नज्में

Sudha Raje
1. भूख जब हो गयी मुहब्बत से बङी ऐ
ज़िंदग़ी!!!!!!!
बेचकर जज़्बात लायी भात
मैं तेरे लिये
दिल से ज्यादा पेट में जब
आग हुयी ऐ बंदग़ी!!!!!!
ख्वाब
सी पिसता रही दिन
रात मैं तेरे लिये बुतपरस्ती से
ख़ुदा मिलता न था ,रोज़े से
भी रोटियों लिखती रही सफ़हात मैं तेरे
लिये
टूटती रह गयी बदन
की ख्वाहिशें पर्दों में यूँ बिक
गयी थी रेत सी हर
रात मैं तेरे लिये
आग लग गयी जब मेरे
रिश्तों के पुल पर ,भीङ
थी तैरती मुर्दों पे थी हालात मैं तेरे
लिये गाँव में गुरबत के जब सैलाब
आया दर्द का छोङ गये सब हाथ
खाली हाथ मैं तेरे लिये हुस्न के परतौ पे
आशिक़ भूख का मारा हुआ नाचती रह
गयी सङक
अब्रात मैं तेरे लिये
बस ज़ने -फ़ासिद थी उल्फ़त पेट के इस दर्द
को
मौत लायी कोख पर ज्यूँ
लात मैं तेरे लिये
सब चले गये छोङकर कल तक
जो मेरे थे वली
कब्र या ससुराल औरत ज़ात मैं तेरे लिये
एक टूटा ये कटोरा ज़िस्म ,दीवारें
क़बा साँस माँगे भीख ज्यूँ ख़ैरात मैं तेरे
लिये चंद टुकङे काग़जों के कुछ निवाले अन्न
के चंद चिंथङे ये
सुधा "औक़ात मैं तेरे लिये चाँद तारे फूल
तितली इश्क़ और शहनाईयाँ पेट भरने पर
हुयी शुहरात मैं तेरे लिये किस
नदी की रूह
प्यासी हूँ मैं सबकी प्यास में रेत
पी गयी शायरी क़ल्मात मैं तेरे लिये चंद
गीली लकङियों पर
आखिरी कुछ रोटियाँ
जोहते बच्चे हुयी शह -मात मैं तेरे लिये
बाप था ज्यादा कि बेटा कौन
भूखा क्या पता
खा गयी चोरी से आलू
सात मैं तेरे लिये
आज तक तो रोज
मिलती रह गयी उम्मीद
सी
आयी ना खुशियों की वो बारात मैं तेरे
लिये
सब कुँवारे ख़्वाब पी गयी इक
ग़रीबी की हिना ।
तीसरी बीबी सुधा ग़ैरात मैं तेरे लिये।
2. माचिसों में
तिलमिलाती आग सी ये लङकियाँ माँओं के
ख्वाबों की खिङकी ताज
सी ये लङकियाँ
कालकोठी में
पङीं जो भी तमन्ना खौफ़
से
उस अज़ल का इक मुक्म्मिल राज़ सी ये
लङकियाँ
तोङकर डैने
गरूङिनी हंसिनी के
बालपन
हसरतें छू ती ख़ला परवाज़ सी ये
लङकियाँ घूँघटों हिज़्जाब में घुट
गयीं जो चीखें हैं दफ़न
वो उफ़ुक छूती हुयी आवाज़ सी ये
लङकियाँ ग़ुस्ले-आतश में
हुयी पाक़ीजगी के
इम्तिहाँ
इंतिहा उस दर्द के अंदाज़ सी ये
लङकियाँ आह में सुर घुट गये
रोटी पे मचली नज़्म के तानपूरे औऱ्
पखावज़
साज़ सी ये
लङकियाँ
अक्षरों चित्रों सुरों छैनी हथोङों की दफ
जंग खायी पेटियों पर
ग़ाज सी ये लङकियाँ ग़ुमशुदा तनहाईयों में
दोपहर की नींद सी एक
बिछुङी सी सखी ग़ुलनाज़
सी ये लङकियाँ
दहशतों की बस्तियों में रतजगे परदेश के
पंछियों सँग भोर के आग़ाज सी ये
लङकियाँ वंशदीपक दे न पाने पर
हुयी ज़िल्लत लिये
कोख दुखते ज़ख़्म पर हिमताज़ सी ये
लङकियाँ
रूखसती के बाद से
हो गयी परायी धूल तक
गाँव से
लाती वो पाती बाज़
सी ये लङकियाँ
सब्र की शूली पे
जिंदा ठोंक
दी गयी हिम्मतें
बाईबिल
लिखती सुधा अल्फ़ाज
सी ये लङकियाँ।
3. पत्थर चाकू लेकर सोये
गाँव शहर से परे हुये
रात पहरूये बरगद रोये अनहोनी से डरे
हुये
कब्रिस्तान और शमशानों
की सीमायें जूझ पङीं
कुछ घायल ,बेहोश ,तङपते
और गिरे कुछ मरे हुये रात-रात भर
समझाती नथ-
पायल ,वो बस धोखा है
ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया जब -जब सावन
हरे हुये
फुलझङियाँ बोयीं हाथों पर
बंदूकों की फसल हुयी
जंगल में जो लाल कुञ्ज थे
आज खेत हैं चरे हुये
बारीकी से नक्क़ाशी कर बूढ़े 'नाबीने
'लिख गये
पढ़ कर कुछ हैरान मुसाफिर रोते आँखे भरे
हुये
हिलकी भर कर मिलन
रो पङा
सूखी आँख विदायी थी
वचन हमेशा शूली रखे
चला कंठ दिल भरे हुये
ज्यों ज्यों दर्द खरोंचे
मेरी कालकोठरी पागल सा
मेरे गीत जले कुंदन से
सुधा "हरे और खरे हुये।
4. पढ़ना सुनना आता हो तो पत्थर
पत्थर बोलेगा
जर्रा जर्रा,पत्ता पत्ता अफसानों पे
रो लेगा
वीरानों से आबादी तक
लहू पसीना महका है
शर्मनाक़ से दर्दनाक़ नमनाक़ राज़
वो खोलेगा हौलनाक़ कुछ हुये हादसे लिखे
खंडहर छाती पे
नाखूनों से खुरच
लिखा जो, इल्म शराफ़त तोलेगा कुएँ
बावड़ी तालाबों
झीलों नदियों के घाट तहें खोल रहे हैं
ग़ैबी किस्से पढ़ के लहू भी खौलेगा आसमान
के तले जहाँ तक
उफ़ुक ज़मी मस्कन से घर कब्रिस्तानों से
श्मशानों क्या क्या लिखा टटोलेगा चेहर
रिसाला
नज़र नज़र सौ सौ नज़्में हर्फ़ हर्फ़
किस्सा सदियों का वरक़
वरक़ नम हो लेगा
हवा ग़ुजरती हूक तराने अफ़साने
गाती सुन तो
"सुधा" थरथराता है दिल
भी ख़ूनी क़लम
भिगो लेगा ।
5. जाने किससे मिलने आतीं ' सर्द हवायें
रात गये
बस्ती से आतीं हैं सिसकती दर्द कराहें
रात गये
दूर पहाङों के दामन में छिपकर सूरज
रो देता
वादी में जलतीं जब दहशतग़र्द निग़ाहें
रात गये
चाँद को लिख्खे चिट्ठी
ठंडी झील बरफ के
शोलों पे
ख़ामोशी से कोहरे की
फैली जब बाँहे रात गये
परबत के नीचे तराई में हरियाली चादर
रो दी
फूलों कलियों की गूँजी
जब गुमसुम आहें रात गये कितने आदमखोर
मुसाफिर रस्ते से गुजरे होंगे
मंज़िल तक जाने से डर गयीं लंबी राहें
रात गये
पेङ तबस्सुम नोंच के खा गये नाजुक
नन्ही बेलों के
धरती रोती शबनम भरके
मौत की चाहें रात गये
प्यार वफ़ा के गाँव में अमराई पर
लटकी लाशें थीं
सुधा" मुहब्बत छोङ के चल
दी
पीपल छाँहे रात गये।
6. मन के वन को जेठ जिंदगी सावन बादल
तुम साजन!!!!
थकते तन को मरुथल सा जग मनभावन जल
तुम साजन!!!!
पाँव के नीचे तपी रेत पर छल के गाँव
सभी नाते ।
कङी धूप में हरा भरा सा शीतल अंचल तुम
साजन!!
आशाओं के शाम सवेरे दुपहर ढलकी उम्मीदें

निशा भोर से पंछी कलरव चंचल- चंचल तुम
साजन ।
सुधा परिस्थियों के काँटे नागफनी के दंश
समय
हरे घाव पर चंदन हल्दी रेशम मलमल तुम
साजन!!!
डरे डरे दो नयन अँधेरों से रस्मों से
घबराये ।
स्मित अधर सरल आलिंगन । मंचल मनचल
तुम साजन
इकटक लक्ष्यबेध शर लेकर । मैं
भूली कर्तव्य सभी । मेरी सफलता पर
खुशियों के । नयना छल छल तुम साजन!!।
7. दिल में कुछ होठों पर कुछ है कलम लिखे
कुछ और सुधा।
जहां न हो ये हलचल इतनी चल चल चल उस
ठौर सुधा।
कल तक थी उम्मीद रोशनी की घुटनों पर
टूट गयी।
अक़्श नक़्श ज्यों रक़्श दर्द का ये है कोई
और सुधा।
किसे समझ
आयेगा वीरानों का मेला कहाँ लुटा ।
कौन सजाये नयी दुकाने रहे परायी पौर
सुधा।
बाँध लिये असबाब बचा ही क्या था बस
कुछ गीत रहे।
भँवरी हुये सिरानी सरिता रही एक
सिरमौर सुधा
Sudha Raje
★e
मैंने सबकुछ दाँव लगाकर
हारा जिसको पाने में ।

वही इश्क़ लेकर आया अब दर्दों के मयखाने
में ।

दिल पर ऐसी लगी ,कि सँभले बाहर,,
भीतर बिखर गये ।

पूरी उमर गँवा दी हमने बस इक घाव
सुखाने में ।

अक़्सर बिना बुलाये आकर
जगा गयीं पुरनम यादें ।
। दर्द
रेशमी वालिश रोये पूरी रात सुलाने में ।

अपना बोझ लिये गर्दन पर कब तक ज़ीते
यूँ मर गये ।

एक ज़नाजा रोज उठाया ।
अपने ही ग़मखाने में ।

ता हयात वो खलिश नहीं गयी चार लफ्ज़
थे
तीरों से ।

जलते थे औराक़ लबों पर जलती प्यास
बुझाने में ।

आहों के अंदाज़ दर्द के नग्मे खुशी भर
गाता


कितने दरिया पिये समंदर दिल -
सहरा को बहलाने में ।।
नदी रेत में
चली जहाँ से
भरी भरी छलकी छलकी ।

सबको मंज़िल मिले नहीं था ये आसान
ज़माने में ।

शायर जैसी बातें करती पगली कमरे के
अंदर ।

ले गये लोग शायरी पगली फिर
भी पागलखाने में ।

कभी यहीँ पर एक रौशनी की मीनार
दिखी तो थी ।

हवा साज़िशे करती रह
गयी जिसको मार गिराने में । । मर मर
कर ज़िंदा हो जातीं प्यासी रूहें रात गये


सब आशोब तराने गाते है
डरना बस्ती जाने में ।

हाथ न छू इक ज़मला बोली
"""ये मेंहदी है जली हुयी""" ।
। मौत मेरे
दरमियाँ कसम है तुझको गले लगाने में।
मुट्ठी में भर आसमान ले बाहों में
जलता सूरज ।
सुधा चाँद की नींद खुली तो टूटे ख़ुम
पैमाने में
©®¶©®¶
सुधा राजे
sudha Raje
पूर्णतः मौलिक रचना सर्वाधिकार
लेखिका सुधा राजे बिजनौर / दतिया /
बिजनौर

Sudha Raje
Sudha Raje
सूख रहे ज़ख़्मों पर नश्तर - नमक लगाने आते
हैं।
भूल चुके सपनों में अपने से आग जगाने आते हैं।
किसी बहाने किसने कैसे कितनी कट
गयी कब देखा
बची हुयी दर्दों की फसलें लूट चुराने आते
हैं ।
उफ् तक कभी न की जिन होठों से पी गये
हालाहल सब ।
सुधा उन्हीं पर गंगा जमुना सिंध बहाने
आते हैं।
आज़ न बहे जो गूँगे आँसू दरिया आतश
का अहबाबों अलविदा ज़माने बाँध
गिराने आते
हैं ।
एक लम्स भर
जहाँ रौशनी ना थी वहीं ग़ुज़र कर ली ।
हमको तिनके तिनके मरकर अज़्म बनाने
आते
हैं।
कौन तिरा अहसान उठाता खुशी तेरे
नखरे ।
भी उफ्।
हम दीवाने रिंद दर्द पी पी पैमाने आते
हैं ।
आबादी से बहुत दूर थे फिर भी खबर
लगा ही ली ।
कोंच कोंच कर दुखा दिया फिर
दवा दिखाने आते हैं। वीरानों की ओर ले
चला मुझे नाखुदा भँवर भँवर।
जिनको दी पतवार वही तो नाव डुबाने
आते हैं।
अंजानों ने मरहम दे घर नाम न पूछा मगर
हमें ।
जानबूझ कर डंक चुभोने सब पहचाने आते हैं

मासूमी ही था कुसूर बस औऱ्
वफ़ा ही गुनह मिरा।
हमको सिला मिला सच का ग़म यूँ समझाने
आते हैं।
©सुधा राजे ।
Apr 26
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कि जैसे छू लिया तूने ।
हवा शरमायी सी क्यूँ है ।
ख़ुमारी तेरी आँखों में अभी तक
छायी सी क्यूँ है ।
बहुत संज़ीदग़ी से बर्गो -शाखो-ग़ुल
को छूती है।
चमन में आई तो तेरी तरह
अलसायी सी क्यूँ है।
लब ज़ुल्फ़ सब इतने इशारे ये तबस्सुम क्यूँ ।
लगे तेरी तरह मयनोश ये घबरायी सी क्यूँ
है । ।
बहक़ कर लग्जिशे पा फिर सँभल कर
गुनगुनाती सी ।

अदा भी है अदावत भी ये यूँ अँगङाई
सी क्यूँ है।
सुधा वो शोख बातें सरसराती गोशबर
ख़ुशबू ।
तेरे आग़ोश में ग़ुम कसमसाती आई सी क्यूँ है।

©सुधा राजे Sudha Raje
Dta-Bjnr
May 22

Sudha Raje
आग के फ़र्श पे इक रक़्श किये जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिंद पिये जाती है ।
इक जरा छू दें तो बस रेत
सी बिखरती है ।
एक दुल्हन है जो हर शाम को सँवरती है ।
एक शम्माँ जो अँधेरों को जिये जाती है ।
दर्द रिंद के मानिंद पियेजाती है । कुछ
तो सीने में बहकता है दफ़न होता है । आँख
बहती भी नहीं बर्फ़ हुआ सोता है ।
तन्हा वादी में छिपे राज़ लिये जाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

जो भी मिलता है धुँआ होके सुलग जाता है

इश्क़ है रूह है आतश में जो नहाता है ।
अपनी ही धुन में वो शै क्या क्या किये
जाती है ।
दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

सख़्त पत्थर की क़लम है कि वरक़ वहमी हैं

कितनी ख़ामोश जुबां फिर भी हरफ़
ज़ख्मी हैं

ज्यों सुधा दश्त-ए-वहशत में दिये बाती है

दर्द को रिंद के मानिन्द पिये जाती है

All rights ©®¶©®©सुधा राजे ।
(★)
कुछ दर्द अकेले ही सहने पङते हैं ऐ दिल!!!!!
सहने दे ।
मुश्क़िल है अंज़ुमन में आना ,अब,मुझे
अकेला रहने दे।
कुछ ग़म ख़ामोश पिये जाते हैं पीने दे औऱ्
ज़ीने दे ।
कुछ ज़ख़्म छिपाये जाते है,, ख़ुद चाक़
ग़रेबां सीने दे।
बेनुत्क़ तराने ऐसे कुछ बे साज़ बजाये जाते
हैं

कुछ अफ़साने चुपचाप दर्द, सह सह के
भुलाये जाते हैं ।
हर साज़ रहे आवाज़ रहे ।ख़ामोश!!!!न आँसू
बहने दे
।।।
कुछ दर्द अकेले ही सहने पङते हैं । ऐ
दिल!!!!!!
सहने दे ।
कुछ यादें होतीं ही हैं बस दफ़नाने और
भुलाने को ।
हर बार कोई कब होता है देकर आवाज़
बुलाने को ।
कुछ पाँव पंख घायल पागल बेमंज़िल मक़सद
चलते हैं ।
कुछ तारे चंदा सूरज हैं चुपचाप पिघल कर
जलते हैं ।
कुछ ज़ख़्म लगे नश्तरो-,नमक बे मरहम हर
ग़म
ढहने दे ।
कुछ दर्द अकेले ही सहने पङते हैं ।। ऐ
दिल!!!!!
सहने दे ।
©सुधा राजे ।।
Sudha Raje
©सुधा राजे ।
Sudha Raje
©®¶
May 1
Sudha Raje
उल्फत उल्फ़त छलक रही थी जिन
आँखों की झीलों में ।
उनके भरे समंदर जिनमें
वहशत वहशत रहती है ।
इक दीवाने आशिक़ ने इक रोज़
कहा था चुपके से ।
मेरे दोस्त तेरे दम से दम हरक़त हरकत
रहती है ।
हुये बहुत दिन शहर बदर
थीं मेरी नज़्मों यूँ शायर । इस पहलू में
दिल के भीतर ग़ुरबत गुरबत रहती है ।
काला जादू डाल के नीली आँखें साक़ित कर
गयी यूँ ।
दिल का हिमनद रहा आँख में फ़ुरक़त फ़ुरक़त
रहती है।
ग़म का सहरा दर्द की प्यासें ज़ख़म
वफ़ा के गाँव जले । क़ुरबानी के रोज़ से
रिश्ते फुरसत फुरसत रहती है ।
झीलों की घाटी में वादी के पीछे
दो कब्रें हैं ।
जबसे बनी मज़ारें घर घर बरक़त बरकत
रहती है।
दीवारों में जब से हमको चिन गये नाम
फरिश्ता है

वो अब जिनकी ज़ुबां ज़हर थी इमरत
इमरत रहती है सुधा"ज़ुनूं से डर लगता है ।
अपने बाग़ीपन से भी ।
दर्द ज़जीरे सब्ज़ा हर सू । नफ़रत नफ़रत
रहती है ।
©सुधा राजे

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