेतों में रेत
ही रेत भर गयी जबकि ये सिर्फ
एक फुट पानी छोङा था ।
· Mar 22
Sudha Raje
एकदम सही घङे के तले में छेद करके
कपङे की बत्ती लगाकर गाँठ बाँधें
और हर पेङ के नीचे ग्रीष्म ऋतु में
रख दे सप्ताह में एक या दो बार
घङा भरने से
भी पूरा बागीचा हरा भरा रहेगा
Mar 22
, 2013

घरों में छत का पानी
पहले कच्चे आँगन थे
अब
वाटर लेबल रखना है
तो कानूनन
सब बहुमंजिली इमारतों का
आबे अर्श
बरसात मोङकर
टैंक द्वारा जो कंकङों से भरा हो
जमीन के भीतर
पहुँचाते हैं । तो वाटर लेबल
पूरी कॉलोनी का ही बढ़ जायेगा

लेख :नक्सल वाद घरेलू समस्या नहीं

Sudha Raje
अमेरिका प्रारंभ में अहस्तक्षेप
की नीति पर चला और बोस्टन
क्रांति ""चाय पार्टी "के बाद
फिलाडेल्फिया कन्वेंशन से जो संविधान
बना वह अपरिवर्तनीय कठोर संविधान
शक्ति पृथक्करण की अवधारणा पर
चला ।
लेकिन ब्रिटेन में जब से
गुलाबों की क्रांति हुयी और
सत्ता क्राऊन से निकल कर संसद के हाथ
में आ गयी तब चर्च का प्रभाव कम
हो गया । चर्च अपने आप में
शक्तिशाली समानान्तर सत्ता बन
चुका था और जो भी कविता लेख
कहानी किताब व्यक्ति ईसाईयत पर
सवाल उठाता रहस्यमय अंत को प्राप्त
होता । स्त्रियों को पूरे और बंद कपङे
पहनने होते थे और मतदान का अधिकार
नहीं था । तब जब भारतीय औरते
कछोटा बाँधी धोती झुंड के झुंड खेतों और
नदी तालाबों पर मुँह उघाङे अधखुले बदन
में काम करती और झूलती नहाती उत्सव
मेलों में भाग लेती । भारत जैसे देश
जो चर्च की नज़र में असभ्य थे जहाँ के
लोगों को सभ्य बनाना उन सफेद
लोगो का दैवीय कर्त्तव्य ""White
men's burden""के तहत वे सिखाने चल
पङे
जंगली तीसरी दुनियाँ चौथी दुनिया के
अविकसित देशों को विकास राजनीतिक
व्यवस्था और इंसानी तौर तरीके
सिखाने
और ईश्वर की संदेश सुनाने और ईसाईयत
का विस्तार देने चल पङे । इन
पादरियों को सारा व्यय चंदे से
सभी धनिक ईसाई चंदा करके देते ।
गोवा पांडिचेरी और केरल फिर बंगाल
और
बंबई इनके गढ़ बने । लेकिन
जल्दी ही समझ में आ गया कि पंडितों और
राजपूतों के बीच फैले जातिवाद में
इनकी दाल नहीं गलेगी । क्रिस्तान
अछूत
समझे गये क्योंकि वे मांसाहारी थे और
भारत के प्रमुख धर्मों में वर्जित
सभी पशु
खाते थे । तब
निशाना बनाया गया उपेक्षित गरीब
मजदूर और वनवासी अछूत कही जाने
वाली जातियाँ और अनाथ बच्चे तथा वे
लोग जो धर्म
की पाखंडी हिंसा उपेक्षा के शिकार थे

अंग्रेजों का रहन सहन ठाठ बाट और
रूतबा देखकर कई खाते पीते परिवार
भी सांस्कृतिक अनुकरण की चपेट में आ गये

बाईबिल के उपदेश वितरण
ज्यादा संख्या में हो सकें इसीलिये एक
प्रेस गोवा फिर केरल फिर विभिन्न
जगहों पर लगायीं और हिंदी संस्कृत
टाईप भी विकसित किये गये ।
प्रारंभिक
अखबार सिर्फ विज्ञापन के लिये
सूचना के
लिये होते । व्यापार
तो बहाना था दरअसल खनिज का दोहन
ही मुख्य बात थी । उधर रूस फिनलैंड
पोलेङ चैक और बाल्टिक राज्यों में खनिज
का दोहन तो होता लेकिन
मजदूरों की दशा पर कोई ध्यान
नहीं जाता । वहाँ किसान वर्ग
जैसी मध्य धारा नहीं थी । जो भारत
की जङ थी क्योंकि उपजाऊ जमीने
नही थी और न ही लंबे खेत रूस का एक
बहुत बङा भाग ध्रुवीय बर्फ से
ढँका रहता मजदूर और मालिक
दो ही साफ विभाजन थे सारे विचारक
पीडित परिवारों के हिस्से थे । लेनिन
के
भाई साशा की हत्या हुई और जब
वोल्शेविक क्रांति हुयी तब पहली बार
रूस में आम आदमी को बिजली मिली जिसे
मजदूरों ने नाम दिया ""इल्यीच
की बत्तियाँ""ये नाम लेनिन निकोलाई
का घरेलू नाम था । डबल रोटी ब्रैड
वाली संस्कृति में खाना फैक्ट्रियों में
बनता जो रोज खरीदा जाता बेकर
तहखानों में भट्टियों पर काम करते
वहाँ स्त्रियों को दलना पीसना उङाना
ब्रैड लिया फल सब्जी माँस के
द्वारा कुछ
बना लिया । जबकि भारत में स्त्री आज
भी अन्नपूर्णा है । तब
खाना लूटा गया ।
मजदूरों ने पहली बार जी भर माँस और
डबल रोटियाँ केक ब्रैड खाये । लेनिन
की मेन्शेविकों ने हत्या करवा दी ।
स्टालिन के उदय की जमीन तैयार हुयी
©सुधा राजे
May 29 at 1:17pm
Sudha Raje
वैचारिक युद्ध
जीतने की कोशिश ही प्रत्येक विचार
धारा का पहला और आखिरी क़दम है ।
जो भी लङाई ज़मीन पर
लङी जा रही होती पहले वह किसी के
दिमाग में एक कौंध और फिर
योजना बनती है । ये योजना कुछ लोग
सिर्फ इसलिये पसंद कर लेते हैं कि वे आपके
मित्र या संबंधी या शुभचिंतक हैं ।
तो कुछ मित्र संबंधी सिर्फ इसीलिये
नाराज़ हो जाते हैं कि वह योजना और
विचार उनको पसंद नहीं ।
ये नाराज़ होने वाले लोग ही सबसे पहले
उस विचार धारा के शिकार बनायें जाते
है ।
भौतिक पदार्थ और पूँजी का श्रम के
खिलाफ खेल । एक पूरा विज्ञान बनकर
एक विचार के रूप में जब सामने
आया तो ।
जो पूँजी के अभाव में जो लोग परेशान थे
उनको ये विचार सुंदर मनमोहक लगा ।
और जिनके पास पूँजी थी उनको भयानक

एंगल खुद पूँजीपति था लेकिन दोस्ती के
लिये मार्क्स की मदद करता रहा । और
मार्क्स का सपना हर मजदूर के दिमाग
तक पहुँचाने में इसी तरह के पूँजी के अभाव
में कुंठित लोगों ने संसार में फैलाया
क्योंकि नया नया विचार हमेशा कुछ
बाग़ी ऊबे हुये लोगों को पसंद आता है ।
धर्म को जब मार्क्स ने अफीम
कहा तो उन
सबको अच्छा लगा जिनको चर्च के नियम
पालन और हर बात में बाईबिल
की दुहाई
पसंद लगती थी ।
याद रहे इस्लामिक विश्व में मार्क्स
को कभी बहुत घुसपैठ नहीं मिली ।
इस तरह दो समर्थक मार्क्स को मिले ।
पूँजी के अभाव में कुछ न कर पाने वाले
कुंठित लोग जिनके पास तेज दिमाग और
महात्वाकांक्षा औऱ बङे सपने औऱ कुछ न
कर पाने की घुटन थी । ये शिक्षित
बेरोजगार लोग थे ।
दूसरे वे लोग जो धर्म के नियमों से
परेशान थे ।
तीसरे वे लोग जो हुकूमत करना चाहते थे
लेकिन राजशाही के वंशवाद से उनके लिये
कोई मौका नहीं था
मजदूर या ग़रीब ?? का हित
कभी भी हो ही नहीं सका । लाल चीन
में
जो हश्र है गरीबी का वो खबर
नहीं बनता लेकिन कठोर नियंत्रण लौह
आवरण की नीति के चलते ये खबरें
बरसों तक बाहर
नहीं आयी कि वहाँ सत्ता के
लालविचारक
ही शोषक हैं । और स्टालिन की लौह
आवरण की नीति से
मानवाधिकारों का जो उल्लंघन हुआ वह
अपने आप में एक भीषण उदाहरण है
डॉ पास्टरनाक और कई लोगों ने
प्रताङना सहकर सारी चीजें बाहर
निकाली । संगीत कला शिल्प और लेखन
को विलासिता समझा गया और
जो इनका प्रयोग था उसे नियंत्रित
लालविचार के प्रचार पर खर्च करने
की सख्ती की गयी । जमकर हत्यायें
हुयीं औऱतों को लालविचारकों के दैहिक
सुख के लिये
निजी पवित्रता जैसी बातों को तुच्छ
और
लालविचार धारा को महान् मंज़िल
मानकर ""व्होल टाईमर ""यानि वे
जो सिर्फ प्रचार प्रसार
योजना विस्तार में लगे उनके लिये
क़ुरबान होने को कहा गया ।
दूसरी तरफ
अमेरिका एक के बाद एक गरीब देश में
बढ़ते लाल निशानों से परेशान था ।
चिंता में ब्रिटेन फ्रांस और उद्योग
व्यापार पर निर्भर पश्चिमी देश भी थे

ये सब विरोध के लिये सहमत हुये तब
अमेरिका ने अटलांटिक पर
चहलकदमी बढ़ायी । और कर्ज
दो नीति हमारे मुताबिक
रहेगी की नीति अपनायी और
विकासशील देशों को आर्थिक उपनिवेश
बनाने के लिये मुक्त हाथ से सशर्त कर्ज़
दिये जिनमें लालविचार
धारा को प्रश्रय ना देना भी शामिल
था ।
©Sudha Raje
Wednesday at 7:24pm
Sudha Raje
आप शायद नाज़ी वाद फासीवाद
साम्यवाद और चर्च क्राउन संघर्ष
को भूल
रहे हैं ।।।
भारत पर पुर्तगाली और
फ्रांसीसी पहले
आये और उनका ही प्रभाव था ।।।
दूसरी ओर से अरब और तुर्क तीसरी और से
मंगोल और तातार हूण कुषाण ।।
ये सब कालांतर में स्थानीयता से घुल
मिल
गये ।।।।
यूरोप और अमेरिका और साम्यवादी देश
ये तीन स्पष्ट गुट विदेश के नाम पर
भारत में प्रभाव बढ़ाना चाहते थे ।।
वजह
कोयला जो उस समय ट्रेन से लेकर
बॉयलर
तक हर तरह की ऊर्जा का मूल स्रोत
था ।।
कोई वाहन या मिल
फेक्टरी दो ही चीजों से चलती थी ।।
लोहा और कोयला
ये था भारत में
सदियों का भंडार ।।।
तेल के लिये जिस तरह तुर्की के
खलीफा और अरब इजरायल ईराक ईरान
कुवैत फिलिस्तीन
को
अखाङा बनाया और इराक़ को तबाह
किया गया ।।
इसी तरह ।।
लोहा कोयला और बंधुआ मजदूर कपास
नील नमक मसाले और चाय ।।
के लिये भारत
को अखाङा बनाया गया ।
यूरोप चर्च के प्रभाव में आ गया और
यहूदी वहाँ से मारे भगाये जलाये सताये
जाने लगे ।।
रोम जब जल
रहा था तो नीरो बाँसुरी बजा रहा था
कांस्टेटीनोपोली पर हमला हुआ और
चर्च
यूरोप में सिमट गया ।
चर्च अब तानाशाही की बजाय भूमिगत
ईसाईकरण की लङाई लङने लगा और
शिकार को अस्पताल स्कूल अनाथालय
की रणनीति अपनायी ।हर अनाथ
तो ईसाई होना ही था ।
चर्च राजनीति पर हावी हो गया वैसे
ही जैसे मिडिलईस्ट औऱ पङौस में इस्लाम

राजा और चर्च के खीचतान में साम्यवाद
का उदय हुआ.
रूसो हॉब्स मैकियावेली हीगल बेंथम
मिल
कांट बोजांके दांते मार्क्स और एंगल ने
।।
समाज के मनन पर पृथक पृथक विचार
दिये

जो घर घऱ गीता कुरान बाईबिल
की तरह पढे गये ।
लोगो को आशा दिखी
और फ्रांस में क्रांति हो गयी ।।
रूसो के विचार
जन जन में छा गये मौलिक अधिकार
वहाँ पहली बार माने गये ।
लेनिन बोल्शेविक नेता बने और
मेन्शेविको की विपरीत धारा से जार
जरीना को मार कर चर्च और राजमहल
पर लाल झंडा फहरा ।
ये लहर पूरे यूरोप में दौङी और बाल्टिक
राज्यों में असर कर ही गयी ।
अमेरिका किसान कारीगरों का देश
इससे
घबरा गया औऱ लाल सागर में
चौकसी बढा दी ।
विश्वयुद्ध की जङ में ये चर्च क्राउन
लालविचार औऱ लोकतंत्र का ।
संघर्ष था ।
सेना नही विचारक लङ रहे थे
May 28 at 6:06pm
Jun 1, 2013
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Sudha Raje
Sudha Raje
लालक्रांति का मतलब
पूँजीवादी को मारकर
मजदूरों की तानाशाही ।।
ये गरीब
का मसीहा कहलाना तो पहला चरण है ।
उसके स्टेप बाई स्टेप को पढ़ो ।
ये
लाल होली उसके स्टेप बाई स्टेप
का सदी पुराना हिस्सा है ।
पूँजी पतियों की हत्या लालक्रांति का अ
अंग है ।
वे
इसे प्रचार में नहीं लाते परंतु
अवधारणा का सारा दारोमदार
इसी तीसरे स्टेप पर चौथा है
मजदूरों की तानाशाही पाँचवा कम्युनिस्
इंटरनेशनल की स्थापना और
छठा संपत्ति का सरकारी कब्जा सातवाँ
की सोवियतें स्थापित करना ।
डा.रामविलास शऱ्र्मा ने
सवऱ्हारा की तानाशाही का ‌जिक्र
अपनी एक पुस्तक में ‌किया है। जब तक
गरीब रहेगा लाल क्रांिततिके
झंडाबरदारों की दुकानें चलती रहेंगी।
इसीिललिए ये चाहते हैं गरीबी बनी रहे।
पूरा नक्सलवाद लुटेरों का गैंग है ।
ये लोग बंगाल नेपाल तमिलनाडु के विदेश
वित्त पोषित विचारक है ।
ये
पलटन बनकर टेक्निकल लोग जंगल में आते हैं
।।।
लाल
साहित्य का
पूरा फिक्स नक्शा है ।।
भारत में
संविधान में वार्सा पैक्ट राष्ट्रों के
दवाब पर सोवियत रूस के समर्थन के लिये
।।
समाजवादी
शब्द बाद में प्रस्तावना में डाला गया
ताकि लालविश्व को यकीन हो जाये
कि ।
भारत
अमेरिका के खेमे में नहीं है ।
तब दुनियाँ दो ध्रुवों में बँटी हुयी थी
और
चाईना के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये
रावलपिंडी न्यूयॉर्क धुरी बनी थी
तब कश्मीर और बांगलादेश मसले पर भारत
को समर्थन चाहिये था वीटो पावर
का । ताकि यू एन ओ की दखलंदाजी बंद
हो कश्मीर में ।
जब बंगाल में लालविचारक देश को लाल
विश्व में मिलाने का बङा भारी समर्थन
पा चुके थे तब ।।
इंदिरा जी ने ।।
ये
कूटनीति की औऱ देश
का चेहरा गुटनिरपेक्ष रह पाया ।।
लाल
क्रांति में हर चरण लिखा है ।
गरीब
का समाधान मतलब????
लाल विश्व का सफाया ।।।
फिर ये सपने में खून कैसे भरेगे
इनको
समाधान गरीबी का नहीं चाहिये
ये
गरीब पर अपनी सत्ता चाहते है
और देश की सत्ता का सफाया
Like · Edit · May 27 at 5:42pm

लेख :नक्सलवाद घरेलू समस्या नहीं रहा

Sudha Raje
छत्तीसगढ़ पहले मध्यप्रदेश ही था और
हमारा दूसरा घर भी जहाँ आज भी आधे से
ज्यादा परिजव रहते हैं ।और ये
जो बचपन
के ज़ज्बाती लोग होते है वो तो जैसे
जुगाली ही करते है बेध्यानी में
या ध्यान
में रखी हर बात का ।
ये जो हाय तौबा है न
दरअसल
इसी नीति की देन है ""फूट डालो राज्य
करो""
वनवासी सिर्फ जरूरत
की भाषा जानता है । वह जहाँ भूख
लगी खा लिया । जो मिला पी लिया ।
जहाँ नींद लगी सो गये । जो भाया उसके
हो गये । वन के विविध
देवी देवता अंधविश्वास भूत प्रेत
आत्माये
भी उतनी ही सजीव सदस्य है उनके
जीवन
की जितना कोई पालतू पशु ।
ये तो कोई कम पढ़ा लिखा किसान
मजदूर
भी कह देगा कि अधिकांश नेता -"भ्रष्ट
हैं
और महाभ्रष्ट होते जा रहे है"
पूँजीपति
को चाहिये कच्चा माल । वो है बिहार
छत्तीस गढ़ और मध्यप्रदेश में ।
सही कहें तो बँटवारा ही ग़लत हुआ
झारखंड और छत्तीसगढ़ का ।
इसको नागरिक हित के लिये
नहीं बाँटा गया । ये तीन
राज्यों की हुकूमत में फँसै कीमती खनिज
क्षेत्र को एक यूनिट बनाकर एक
ही प्रशासन के लिये बाँटा गया ।जिंदल
वेदान्ता और तमाम देशी बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ । पूरे वन खनिज और
संपदा का दोहन करती हैं । वहाँ जैसे
खोदकर सारा जंगल उलट पलट कर रख
दिया ।
वनविभाग
के सरकारी बंगलों में तेंदू पत्ता गोंद
वनफल वनघास और सूखे पेङ जब डिपो पर
जमा होते तो ये ""पास सिस्टम
""का शिकार होते । कि वन में
पत्ती लकङी और घास के
निजी अव्यवसायिक उपयोग को जा सकें

वन रक्षकों से दोस्ती भी रहती और
दुश्मनी । लेकिन उग्र कभी नहीं रहे ।
हाँलांकि निजी तौर पर कुछ
रिश्वतखोर
वन
अधिकारी वनवासी को ज्यादा पसंद
रहे । क्योंकि वे वनअपराध और वन
विधि संहिता से मुक्त रखते थे ।
कुल्हाङी छीनी औऱ साईकिल
जो किसी किसी पर थी बाद में छोङ
दिया ।
लेकिन जब उद्योग
पतियों का मायाजाल
फैला तो हर तरफ बाहरी लोग फैल गये ।
ये साहब लोग अंग्रेजी बोलते औऱ
वनवासी को हिकारत से देखते । कुछ
कामपशु भी थे । देखते देखते सारा जंगल
वनवासी के लिये वर्जित
इलाका हो गया ।
वह नहीं समझता था देश सरकार
संविधान और कानून ।
और वन में अपना राज समझता था ।
शातिर तस्करों ने पैसे का लालच
दिया और जानवर पेङ
जङीबूटियाँ काटी जाने लगीं । पकङे
जाते
वनवासी जेल जाते वनवासी औऱते
मर्दों की तरह दिन रात काम करती है
सो वे भी अपराध में शरीक़ हो गयीं ।
साहबों के घर लङकियाँ साफ सफाई के
काम पर जातीं और रहन सहन के सपने
आँखों में भर लातीं । जब तक
साहबों को नहीं देखा खपरैल
का कच्चा घर ताज महल से कम
नहीं था ।
लेकिन मानव स्वभाव की हवस बढ़
गयी रेडियो मोबाईल टी वी और छोटे
मोटे यंत्र सपने की मंज़िल हो गये ।
पैसा?? दिहाङी मजदूर को रोज
का रोज
खतम । जंगल में अघोषित अवैध रिश्ते
भी पनपे और वनवासी रस्में घायल होने
का आक्रोश भी । जहाँ तक हमें याद है
हमारे बेहद करीबी रिश्तेदार
को मरणासन्न एक ऐसे ही प्रेम प्रकरण
में
करके छोङ गये थे वनवासी । पूँजीपति -
साहब लोग-वनविभाग-के लालच रिश्वत
खोरी चरित्रहीनता ने असंतोष से
जख्मी कर दिया जंगली सीधे
भौतिकवादी जीवन को ।
राजनीति का लाल विचारक तंत्र इस
जख्म पर नमक मलने लगा और
विदेशी माओइस्ट ताकतों ने
देशी लालविचारकों को हुकूमत
का सपना दिखाया । लाल विचारक
नेता मजदूर वनवासी मुखियों के बीच
रूपया और झूठा मान सम्मान पूँजीवाद के
खात्मे का सपना लेकर पहुँच गये ।
वनवासी का दर्द मोङकर बंदूक
बना दी । जिनके दमन के लिये
पूँजीपति के उद्योग की सुरक्षा के नाम
पर सरकारी गोली चली । कानून
संविधान देश के प्रति लालविचारको के
जहरीले बाग़ी अविश्वास से
भरा जंगली खाकी और वरदी को लाल
करने लगा । ये
वरदी की दुश्मनी संगठित
धरपकङ में बदली एनकाउंटर हुये और
दोनो तरफ से लाशें गिरने लगी ।
लालविचारक महानगरों के
एसी कमरों से
मानवाधिकार पर लिखने लगे वरदी पर
सुबूत का दबाब बढ़ गया । रिमांड
पूछताछ में चीखें उठीं तो लालविचारक
नमक पर मिरची लेकर पहुँचे और बंदूके
बारूद विदेशी विश्व लाल वादियों के
सहयोग से जंगल में उगने लगीं ।
नक्सलवादी एक थर्राता नाम
हो गया जिस रूतबे को पाने
की इच्छा हर दबे दिमाग में भरने
को लाल कलम तबाही मचाने के तरीके
सैनिक प्रशिक्षण देने लगी । अब
वनवासी का एक और शोषक
हो गया नक्सलवादी समूह ये
हफ्ता वसूलते
मुफत का राशन खाते और ऐश के लिये औरतें
भी जोङा बनाकर ले जाते । ये औरते बंदूक
चलाती और बच्चो के साथ सूचनायें
लाती कुनबा बनाकर रहने लगे
नक्सलवादी परंपरा हो गयी बारूद ।
गाँव का गाँव बीबी बच्चों सहित
खूनी हो गया शातिर निशानोबाज़
हत्यारे बच्चौ औरतों को मारक ट्रैनिंग
मिलती और वरदी का लहू
शिकारी की तरह बहाते । जब
प्रतिशोध
में
पकङा धकङी गिरफ्तारी होती
लालकलम
जहर उगलती ।
ये घाव राजनीति पूँजी के लालच ने
दिय़ा
नासूर बनाया मौकापरस्त लाल
विचारकों ने तार विदेशों में।
©®©®¶©®©सुधा राजे
May 27 at 10:21am

लेख :नक्सलवाद घरेलू समस्या नहीं रहा

नक्सलवाद???
घरेलू समस्या नहीं रही ।
घरेलू समस्या है जंगलों से हथियार बंद
गिरोहों को खदेङना और जेल में
डालना ।घरेलू समस्या है वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराना ।
पूरा बिहारी ग्रामीण इलाका गरीब है ।
सारा बुंदेलखंडी ग्रामीण इलाका बेहद
गरीब है ।उङीसा कालाहांडी इलाका आजभी गरीब है । तमिलनाडु के सुदूर
गाँवों मेंआज भी भयंकर गरीबी है । बंगाल यूपी बिहार और तमिलनाडु के
बाढ़ग्रस्त इलाके आज भी गरीब हैं । राजस्थान के बेघर बंजारे खानाबदोश
गाङिया लोहार कंजर कालबेलिया सहारिया आज
भी बेहद गरीब हैं ।गरीबी बाढ़ सूखा राहत पुनर्वास और प्राकृतिक आपदायें
किसी एक राजनैतिक दल पर नहीं टाली जा सकती ।आज किसी भी एक पार्टी की
सत्ता पूरे अट्ठाईस राज्यों में हो और केंद्र में भी यह असंभव है ।अक्सर
मतदाता टूटा भग्न जनादेश दे रहे हैं । निष्ठा पार्टी नही अब प्रत्याशी की
दम खम और छवि पर ज्यादा निर्भर है ।
तो हर दल को इस मसले पर सोचकर बहुत गंभीरता से बोलना चाहिये । आज रमणसिंह
हैं कल कोई और जीत सकता है ।वनवासी जो आम तौर पर तंग आ चुके है
परेशानियों से । अगर प्रशासन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके और पुलिस सेना
सिपाही स्थानीय लोग ही हों बाहरियों के साथ साथ तब ये उन
जंगलवालों की अपनी भी समस्या है
कि सिपाही ज़िंदा रहें । स्थानीय
भाषा और रीति रिवाज सोच विचार
और जंगल की जानकारी भी होगी ।
पैसा बाँटना किसी को कपङे
खाना पहुँचाना हक़ नहीं भीख
हो सकती है । दुर्भाग्य से जीत प्राप्त करने के लिये यू पी बिहार बंगाल
छत्तीसगढ़ के भीतर यही हो रहा है ।वजीफा खाना रूपया कपङा मुआवजा जैसे हक
बनता जा रहा है । रोजगार ही जबकि एकमात्र स्थायी समाधान है। ये वैकल्पित
रोजगार चाहे वनोपज के विविध संवर्धन परिवर्धन से मिले या खनिज संपदा के ।
मुख्यधारा में
लौटाने को जरूरी है
कि वनवासी शहरों में आय़ें और पूरे भारत
औऱ भारत के इतिहास भूगोल विरासत
संस्कृति सभ्यता को समझे । हमें बहुत मौके मिले उनको बेतकल्लुफी से देखने
को तो ये समझ लीजिये कि परिवर्तन वे जल्दी स्वीकार नहीं करते । बच्चों
में शिक्षा की बजाय वजीफा पाने का ही मकसद है । और बाहरी लोगों से वे मन
नहीं मिलाते विश्वास नहीं करते ।लेकिन जिस कदर संगठित सेना का शस्त्र
प्रशिक्षण चल रहा है वहाँ वनवासी नक्सलवादियों के भीतर
वो अचंभे में डालता है । वैकल्पिक
रोजगार बन गया नक्सलवादी बनना ।
औऱ दिमागी जुनून भी । लोग आतंकित
रहते नक्सल सरगनाओं से । वे जिसे चाहे उठवा लें और जंगल में नक्सल सेना
में भर्ती कर दें । अँधेरे का डर दिखा कर टॉर्च बेची जा रही है । लिट्टे
की तरह नासूर बन गया नक्सलवाद केवल योजनायें बनाने से ठीक नहीं होगा जंगल
की जल थल नभ से सफाई करनी होगी ।और गाँव पुरवे के लोगों को इस में साथी
बनाना होगा पका घाव है मवाद
चीरकर निकाली नहीं तो गैन्ग्रीन
हो जायेगा ।सेना ऐसा कर सकती है मात्र कुछ सप्ताह में । बस दृढ़ संकल्प
से निर्दोष को बचाते
हुये ऑपरेशन संपूर्ण कॉम्बिंग
छेङना होगे
जब विभिन्न वर्गों में
दूरियाँ होंगी तो वंचित वर्ग
सुविधा सम्पन्न वर्ग को कभी चैन से
नहीं सोने देगा .... हम भी तभी तक
ईमानदार हैं न जब तक हमें रोटी मिल
रही है .....
नक्सलवाद
दरअसल देश के खोखले
स्वप्नजीवी बुद्धिमान वर्ग
की नाजायज
औलाद है । नक्सली भूख
गरीबी साधनहीनता की लङाई लङ रहे
है!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
जो भी यह कहता है वह सिरे से
ही अतिवादी है ।
आपको पता है दीवाली के
फुलझङी पटाखों की कीमत ।
??????
ये बम बारूद ये बारूदी सुरंगे ये बंदूकें ये
कारतूस ये तकनीक ये अत्याधुनिक मारक
हथियार??????
कहाँ से आये भूखे नंगे वनवासियों के
हाथों में???
जिनके पास चावल खरीदने को चालीस
रूपया रोज नहीं वो सौ रूपये से हजार
रूपये तक का कारतूस रोज कहाँ से
खरीदते
है???????
एक बंदूक कई लाख की आती है???
और इतना पेट्रोल फूँकने को पैसा कहाँ से
आता है??
पिछली बार सात
सिपाहियों की हत्या करके पेट चीरकर
उनमें हैंड ग्रेनेड भर दिये गये थे
कि जो लोग लाशें उठाने आयें वो भी मारें
जायें ।
पिछले बीस सालों में गिनती कीजिये
कितने सिपाही मारे गये?????
कितने थाने लूटे गये कितनी संपत्ति आग
के
हवाले कर दी गयी??????
ये लाल क्रांति का झूठा सपना देखने
वालों का बोया जहर है ।
जल जंगल जमीन
का
नारा व्यक्तिगत रूप से हमें भी पसंद है ।
लेकिन किसी भी तरह भारत
की तुलना रूस के जारशाही से
नहीं की जा सकती ।
यू पी बिहार से
ज्यादा बिजली पानी सङक और
नागरिक
सुविधायें छत्तीस गढ़ को लगातार देने में
लगीं हुयी है केंद्र और राज्य सरकारें ।
भारत में लालक्रांति की चरमपंथी सोच
सिरे से ही गलत है ।
भारतीयों को अकाल
तक में वैसे
हालातों का सामना नहीं करना पङा
जो
औऱ चीन में हुआ आम शासन के दौरान ।
लगातार सिपाहियों पर आऱोप है
कि वनवासियों पर अत्याचार होते है
औऱ
उनको झूठा फँसाया जाता है ।
लेकिन
क्यों नहीं ये सवाल कि चंबल की तरह
सिख अलगाववादियों की तरह ।
नक्सली हथियार फेंक कर देश
की मुख्यधारा में शामिल हो जाते????
मानवाधिकार व्यवस्था औऱ
शांति की कीमत पर नहीं बचाये
जा सकते
। जो हत्यारा है वो सजा पाये
यही कानून है ।
सिपाही निजी दुश्मनी से नहीं तैनात है

उनकी जरूरत ही न पङे फेंक दो हथियार
औऱ चलो करो संरक्षण जल जंगल जमीन
का ।
हिंसा कभी पोषणीय नहीं ।
मजदूर या दलित सरकार ने
नहीं बनाया वहाँ जो हालात आजादी से
पहले थे आज संसाधन से भरे हैं ।
सरकारी नौकरियों में
आदिवासियों को आरक्षण है ।
औऱ अगर सारी ताकत हथियार खरीदने
में खऱच कर रहे हैं तो विकास
होगा ही कैसे ।
ये
ज़ंग प्रशासन के खिलाफ है क्योंकि लाल
शासन का सपना दिखाया जाकर
आतंकवाद की तरह पृष्ठ पोषण
किया जाता रहा ।
लंबे समय तक हम जंगलों के संपर्क में रहे है
। वहाँ पूरी गुप्त
योजना मिशनरियों और
लालक्रांतिवादियों की काम करती है

ये लोग दिल्ली मुंबई कलकत्ता जैसे
महानगरों में वातानुकूलित कमरों में बैठे
हवाई यात्रायें कर रहे हैं औऱ साम्यवाद
के नाम पर विश्वगाँव की कल्पना करते
हैं
। पूँजीवादी कहकर जिस धनसमग्र
की निंदा करते है वही धन तो ध्येय बन
जाता है । हम सब एक सपना देखते है
जाति धर्म पंथ विहीन समाज का । ये
हमारे सपने चुरा लेते हैं । लेनिन नाम
रखने से कोई लेनिन नहीं हो जाता ।
लेनिन ने गाँधी को जिया और
महाराणा को भी । इनमें से कोई
भी जमीन जंगल जल जङ का नेता नहीं ।
भारतीय जनमन
की सहानुभूति संवेदना हमेशा
वनवासियों के
साथ हैं लेकिन सरकार चलाने के लिये
किसी भी पार्टी को लॉ एंड ऑर्डर
तो हर हाल में चाहिये । नागरिक
वही जो संविधान कानून सरकार
तिरंगा देश की अस्मिता औऱ
संप्रभुता का पालन करे बाकी सब देश से
गद्दारी है भारत को लोकतंत्र चाहिये
मजदूरों की तानाशाही कतई नहीं ।
क्योंकि तब हर मजदूर अवसर रखता है
संसद तक जाने
ये बारूद को साफ करने में
गिरफ्तारियाँ और मुठभेङें होगी ।
ये लोग रोयेंगे इंटरनेशनल लेबल पर
कि हाय हाय अन्याय अत्याचार ।
लेकिन
सिपाही गरीब
का बेटा किसी का सपना साया सहारा
तब
ये नहीं कहते कि
हाय
हाय गद्दार????
अगर ये वनवासियों के हितेषी हैं
तो?????
उनके कंधों से बारूद बम बंदूक उतरवायें
और
घूमे
दिल्ली मास्को ढाका छोङकर जंगल
जंगल

और
विचार
धारा के नाम पर अनपढ़
वनवासियों का मानसिक शोषण बंद
करके
उनको जीने दें???
लेकिन नहीं इनको वनवासी हित से कोई
लेना देना नहीं
ये
तो लालक्रांति की सपनीली दुनियाँ में
बैठे इंटरनेशनल गा रहै है ।
Ma
सारे वनवासियों का लोकतंत्र में ही हित
सुरक्षित है। और जो सपना ये
लालक्रांतिवादी दिखाते है उसमें मजदूर
गरीब को कुछ भी मिलने वाला नहीं ।
ना तो हक़ ना मौलिक अधिकार
ना ही प्रशासन में भागीदारी ।
क्योंकि
सारे अंग्रेजीभाषी उच्च शिक्षित्
जा बैठेगे सोवियत में ।
मजदूर तब ढाबे में सत्ता के खिलाफ
बोलता पकङा गया तो प्राण दंड
मिलेगा ।
ये ।
रोटी चावल
रोजगार
शिक्षा
आवास
संरक्षण सुनवाई
अगर मजदूर हथियार फेंक दें तो बेहतर
तरीके से लोकतंत्र में ही मिल सकती है
औऱ शासन सत्ता में भागीदारी भी ।
लेकिन
लालविचारकों को
ये
पसंद नहीं की उन वनवासियों को ये सब
मिले ।
"उनको
तो
लालशासन ही चाहिये ।
जैसे सोलोमन की कथा में बच्चा चुराने
वाली औऱत कहती है कि ठीक है
बच्चा काट कर बाँट दो आधा आधा।
औऱ
माँ कहती है तब मैं माँ होने
का दावा छोङती हूँ
बच्चा चोरनी ही को दे दें ।
वही हाल है लालविचारकों का
ये बच्चा वनवासी का जीवन
खुशहाली पोषण नहीं चाहते ।
ये
चाहते हैं चाहे काट
दो वनवासी बच्चा लेकिन
लालक्रांति साकार करके दिखा दें लाल
विश्व को कि लो हमने कर दिखाया ।
©सुधा राजे
May 26
2013

Wednesday 29 January 2014

लेख :नफरत मत घोलो

दंगे?मीडिया की तोङमरोङ कर फेंकी गयी सूचनाओ अफवाहों से ही भङकते है । और
दंगों में घाव लेकर पुनर्जीवित समुदायों को ये तोङफोङकारी मीडिया भूलने
नहीं देता । बार बार कुरेदकर नमक छिङकना इसे कहते हैं ।
खालिस्तान आंदोलन के पागलपन के दौरान चरमपंथियों आतंकियों ने पंजाब में
कितनी हत्यायें की किसी को याद है?कितने गरीबों शांतिप्रिय किसानों
मजदूरों दुकानदारों ने पंजाब छोङकर देश के अजनबी गाँवों नगरों में डेरे
बनाकर जिंदगी फिर खानाबदोशी से शुऱू की? कितने पंजाबी नौजवान जबरन
खालिस्तानी चरमपंथी अलगाव वादियों ने जबरन घरों से निकालकर बारूद में
लपेट डाले नफरत भरकर? बुरी यादें उफ डरावनी यादें।
हर दिन सन अट्हत्तर से चौरासी तक ।
रोज सिखिस्तान के पागलपन में आज के कश्मीर छत्तीसगढ़ से भी ज्यादा भयानक हालात थे ।
शेष भारत के लोग सिखिस्तान की माँग करने वाले कत्ल कर रहे थे बसें जलायीं
जा रहीं थीं ।बम गुरूद्वारों में जमा करके गाँव गाँव हिंसक जत्थे बनाकर
किसान पंजाबियों को भारत के खिलाफ भङकाया जा रहा था ।
एक दशक पूरा एक दशक लोग डर जाते थे जहाँ भी पगङीवाला कोई रेलगाङी बस ट्रक
सङक वेटिंग रूम में दिखा लोग दहशत में आ जाते थे ।
तभी इंदिराजी की दृढ़इच्छाशक्ति की बदौलत आतंकवाद समाप्त हुआ और पंजाब
बरबादी के तीसरे दौर से निकला पहला विदेशी आक्रमणकारी औऱ सिखपंथ का उदय
दूसरा दौर देश का बँटवारा और दो टुकङे पंजाब तीसरा दौर पंजाब में
पाकिस्तानी अमेरिकी चीनी हथियारों का जखीरा और गैर सिखों की हत्यायें
मासूम पंजाबियों को मारडराधमकाकर आतंकवादी बनाना ।
जब इंदिराजी की हत्या हुयी राहुल औऱ प्रियंका अबोध बालक थे ।
सोनियागांधी एक अजनबी माहौल में फँसी डरी सहमी युवती ।
फिर राजीवगाँधी तो पायलट थे जो विदेश पले बढ़े और राजनीति से सर्वथा दूर रहे ।
अगर उनकी जगह संजयगांधी होते तब तो चेहरा दूसरा होता कॉग्रेस का ।
मगर राजीव को मना चुना कर जबरदस्ती माँ की जगह बिठा दिया गया ।
उस समय माधवराव सिंधिया राजेशपायलट जगदीशटाईटलर अरजुनसिंह विद्याचरणशुक्ल
प्रणवजी मनमोहनसिंहजी फाऱूखअब्दुल्लाह और तमाम कद्दावर नेता ही कॉग्रेस
का चेहरा थे ।
नेहरूगांधी परिवार हिंसा का शिकार हुआ था ये सिखिस्तानवादियों की चरम काररवाही थी ।
लोगों में इंदिराजी की छवि उस समय घर की दादी नानी जैसी थी भले ही
इमरजेन्सी को लेकर बङे मीडिया वाले उनसे सख्त नाराज थे औऱ वे लोग भी जो
उन्नीस सौ इकहत्तर से अटहत्तर के बीत मीसाएक्ट और तमाम देशरक्षा कानूनों
में बंद कर के राजनीतिक कार्रवाहियों से रोक दिये गये थे ।
किंतु इंदिराजी की निर्मम हत्या से देश का युवा और बङा प्रौढ़ वर्ग नाराज
था हृदय विदारक दुख से स्कूलों में बच्चे तक रो रहे थे हम भी रोये थे फूट
फूट कर ।
क्योंकि आज की तुलना में देखें तो इंदिराजी जैसा नेता पैदा ही नहीं हुआ।
देश को उनहोने कोई नुकसान नहीं पहुँचाया । भले ही मीसा में जेलों में बंद
छोटे बङे नेता कालाकानून कहें या कालासमय या तानाशाही ।मगर बांगलादेश की
जीत रूस की मैत्री कशमीर में आतंकवाद पर काबू राजाओं के प्रिवीपर्स बंद
करना बैंकों के राष्ट्रीयकरण और भारत को विश्वमंच पर शक्तिशाली देश बनाना
रेडियो का विस्तार टेलीविजन का विस्तार और गरीबों को ध्यान में रखकर
बनायी गयी परियोजना के लिये आज भी इंदिराजी के सामने कोई भी नेता बच्चा
ही है ।
उस समय सिखों के साथ जो मारपीट दुर्व्यवहार हुआ उसकी वजह में खिसियानी
बिल्ली खंबा नोचे वाली मानसिकता तो थी ही ।
साथ साथ आग भङकाने का काम अलगाववादी देशविरोधी सिखआतंकियों की जश्न मनाने
और आतंकियों इंदिराजी के हत्यारों को महिमामंडित करके शहीद का दरजा देने
की मैलीदुर्भावना भी थी ।
दुखी नेतृत्वविहीन देश का कितना नुकसान हुआ यह अंदाजा लगाना मुश्किल था।
लोग आज तक कॉग्रेस मुक्त भारत चीखते तो है किंतु दिल पर हाथ ऱख कर कहें
तो । इंदिराजी का विकल्प आज तक नहीं खोज पाये ।
सिखों पर जो हिंसा हुयी वह नेहरूगाँधी परिवार ने नहीं आदेश दिया था कि जाओ मारो ।
वह भी कुछ छोटे बङे तीसरी कतार के नेताओं और मीडिया की तोङफोङ अफवाहों और
मानो या नहीं शेष भारत के लोगो का ""सलवा जुडूम था ।जिसमें अफसोस कि बङी
संख्या में निर्दोष बरबाद हुये ।
बङी संख्या में गुंडा तत्व शामिल होकर अराजक देश के नेतृत्वविहीन प्रबंध
का लाभ उठाते रहे ।
राजीवगांधी ने पंजाब को आतंकवादियों के चंगुल ने ना निकाला होता तो पंजाब
भी छत्तीसगढ़ बन चुका था ।आज राहुल क्या जवाब दें?? जवाब तो खुद सवाल
करने वालों के पास हैं कि आतंकवादी खुद अपनी ही कौम के बरबादी के कारण
हैं चाहे वे कशमीरी हो या नक्सली या खालिस्तान के कट्टरवादी ।निर्दोष तो
कब तक मरेगा एक दिन बगावत पर उतर ही आयेगा ।
वे लोग जो दूसरों के घऱ बहिन बेटियाँ जान माल आबरू लूटने में हर दंगे में
लग जाते हैं कोई बच्चे बूढ़े या तनखैया सिपाही नहीं होते। वे जनसाधारण
में सामाजिक सम्मान से रहते नागरिक पीङितों के पङौसी परिचित दोस्त कस्टमर
सहपाठी सहकर्मी होते हैं ।आज कोई नेता कह दे जाओ सब देशद्रोही खोजकर मार
दो तो क्या लोग गद्दारों नक्सलियों आतंकियों को चुनचुनकर मारने लगेगे??
नहीं
बिलकुल नहीं ।
किंतु किसी बहाने जरा सी अराजकता नेतृत्वविहीनता प्रशासनिक गैरहाजिरी और
मजहबी दुरभावना भङक जाये तो? मारकाट चालू!!
ये वे लुटेरे ठग चोर लुच्चे उठाईगीरे नफरत के पुतले होते है जो दिलों में
जहर नफरत दबाये मजबूरन अनुशासित रहते हैं और मौका पङते ही लोगों को डराना
भङकाना धमकाना लूटना चालू कर देते हैं।
नफरत की तह पर तह जमती रहती है और कमजोर मजबूर लोग जब शिकार होते हैं
निर्दोष तब बरबाद आहत शांतिप्रिय भी प्रतिशोध और रक्षा के लिये विवश लङने
लगते है।
कशमीर के लोग जब आतंकवादियों को मारना शुरू कर देगे वहाँ भी बगावत
छत्तीसगढ़ की तरह ही हो जायेगी सलवाजुडूम । मीडिया को किसी एक व्यक्ति या
दल को जिम्मेदार घोषित करने से पहले सारे हालात का बारीकी से निरीक्षण
करना चाहिये तब आरोप लगाना चाहिये । कई कांड अफवाहें भय दुख में हो जाते
हैं ।
अपराधी दंडित हों और जखमों पर दवा लगायी जाये किंतु दुबारा कन्फ्यूजन ना
फैलाया जाये साशय राजनीतिक अभिनति से पहले सच को समझो फिर सवाल करो ।
©®™सुधा राजे

लेख :सिख बागी

दंगे?मीडिया की तोङमरोङ कर फेंकी गयी सूचनाओ अफवाहों से ही भङकते है । और
दंगों में घाव लेकर पुनर्जीवित समुदायों को ये तोङफोङकारी मीडिया भूलने
नहीं देता । बार बार कुरेदकर नमक छिङकना इसे कहते हैं ।
खालिस्तान आंदोलन के पागलपन के दौरान चरमपंथियों आतंकियों ने पंजाब में
कितनी हत्यायें की किसी को याद है?
हर दिन सन अट्हत्तर से चौरासी तक ।
रोज सिखिस्तान के पागलपन में आज के कश्मीर छत्तीसगढ़ से भी ज्यादा भयानक हालात थे ।
शेष भारत के लोग सिखिस्तान की माँग करने वाले कत्ल कर रहे थे बसें जलायीं
जा रहीं थीं ।बम गुरूद्वारों में जमा करके गाँव गाँव हिंसक जत्थे बनाकर
किसान पंजाबियों को भारत के खिलाफ भङकाया जा रहा था ।
एक दशक पूरा एक दशक लोग डर जाते थे जहाँ भी पगङीवाला कोई रेलगाङी बस ट्रक
सङक वेटिंग रूम में दिखा लोग दहशत में आ जाते थे ।
तभी इंदिराजी की दृढ़इच्छाशक्ति की बदौलत आतंकवाद समाप्त हुआ और पंजाब
बरबादी के तीसरे दौर से निकला पहला विदेशी आक्रमणकारी औऱ सिखपंथ का उदय
दूसरा दौर देश का बँटवारा और दो टुकङे पंजाब तीसरा दौर पंजाब में
पाकिस्तानी अमेरिकी चीनी हथियारों का जखीरा और गैर सिखों की हत्यायें
मासूम पंजाबियों को मारडराधमकाकर आतंकवादी बनाना ।
जब इंदिराजी की हत्या हुयी राहुल औऱ प्रियंका अबोध बालक थे ।
सोनियागांधी एक अजनबी माहौल में फँसी डरी सहमी युवती ।
फिर राजीवगाँधी तो पायलट थे जो विदेश पले बढ़े और राजनीति से सर्वथा दूर रहे ।
अगर उनकी जगह संजयगांधी होते तब तो चेहरा दूसरा होता कॉग्रेस का ।
मगर राजीव को मना चुना कर जबरदस्ती माँ की जगह बिठा दिया गया ।
उस समय माधवराव सिंधिया राजेशपायलट जगदीशटाईटलर अरजुनसिंह विद्याचरणशुक्ल
प्रणवजी मनमोहनसिंहजी फाऱूखअब्दुल्लाह और तमाम कद्दावर नेता ही कॉग्रेस
का चेहरा थे ।
नेहरूगांधी परिवार हिंसा का शिकार हुआ था ये सिखिस्तानवादियों की चरम काररवाही थी ।
लोगों में इंदिराजी की छवि उस समय घर की दादी नानी जैसी थी भले ही
इमरजेन्सी को लेकर बङे मीडिया वाले उनसे सख्त नाराज थे औऱ वे लोग भी जो
उन्नीस सौ इकहत्तर से अटहत्तर के बीत मीसाएक्ट और तमाम देशरक्षा कानूनों
में बंद कर के राजनीतिक कार्रवाहियों से रोक दिये गये थे ।
किंतु इंदिराजी की निर्मम हत्या से देश का युवा और बङा प्रौढ़ वर्ग नाराज
था हृदय विदारक दुख से स्कूलों में बच्चे तक रो रहे थे हम भी रोये थे फूट
फूट कर ।
क्योंकि आज की तुलना में देखें तो इंदिराजी जैसा नेता पैदा ही नहीं हुआ।
देश को उनहोने कोई नुकसान नहीं पहुँचाया । भले ही मीसा में जेलों में बंद
छोटे बङे नेता कालाकानून कहें या कालासमय या तानाशाही ।मगर बांगलादेश की
जीत रूस की मैत्री कशमीर में आतंकवाद पर काबू राजाओं के प्रिवीपर्स बंद
करना बैंकों के राष्ट्रीयकरण और भारत को विश्वमंच पर शक्तिशाली देश बनाना
रेडियो का विस्तार टेलीविजन का विस्तार और गरीबों को ध्यान में रखकर
बनायी गयी परियोजना के लिये आज भी इंदिराजी के सामने कोई भी नेता बच्चा
ही है ।
उस समय सिखों के साथ जो मारपीट दुर्व्यवहार हुआ उसकी वजह में खिसियानी
बिल्ली खंबा नोचे वाली मानसिकता तो थी ही ।
साथ साथ आग भङकाने का काम अलगाववादी देशविरोधी सिखआतंकियों की जश्न मनाने
और आतंकियों इंदिराजी के हत्यारों को महिमामंडित करके शहीद का दरजा देने
की मैलीदुर्भावना भी थी ।
दुखी नेतृत्वविहीन देश का कितना नुकसान हुआ यह अंदाजा लगाना मुश्किल था।
लोग आज तक कॉग्रेस मुक्त भारत चीखते तो है किंतु दिल पर हाथ ऱख कर कहें
तो । इंदिराजी का विकल्प आज तक नहीं खोज पाये ।
सिखों पर जो हिंसा हुयी वह नेहरूगाँधी परिवार ने नहीं आदेश दिया था कि जाओ मारो ।
वह भी कुछ छोटे बङे तीसरी कतार के नेताओं और मीडिया की तोङफोङ अफवाहों और
मानो या नहीं शेष भारत के लोगो का ""सलवा जुडूम था ।जिसमें अफसोस कि बङी
संख्या में निर्दोष बरबाद हुये ।
बङी संख्या में गुंडा तत्व शामिल होकर अराजक देश के नेतृत्वविहीन प्रबंध
का लाभ उठाते रहे ।
राजीवगांधी ने पंजाब को आतंकवादियों के चंगुल ने ना निकाला होता तो पंजाब
भी छत्तीसगढ़ बन चुका था ।आज राहुल क्या जवाब दें?? जवाब तो खुद सवाल
करने वालों के पास हैं कि आतंकवादी खुद अपनी ही कौम के बरबादी के कारण
हैं चाहे वे कशमीरी हो या नक्सली या खालिस्तान के कट्टरवादी ।निर्दोष तो
कब तक मरेगा एक दिन बगावत पर उतर ही आयेगा । कशमीर के लोग जब आतंकवादियों
को मारना शुरू कर देगे वहाँ भी बगावत छत्तीसगढ़ की तरह ही हो जायेगी
सलवाजुडूम । मीडिया को किसी एक व्यक्ति या दल को जिम्मेदार घोषित करने से
पहले सारे हालात का बारीकी से निरीक्षण करना चाहिये तब आरोप लगाना चाहिये
। कई कांड अफवाहें भय दुख में हो जाते हैं ।
अपराधी दंडित हों और जखमों पर दवा लगायी जाये किंतु दुबारा कन्फ्यूजन ना
फैलाया जाये साशय राजनीतिक अभिनति से पहले सच को समझो फिर सवाल करो ।
©®™सुधा राजे

Tuesday 28 January 2014

अकविता:जब पहाङ नहीं बोले

जब पहाङ को बोलना था पहाङ नहीं बोले तो टूट कर गिर पङी नदी ।
जब मैदान को बोलना था मैदान नहीं बोले तो टूट टूट कर गिर पङे पेड़ ।
जब बस्ती को बोलना था बस्ती नहीं बोली तो
नोंच नोंच कर काटी गयीं लङकियाँ बच्चे कमजोर ।
जब कलम को बोलना था तब कलम नहीं बोली
कोंच कोंच कर लिखा गया लहू से झूठ
जब तुम्हें बोलना था तुम नहीं बोले
इसलिये फूट फूट कर रोया दर्द
बोलने लगेंगे जिस दिन पहाङ सच
नदी नाचती रहेगी ग्लेशियर से सागर तक
जब
बोलने लगेगे सच मैदान
जंगल हरे हो जायेगे पहाङों से मरूस्थल तक
जब
सच बोलने लगेगीं बस्तियाँ
लङकियाँ बच्चे और कमजोर गली में नाचेगे देर रात तक रोज
जब कलम सच बोलेगी
लहू के धब्बों के नीचे से निकलेगा इतिहास और गवाही देगा ।
जब
तुम सच बोलोगे
दर्द कंठ में दिल में फूट फूटकर नहीं गीतों में हहर हहर कर बहेगा ।
मूक आँसू अगर बोलते हैं तो पढ़ लेना एक चिङिया कटे पेड़ पर उदास गा रही है ।
©®सुधा राजे

कविता; हम तौ देहाती

होय जौन खौँ होय गरज दिल्ली की हम
तौ देहाती ।
बीस नुँगरियाँ खपी खेत में
का हाँती का संपाती
होय जौन खौ भावई ललहा हम निराट
बज्जुर माटी ।
रौनो रूखो होय नुनखरो नैनू कौ चांये
मिठयाती
सुधा काऊ की हेर न बिलिया टाठी हम
दुःख संघाती
हम तो पक्के देहाती
©®सुधा राज

Monday 27 January 2014

अकविता:कौन लगाये इस ठठरी पर पैसा

Sudha Raje
बीमार पङी है फरहाना कई महीनों से
चौथा हमल गिर गया ।
और महीनों से खाँस रही है तुलजा ।
जब तक गाल गुलाबी थे आँखें भी शराब
शराब थीं ।
चढ़े बदन पर शौहर क्या ज़माने भर
की नीयत ख़राब थी
सत्रह के रिश्ते ठुकराकर
अट्ठारवीं लङकी पसंद कर जिद करके बहू
बना लाया था सुमित्रा को होरी और
रीझ रीझ गया था शानू
अपनी नवेली पर ।
फूल झरे फल आये शराबें रीत गयीं और
शबाब बीत गये ।
अब?
अब कौन इस बीमार ठठरी पर
पैसा लगाये?
खूब रगङती है साबुन उबटन
गाजा सुरमा मगर सानिया उदास है
आजकल वह नहीं कोई चढ़ता शबाब
आसपास ख़ास है।
कौन लगाये इस खाँसते हाँफते कराहते
ज़िस्म पर पैसा??
मायके से बूढ़े अब्बा ने
मजबूरियाँ जता दीं और ससुराल में शौहर
ने परिवार के लिये
उसकी अनुपयोगिता जता दीं
नहीं
जता बता पायी तो वह
कि
ईँधन की कमी से चूल्हा फूँकती
और
ठंडे पानी से बरतन कपङे फर्श
धोती नहाती पकाती ठंडा बासी उच्छि
खाती वह हो गयी बीमारी और कुपोषण
की शिकार पिछले दस साल से आ रहा है
मरा मरा बुखार ।
जचगी के
वक्त किसी ने नहीं पिलाया दूध
हलदी हरीरा न मैथी के लड्डू न
पकवा पानी ना गुङ घी बादाम जीरा
जचगी के ही वक्त
दाई ने डाल दिया था नंगे बदन ठंडे फर्श
पर और नहीं की किसी ने बाद में परवाह

हाङ हाङ का दर्द है उसके बदन पर हुये
अत्याचार का गवाह ।
बच्चा पैदा करने पेट में रखने में पोर पोर
दुखता है
मगर नब्बे दिन के आराम के
की छोङो नौ दिन भी कौन आराम
को रुकता है?
अब
दुखती है हर साँस
बची है तो केवल किशोर बेटे के जवान
होने की आश
खुदा खैर करे ।
कभी तो चढ़ेगा परवान ।
शौहर ने तो जी भऱ रुलाया बेटे के राज
में शायद पूरे हो जायें आराम के अरमान
मगर लीला का वाकया डराता है
सुना है अम्माँ बेटी के घर रहती है और
बेटा तो बस कभी कभी मिलने आता है।
©®सुधा राज

""मुफतखोर भारतीय।"" सुधा राजे की व्यंग्य रचना।

राष्ट्राध्यक्ष।
एक किताब नहीं एक
संस्था हैं। उनका कथन सही है।
जाति मज़हब पर बंटी भारतीय
राजनीति एक
ही राजनीति करती नज़र आती है वोट
के बदले नोट वोट के बदले सबसिडी वोट
के बदले लैपटॉप वोट के बदले
वज़ीफ़ा वोट के बदले पट्टे वोट के बदले
प्लॉट वोट के बदले आरक्षण।।।यह
समझना होगा कि सरकार किसी अकेले
आदमी का नाम नहीं है।।।सरकार के
पास किसी राजा विक्रमादित्य
का खजाना नहीं है।।
सरकार है कौन?
गाँव सेक्रेटरी पटवारी से लेकर
राष्ट्राध्यक्ष और पंच प्रधान से लेकर
प्रधान मंत्री तक का समूह
ही तो मिलकर सरकार बनाते है ।
ये सरकार पैसा कहाँ से पाती है?
आयकर
भूमिकर
राजस्व
चंदे
विश्ववैंक के कर्ज
मित्र देशों के कर्ज
अनुदान
बिक्रीकर
वादव्यय
और अन्य जनप्राप्तियाँ।
ये एक मोटा आकलन है
सरकार कोई व्यक्ति नही जो सुबह
दुकान पर बैठे और शाम
को मोटी थैली लाकर बच्चों को बाँट दे

सरकार के नाम से शामिल हर
व्यक्ति एक इकाई है जो तनख्वाह भत्ते
वेतन भी लेता है ।
चाहे वह गाँव का सरपंच हो या देश
का राष्ट्राध्यक्ष ।
ये एक सरकारी खरचों की श्रंखला है
जो वेतन वाहन भवन सुरक्षा दवाई
भ्रमण और आयोजन सब का खरचा लेते हैं
सरकारी खजाने से ।
ये सरकारी खजाना जनता भरती है ।
वह जनता जिसे आरक्षण वजीफे छूट
सबसिडी नोट कंबल लैपटॉप साईकिल
चैक नहीं मिलते वह जनता भरती है।
भारतीय जनता का एक बङा वर्ग
निकम्मा आलसी और कामचोर तो है
भी नाज़ायज लाभ उठाने की फिराक में
भी लगा रहता है।
एक जरा दरवाजे पर गंदगी है
सरकार करे तो सफाई होगी ।
एक जरा गाँव में बाढ़ आ गयी
सरकारी मुआवजा हर आदमी को चाहिये
चाहे मकान पहले से
ही गिरा पङा था और परवार बरसों से
शहर के पक्के घऱ में रह रहा है।
एक सङक
दुर्घटना हुयी सरकारी मुआवजा चाहिये
चाहे बदतमीज नाबालिग मवाली लङके
स्टंटिग करते खुद जा टकराकर मारे गये
बस से।
कुछ लोग रातों को जानबूझकर सङक पर
सोने लगते हैं ताकि कंबल रजाईय़ाँ मिलें

कुछ लोग जानबूझकर आपदा प्रभावित
शिविरों में जाकर रहने लगते हैं
क्योंकि वे कामचोर आलसी नशाखोर
निकम्मे आवारा शराबी जुआरी और
निठल्ले हैं तो जहाँ जितना अपने
वोटर होने अपनी विशेष जाति होने
अपने विशेष मजहब होने के बदले
मुफ्त
पा सकें सङते रहते है मुफ्त पाने के लिये ।
सरकार
पैसा दो ।
फ्री में
सरकार कपङा दो फ्री में ।
सरकार पढ़ाओ
फ्री में
सरकार मकान दो
फ्री में
सरकार खाना दो
फ्री में
सरकार दवाई दो
फ्री में ।
सरकार हज करादो
फ्री में
सरकार तीर्थयात्रा करादो
फ्री में।
सरकार मंदिर मसजिद गिरजे गुरूद्वारे
को चंदा दे दो ।
बदले में तुम क्या करोगे?
मैं???
मैं क्या कर सकता हूँ?!!
मैं तो
फलां जात से हूँ
मैं तो अमुक मजहब से हूँ
मैं तो अमुक स्थान से हूँ
मैं अमुक की संतान हूँ
मुझे सबकुछ मुफ्त चाहिये ।
पैसा कहाँ से आयेगा?
सरकार देगी!
सरकार के पास कहाँ से आयेगा?
वे लोग देगें न जो मेहनत करते हैं
अगर ना दें मुफ्त सुविधायें बदले में
प्रतिदिन आठ घंटे मेहनत करनी पङे तो
??
ऐँ ऐँ ऐँ
तो फिर मैं वोट क्यों दूँ? ?
मेरे कन्ने सात वोट हैँ! !!!
अरे ये बिजली पानी सङक पुल स्कूल
अस्पताल पुल नहरें तालाब """
वो सब मैं नहीं जानता
मेरा
वोट
उसे मिलेगा जो मुफत में सब देगा
ऊपर
से नोट भी देगा
©®सुधा राजे
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
प्रकाशनार्थ रचना
यह रचना पूर्णतः मौलिक है।
7669489600

p.s. - प्रकाशनर्थ रचना।

Sunday 26 January 2014

सुधा राजे की अकविता- ""वह जो शेष रह गया।'"

बेशक बहुत सफल व्यक्ति नहीं हूँ मैं ।
नहीं हैं मेरे पास उपलब्धियों के तमाम
आँकङे
न जुटा सकी हूँ सुख सुविधायें तुम्हारे
लिये ।
न छोङकर जा रही हूँ कोई खजाना ।
किंतु मेरे बच्चे!!!!!!
जब मुझे याद करना तो याद
करना कि मेरा होना ही किसी उपलब्धि
कम नहीं था तुम्हारे लिये ।
नहीं किये मैंने समझौते
तेरी किलकारियों और
कागजी उपलब्धियों के बीच ।
जब कुछ बच्चे पालने में पङे बोतल से दूध
पीकर डरे सहमे माँ को बिसूर रहे थे तुम
अपनी माँ के कंधे से चिपककर माँ का दूध
पीकर माँ की गोद में सो रहे थे ।
जब कुछ बच्चे डरे सहमे माँ को पुकारते
रोते डरावनी आवाजों से डरकर सुबककर
चुप होकर गालों पर निशान लिये
तमाचों और आँसुओं के अक्षर याद कर रहे थे
तब तुम चहकते हुये माँ के हाथों खीर पुआ
खाते हुये कहानी के शेर बंदर भालू
परी तोते वाले विद्यालय
की परिकल्पना में अनायास
ही हाथी गुरूजी के
द्वारा चिम्पांजी और घोङे
को पढ़ायी वर्णमाला गिनती सीख चुके
थे।
जब इत्र और मँहगे कपङों से तर बतर कुछ
माँयें देर रात को आकर आया और नैनी से
पूछतीं थी बेबी सो गया?
बुखार ठीक हुआ कि नहीं?
तब तुम
माँ की बनायी लोरी माँ की आवाज में
सुनकर माँ की छाती पर चिपके माँ के
दिल की धङकनों की ताल पर सुनकर
नींद में मुसकुरा रहे होते थे ।
और तुम्हारा हर सवेरा माँ के कान
पकङकर टटोलने के बाद नींद में ही माँ के
प्रभातमंत्र सुनने के बाद होता था ।
तुम्हारे बदन की हर
घटती बढ़ती हरारत पर माँ करीब
ही रहती पानी पट्टियाँ दवाई दुआयें
आँसुओं प्रार्थनाओं और संवेदनाओं
की संलग्नताओं के साथ ।
तब जब कुथ बच्चे माँ की प्रतीक्षा में मेवे
फल मिठाईयाँ चॉकलेट छोङकर भूखे
ही सो गये तब तुम माँ के हाथ के बने लड्डू
परांठे हलवे और दलिया मान मनौवल
की खिलवाङ के साथ खाकर छुपाछुपी खेल
रहे थे माँ के साथ ।
तब जब कुछ बच्चे पिट रहे थे सबक और
शब्द न बोल पाने पर तब तुम गीत
गाना और पढ़ना सीख चुके थे औऱ कह सकते
हो कि तुम्हारा हर पहला शब्द स्पर्श
दुख सुख कदम माँ ने बाँटा माँ ने
सिखाया पहला शब्द वाक्य मंत्र गीत
और कहानी भी।
ऐसा नहीं कि मैंने तुम्हारे लिये बेहतर
सामान जुटाने को श्रम नहीं किया।
किया औऱ न जाने कितनों से
ज्यादा किया ।
किंतु नहीं किया समझौता तुम्हारे लिये
मुकर्रर प्राकृतिक मातृत्व के पलों से ।
इसलिये
जब कुछ माँयें बच्चे घर छोङकर बाजार
जातीं थीं तब
तुम्हारी माँ तुम्हें पीठ पर बाँधे बेकार
पङे घेर में फल सब्जियाँ लगाती थी।
तुम्हारे पालने की डोरी खींचती उन
बच्चों को पढ़ाती थी जिनको घर में
बीमार दादी डाँटकर कहती चुप
जा जरा देर और माँ आती होगी।
वे बच्चे तुम्हारे बगीचे में तुम्हारी माँ के
लगाये फलों को खाते तुम्हारे सस्ते
खिलौनो से खेलते अपने मँहगे खिलौने
पकवान और आलीशान भवन भूलकर हँसते
चहकते ।जल्दी आते देर से जाते बेमन से।
तब जब तुम पढ़ने जाते टिफिन में
माँ की बनायी हर दिन
नयी चिज्जियाँ होतीं और
माँ विद्यालय के द्वार पर बाहें फैलाये
मिलती
जब कुछ सहपाठी बाजार का रेडीमेड
रोज वही नाश्ता मनमसोसकर खाते और
उदास थके जाकर रिक्शॉ में बैठ जाते
तुम अपने टिफिन की नई
चिज्जियाँ साथियों के साथ बाँटकर
चहकते मेरी माँ से मिलो।
ऐसा नहीं कि मैंने समय नष्ट होने
दिया और तुम्हारी जरूरतें पूरी नहीं की
जब तुम विद्यालय में होते मैंने काम
किया और पैसे बनाये परंतु हर बार मुझे
लगा कि तुम्हारे विद्यालय की "शिक्षक
-अभिभावक सभा"
मेरे दफतर के किसी भी गेटटुगेदर
से ज्यादा जरूरी है।
जरूरी है तुम्हारे लिये रोज घर आने पर
माँ प्रणाम के शब्द सुनकर माथा चूमकर
गले मिलना।
तब जब कुछ बच्चे कम अंक आने पर पिटाई
और दो दो ट्यूशन के ताने खा रहे थे।
तुम मैरिट सूची में नाम पाकर
अपनी माँ के गले लगकर शोर मचा रहे थे।
तुम्हें पहले स्थान पर न होने का अफसोस
था किंतु
मुझे बिना ट्यूशन बिना नकल
बिना सिफारिश और विशिष्ट
व्यक्ति की संतान हुये बिना पहचाने
जाने का संतोष था ।
उस दिन बुखार में तुम्हें जबरन
ना सुलाती तो तुम्हें पहले ही स्थान पर
पाती किंतु ये सह नहीं पाती।
अब तुम सब समझते हो सब निर्णय
तुम्हारे हवाले फिर अनुरोध है मेरे बच्चे
हो सके पूछना हर फैसले के पहले
क्योंकि तुम्हें तुमसे ज्यादा कोई है
जो समझता है क्या पता ये माँ कोई
नयी राह खोज निकाले।
याद करना मुझे तो इस रूप में कि अपने
हाथों पैरों नजरों और क्षमताओं के
दायरों में मैंने बहुत संघर्ष किये हर
छोटी बङी चीज के लिये और मुझे यूँ
ही याद रखना कि पाया मैंने चाहे कुछ
भी ना हो किंतु जीवन नियति और काल
ने जो भी सामने रखा उसको बेहतर करने
के लिये मैंने कठिन प्रयत्न और संघर्ष
किये
मुझे अपनी साङी हमेशा मँहगी लगी और
तुम्हारी पसंद का हर खिलौना हर
चिज्जी सस्ती।
क्योंकि मैं उन कुछ बच्चों में से हूँ
जिनको रात को मँहगे बिस्तर खिलौने
खाना तो मिलता रहा लेकिन तुम्हारे
हर सहपाठी हर शिक्षक का नाम याद
रखने
वाली माँ की लोरियाँ नहीं मिलीं डरने
के वक्त बङे कमरे में भगवान के चित्र रहे
दो कमजोर हाथों का स्पर्श नहीं।
मुझे उपलब्धियों के लिये नहीं मेरे संघर्ष
के लिये याद रखना मेरे बच्चे!!
©®सुधा राज

अकविता:बच्चों के लिये एक खत

बेशक बहुत सफल व्यक्ति नहीं हूँ मैं ।
नहीं हैं मेरे पास उपलब्धियों के तमाम आँकङे
न जुटा सकी हूँ सुख सुविधायें तुम्हारे लिये ।
न छोङकर जा रही हूँ कोई खजाना ।
किंतु मेरे बच्चे!!!!!!
जब मुझे याद करना तो याद करना कि मेरा होना ही किसी उपलब्धि से कम नहीं
था तुम्हारे लिये ।
नहीं किये मैंने समझौते तेरी किलकारियों और कागजी उपलब्धियों के बीच ।
जब कुछ बच्चे पालने में पङे बोतल से दूध पीकर डरे सहमे माँ को बिसूर रहे
थे तुम अपनी माँ के कंधे से चिपककर माँ का दूध पीकर माँ की गोद में सो
रहे थे ।
जब कुछ बच्चे डरे सहमे माँ को पुकारते रोते डरावनी आवाजों से डरकर सुबककर
चुप होकर गालों पर निशान लिये तमाचों और आँसुओं के अक्षर याद कर रहे थे
तब तुम चहकते हुये माँ के हाथों खीर पुआ खाते हुये कहानी के शेर बंदर
भालू परी तोते वाले विद्यालय की परिकल्पना में अनायास ही हाथी गुरूजी के
द्वारा चिम्पांजी और घोङे को पढ़ायी वर्णमाला गिनती सीख चुके थे।
जब इत्र और मँहगे कपङों से तर बतर कुछ माँयें देर रात को आकर आया और नैनी
से पूछतीं थी बेबी सो गया?
बुखार ठीक हुआ कि नहीं?
तब तुम
माँ की बनायी लोरी माँ की आवाज में सुनकर माँ की छाती पर चिपके माँ के
दिल की धङकनों की ताल पर सुनकर नींद में मुसकुरा रहे होते थे ।
और तुम्हारा हर सवेरा माँ के कान पकङकर टटोलने के बाद नींद में ही माँ के
प्रभातमंत्र सुनने के बाद होता था । तुम्हारे बदन की हर घटती बढ़ती हरारत
पर माँ करीब ही रहती पानी पट्टियाँ दवाई दुआयें आँसुओं प्रार्थनाओं और
संवेदनाओं की संलग्नताओं के साथ ।
तब जब कुथ बच्चे माँ की प्रतीक्षा में मेवे फल मिठाईयाँ चॉकलेट छोङकर
भूखे ही सो गये तब तुम माँ के हाथ के बने लड्डू परांठे हलवे और दलिया मान
मनौवल की खिलवाङ के साथ खाकर छुपाछुपी खेल रहे थे माँ के साथ ।
तब जब कुछ बच्चे पिट रहे थे सबक और शब्द न बोल पाने पर तब तुम गीत गाना
और पढ़ना सीख चुके थे औऱ कह सकते हो कि तुम्हारा हर पहला शब्द स्पर्श दुख
सुख कदम माँ ने बाँटा माँ ने सिखाया पहला शब्द वाक्य मंत्र गीत और कहानी
भी।
ऐसा नहीं कि मैंने तुम्हारे लिये बेहतर सामान जुटाने को श्रम नहीं किया।
किया औऱ न जाने कितनों से ज्यादा किया ।
किंतु नहीं किया समझौता तुम्हारे लिये मुकर्रर प्राकृतिक मातृत्व के पलों से ।
इसलिये
जब कुछ माँयें बच्चे घर छोङकर बाजार जातीं थीं तब
तुम्हारी माँ तुम्हें पीठ पर बाँधे बेकार पङे घेर में फल सब्जियाँ लगाती थी।
तुम्हारे पालने की डोरी खींचती उन बच्चों को पढ़ाती थी जिनको घर में
बीमार दादी डाँटकर कहती चुप जा जरा देर और माँ आती होगी।
वे बच्चे तुम्हारे बगीचे में तुम्हारी माँ के लगाये फलों को खाते
तुम्हारे सस्ते खिलौनो से खेलते अपने मँहगे खिलौने पकवान और आलीशान भवन
भूलकर हँसते चहकते ।जल्दी आते देर से जाते बेमन से।
तब जब तुम पढ़ने जाते टिफिन में माँ की बनायी हर दिन नयी चिज्जियाँ होतीं
और माँ विद्यालय के द्वार पर बाहें फैलाये मिलती
जब कुछ सहपाठी बाजार का रेडीमेड रोज वही नाश्ता मनमसोसकर खाते और उदास
थके जाकर रिक्शॉ में बैठ जाते
तुम अपने टिफिन की नई चिज्जियाँ साथियों के साथ बाँटकर चहकते मेरी माँ से मिलो।
ऐसा नहीं कि मैंने समय नष्ट होने दिया और तुम्हारी जरूरतें पूरी नहीं की
जब तुम विद्यालय में होते मैंने काम किया और पैसे बनाये परंतु हर बार
मुझे लगा कि तुम्हारे विद्यालय की "शिक्षक -अभिभावक सभा"
मेरे दफतर के किसी भी गेटटुगेदर
से ज्यादा जरूरी है।
जरूरी है तुम्हारे लिये रोज घर आने पर माँ प्रणाम के शब्द सुनकर माथा
चूमकर गले मिलना।
तब जब कुछ बच्चे कम अंक आने पर पिटाई और दो दो ट्यूशन के ताने खा रहे थे।
तुम मैरिट सूची में नाम पाकर अपनी माँ के गले लगकर शोर मचा रहे थे।
तुम्हें पहले स्थान पर न होने का अफसोस था किंतु
मुझे बिना ट्यूशन बिना नकल बिना सिफारिश और विशिष्ट व्यक्ति की संतान
हुये बिना पहचाने जाने का संतोष था ।
उस दिन बुखार में तुम्हें जबरन ना सुलाती तो तुम्हें पहले ही स्थान पर
पाती किंतु ये सह नहीं पाती।
अब तुम सब समझते हो सब निर्णय तुम्हारे हवाले फिर अनुरोध है मेरे बच्चे
हो सके पूछना हर फैसले के पहले क्योंकि तुम्हें तुमसे ज्यादा कोई है जो
समझता है क्या पता ये माँ कोई नयी राह खोज निकाले।
याद करना मुझे तो इस रूप में कि अपने हाथों पैरों नजरों और क्षमताओं के
दायरों में मैंने बहुत संघर्ष किये हर छोटी बङी चीज के लिये और मुझे यूँ
ही याद रखना कि पाया मैंने चाहे कुछ भी ना हो किंतु जीवन नियति और काल ने
जो भी सामने रखा उसको बेहतर करने के लिये मैंने कठिन प्रयत्न और संघर्ष
किये
मुझे अपनी साङी हमेशा मँहगी लगी और तुम्हारी पसंद का हर खिलौना हर चिज्जी सस्ती।
क्योंकि मैं उन कुछ बच्चों में से हूँ जिनको रात को मँहगे बिस्तर खिलौने
खाना तो मिलता रहा लेकिन तुम्हारे हर सहपाठी हर शिक्षक का नाम याद रखने
वाली माँ की लोरियाँ नहीं मिलीं डरने के वक्त बङे कमरे में भगवान के
चित्र रहे दो कमजोर हाथों का स्पर्श नहीं।
मुझे उपलब्धियों के लिये नहीं मेरे संघर्ष के लिये याद रखना मेरे बच्चे!!
©®सुधा राजे

कहानी :शोणित के बिंब

सामने बरफ की नुकीली चट्टानें थीं और पीछे शिकारी खूँख्वार कुत्ते
वह रास्ता न याद कर पा रही थी न भूल पा रही थी कि पाँव में जख्म है और
रक्त की बूँदें उसका पता देती रहेगी चाहे वह कहीं भी छिप जाये ।
उसने नुकीली हिमशिलाओं पर पाँव जमाये और ठंडी झील में कूद गयी ऱक्त जमने
लगा था किंतु बर्फ की चोटियों पर हुहुआते भेड़िये कहीं पीछे न कूद पङे वह
तैर कर बढ़ती रही ।
हाथ फटने लगे और धङ बेज़ान हो गया रह गयीं सासें और धङकने वह रेत पर
मुरदे की तरह आँख बंद करे पङी थी कोई उठा ले जा रहा था ।
वह सोच रही थी भेङिया?
या शिकारी कुत्ते?
सुन्न देह को कोई स्पर्श नहीं हो रहा था ।
आकृति की कोई पहचान नहीं
उसके पाँव की संवेदना खत्म हो चुकी थी ।
वहाँ उस गुफा में अँधेरा था और वह आकृति पाँव के जख्म को जीभ से चाट रही
थी रक्त सूखकर काला हो चुका था ।
घुप्प अँधेरे में उसे कुछ भी नहीं दिख रहा था ।
घाव चाटते चाटते जब भी वह उस जीव प्राणी को रोकने के लिये दूसरे पाँव की
मदद से सुन्न हो चुका पाँव हटाने की जरा सी भी कोशिश करती वह और जकङ लेता
कसकर और जोर का प्रहार पीठ पर करता कभी पाँव पर ।
उसने दोनों पाँव पकङ लिये ।
इस दुरदशा में भी सुमति को भूख का अहसास हुआ और सूखते गले ने कहा पानी ।
लेकिन सिर्फ एक गुर्राहट सुनायी दी वह कोहनियों के बल उठी और आँखें फाङकर
देखा वहाँ सिर्फ कचरे का अंबार था सुमति ने दाँत पर दाँत भीचकर कचरे में
से एक अधखाया फल उठा लिया और खाने की कोशिश की मगर उबकाई सी आ गयी एक कौर
भरते ही ।
वह प्राणी पाँव चाटना छोङकर फल की तरफ झपटा और छीनकर खाने लगा सुमति ने
अँधेरे में बदबू महसूस की और प्राणसंकट। वह बाहर की तरफ खिसकी तभी सिर पर
जोश का पत्थर लगा और सुमति ने होश खोने से

Thursday 23 January 2014

अकविता-::- निलंबित दर्द।

परिकल्पित कर ली गयीं ख़ुशियाँ ।और निलंबित किये जाते रहे दर्द।
पीङा जो हर दिन हर समय हर जगह उपस्थिति रही वचनबद्ध सी दैनन्दिनी के लेख
में हाजिरी रजिस्टर में जानबूझकर गैरहाज़िर लिखी गयी और अनुपस्थिति
दिखाते रहे हर दिन जबकि वह कभी भी अनुपस्थित रहा ही नहीं ।
ख़ुशी अक्सर उपस्थित लिखी गयी दर्ज की गयी हाज़िर जबकि वह वहाँ थी ही
नहीं यह मान लिया गया कि वह बस यहीं अरीब करीब है और बस आने ही वाली है।
संभावित रही खुशियाँ हाजिर हैं लिख दीं गयी दैनन्दिनी में और आशायित रहे
कि जब आने ही वालीं हैं तो दर्द को ग़ैरहाज़िर माना जाये।
जबकि
पीछे पलटकर एक एक पृष्ठ पलटा एक एक तह खोली हर अक्षर पर निग़ाह डाली ।
खुशी तो कहीं भी उपस्थित थीं ही नहीं!!
नहीं था कभी भी वर्तमान सुख हर्ष उल्लास!!!
हाँ हर पृष्ठ पर आने वाली खुशी का वर्तमान मानकर हाजिरी रजिस्टर जारी रखा गया ।
और निलंबित रखा गया दुख ।
जो मन ही नहीं तन में जीवन में व्यष्टि और समष्टि में कहीं तीव्र कहीं
मंद कहीं ओझल कहीं बोझल कहीं प्रकट कहीं छिपा उपस्थित रहा ।
दर्द नकारा गया बर्खास्त किया गया निलंबित रहा और परिकल्पना कर ली गयी
खुशियों की जो अरीब करीब थीं परंतु वर्तमान कहीं नहीं ।
आज फिर एक टीसता दर्द अनुपस्थित लिख रहीं हूँ और हाजिर लिख रही हूँ खुशी ।
उम्मीद की दैनन्दिनी में आशा के अक्षरों से कि वह आज के हिस्से की
जीवनकक्षा चालू होने तक आ ही जायेगी।
©®सुधा राजे
दतिया, म.प्र
बिजनौर, उ. प्र

Monday 20 January 2014

चाक कलेजा आईना।

Sudha Raje
किरचें टुकङे तिनके क़तरे
रेज़ा रेज़ा आईना ।
दिल सी हस्ती ग़म सी बस्ती चाक़
कलेजा आईना।
रूह की गहरी तहों में बैठा हर पल शक़्ल
दिखाता सा।
कभी चिढ़ाता कभी रूलाता किसने
भेजा आईना।
जब भी दिखा दिया अहबाबों को, सारे
ही रूठ गये।
राहत का तकिया हमको था
उनको नेज़ा आईना।
जिस दिन से पीछे से उसने ग़ौर से
देखा था चुपके ।
क़दर बढ़ गयी इसकी तबसे अब *आवेज़ा-
आईना।
जो कोई ना देख सके ये
"सुधा" वही दिखलाता है।
या तो इसको तोङ फोङ दूँ या रब। ले
जा आईना।
लगा कलेजे से हर टुकङा नोंक ख्वाब
की सूरत सा।
टुकङे टुकङे था वज़ूद
भी युँही सहेज़ा आईना ।
जब तक कोई तुझे न तुझ सा दिखे रूह
की राहत को ।
तब तक तनहा तनहा यूँ ही मिले गले
जा आईना ।
मंदिर की देहली पर जोगन ,,जोगन
की देहली मोहन ।
मोहन की देहलीज़ ये टूटा जगत् छले
जा आईना ।
दागदार चेहरे भी हैं इल्ज़ाम आईने पर
ऱखते ।
जितना तोङे अक़्श दिखाकर ख़ाक मले
जा आईना ।
चुभी सचाई लहू निकल कर चमक उठे
**औराक़ भी यूँ ।
तोङ के जर्रों में फिर नंगे पाँव चले
जा आईना ।
©®Sudha Raje
Dta/Bjnr

लेख :संस्मरण यात्रा वृतांत मेरठ

Sudha Raje
मेरठ एक संवेदनशील इलाका है । हम सब
अकसर परेशान हो जाते हैं जाम लगने पर
। वहाँ इतने दंगे हो चुके हैं कि हर पल हर
आदमी जो स्थानीय है डरा रहता है ।
जरा सी असावधानी और गले से चेन जेब से
बटुआ और बगल से बच्चा गायब ।
ऐसे में पुलिस और स्थानीय नेताओं
की लापरवाही का आलम ये है
कि मलियाना फाटक परतापुर बाई
पास बेगम ब्रिज हापुङ अड्डे सूरजकुण्ड
पर बङे अतिक्रमण हो चुके है ।
रेलवे लाईन के दोनों तरफ
घनी मंडी मलियाना फाटक के नीचे
लगी है और सारी गलियाँ चाहे अस्पताल
की हो या हवाई अड्डे के निर्माण
की तरफ या चौधरीचरण सिंह
यूनिवर्सिटी की तरफ सब पर
अतिक्रमण खड्डे और लापरवाही से
वाहन चलाते नये लङके
लङकियाँ टैक्सी ऑटो ।
स्टंटबाज लङके अकसर कॉलेज के आसपास
बाईक स्टंट करते मिल जाते है जबकि कई
बार ज्ञात हुआ कि वे पढ़ने वाले लङके
नहीं थे बल्कि गैराज ढाबे और जदह ब
जगह काम करने वाले लङके थे
जो बढ़िया कमाई करके शान दिखाने के
चक्कर में बढ़िया कपङे पहनकर
लङकियों की आवाजाही वाले मार्ग पर
स्टंट कर रहे थे ।
लगभग हर रोड पर बॉयज हॉस्टल
बनाकर लोगो ने मकान किराये पर
चढ़ा रखे हैं और तीन हजार से छह हजार
तक एक कमरे का किराया माँग रखा है ।
जिसकी वजह से एक कमरे में दो से छह तक
लङके लङकियाँ रहते है ।
मेरठ गाँवों का महानगर है वहाँ नगरीय
संस्कृति छू भी नहीं गयी ।
अनुशासन नाम की कोई चीज नहीं
और कानून व्यवस्था भगवान अल्लाह और
यीषु के हवाले है ।
जुमे की नमाज़ सङको पर पढ़ी जाती है
जबकि लोग चाहे तो घर पर सुकून से पढ़
सकते है ।
ठीक दिल्ली अड्डे से मवाना अड्डे पर
तक पशु काटे जाते है खुले आम रोड के
दोनों तरफ
मख्खियाँ भिनभिनाती रहती है और
काटकर बङे बङे टाँग सिर पसलियाँ पीठ
पेट ऊँचे काऊन्टर पर टाँग कर रखे जाते है
। खून सने हाथ लिये रुपये गिनते
दुकानदार और वहीं कटने के इंतिज़ार में
बँधे या खुले भटकते पशु
ना शीशा ना जाली ना ढक्कन ना बंद
शोकेस?? कलेक्टर रणदीप रिणवा तो आज
आये है । मेरठ के लोग कानून को ठेंगे पर
रखते हैं । ऑटो वाला सवारी भर लेता है
और अगर बाकी सवारियाँ बीच के
स्टॉपेज पर उतरती चली गयीं तब
तो बची हुयी इकली सवारी जिसको बि
मंजिल तक के लिये ऑटोवाला बीच रास्ते
में कहीं भी उतार देगा कि अब एक के
लिये इतना तेल नहीं फूँकता ।
लोग ठसाठस ठाँसकर सवारी भरे
बिना चलते ही नहीं आप कितने
ही ऑटो बदल लीजिये सोलह सवारी जब
तक नहीं भरेगी तो ऑटो नहीं चलेगा ।
लोग बिना सायलेंर के जनरेटर
आटाचक्की स्पेलर और तमाम
ध्वनिपैदा करने वाली मशीने चलाते
रहते है ।
बस में बूढी कमजोर और जवान
गर्भवती औरतें मासूम बच्चे गोद में टाँगे
नववधुयें और बेहद बीमार घायल लोग खङे
रहते है जवान हट्टे कट्टे स्थानीय लङके
उद्दंडता से सीट पर पसरे रहते हैं ।
मकानमालिक किराया एडवांस लेता है
लेकिन मोटर चलाने पर बिजली पर
आवाजाही पर और ताला लगाकर
जानेपर बङबङ करता है ।
साफ सफाई का ये आलम है कि हर
डिवाईडर के बीच
का हरितपट्टी क्षेत्र कूङा कचरा फेंकने
का स्थान बना हुआ है । वहीं सिंदूर
पोतकर तमाम भिखारी तांत्रिक
मांत्रिक बैठे हैं तो तमाम टेंट लगाकर
मरदानगी की दवा बेचने वाले
शरतिया भूत प्रेत वशीकरण
की गारंटी की दुकाने हैं । सङक पर हर
तरफ अफरा तफरी है
कहीं दिखता नहीं कि पुलिस है नियम है
कानून है । पैदल चलने वाले को ठोक
देना परम कर्त्तव्य है और जोर जोर से
हॉर्न वगातार बजाते रहना अनिवार्य
आदत ।
लोग जमकर गुटखा खाते हैं और
कहीं भी जाईये अस्पताल रेलवे स्टेशन
मंदिर पार्क कॉलेज सब जगह गुटखा पान
थूकते दीवारों पर सभ्य नागरिक मिल
जायेगे । हर मंदिर की पिछली दीवार
पर काली लाल पीली इबारतों में
लङकियों के लिये प्रेम संदेश पास होने
नौकरी लगने और ब्याह होने की मन्नते
लिखी मिल जायेगी । शोर शोर शोर
कहीं तकरीर कहीं मीलाद कहीं बारात
कहीं मातम कहीं नेता का प्रचार और
कहीं हुङदंग डांस पार्टी । कूङे के ढेर के
ढेर शहर के हर इलाके में । खाली प्लॉट
टूटे मकान और रोड डिवाईडर मतलब
कूङा पहाङ । गंदे भरे पङे गटर और उनके
टूटे ढक्कन टूटी नाली से सङक पर
बहता पानी । और सङकों पर खड्डे
ही खड्डे । हर तरफ झगङा करते लोग ।
जाम लगने की वजह से दाम कम कराने
की वजह से बस ऑटो में सीट पर ठीक
पसर कर बैठने की वजह से ।
खङी सवारियाँ पास पास खिसकाकर
सटाकर जगह बचाकर और
सवारियाँ भरने की वजह से
झगङा झगङा झगङा । लङकियाँ को सीने
पर नोंच लेना पीठ पेट कूल्हे पर
गंदी भावना से कोंचना । और
घूरना फिकरे कसना । मामूली बात है ।
कई बार तो शराब पीकर पुलिस वाले
तक लङकियों को देखकर बस में बैठे आपस में
असहनीय वार्तालाप करते मिल जायेंगे
। पॉश कॉलोनियाँ छोङ दें तो हर तरफ
शोर गंदगी और धक्कामुक्की । मेरठ में
लोग कपङे तो आधुनिक पहनते है किंतु
सोच!!!! मजहबवादी धर्मवादी और
स्त्रीविरोधी । बाहरी गाँवों से आये
लङके लङकियों के तो मेरठ आते ही जैसे पंख
लग जाते है । गाँव में दुपट्टा डाले
फिरती लङकियाँ और कुरते पाजामे वाले
लङके मेरठ में बॉलीवुडिया पोशाकों में
कैंपस को फिल्मिस्तान बनाकर ग्रुप में
हुल्लङ मचाते मिल जायेंगे । माँ बाप
की कमाई पर ऐश और बचे समय में
फटकेबाजी । जो हकीकत में पढ़नेवाले है
वे थोङे ही समय में मेरठ से भाग खङे होते
हैं । कॉलेज तो बहुत है लेकिन पढ़ाई कम
ही कॉलेजों में होती है ।
गुणवत्ता वाली पढ़ाई तो और भी कम
कॉलेजो में होती है । नकल कराने वाले
मास्टरों की चाँदी है लङके
लङकियाँ पढ़ना नहीं डिगरी कबाङना च
है । अजीब हाल है लोग
बाहरी आदमी को चटपट बेवकूफ बनाने से
जरा भी नहीं हिचकते । दाम
ज्यादा लेना पता गलत बताना फटे नोट
थमाना लूटपाट कर लेना और छल से लाभ
लेना । फटाफट हर बात को तो हिंदू
मुसलमानी चश्में से देखने की आदत है ।
ढींगे हाँकते कदम कदम पर लल्लनवपप्पन
मुन्ने दादा । जो भी मेऱठ में दस साल
हरकर खुशी से जी लिया वह फिर
कहीं भी कैसे भी रह लेगा
मेरठ में कुछ साल के अनुभव
©®सुधा राजे
Jan 16 at 7:46am

Sunday 19 January 2014

स्त्री और जिजीविषा .

स्त्री और जिजीविषा .

मेरा सारा अस्तित्व खंड
खंड काट दिया गया
क्योंकि मैं जीवन और जिजीविषा से
भरी थी और
जब मुझे
काटा जा रहा था तब ये
छल था कि तुमसे जीवन
की बस्ती बसायी जायेगी लेकिन
एक के बाद एक सब
जिंदा अहसास उपलब्धियाँ
और सारे जिंदा लोग मुझसे काट
दिये गये मुझे
बनाया गया
मरी हुयी आशाओं और कपट से कत्ल
की हुयी निष्ठाओं का
मरघट
और मेरी अपनी अपने अस्तित्व
की चिता का ढेर
धधक कर
धू धू
जलाया गया
कभी सजाकर कभी नोंचकर
जो गट्टर
था वह
मेरा ही हिस्सा था
जिसपर
शव रूप
जली आशा आकाक्षा ईप्सा अभीप्सा प्रेम
निष्ठा विश्वास नव सृजन
और कोमल भाव
जब सब
राख हो गये
तो रस्मों की भीङ
आयी
अपने अपने स्वार्थ से और चुन
ली बची खुची अस्थियाँ डाल
दी आँसुओं की गंगा के तल में अब
महानता की एक तस्वीर
पर दो मालायें
टॅगी थी एक
छली गयी तुलसी जो मेरी बनायी थी कभ
और दूसरे
सूखे डाली से पृथक फूल जो मैंने ही लगाये
थे कभी
कुछ
दिन सबको याद आयी
मेरी महानता
कर्तव्यनिष्ठा
और
चरचा की फिर बस
मेरी तस्वीर एक
अनदेखा अभ्यास
हो ही गयी
मुझे दिखाकर हर हरे पेङ से मेरे
जैसा महान् बनने को कहा जाता
कभी कभी कोई
अनजाना पूछ लेता कौन है
और उस दिन
चर्चा हो जाती लेकिन
मरघट में टुकङे
कटी लकङियों पर कुछ फल
फूल थे और मेरा बीज निकल
पङा धधकती चिताओं के
बीच आकाश के रोने पर मैं
इन फूटते नव
मुकुलों को बचाना चाहती थी और
मैं खाद बन गयी खाद में
आकाश को चूमते पेङ
चिताओं के बीच खङे थे और
चिता के पास प्रेत
था मेरा मेरे प्रेत
की कथाये
डरातीं रहीं और मेरे
अस्तित्व को विस्तार
जो बस्ती के जीवन में
नहीं मिला था बस्ती की मौत
पर मिला लोग ज ल फूल
फल चढाते और मनौती करते
मैं मरकर
जी उठी थी मेरी बेटियों के
रूप में मैं
स्त्री थी जो जीवन से
नहीं मौत से खेलती थी
हाँ
मैं मौत की सहेली स्त्री जिंदगी का छल
समझ गयी
©®¶©®
Sudha Raje
Dta —Bjnr
Mar 8
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Saturday 18 January 2014

अकविता:दुधारू पशु बचाओ

Sudha Raje
Apr 14 at 2:26pm ·
इसलिये नहीँ कि हिन्दू
मुस्लिम ।।।
इसलिये कि रूबी और
रेहाना की माँ को जब
दूध
नहीँ उतरा तो हमारी गौरी
ने भर भर माता का दूध दिया
पल गयीं।
मुफ्त में गाँव
की धेवती मानकर।
तो
धाय माँ दूध
माँ की हत्या ग़ुनाह है।
जब माँ नहीँ तो दुधारू
गाय भैंस
बकरी ही माँ होती है ।
एक बेटे का फर्ज है
जिसका दूध
पिया उसकी जान
बचाये ।
जबकि पश्चिमी यूपी।सहित तमाम
भारतीय ग्रामीणों का । का खेती के
बाद दूसरा रोजगार दूध घी दही है तब
गौ भैंस बकरी पालन
को बढ़ावा देना चाहिये और दुधारू पशु
वध बंद होने चाहिये
ये
न मजहब है न जाति न
राजनीति
दुधारू ग भैंस
बकरी ऊँटनी भेङ ।
बचे
तो
कुपोषण भारत छोङेगा
विज्ञापनों में
आमिर के चीखने से कुपोषण नहीं हटेगा ।
एक गाय भैंस
बीस साल तक परिवार को आधा आहार
और पूरा रोजगार देती है ।
जबकि मार कर खाने पर केवल पाँच
लोगो का एक दिन का चटोरापन
तो
बीस साल तक परिवार
पालना ज्यादा जरूरी है
दुधारू पशु वध बंद कीजिये
Apr 19, 2013

अकविता:बारूद के आदमी

Sudha Raje
Sudha Raje
जब सेना के राज़ रेहङी वाले
भिखारी और
पासरबाई उङा कर ले जाते हैं तब
जवानों की लाशें आती है ।।लेकिन जब
सेना रास्ते बंद करती है तो केवल दो से
दस किलोमीटर मार्ग
घूमना पङता है!!!!!
देश की सेना की जय बोल!!! कि घर है
आपके
पास और बोलने की आजादी ।।
वरना दो दिन ना लगें गुलाम बनने में
सेना अगर
अपनी प्रायवेसी जरूरी समझती है
तो उसको मिलनी चाहिये ये एहतियात
है
तानाशाही नहीं हम कब सीखेगे
सेना को सम्मान देना????
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Sudha Raje
वैकल्पिक रास्ते उपलब्ध कराना कलेक्टर
का काम है और नागरिकों का फर्ज है
कि सेना और एंबुलेंस को पहले निकलने दें ।
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Sudha Raje
आर्मी एरिया मटरगश्ती की जगह
नहीं ।
ये वे लोग है जो जान हथेली पर रखकर
कच्छ कशमीर थार में लङकर आते है चार
पल सुकून से जीने दो ।
पता नहीं किसकी छाती पर कब
तिरंगा लिपट कर रो पङे ।
वहाँ मॉर्निंग वाक ईवनिंग वाक
सिवा देश के वीरों पर डिसटर्ब के कुछ
नहीं ।। शांति से कुछ पल तो रहने दो ।
। ये रात दिन हाङ तोङ मेहनत करने
वाले लोग है । वह धूल चूमने और माथे से
लगाने लायक है जहाँ हिंद की सेना पाँव
रखकर निकल गयी । सेना को देखकर
जो रास्ता देकर सलाम ना करे वह देश
भक्त नहीं आलसी और बोझ है
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Sudha Raje
सेना के रास्ते से हटो । जरूरत पङे
तो बीस किलोमीटर चक्कर लगाओ मगर
सैनिक एरिया में आम आवाजाही बंद
हो सख्ती से
Thursday at 6:47am · Edited
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You, Ashok Mishra and 29
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Sudha Raje
सेना अपना इलाका बता रही है तो???
बताने दो न?? क्या वह किसी सैनिक
की निजी प्रॉपर्टी हो जायेगा??
Unlike · 2 · Edit · Thursday at
7:49am
Sudha Raje
हमारे यहाँ टेकनपुर में बीएसएफ है और
मुरार में सेना मगर
ऐसा तमाशा कभी नहीं देखा!!!! शर्म
आनी चाहिये मेरठ वालो को जो जमकर
दंगा करते है जाम लगाते है और सैनिक
मामलों में हसक्षेप
बिना उनकी भूमिका समझे करते है
Unlike · 2 · Edit · Thursday at
7:51am
Sudha Raje
आप लोग नहीं समझ रहे हो मगर हम देख
रहे हैं भाँप रहे है कि पूरी एक लॉबी अब
हिंद की सेना के खिलाफ छोटे बङे बयान
दे दे कर सेना का सम्मान नागरिकों में कम
करना चाहती है और जानबूझकर सैनिक
को डराना अपमानित करना और
जनता का सेना पर भरोसा कम
करना चाहती है
सेना को चर्चा का विषय बनाकर
साबित करना चाहती है कि भारतीय
नागरिकों को सेना पसंद नही भारतीय
सेना डिक्कटेटर है ये सब भारत के गद्दार
लोग है
Unlike · 2 · Edit · Thursday at
7:55am
Sudha Raje
Sudha Rajeसैन्य गोपनीयता और
प्रायवेसी के मद्देनजर वैकल्पिक रास्ते
बनाईये सेना केऊपर तमाम देश के
भितरघातियों की वैसेही टेङी नजर है ।
सैनिक क्षेत्र सेपब्लिक
आवाजाही रूकनी चाहियेSudha Rajeदेश
की सुरक्षा के लिये जो लोग ज़ान देतेहैं
उनकी बात ज़ायज है पाँच दस मील घूमकर
आने में हंगामा???? और सेना बर्फ रेतदलदल
पहाङ तक चढ़कर पबलिकबचाती है!!!!
लोग हर समय शॉर्टकट केचक्कर में
क्यों रहते हैं?? मेरठ मेंविदेशी रेकी करते
हैं पबलिक के बहानEdited · Like · Edit ·
Yesterday at5:27pm
Unlike · 1 · Edit · Thursday at
11:48am
Sudha Raje
हमारा पक्का मानना है कि उसमें भङकने
वाले प्रथम लेयर पर वही लोग हैं
जो दंगा करने में इसलिये नाकाम रहते हैं
कि मेरठ अलीगढ़ मुजफ्फरनगर मुरादाबाद
बिजनौर को तत्काल सेना घेर लेती है और
फ्लैग मार्च से ये देश के
भितरघाती अपना खुल्ला खेल नहीं कर
पाते
Unlike · 1 · Edit · Thursday at
3:20pm
Sudha Raje
आर्मी क्यों एक से कपङे और चेहरे रखती है?
ताकि व्यक्तिगत पहचान ना बने । जज
क्यों नहीं समाज में घुलते
क्योंकि निजी नाते ना बने । कोई
भी जवान सिविलियन से घुलमिल कर कुछ
कह सुन दे तो बङा कांड हो सकता है ।
और जासूस तो कई बार पकङे भी गये!
Unlike · 1 · Edit · Thursday at
3:22pm
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अकविता:बारूद के आदमी

Sudha Raje
सेना की गाङी रोड पर जा रही है ।
जाने दीजिये पहले ।
क्योंकि हो सकता है वे
किसी आतंकवादी का पीछा कर रहे
हों ।
हो सकता है उस गाङी में विस्फोटक
पदार्थ हों
हो सकता है सैनिक को तत्काल
किसी मिशन पर रवाना होने का आदेश
मिला हो ।
हो सकता है गाङी में कोई कुख्यात
आतंकवादी बाँधकर लिटा रखा हो
हो सकता है कोई
जरूरी सूचना कहीं जरूरी अथॉरिटी को दे
की तेजी हो ।
हम तो कहते है यहाँ तक कि एक एंबुलेंस
को बाद में पहले सैनिक
गाङी को निकलने दो क्योंकि देश के
भीतर आफत आये या बाहर सबसे पहले
जान देने सैनिक चल पङता है ।
उनको वी वी वी आई पी माना जाये हर
सैनिक को रोज कङी मशक्कत के बाद
रोटी नसीब होती है ।
सैनिक कभी सात घंटे से
ज्यादा नहीं सोता ।
कभी ज्यादा नहीं खाता कि पेट फूल
जाये ।
कभी इतनी छुट्टी नहीं मिलती कि आलस

सेना को सम्मान दो ताकि हर नौजवान
का सपना हो सैनिक बनने का ।
हर स्कूल में लोग बच्चे को इंजीनियर
डॉक्टर बिजनेस मैन बनाने तो भेजते है
मगर बहुत कम जिगर वाले
माता पिता सपना पालते है
कि मेरा बेटा देश का सैनिक बनेगा ।
जयहिंद ©®सुधा राजे
Thursday at 9:52am

Friday 17 January 2014

अकविता:बारूद केआदमी4

Sudha Raje
सैनिक रोड पर जा रहा है। या ट्रेन में
या बस में । निःसंदेह ड्यूटी से आ रहा है
या ड्यूटी पर जा रहा है । हर सैनिक
सुबह पाँच बजे परेड ग्राऊण्ड पर
पहुँचता है दस किलोमीटर दौङता है
तीन घंटे रोज शस्त्राभ्यास करता है ।
ठीक घङी देखकर खाना खाता है
घङी देखकर सोता जागता है ।
एक प्रोफेसर की तनख्वाह सैनिक से
अधिक है ।
एक बैंक क्लर्क की तनख्वाह सैनिक से
अधिक है ।
एक मान्यताप्राप्त पत्रकार
की तनख्वाह भी सैनिक से अधिक है ।
एक बैंक अधिकारी जज वकील पत्रकार
टीचर ऐसे कपङे पहनता है जो देह
को आराम देते है ।
एक सैनिक के जूते पहनकर वरदी पहनकर
जितना असलहा बदन पर होता है
उतना टाँग कर केवल सात दिन बिताकर
देखो ।
रोज मुँह अँधेरे सरदी गरमी बरसात रेत
बरफ पहाङ दलदल सब के साथ हर हाल में
सुबह तङके बारहों महीने सातों दिन हर
रोज उठकर देखो ।
ड्रिल परेड पेट के बल
घिसटना कोहनी के बल चलना एक हाथ
एक पाँव बाँधकर चलना कुत्तों और
घोङो के पीछे दौङना ।
फिर ये तो रोज का वार्म अप है ।
मुस्तैद ड्यूटी ।
बाढ़ भूकंप दंगा युद्ध छद्म युद्ध
आँधी तूफान में हवा में पानी के भीतर
जमीन पर जमीन के भीतर पैराशूट पर
रस्सियों पर हर वक्त ज़ान की बाजी ।
जाने कब चूकते ही प्लेनक्रेश
पैराशूट नहीं खुला जान गयी ।
रस्सी टूटी जान गयी ।
जंगल में साँप जानवर सीमा पर दुश्मन
घर के भीतर दंगाई सब से जूझना ।
हर जगह हर तरह
ये सब करने के बाद
लौटकर घर जाता सैनिक सम्मान
का हकदार है ।
हमारा नौकर नहीं पहरेदार है ।
एक विधायक को रास्ता मत दो भले
मगर सैनिक को जरूर दो ©®सुधा राजे
Yesterday at 10:09am

अकविता:बारूद के आदमी3

Sudha Raje
हमने वह बचपन देखा है जब सैनिक गाँव
आता था तो गाँव वाले दावत पर बुलाते
थे ।
सैनिक सङक से निकलते थे तो शिक्षक
मातापिता खुद भी जयहिंद कहकर
अभिवादन करते अजनबी सैनिक का और
हम बच्चों को भी कहते
फौजी भैया जा रहे हैं जयहिंद कहो ।
वह संस्कार आज फिर चाहिये ।
जब कोई युवक सेना में भरती होने
को सबसे पहले आवेदन दे सबसे बाद में
नहीं ।
जब हर नौजवान तैयारी करे
सेना की फिटनेस पाने की ।
जब कोई युवा सेना में भरती हो तो लोग
उस परिवार को सिर आँखों पर बिठा लें

सैनिक के हर वाहन हर साईकिल बाईक
और मकान पर लिखा हो "सैनिक "और जब
सैनिक शहीद हो तो सारा गाँव एक
दिन शोक मनाये और सैनिक के परिवार
को आजीवन सम्मान दे ।
©®सुधा राजे
Yesterday at 10:20am

अकविता :बारूद के आदमी 2

Sudha Raje
शराब शबाब कबाब और दिन चढ़े तक
सोने वाले ।
एयरकंडीशंड दफतर कार मकान में रहने
वाले ।
कभी उस एक कमरे के क्वार्टर में जाकर
रह नहीं नहीं सकते
जहाँ गरमी का मतलब गरमी होता है
और सरदी का मतलब सरदी । बरसात
का मतलब कीचङ दलदल साँप गोजर
बिच्छू होते है सीलन होती है और
ड्यूटी का मतलब होता है खङे
रहना चलते रहना टैंट में सोना ।
जब सैनिक छुट्टी को सुख से
नहीं मना सकेगा तो ज़ांबाजी से कैसे
रखवाली करेगा?
उसकी छुट्टी खेत के बैल और ताँगे के घोङे
की छुट्टी है जो अतिशय थकान से बचाने
को तनाव और शऱीर की थकान मिटाने
को होती है ।
वह कहीं भी है ऑन ड्यूटी ही है यहाँ तक
कि शादी कैंसिल करके भी उसे एक कॉल
पर जाना पङता है ।
वह कहीं ठहाके लगा रहा है
तो कहीं भीषण दर्द सहकर आ रहा है ।
रम पीकर झूम रहा है तो कहीं गम पीकर
बहुत रोया है ।
वह बीबी की डिलेवरी पर साथ
नहीं था ।
वह माँ के बीमार होने पर समय पर
सेवा कर नहीं पाया । उसने बच्चे
को जी भर खेलते चलते नहीं देखा ।
वह रात को अकेला जागता रहा और
दिन को अकेला तपता रहा सैनिक बारूद
के बीच रहता है हर पल ।
छुट्टी तक राह देखती है
बीबी उसको एक फोन वह हर पल
सामान्य लोगो की तरह नहीं कर
सकता ।
राह देखता है बच्चा पापा कब आ रहे हैं

और वह बच्चे की तसवीर जेब में रखे दौङ
रहा होता है चीते की रफतार से ।
छुट्टी सैनिक
की ड्यूटी का ही हिस्सा है बीबी बच्चे
माँ बाप भाई बहिन पुश्तैनी जमीन घर
और दोस्तो नातेदारों के
प्रति बकाया रह गये
कर्त्तव्यों की ड्यूटी पूरी करने
की छुट्टी । वह गाँव जाकर
भी ड्यूटी करता है ।
सैनिक जब दिखे रास्ता दो अभिवादन
करो जयहिंद जयजवान कहकर सम्मान
दो तुम जो भी हो केवल इसलिये
हो क्योंकि सैनिक है न ।
केवल तनखाह से
तो ज़ांबाजी नहीं आती!!!!!
ये ज़ज़्बा पैदा होता सैनिक के सम्मान से

सगे भाई और बेटे से भी पहले सैनिक
को अपनापन दो ।
वह कभी ऑफ ड्यूटी नहीं है तब भी जब
वह नाच रहा हो चौपाल पर
©®सुधा राजे
Yesterday at 10:44am

अकविता:बारूद के आदमी

Sudha Raje
जब एक आदमी दारू पी पी कर अस्पताल
में मरता है तो देश के संस्कार बदनाम
करता है।
जब एक आदमी क्रूर अपराध करके
फाँसी चढ़कर मरता है तब देश
की व्यवस्था को बदनाम करता है ।
जब एक आदमी एक्सीडेंट से मरता है
तो देश के ट्रैफिक को बदनाम करता है ।
जब एक आदमी रोग से मरता है तब देश
की आरोग्य व्यवस्था को बदनाम
करता है ।
जब एक आदमी भूख सरदी और भीङ से
मरता है तब
लोगों की सहृदयता को बदनाम करता है

जब एक आदमी आत्महत्या करके मरता है
तो समाजिक सहयोग को बदनाम
करता है ।
किंतु
जब एक सैनिक देश की रखवाली करते देश
पर न्यौछावर होता है तब!!!!!
धन्य कर जाता है माता की कोख ।
अमर कर जाता है वह गाँव वह
गली जहाँ जन्मा ।
और
फ़ख़्र से सिर उठाकर ऊँचा करता है देश
का
कि देखो ये है वीरों का देश ।
सैनिक कभी नहीं मरता वह अमरशहीद
होता है
©®सुधा राजे
Yesterday at 12:13pm · Edited

poem :will power

Willpower
There is a very great power
which the people neglect is
willpower. Taking instance
from many of my
experiences, the greatest
aspect and factor of the most
most of my accomplishments,
the greatest role is played by
my willpower.
This strength can be used for
achieving negative as well as
positive goals. I have
witnessed its use in both
creation and destruction.
There was a time when I
nearly lost everything. I lost
my determination and even
hopes. Like every particle
was plotting against me.
Everything I did became its
reciprocal. I lost the hope to
survive. There was only a
faint trace of will buried in
the ruins. For everyone I was
a mere woman but everytime
I became hopeless my will
coaxed and urged my that
you can do it. You are Sudha
raje
for Goodness's sake. In that
darkness when everybody
else was determined to break
my spirit the onlything which
supported me to move on
was my spirit.
Just like someone who
searches for his belongings
amidst the rubble. Like an
urchin who searches for food
amongst the garbage. My
willpower found gems
amongst the trash.
If you can't do anything, just
keep the will to do it.
BECAUSE I BELIEVE. THAT I
WILL BEND THE AIR IF I GET
THE CHANCE.
©®sudha raje
Timeline Photos · Oct 29, 2012 ·

कविता - शाप या पाप।

पेट में बच्चा नहीं बाबू किसी का पाप
है ???????
पर वो पगली क्या बताये
कौन इसका बाप है!!!!
रात को फुटपाथ
पर सोयी बिछाकर
वो ज़मीं
आसमां नोचे
गया किसको यहाँ
संताप है
???
चार दिन से कुछ
नहीं खाया जलेबी
लूट गयी
देह मैली किंतु औरत
का बदन अभिशाप है
कोई
भी उसका नहीं छूता कटोरा भीख
का खा गये हैवान जिसकी
रूह तक हम आप है
कौन थे वो लोग जो इक
रात इसको छोङ गये
एक तो लङकी वो भी पागल अभागिन शाप
है
खूब चिल्लायी वो रोयी
कोई भी जागा नहीं
बस सुनी गयी रात
कई-कई
जोङियाँ पदचाप है
पेट लेकर घूमती थी
रोज पत्थर मारती
मर्द को देखे तो चीखे साँपअल्ला साँप है
खूब हँसते हैं तमाशाई दुकानें खोलकर
चीथङों पर रक्त
देखो तो कलेजा काँप है प्यार से
दो रोटियाँ कपङा दिया तो रो पङी द
है बोली बहूजी
औऱ् बदन में ताप है
कल छप़ा अखबार में
बच्चा जना फुटपाथ पर
अब लिये हँसती है रोती क़ल्मा है
या जाप है
भेङियों की नस्ल के
वहशी हैं बस्ती में छुपे कौन है
अगला निशाना
खोजते नई माप है
आप नैतिकता की बातें
धूप में समझा रहे??
रात ने क्या डँस लिया
क्या इसका पश्ताचाप है
कौन पालेगा ये पागल
कोख का फल पाप का??
क्यों तुम्हारी संस्कृति में जात मजहब
खाँप है???
अब भी उस पर गीध वाली
घूरतीं नज़रें कई
कोई जो आता निकट
वो चीखती आलाप है
क्या समाजों की दुहाई?? सभ्यता इंसाफ
क्या
हम जरा सा रो लिये बस
आप भी चुपचाप हैं
क्या कभी सोचा "हरामी"
शब्द का क्या अर्थ है??
क्या बनेगा ये बढ़ा होकर कोई अनुमाप
है??
कौन??? पूछेगा सुधा ये
कौन मजहब धर्म था???
उफ कि बस कैसे कहूँ
वो पापिनी निष्पाप है
©®सुधा राजे
दतिया (म.प्र.)
बिजनौर(उ.प्र.)

गीत :बुंदेली फाग

Sudha Raje
फागुन आ गये द्वार विराने
फागुन आ गये द्वार विराने
जाने काये के लाने
आ गये फागुन द्वार विराने
******
पीरै पीरे पान भये हैं
छ्योला सिलगे प्रान हये है
पीरी राई फरी गुछ्छन में
जै रितु राज विहान भये हैं
कच्ची कैरी बेरी फर गयी
लगी कनक हुलसाने
आ गये फागुन द्वार विराने
की कौ जिया जरानै
आ गये फागुन द्वार विराने
©®¶©®
Sudha Raje
Dta/Bjnr
रोरी घोरी थोरी थोरी
अँखियन अँखियन
जोरा जोरी
जी भऔ सोरा बरस
की छोरी
हिय केशर अकुलाने
आ गये फागुन द्वार विराने
की कौ जिया जराने
फागुन आ गये द्वार विराने
जाने काये के लाने
फागुन आ-----+
©®¶©®
Sudha Raje
श्यामा गोरी साँवरि गुईयाँ
बाट अबेरें आयें न सईयाँ
हेरें नैनन की पिचकारीं
सातऊ रंग बिलाने
आ गये फागुन द्वार विराने
जाने काये के लाने???
आ गये फागुन द्वार विराने
की कौ जिया जराने
फागुन आ गये द्वार विराने
©®सुधा राजे
Mar
13 ·
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Thursday 16 January 2014

लेख -बारूद के आदमी।

जब सेना के राज़ रेहङी वाले
भिखारी और
पासरबाई उङा कर ले जाते हैं तब
जवानों की लाशें आती है ।।लेकिन जब
सेना रास्ते बंद करती है तो केवल दो से
दस किलोमीटर मार्ग
घूमना पङता है!!!!!
देश की सेना की जय बोल!!! कि घर है
आपके
पास और बोलने की आजादी ।।
वरना दो दिन ना लगें गुलाम बनने में
सेना अगर
अपनी प्रायवेसी जरूरी समझती है
तो उसको मिलनी चाहिये ये एहतियात
है
तानाशाही नहीं हम कब सीखेगे
सेना को सम्मान देना????

वैकल्पिक रास्ते उपलब्ध कराना कलेक्टर
का काम है और नागरिकों का फर्ज है
कि सेना और एंबुलेंस को पहले निकलने दें ।

आर्मी एरिया मटरगश्ती की जगह
नहीं ।
ये वे लोग है जो जान हथेली पर रखकर
कच्छ कशमीर थार में लङकर आते है चार
पल सुकून से जीने दो ।
पता नहीं किसकी छाती पर कब
तिरंगा लिपट कर रो पङे ।
वहाँ मॉर्निंग वाक ईवनिंग वाक
सिवा देश के वीरों पर डिसटर्ब के कुछ
नहीं ।। शांति से कुछ पल तो रहने दो ।
। ये रात दिन हाङ तोङ मेहनत करने
वाले लोग है । वह धूल चूमने और माथे से
लगाने लायक है जहाँ हिंद की सेना पाँव
रखकर निकल गयी । सेना को देखकर
जो रास्ता देकर सलाम ना करे वह देश
भक्त नहीं आलसी और बोझ है

सेना के रास्ते से हटो । जरूरत पङे
तो बीस किलोमीटर चक्कर लगाओ मगर
सैनिक एरिया में आम आवाजाही बंद
हो सख्ती सॆ
सेना अपना इलाका बता रही है तो???
बताने दो न?? क्या वह किसी सैनिक
की निजी प्रॉपर्टी हो जायेगा??
आप लोग नहीं समझ रहे हो मगर हम देख
रहे हैं भाँप रहे है कि पूरी एक लॉबी अब
हिंद की सेना के खिलाफ छोटे बङे बयान
दे दे कर सेना का सम्मान नागरिकों में कम
करना चाहती है और जानबूझकर सैनिक
को डराना अपमानित करना और
जनता का सेना पर भरोसा कम
करना चाहती है
सेना को चर्चा का विषय बनाकर
साबित करना चाहती है कि भारतीय
नागरिकों को सेना पसंद नही भारतीय
सेना डिक्कटेटर है ये सब भारत के गद्दार
लोग है
सैन्य गोपनीयता और
प्रायवेसी के मद्देनजर वैकल्पिक रास्ते
बनाईये सेना केऊपर तमाम देश के
भितरघातियों की वैसेही टेङी नजर है ।
सैनिक क्षेत्र सेपब्लिक
आवाजाही रूकनी चाहियेSudha Rajeदेश
की सुरक्षा के लिये जो लोग ज़ान देतेहैं
उनकी बात ज़ायज है पाँच दस मील घूमकर
आने में हंगामा???? और सेना बर्फ रेतदलदल
पहाङ तक चढ़कर पबलिकबचाती है!!!!
लोग हर समय शॉर्टकट केचक्कर में
क्यों रहते हैं?? मेरठ मेंविदेशी रेकी करते
हैं पबलिक के बहानॆ।
हमारा पक्का मानना है कि उसमें भङकने
वाले प्रथम लेयर पर वही लोग हैं
जो दंगा करने में इसलिये नाकाम रहते हैं
कि मेरठ अलीगढ़ मुजफ्फरनगर मुरादाबाद
बिजनौर को तत्काल सेना घेर लेती है और
फ्लैग मार्च से ये देश के
भितरघाती अपना खुल्ला खेल नहीं कर
पातॆ
आर्मी क्यों एक से कपङे और चेहरे रखती है?
ताकि व्यक्तिगत पहचान ना बने । जज
क्यों नहीं समाज में घुलते
क्योंकि निजी नाते ना बने । कोई
भी जवान सिविलियन से घुलमिल कर कुछ
कह सुन दे तो बङा कांड हो सकता है ।
और जासूस तो कई बार पकङे भी गये!
सेना की गाङी रोड पर जा रही है ।
जाने दीजिये पहले ।
क्योंकि हो सकता है वे
किसी आतंकवादी का पीछा कर रहे
हों ।
हो सकता है उस गाङी में विस्फोटक
पदार्थ हों
हो सकता है सैनिक को तत्काल
किसी मिशन पर रवाना होने का आदेश
मिला हो ।
हो सकता है गाङी में कोई कुख्यात
आतंकवादी बाँधकर लिटा रखा हो
हो सकता है कोई
जरूरी सूचना कहीं जरूरी अथॉरिटी को दे
की तेजी हो ।
हम तो कहते है यहाँ तक कि एक एंबुलेंस
को बाद में पहले सैनिक
गाङी को निकलने दो क्योंकि देश के
भीतर आफत आये या बाहर सबसे पहले
जान देने सैनिक चल पङता है ।
उनको वी वी वी आई पी माना जाये हर
सैनिक को रोज कङी मशक्कत के बाद
रोटी नसीब होती है ।
सैनिक कभी सात घंटे से
ज्यादा नहीं सोता ।
कभी ज्यादा नहीं खाता कि पेट फूल
जाये ।
कभी इतनी छुट्टी नहीं मिलती कि आलस

सेना को सम्मान दो ताकि हर नौजवान
का सपना हो सैनिक बनने का ।
हर स्कूल में लोग बच्चे को इंजीनियर
डॉक्टर बिजनेस मैन बनाने तो भेजते है
मगर बहुत कम जिगर वाले
माता पिता सपना पालते है
कि मेरा बेटा देश का सैनिक बनेगा ।
सैनिक रोड पर जा रहा है। या ट्रेन में
या बस में । निःसंदेह ड्यूटी से आ रहा है
या ड्यूटी पर जा रहा है । हर सैनिक
सुबह पाँच बजे परेड ग्राऊण्ड पर
पहुँचता है दस किलोमीटर दौङता है
तीन घंटे रोज शस्त्राभ्यास करता है ।
ठीक घङी देखकर खाना खाता है
घङी देखकर सोता जागता है ।
एक प्रोफेसर की तनख्वाह सैनिक से
अधिक है ।
एक बैंक क्लर्क की तनख्वाह सैनिक से
अधिक है ।
एक मान्यताप्राप्त पत्रकार
की तनख्वाह भी सैनिक से अधिक है ।
एक बैंक अधिकारी जज वकील पत्रकार
टीचर ऐसे कपङे पहनता है जो देह
को आराम देते है ।
एक सैनिक के जूते पहनकर वरदी पहनकर
जितना असलहा बदन पर होता है
उतना टाँग कर केवल सात दिन बिताकर
देखो ।
रोज मुँह अँधेरे सरदी गरमी बरसात रेत
बरफ पहाङ दलदल सब के साथ हर हाल में
सुबह तङके बारहों महीने सातों दिन हर
रोज उठकर देखो ।
ड्रिल परेड पेट के बल
घिसटना कोहनी के बल चलना एक हाथ
एक पाँव बाँधकर चलना कुत्तों और
घोङो के पीछे दौङना ।
फिर ये तो रोज का वार्म अप है ।
मुस्तैद ड्यूटी ।
बाढ़ भूकंप दंगा युद्ध छद्म युद्ध
आँधी तूफान में हवा में पानी के भीतर
जमीन पर जमीन के भीतर पैराशूट पर
रस्सियों पर हर वक्त ज़ान की बाजी ।
जाने कब चूकते ही प्लेनक्रेश
पैराशूट नहीं खुला जान गयी ।
रस्सी टूटी जान गयी ।
जंगल में साँप जानवर सीमा पर दुश्मन
घर के भीतर दंगाई सब से जूझना ।
हर जगह हर तरह
ये सब करने के बाद
लौटकर घर जाता सैनिक सम्मान
का हकदार है ।
हमारा नौकर नहीं पहरेदार है ।
एक विधायक को रास्ता मत दो भले
मगर सैनिक को जरूर दो
हमने वह बचपन देखा है जब सैनिक गाँव
आता था तो गाँव वाले दावत पर बुलाते
थे ।
सैनिक सङक से निकलते थे तो शिक्षक
मातापिता खुद भी जयहिंद कहकर
अभिवादन करते अजनबी सैनिक का और
हम बच्चों को भी कहते
फौजी भैया जा रहे हैं जयहिंद कहो ।
वह संस्कार आज फिर चाहिये ।
जब कोई युवक सेना में भरती होने
को सबसे पहले आवेदन दे सबसे बाद में
नहीं ।
जब हर नौजवान तैयारी करे
सेना की फिटनेस पाने की ।
जब कोई युवा सेना में भरती हो तो लोग
उस परिवार को सिर आँखों पर बिठा लें

सैनिक के हर वाहन हर साईकिल बाईक
और मकान पर लिखा हो "सैनिक "और जब
सैनिक शहीद हो तो सारा गाँव एक
दिन शोक मनाये और सैनिक के परिवार
को आजीवन सम्मान दे ।
शराब शबाब कबाब और दिन चढ़े तक
सोने वाले ।
एयरकंडीशंड दफतर कार मकान में रहने
वाले ।
कभी उस एक कमरे के क्वार्टर में जाकर
रह नहीं नहीं सकते
जहाँ गरमी का मतलब गरमी होता है
और सरदी का मतलब सरदी । बरसात
का मतलब कीचङ दलदल साँप गोजर
बिच्छू होते है सीलन होती है और
ड्यूटी का मतलब होता है खङे
रहना चलते रहना टैंट में सोना ।
जब सैनिक छुट्टी को सुख से
नहीं मना सकेगा तो ज़ांबाजी से कैसे
रखवाली करेगा?
उसकी छुट्टी खेत के बैल और ताँगे के घोङे
की छुट्टी है जो अतिशय थकान से बचाने
को तनाव और शऱीर की थकान मिटाने
को होती है ।
वह कहीं भी है ऑन ड्यूटी ही है यहाँ तक
कि शादी कैंसिल करके भी उसे एक कॉल
पर जाना पङता है ।
वह कहीं ठहाके लगा रहा है
तो कहीं भीषण दर्द सहकर आ रहा है ।
रम पीकर झूम रहा है तो कहीं गम पीकर
बहुत रोया है ।
वह बीबी की डिलेवरी पर साथ
नहीं था ।
वह माँ के बीमार होने पर समय पर
सेवा कर नहीं पाया । उसने बच्चे
को जी भर खेलते चलते नहीं देखा ।
वह रात को अकेला जागता रहा और
दिन को अकेला तपता रहा सैनिक बारूद
के बीच रहता है हर पल ।
छुट्टी तक राह देखती है
बीबी उसको एक फोन वह हर पल
सामान्य लोगो की तरह नहीं कर
सकता ।
राह देखता है बच्चा पापा कब आ रहे हैं

और वह बच्चे की तसवीर जेब में रखे दौङ
रहा होता है चीते की रफतार से ।
छुट्टी सैनिक
की ड्यूटी का ही हिस्सा है बीबी बच्चे
माँ बाप भाई बहिन पुश्तैनी जमीन घर
और दोस्तो नातेदारों के
प्रति बकाया रह गये
कर्त्तव्यों की ड्यूटी पूरी करने
की छुट्टी । वह गाँव जाकर
भी ड्यूटी करता है ।
सैनिक जब दिखे रास्ता दो अभिवादन
करो जयहिंद जयजवान कहकर सम्मान
दो तुम जो भी हो केवल इसलिये
हो क्योंकि सैनिक है न ।
केवल तनखाह से
तो ज़ांबाजी नहीं आती!!!!!
ये ज़ज़्बा पैदा होता सैनिक के सम्मान से

सगे भाई और बेटे से भी पहले सैनिक
को अपनापन दो ।
वह कभी ऑफ ड्यूटी नहीं है तब भी जब
वह नाच रहा हो चौपाल पर।
जब एक आदमी दारू पी पी कर अस्पताल में मरता है तो देश के संस्कार बदनाम करता है।
जब एक आदमी क्रूर अपराध करके फाँसी चढ़कर मरता है तब देश की व्यवस्था को
बदनाम करता है ।
जब एक आदमी एक्सीडेंट से मरता है तो देश के ट्रैफिक को बदनाम करता है ।
जब एक आदमी रोग से मरता है तब देश की आरोग्य व्यवस्था को बदनाम करता है ।
जब एक आदमी भूख सरदी और भीङ से मरता है तब लोगों की सहृदयता को बदनाम करता है ।
जब एक आदमी आत्महत्या करके मरता है तो समाजिक सहयोग को बदनाम करता है ।
किंतु

जब एक सैनिक देश की रखवाली करते देश पर न्यौछावर होता है तब!!!!!

धन्य कर जाता है माता की कोख ।
अमर कर जाता है वह गाँव वह गली जहाँ जन्मा ।
और
फ़ख़्र से सिर उठाकर ऊँचा करता है देश का
कि देखो ये है वीरों का देश ।
सैनिक कभी नहीं मरता वह अमरशहीद होता है
©®Sudha Raje

लॆख - कब सीखेंगे हम वीरों का सम्मान।

मेरठ एक संवेदनशील इलाका है । हम सब अकसर परेशान हो जाते हैं जाम लगने पर
। वहाँ इतने दंगे हो चुके हैं कि हर पल हर आदमी जो स्थानीय है डरा रहता
है । जरा सी असावधानी और गले से चेन जेब से बटुआ और बगल से बच्चा गायब ।
ऐसे में पुलिस और स्थानीय नेताओं की लापरवाही का आलम ये है कि मलियाना
फाटक परतापुर बाई पास बेगम ब्रिज हापुङ अड्डे सूरजकुण्ड पर बङे अतिक्रमण
हो चुके है ।
रेलवे लाईन के दोनों तरफ घनी मंडी मलियाना फाटक के नीचे लगी है और सारी
गलियाँ चाहे अस्पताल की हो या हवाई अड्डे के निर्माण की तरफ या चौधरीचरण
सिंह यूनिवर्सिटी की तरफ सब पर अतिक्रमण खड्डे और लापरवाही से वाहन चलाते
नये लङके लङकियाँ टैक्सी ऑटो ।
स्टंटबाज लङके अकसर कॉलेज के आसपास बाईक स्टंट करते मिल जाते है जबकि कई
बार ज्ञात हुआ कि वे पढ़ने वाले लङके नहीं थे बल्कि गैराज ढाबे और जदह ब
जगह काम करने वाले लङके थे जो बढ़िया कमाई करके शान दिखाने के चक्कर में
बढ़िया कपङे पहनकर लङकियों की आवाजाही वाले मार्ग पर स्टंट कर रहे थे ।
लगभग हर रोड पर बॉयज हॉस्टल बनाकर लोगो ने मकान किराये पर चढ़ा रखे हैं
और तीन हजार से छह हजार तक एक कमरे का किराया माँग रखा है ।
जिसकी वजह से एक कमरे में दो से छह तक लङके लङकियाँ रहते है ।
मेरठ गाँवों का महानगर है वहाँ नगरीय संस्कृति छू भी नहीं गयी ।
अनुशासन नाम की कोई चीज नहीं
और कानून व्यवस्था भगवान अल्लाह और यीषु के हवाले है ।
जुमे की नमाज़ सङको पर पढ़ी जाती है जबकि लोग चाहे तो घर पर सुकून से पढ़ सकते है ।
ठीक दिल्ली अड्डे से मवाना अड्डे पर तक पशु काटे जाते है खुले आम रोड के
दोनों तरफ मख्खियाँ भिनभिनाती रहती है और काटकर बङे बङे टाँग सिर पसलियाँ
पीठ पेट ऊँचे काऊन्टर पर टाँग कर रखे जाते है । खून सने हाथ लिये रुपये
गिनते दुकानदार और वहीं कटने के इंतिज़ार में बँधे या खुले भटकते पशु ना
शीशा ना जाली ना ढक्कन ना बंद शोकेस?? कलेक्टर रणदीप रिणवा तो आज आये है
। मेरठ के लोग कानून को ठेंगे पर रखते हैं । ऑटो वाला सवारी भर लेता है
और अगर बाकी सवारियाँ बीच के स्टॉपेज पर उतरती चली गयीं तब तो बची हुयी
इकली सवारी जिसको बिठाया था पूरे मंजिल तक के लिये ऑटोवाला बीच रास्ते
में कहीं भी उतार देगा कि अब एक के लिये इतना तेल नहीं फूँकता ।
लोग ठसाठस ठाँसकर सवारी भरे बिना चलते ही नहीं आप कितने ही ऑटो बदल
लीजिये सोलह सवारी जब तक नहीं भरेगी तो ऑटो नहीं चलेगा ।
लोग बिना सायलेंर के जनरेटर आटाचक्की स्पेलर और तमाम ध्वनिपैदा करने वाली
मशीने चलाते रहते है ।
बस में बूढी कमजोर और जवान गर्भवती औरतें मासूम बच्चे गोद में टाँगे
नववधुयें और बेहद बीमार घायल लोग खङे रहते है जवान हट्टे कट्टे स्थानीय
लङके उद्दंडता से सीट पर पसरे रहते हैं ।
मकानमालिक किराया एडवांस लेता है लेकिन मोटर चलाने पर बिजली पर आवाजाही
पर और ताला लगाकर जानेपर बङबङ करता है ।
साफ सफाई का ये आलम है कि हर डिवाईडर के बीच का हरितपट्टी क्षेत्र कूङा
कचरा फेंकने का स्थान बना हुआ है । वहीं सिंदूर पोतकर तमाम भिखारी
तांत्रिक मांत्रिक बैठे हैं तो तमाम टेंट लगाकर मरदानगी की दवा बेचने
वाले शरतिया भूत प्रेत वशीकरण की गारंटी की दुकाने हैं । सङक पर हर तरफ
अफरा तफरी है कहीं दिखता नहीं कि पुलिस है नियम है कानून है । पैदल चलने
वाले को ठोक देना परम कर्त्तव्य है और जोर जोर से हॉर्न वगातार बजाते
रहना अनिवार्य आदत ।
लोग जमकर गुटखा खाते हैं और कहीं भी जाईये अस्पताल रेलवे स्टेशन मंदिर
पार्क कॉलेज सब जगह गुटखा पान थूकते दीवारों पर सभ्य नागरिक मिल जायेगे ।
हर मंदिर की पिछली दीवार पर काली लाल पीली इबारतों में लङकियों के लिये
प्रेम संदेश पास होने नौकरी लगने और ब्याह होने की मन्नते लिखी मिल
जायेगी । शोर शोर शोर कहीं तकरीर कहीं मीलाद कहीं बारात कहीं मातम कहीं
नेता का प्रचार और कहीं हुङदंग डांस पार्टी । कूङे के ढेर के ढेर शहर के
हर इलाके में । खाली प्लॉट टूटे मकान और रोड डिवाईडर मतलब कूङा पहाङ ।
गंदे भरे पङे गटर और उनके टूटे ढक्कन टूटी नाली से सङक पर बहता पानी । और
सङकों पर खड्डे ही खड्डे । हर तरफ झगङा करते लोग । जाम लगने की वजह से
दाम कम कराने की वजह से बस ऑटो में सीट पर ठीक पसर कर बैठने की वजह से ।
खङी सवारियाँ पास पास खिसकाकर सटाकर जगह बचाकर और सवारियाँ भरने की वजह
से झगङा झगङा झगङा । लङकियाँ को सीने पर नोंच लेना पीठ पेट कूल्हे पर
गंदी भावना से कोंचना । और घूरना फिकरे कसना । मामूली बात है । कई बार तो
शराब पीकर पुलिस वाले तक लङकियों को देखकर बस में बैठे आपस में असहनीय
वार्तालाप करते मिल जायेंगे । पॉश कॉलोनियाँ छोङ दें तो हर तरफ शोर
गंदगी और धक्कामुक्की । मेरठ में लोग कपङे तो आधुनिक पहनते है किंतु
सोच!!!! मजहबवादी धर्मवादी और स्त्रीविरोधी । बाहरी गाँवों से आये लङके
लङकियों के तो मेरठ आते ही जैसे पंख लग जाते है । गाँव में दुपट्टा डाले
फिरती लङकियाँ और कुरते पाजामे वाले लङके मेरठ में बॉलीवुडिया पोशाकों
में कैंपस को फिल्मिस्तान बनाकर ग्रुप में हुल्लङ मचाते मिल जायेंगे ।
माँ बाप की कमाई पर ऐश और बचे समय में फटकेबाजी । जो हकीकत में पढ़नेवाले
है वे थोङे ही समय में मेरठ से भाग खङे होते हैं । कॉलेज तो बहुत है
लेकिन पढ़ाई कम ही कॉलेजों में होती है । गुणवत्ता वाली पढ़ाई तो और भी
कम कॉलेजो में होती है । नकल कराने वाले मास्टरों की चाँदी है लङके
लङकियाँ पढ़ना नहीं डिगरी कबाङना चाहते है । अजीब हाल है लोग बाहरी आदमी
को चटपट बेवकूफ बनाने से जरा भी नहीं हिचकते । दाम ज्यादा लेना पता गलत
बताना फटे नोट थमाना लूटपाट कर लेना और छल से लाभ लेना । फटाफट हर बात को
तो हिंदू मुसलमानी चश्में से देखने की आदत है । ढींगे हाँकते कदम कदम पर
लल्लनवपप्पन मुन्ने दादा । जो भी मेऱठ में दस साल हरकर खुशी से जी लिया
वह फिर कहीं भी कैसे भी रह लेगा
मेरठ में कुछ साल के अनुभव
जब सेना के राज़ रेहङी वाले
भिखारी और
पासरबाई उङा कर ले जाते हैं तब
जवानों की लाशें आती है ।।लेकिन जब
सेना रास्ते बंद करती है तो केवल दो से
दस किलोमीटर मार्ग
घूमना पङता है!!!!!
देश की सेना की जय बोल!!! कि घर है
आपके
पास और बोलने की आजादी ।।
वरना दो दिन ना लगें गुलाम बनने में
सेना अगर
अपनी प्रायवेसी जरूरी समझती है
तो उसको मिलनी चाहिये ये एहतियात
है
तानाशाही नहीं हम कब सीखेगे
सेना को सम्मान देना????
वैकल्पिक रास्ते उपलब्ध कराना कलेक्टर
का काम है और नागरिकों का फर्ज है
कि सेना और एंबुलेंस को पहले निकलने दें ।

आर्मी एरिया मटरगश्ती की जगह
नहीं ।
ये वे लोग है जो जान हथेली पर रखकर
कच्छ कशमीर थार में लङकर आते है चार
पल सुकून से जीने दो ।
पता नहीं किसकी छाती पर कब
तिरंगा लिपट कर रो पङे ।
वहाँ मॉर्निंग वाक ईवनिंग वाक
सिवा देश के वीरों पर डिसटर्ब के कुछ
नहीं ।। शांति से कुछ पल तो रहने दो ।
। ये रात दिन हाङ तोङ मेहनत करने
वाले लोग है । वह धूल चूमने और माथे से
लगाने लायक है जहाँ हिंद की सेना पाँव
रखकर निकल गयी । सेना को देखकर
जो रास्ता देकर सलाम ना करे वह देश
भक्त नहीं आलसी और बोझ है

सेना के रास्ते से हटो । जरूरत पङे
तो बीस किलोमीटर चक्कर लगाओ मगर
सैनिक एरिया में आम आवाजाही बंद
हो सख्ती से
सेना अपना इलाका बता रही है तो???
बताने दो न?? क्या वह किसी सैनिक
की निजी प्रॉपर्टी हो जायेगा??

हमारे यहाँ टेकनपुर में बीएसएफ है और
मुरार में सेना मगर
ऐसा तमाशा कभी नहीं देखा!!!! शर्म
आनी चाहिये मेरठ वालो को जो जमकर
दंगा करते है जाम लगाते है और सैनिक
मामलों में हसक्षेप
बिना उनकी भूमिका समझे करते है

आप लोग नहीं समझ रहे हो मगर हम देख
रहे हैं भाँप रहे है कि पूरी एक लॉबी अब
हिंद की सेना के खिलाफ छोटे बङे बयान
दे दे कर सेना का सम्मान नागरिकों में कम
करना चाहती है और जानबूझकर सैनिक
को डराना अपमानित करना और
जनता का सेना पर भरोसा कम
करना चाहती है
सेना को चर्चा का विषय बनाकर
साबित करना चाहती है कि भारतीय
नागरिकों को सेना पसंद नही भारतीय
सेना डिक्कटेटर है ये सब भारत के गद्दार
लोग है
©®सुधा राजे