Monday 20 January 2014

चाक कलेजा आईना।

Sudha Raje
किरचें टुकङे तिनके क़तरे
रेज़ा रेज़ा आईना ।
दिल सी हस्ती ग़म सी बस्ती चाक़
कलेजा आईना।
रूह की गहरी तहों में बैठा हर पल शक़्ल
दिखाता सा।
कभी चिढ़ाता कभी रूलाता किसने
भेजा आईना।
जब भी दिखा दिया अहबाबों को, सारे
ही रूठ गये।
राहत का तकिया हमको था
उनको नेज़ा आईना।
जिस दिन से पीछे से उसने ग़ौर से
देखा था चुपके ।
क़दर बढ़ गयी इसकी तबसे अब *आवेज़ा-
आईना।
जो कोई ना देख सके ये
"सुधा" वही दिखलाता है।
या तो इसको तोङ फोङ दूँ या रब। ले
जा आईना।
लगा कलेजे से हर टुकङा नोंक ख्वाब
की सूरत सा।
टुकङे टुकङे था वज़ूद
भी युँही सहेज़ा आईना ।
जब तक कोई तुझे न तुझ सा दिखे रूह
की राहत को ।
तब तक तनहा तनहा यूँ ही मिले गले
जा आईना ।
मंदिर की देहली पर जोगन ,,जोगन
की देहली मोहन ।
मोहन की देहलीज़ ये टूटा जगत् छले
जा आईना ।
दागदार चेहरे भी हैं इल्ज़ाम आईने पर
ऱखते ।
जितना तोङे अक़्श दिखाकर ख़ाक मले
जा आईना ।
चुभी सचाई लहू निकल कर चमक उठे
**औराक़ भी यूँ ।
तोङ के जर्रों में फिर नंगे पाँव चले
जा आईना ।
©®Sudha Raje
Dta/Bjnr

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