Sunday 22 April 2018

सुधा राजे का लेख :- दैहिक आकार के मापदंड... स्तरी पर इतने कठोर क्यों।

किसी स्त्री को ""मोटी ""कहना शर्मिन्दा करने के आशय से एक भयंकर दोष है अपमान है और सामाजिक बुराई है ।

देखा कि विवाह समारोह में आये तमाम पुरुषों की तोंदें काबू से बाहर थीं और सिर पर गिने चुने बाल थे अकसर तीस तक आते आते ""खिज़ाब ""की शरण में थे ', चालीस तक आते आते अनेक महानुभावों की दो या दो से अधिक दाढ़े ''डेन्टिस्ट को प्यारी ""हो चुकीं थी और पचास तक के बहुत सारे महाशय ""मधुमेह ""की छत्रछाया में शक्कर आलू चावल पत्नी से सन्यास ले चुके थे ',
फिर भी ""बहुत ""कम सत्य सज्जन ऐसे थे जिन्होंने ""दावत में भोज कर रही महिलाओं के मोटापे "आयु "मेकअप "खुराक "बातचीत "और पति पत्नी के मैच "

को तौहीन व्यंग्य कटाक्ष और भद्दे मज़ाक का विषय नहीं बनाया!

ये है भारतीय सोच मध्यमवर्गीय उच्च मध्यमवर्गीय और संपन्न समाज की ।

स्त्री?
मतलब ता ज़िन्दग़ी "एक काँच की गुङिया सी नाज़ुक छुई मुई षोडशी भर है क्या??????

विवाह के पूर्व और पच्चीस की आयु तक या ""माँ ""ना बनने तक अकसर स्त्रियाँ ''छरहरी ही रहतीं है "मीठी आवाज और फुर्तीला बदन ',
किंतु विवाह होते ही
भारतीय "विवाहिताओं को जिस तौर तरीक़े से जेल की तरह ससुराल में ठूँस कर ""कैदे बामश्क्कत मुफ्त कराई जाती है और अमूमन स्त्री चार से पाँच बार तक गर्भ धारण करती है भले ही दो या तीन संतान रहें गिनने को फिर बार बार गप्भपात और प्रसवोपरान्त पूरे नब्बे दिन का विश्राम दिये बिना ही चूल्लहे में झोंक दिया जाना ना कभी जिम जाने की मोहलत ना कभी घर में दो घंटे सुबह शाम टहलने जाने की संग साथ इज़ाजत ', दिनभर बच्चे पति ससुराल वालों की ही साधने में यौवन की सुबह शाम  बीत जाती हैं और जब बच्चे हाईस्कूल तक पहुँचते है तो बचता है ""रोटियाँ बेलने झाङू पोंछा बरतन कपङे सिलाई बुनाई कढ़ाई गेंहू चावल मालिश पानी पौधे करते करते हो चुका ""सर्वाईकल सपॉण्डुलाईटिस "कमर पिंडली तलवों के दर्द और मासिक की गङबङियाँ बच्चेदानी की समस्यायें ', माईग्रेन ऑस्टियोपोरोसिस या ऑर्थॉराईटिस या गाऊट्स या स्लिपडिस्क या एनीमिया "डिप्रेशन या हाईपरटेंशन या थायराईड्स टांसिलाईटिस ',
और अल्जाईमर आदि ',
बज़ाय बढ़ती आयु के मुताबिक स्त्री की यथा स्थिति का सम्मान करने के "साशय '"फूहङपन से उसके कैशोर्य यौवन ', की खोज प्रौढ़ या वृद्ध शरीर में करके तुलना करना ', क्रूर अपराध है ',ये विवश करता है स्त्री को सामाजिक समारोह से ज़ी चुराने या अनावश्यक तनाव पालकर खुद को फिट और सुंदर बनाने के निर्थक श्रम के लिये!
कवि लेखक पत्रकार तक ""खुद की तोंद टांट सलवटें "नहीं देखते
बस मोटी स्त्री का "भैंस "तक से साम्य करके मज़ाक बनाने लगते हैं ।
ये घटिया मानसिकता है ।
है क्या कि ""छटाक "भर की औरत रहे तो किशोर प्रोढ़ बूढ़े जवान किसी के भी काबू में रहे ',लेकिन "बलिष्ठ य़ा भारी स्त्री सस्ता शिकार नहीं हो सकती ',सो एक हौआ बनाये रखा जाता है "तन्वंगी "पतली नाज़ुक कमज़ोर स्त्री बनो और सुंदर कहलाओ!
स्त्री के वजन बढ़ने मोटे हो जाने और अकसर फिटनेस दुबारा हासिल ना कर पाने की सैकङों वज़ह हैं बाज़िब और विवशतायें भी ।
किंतु पुरुष तो अकसर मोटे होते ही ""आलस और ओवर ईटिंग शराब और बैठे रहने की वज़ह से हैं।

रहा भोजन तो पीठ पर कोई नहीं बाँधता सब पेट में डालते हैं ।
पुरुष भी कम चटोरे पेटू खाऊ गपोङे और चुगलखोर नहीं होते।
बात सिर्फ इतनी है कि स्त्रियों पुरुषों की खिल्ली उङाने का समय नहीं ।
बेचारी लक्ष्मीभाभीजी रुआँसी होकर भीतर जा बैठी।
भूखप्यास नींद तो काया की जरूरत है।
कोई मोटू तोंदू महीने भर उपवास करे तो मर भले जाये इक्कीस सालिया बदन तो नहीं ही मिलेगा।
भारी शरीर की स्त्री भी अगर दो जून भोजन ना करे तो अशक्त हो जाये।

हम निन्दा करते हैं ऐसे असभ्यों की जो स्त्री की काया पर व्यंग्य या बदज़ुबानी करते हैं।

माना कि फिट रहना चाहिये """""किंतु कोई स्त्री अगर ""स्लिम नहीं है तो ""बिना उसके परिवार और घरेलू हालात दैहिक समस्यायें जाने बिना ""परस्त्री पर कटाक्ष केवल ""माँस चमङी की परख लेकर करना कहाँ तक ""भद्रता है ""???
ग़ज़ब तो तथाकथित ""बुद्धिजीवी ""करते हैं! भारतीय सिनेमा में जहाँ पचास तक पेट पर गैलिज चढ़ाकर पैंट सँभालता "ऋषि कपूर शशि कपूर राजकपूर शम्मी कपूर धर्मेन्द्र मिठुन रजनीकांत चिरंजीवी हीरो "होता आया है """"वहीं जरा सा भी लोईन लाईन आऊटकम होते ही सारी अभिनेत्रियाँ माताजी के रोल में चढ़ा दीं गयीं ।ये केवल एक ""अपविचार का विस्त़र है जो घरों में भी घुस आया है """वरना किसी बच्चे को कभी अपनी मम्मी बदसूरत नहीं लगती ।

प्यार से ""किसे "कहा जा सकता है?  जिसको अपना माना हो ''जिसकी भावनाओं को ठेस न लगे यह खयाल हो जो मज़ाक पर हँसे न कि रोये दुखी हो या तनाव में या हीन भावना में आ जाये??

बेशक नहीं है मोटापा बढ़िया मगर ", भारतीय परिवारों में जिस तरह औरतों को कैद रखा जाता है रसोई और बेड मोरी और आँगन तक पाँच पाँच बच्चे कराये जाते हैं और न प्रातः वॉकिंग पर जाने पाती है नवोढ़ा बहू ससुराल में ना जिम को शाम और न ही किसी को भोर से शाम तक निजी समय दिया जाता है ', न्युक्लियर फैमिली में संभव है ', बङे होने के बाद समय मिले मगर संयुक्त परिवार की बहू तो कैदी है ही ""बेटियाँ "भी अब तक न गली मैदान खेल पातीं हैं न स्पोर्ट में सबको इज़ाजत मिलती है ', मज़ाक केवल क्रूरता है बदतमीजी है और गंदी मानसिकता "पतली तो छिपकली मोटी तो भैंस ', सादी तो भैन्जी फैशनेबुल तो हॉटकेक ये सब गंदी मानसिकता अपराधी व्यवहार है

©®सुधा राजे

Sunday 1 April 2018

लेख :एक यूनिवर्सिटी में दिन

लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में एक दिन ............सुधा राजे
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पंजाब के प्रति मन के किसी कोने में बहुत प्रारंभ के दिनों से ही कही सुनी पढ़ी बातों से उपजी एक अपनत्व की भावना थी ही तो एक दिन लवली यूनिवर्सिटी घूमने का अवसर मिल ही गया सब कुछ हरा भरा सुमधुर सुंदर स्वच्छ लग रहा था और मन को बहुत शांति सी मिली लगभग हर रंग के बड़े बड़े हाईब्रिड गुलाब एक कतार से हर तरफ खिले हुये थे तो दूसरी तरफ सुगंधित देशी गुलाब छोटे परंतु बहुत गहरी सुगंधि लिये झरते खिलते मानो कह रहे थे हम हैं तो दिखने में कम आकर्षक परंतु गुणों में हमारे समक्ष ये हाईब्रिड बड़े रंगीन मजबूत गुलाब कहीं नहीं टिकते ।कहीं कहीं आँवले दिखे परंतु एक खटकने वाली बात है कि बाड़ के लिये एक हीतरह की झाड़ी यत्र तत्र लगाने के बाद भी कहीं भी फलदार वृक्षों को महत्व नहीं दिया गया है ।क्या मात्र इसलिये कि कहीं विद्यार्थी फल ना खा लें ? यह तो गज़ब स्वार्थवाद है फलदार वृक्षों में सीमा पर एपल बेर आँवला अमरूद अनार अनानास केला संतरा नींबू नारंगी माल्टा किन्नू शरीफा चीकू आडू नासपाती अंगूर कटहल बड़हल बड़े मजे से लगाकर हर्र बहेरा शीकाकाई भी लगाने चाहिये ताकि विदेशी छात्र छात्राओं को भारतीय फलों का स्वागत मुफ्त में मिल सके और देसी छात्र अपनी धरती के रस रूप गंध शब्द स्पर्श का आस्वादन सुख ले सकें । रख रखाव के लिये माली समूह है ही और पंजाब की आबोहवा तो हर तरह के फल फूल के लिये अनुकूल है । हर तरफ असफाल्ट की कंक्रीट बिछी होने से एक बंद धरती बन गयी है यूनिवर्सिटी जबकि घास की अनेक किस्में ऐसी आतीं है जिनको लगाने से न कीचड़ होता है न ही मृदाक्षरण बहाव तब तकृषि विज्ञान के छात्रों को चुनौती लेनी चाहिये और कारपथ के सिव2 हर तरफ हरियाली वाले मैदान मार्ग पगडंडी बनाने चाहिये ताकि एक जलसोखने वाला परिसर रहे भूजल संरक्षण क्या है यह समझना होगा हर बड़े संस्थान को । बड़ा सा खेत पूरीयूनिवर्सिटी के ठीक बीच में होने के स्थान पर एग्रीकल्चर के छात्रों के लिये यह प्रयोगशाला खेत ब्लाॅक नंबर एक की तरह अलग होता तो यह बीच का स्थान सब काॅलेजों के छात्र छात्राओं के लिये बेंच चबूतरे स्टूल तख्ते देकर सुबह से शाम कहीं भी कभी भी पढ़ने बैठने धूप हवा छाया लेने को एक स्वस्थ बातचीत का स्थान बनाया जा सकता था । जो कि गेट के पास झंडाचौक में इतना उचित नहीं लगता क्योंकि वहाँ से गैर विद्यालयीन लोगों का आवागमन और छात्रों के सिवा अन्य कर्मचारियों का दखल अधिक है बैंक माॅल सफाई मैस और अतिथि प्रायः झंडा चौक के आसपास जमावड़ा बनाते हैं । एक भी पार्क बगीचा या शांत स्थान ऐसा नहीं कि संगीत कला तकनीक या नवीन विचार को तल्लीनता से एक मेधावी छात्र पूरा ध्यान देकर कर सके । फूडकोर्ट हर जगह होना बढ़िया तो है परंतु एक बगीचा शांत भाव से कविता गीत कहानी संस्मर्ण अविष्कार विचार या छात्रीय बहस मशविरे पढ़ाई और शोधमंथन हेतु भी होनी आवश्यक है । एक अभाव है उस तरह का जैसे होटल माॅल रेलवे स्टेशन पर चहलपहल बहुत परंतु विचार विनिमय और शांति से ध्यान योग व्यायाम प्राणायाम कविता सृजन को विस्तार वायु आकाश का खुलापन नहीं है जहाँ एकाकी लड़की को डर न लगे और लड़के को शोर न अखरे ।
हर तरफ खुशनुमा चेहरे देखकर मन को ताजगी मिलती है । फालतू की जंजीरें आज आवश्यक भी नहीं । हर तरह का भोजन मिलता है सब तरह के वेश भूषा पहने एशिया अफ्रीका के लोग दिखते हैं किंतु एक बात है कि सस्ता सादा देसी भारतीय भोजन भी परिसर भीतर ही आगंतुकों हेतु कहीं तो रखते !!गरीब मध्यवर्ग वाले अभिभावक बड़ीलंबी फीस कर्ज या जमापूँजी से लगाकर बालकों को आशा लेकर यहाँ छोड़ने आते हैं और दो दिन रुकना समझना भरोसा जगाने के लिये उनका हक भी है तो सस्ता रहना और दालरोटी सब्जी चावल चाय ,ये पाँच चीजें सस्ते दाम पर उपलब्ध उन सब अभिभावकों को करायीं जा सकती हैं जिनके माता पिता या बड़े छात्रों का सामान रखने एडमीशन कराने लिवाने पहुँचाने और तीमारदारी या देखभाल के लिये आते रहते हैं । जिन जिन छात्रों ने मैस लिया हुआ है उनके माता पिता को सुबह की चाय और लंच डिनर में दाल रोटी सब्जी चावल सादा साफ पर्याप्त मात्रा में दो दिन दो रात के लिये आराम से उपलब्ध कराया जा सकता है बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के । मैस के टेंडर देते समय यह शर्त यूनिवर्सिटी लगा सकती है मैस संचालक पर कि वर्ष में चार बार किसी भी छात्र के माता पिता मिलने आ सकते हैं और दो दिन दो रात का चाय लंच डिनर उनको सादा चपाती चावल दाल सब्जी के रूप में मुफ्त देना ही पड़ेगा । पूर्वोत्तर से सूदूर दक्षिण तक के लोग यहाँ आते हैं । अतिरिक्त प्रभाव इस बात का यूनिवर्सिटी की शाख पर सकारात्मक पड़ेगा यह मेरा दावा बिना बजट खराब किये ही । क्योंकि यह तो सब मान जान समझते हैं कि पंद्रह दिन जाड़ों के अवकाश में छात्र मैस में खाने के लिये गिने चुने ही रह जाते हैं और प्राय: छात्र सप्ताह में चार से पाँच बार कभी लंच कभी नाश्ता कभी डिनर कभी सुबह या शाम की चाय छोड़ते ही हैं बाहर जाने या मन ना होने या कक्षा देर सवेर होने पर । यह साल में आठ दिन का अभिभावकों का रुकना खाना मुफ्त करने से यूनिवर्सिटी की शाख में चार चाँद लग जायेंगे । यूनिमाॅल होटल में कौन रुकेगा फिर ?अरे !!!जो लोग देर दिन तक या संख्या में दो से अधिक परिवारी आते हैं वे रुकेंगे न ?
अतिथिशाला चलाने की व्यवस्था ऋषिकेश की तरह होनी चाहिये जहाँ उत्तम कमरे बिस्तर सहित उपलब्ध हैं और न्यूनतम दामों में तीन दिन कोई भी ठहर सकता है ।अपना दालभात लेकर आने वाले स्वयं ही पका सकते हैं अपने स्टोव पर । लवली मध्यवर्ग के लोगों के लिये वरदान बन सकती है बशर्ते भारतीय समाज के आहार विचार और वैश्विक आजीविका उपलब्धि के बीच सामंजस्य करके चले । मैस का मैनू छोटा हो किंतु पर्याप्त हो ताजा हो पौष्टिक हो और ऋतुअनुकूल हो । मसलन हर दिन एक दाल ,चावल सूखी सब्जी दही रोटी एक मुट्ठी सलाद भारतीय थाली का अनिवार्य अंग है । पूरी सप्ताह में एक बार और छोले राजमा उड़द लोबिया ये भी सप्ताह में एक बार ही ठीक हैं ।कचौड़ी समोसा सप्ताह में एक बार ही ठीक हैं किंतु ब्रेड ?इनकी उपस्थिति मैस में अनिवार्य नहीं । मीठे के नाम पर खीर हलवा लड्डू या रसगुल्ला रात की थाली में सप्ताह में तीन दिन ठीक है । फल ?दूध ?अंकुरित अनाज ?उन छात्रों के लिये कैसे उपलब्ध हों जो खिलाड़ी हैं या एन सी सी में कठोर परिश्रम करते हैं । यह सुविधा होनी चाहिये कि नाश्ते में दूध फल चना या फिर ब्रेड कचौरी समोसा फास्टफूड में से छात्र स्वयं नोट करवा सकें । पास्ता पोहा मैकरोनी मैगी नूडल चाऊमीन की तुलना में जिम जाने वाले एन सीसी वाले और खिलाड़ी छात्र दूध फल दलिया अंकुरित दालें चने अधिक चुनेंगे ,जिसे बजट में लाया जा सकता है एक चीज छोड़ने के विकल्प में ताकि मैस संचालक को पता रहे कि कितने छात्र तलाभुना और फास्ट फूड चुनते हैं तथा कितने छात्र "दैहिक पौष्टिक आहार "...विकल्प तो यह भी होना ही चाहिये कि दाक्षिणात्य भोजन पूर्वोत्रीय भोजन पंजाबी गुजराती और उत्तरभारतीय भोजन का एक एक कैंटीन खुल सके । ताकि घर की याद आये तो कुछ रुपये देकर भोजन किया जा सके । बच्चों का उतरा चेहरा खराब पेट किसी भी पिता माताको दुखी कर सकता है तो ऐसे तेल मसाले रंग और गंध मिलावटी चीजें सख्ती से हर दिन चैक होनीही चाहिये जो किसी को बीमार करदें |******सुरक्षा*****की बात जब आती है तो लवली के बाहर वाले मुख्य द्वार पर महानगरों को जोड़ने वाली सड़क है हाईवे नंबर ...है जहाँ दोनों ओर से हर समय अत्यधिक  तेजगति से चलने वाले हरतरह के छोटे बड़े और भारी हल्के वाहन भागते रहते हैं जिनके बीच से सड़क पार करना प्राण संकट में डालने जैसा करतब दिखाना ही है ।
यह याद रहे कि लवली यूनिवर्सिटी में हरप्रांत से हर तबके के लोग हर मौसम में आते ही रहते हैं ।
ग्रामीण कसबाई और छोटे नगरों देशों के शांत क्षेत्रों कम यातायात वाले माहौल में रहने वाले लोग कितना ज़ोखिम कितना घबराहट वाला अहसास और कितनी परेशानी फगवाड़ा या जालंधर स्टेशन या बस अड्डे जाते समय उठाते हैं यह वे ही समझसकते हैं ।
एक पल चूके और सदा को विकलांग या प्राणों से हाथ धोने पड़ सकते हैं ।हादसों की गणना करें तो एक पूरी श्रंखला ही मृतकों या दुर्घटनाग्रस्त छात्रों या उनके परिवारों या यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों आगंतुकों की मिलती हैजिस पर कभी गंभीरता से विचार तक नहीं किया जाता है ।क्योंकि यूनिवर्सिटी कदाचित यह अपनी जिम्मेदारी ही नहीं समझती कि यहाँ से जाने वाले और यहाँ रोज आने वाले या यहीं रहकर जाॅब करने पढ़ाई करने और श्रम या व्यापार करने वाले लोगों के जीवन की सुरक्षा भी उसकी नैतिक जिम्मेदारी है ।यूनिवर्सिटी प्रबंधक अधिकारी मालिक सब कह सकते हैं कि यह तो सड़क हाईवे और राज्य केन्द्र सरकार का मामला है ,किंतु यदि यूनिवर्सिटी इन सब जिम्मेदारियों को समझे कि छात्रों का जीवन अभिभावकों का जीवन भी यूनिवर्सिटी की शाख की तरह ही कीमती है बल्कि उससे भी अधिक मूल्यवान है तो वह स्थानीय प्रशासन से लेकर राज्य सरकार हाईवे अथाॅरिटी और केन्द्र सरकार से मिलकर स्वयं की पहल से एक योजना बनाकर सड़क के नीचे से अंडरपास और सड़क के ऊपर ओवर ब्रिजदोनों ही बनवा सकती है l तब तक सिक्योरिटी की व्यवस्थाकरके ग्रुप वाईज बड़ों बूढ़ों को सड़क पार करवाने की व्यवस्था कर सकती है l
सुरक्षा की बात पर दूसरी खामी है यूनिवर्सिटी की बाउन्ड्री पूरी तरह बीस फीट पक्की बनीबंद और उसके ऊपर से फिर लोहे की ग्रिल वाली होनी चाहिये ताकि सिवा निर्धारित द्वारों के अन्य किसी तरह की अनधिकृत जगह से कोई भी किसी प्रकार यूनिवर्सिटी में प्रवेश ना कर सके ।
पंजाब नशीले पदार्थों की तसकरी जुआ शराब और मादक द्रवों के लिये कुख्यात होता जा रहाहै अभिभावकों को यह चिन्ता रहती ही हैकि बारहवीं तक कठोर अनुशासन में पले बढ़े उनके बच्चे कैरियर की होड़वाली इस पढ़ाई के लिये कहीं मादक द्रवों या जुआ लाटरी सट्टा जैसे किसी ऐब करने वाले द के चंगुल में ना जा फँसे ना किसी तरह की हीनभावना का शिकार हो जाये l इसलिये सह कठोरता से चैक किया जाता रहना चाहिये कि छात्रों शिक्षकों अभिभावकों और कर्मचारियों के सिवा अन्य कोई भी यूनिवर्सिटी में प्रवेश ना कर सके । इसके लिये बाऊन्ड्री से लेनदेन बातचीत आना जाना कूदना घुसना असंभव होना ही चाहिये । वर्तमान बाड़ बेरिकेट पर्याप्त नहीं हैं ।
*****आवारा पशु ***और वे भी यूनिवर्सिटी में !!!पूरे ही कंपाउंड में कुत्तों की भरमार है और गर्ल्स बाॅय दोनों ही छात्रावासों में कुल मिलाकर सैकड़ा भर आवारा पिल्ले कुत्ते दिन रात मँडराते रहते हैं ।पूरी रातआवारा कुत्ते भौंकते किंकियाते लड़ते और मल मूत्र यत्र तत्र करते रहते हैं। मैस और फूडपार्कों के बच्चे हुये जूठन छात्रों के कमरों के बाहर के कूड़ेदानों के आसपास बिखरा कूड़ा इनको खाने को खूब प्रचुर मात्रा में आहार देताहै ।
यदि कुत्ते ट्रैंड टीकाकरण किये हुये और सिक्योरिटी हेतु प्रशिक्षित पाले गये होते तो यह चारचाँद लगा देते भरोसे में । परंतु ये खुजली पिस्सू कीड़े बीमारी वाले आवारा कुत्ते किसी को भी झपटते रहते हैं और काट भी सकते हैं हाईड्रोफोबिया के इंजेक्शन क्या यूनिवर्सिटी मुफ्त में रखती है ऐसी अवस्था में ?सवाल है लाख टके का कुत्ते परिसर के भीतर आते ही कैसे हैं ????कुत्तों का मल यत्र तत्र सफाई को ठेंगा दिखाता रहता है छवि तो खराब करता ही है अंतर्राष्ट्रीस्तर पर !!ठीक मुख्य द्रार के बगल से फड़ वाली खोखे वाली छोटी भरी सैकड़ा भर दुकानें हैं जिनमें हर तरह का मांसाहार और अनहाईजिनिक भोज्य पदार्थ बिकता रहता है बचे खुचे मांस अवशेष ये आवारा कुत्ते खाते हैं जिनमें बड़ा गोश्त छोटा गोश्त सब शामिल है जिसे मांसाहारी छात्र शिक्षक अभिभावक कर्मचारी ही खरीदते खाते हैं और हाईवे के यात्री भी ।
यूनिवर्सिटी की पूरी पूरी जिम्मेदारी बनती है कि छात्र शिक्षक कर्मचारी निगरानी समिति बनाकर हर दुकान की जाँच करे कि वहाँ कोई नशा न बिकता हो ना ही हानिकारक गंदा बासी अपदूषित अनहाईजिनिक भोज्यपदार्थ रखा बेचा खाया जाता हो । साथ ही वहाँ गंदगी निस्तार की बंद बाजिब व्यवस्था हो ताकि यूनिवर्सिटी की बाउन्ड्री रे हर तरफ साफ सफाई रहे और बैक्टीरिया वायरस बीमारी मच्छर मख्खी कुत्ते कीड़े पनप ही नहीं पायें ।
चाहे तो टेंडर देकर स्वयं ही मासांहारी साफ सुथरे कैंटीन परिसर से बाहर रेस्टोरेंट के रूप में कम कीमत पर चलाये जा सकते हैं जिनकी चिकित्सकीय जाँच चलती रहे ।
भीतर जगह जगह टक शाॅप या डिपार्टमेंटल स्टोर चलाने की बजाय हर गर्ल्स होस्टल को परस्पर जोड़कर एक पूरी पृथक चारदीवारी बनाकर एक छोटा महिलामार्केट बनाया जा सकता है जिसमें प्रात:छह से रात दस बजे तक लड़कियों से संबंधित सब चीजे मिलतीं हों ताकि किसी एक होस्टल से किसी दूसरे होस्टल का आना जाना बंद ना करना पड़े कम से कम सब लड़कियाँ एक दूसरे से मिलजुल सकें पढ़ सकें खेल सकें उनके लिये पृथक स्टेडियम पार्क कुटीर बगीचा स्विमिंग पूल दौड़ने का ट्रैक और व्यायाम वाली सब तरह की सुविधा वेडीज जिम ब्यूटीपार्लर दूध फल नाश्ते लंच डिनर और रोजमर्रा की जरूरतों के सामान मिलते रहें ।
कक्षा नौ से पाँच तक चलती है औसत तो मैस पाँच बार खुलता बंद होता हैइस बीच शाॅपिंग का समय निकालना ही कठिन हो जाताहै यदि यह मिनी महिला मार्केट सबकी सब छात्राओं का कंबाईंड होतातो अधिक वैरायटी की अधिक दुकाने लड़कियों को मिलती जिनमें प्राथमिकता से कठोरता से महिला शाॅपकीपर ही रखी जातीं ।
यह एक प्रश्न चिह्न ही है कि महिला छात्रावास में पुरुष कर्मचारी शाम पाँच बजे से सुबह सात के बीच रात में प्रतिबंधित क्यों नहीं हैं ??तब तो ये महिला सिक्योरिटी गार्ड्स भी केवल ढोंग ही हैं l
बदलते भारत की तसवीर बदलती दिखनी भी चाहिये टेंडर में महिला छात्रावास की दुकानों को केवलमहिला शाॅपकीपर को ही आवंटित संचालित किया जाना पूरी कठोरता से पालन होना चाहिये ।
इससे पूरे विश्व भर के अभिभावक लड़कियों को लवली में भेजते समय और अधिक आश्वस्त और भरोसे से भरे रहेंगे ।
इसके लिये लाॅ काॅलेज मीडिया काॅलेज फिल्मप्राॅडक्शन संगीत काॅलेज को महिला छात्रावास में बदलना पड़ेगा और ये सारे काॅलेज नंबर एक छात्रावास में अस्पताल के सामने या दूसरी तरफ की इमारतों में ले जाने पड़ेगे।
तब सबके सब महिला छात्रावास एक तरफ ही आ जायेंगे और वहाँ की सीमा रेखा स्पष्ट खींचकर पृथक की जा सकेगी और वहाँ से यानि होस्टल जीएच पांच छह तीन दो चार एक तक एक ही कंपाउंड बनाया जाकर पूरी सीमा में महिला स्टेडियम माॅर्निंग वाॅकर ट्रैक स्विंमिंग पूल व्यायामशाला और महिला मिनी मार्केट महिला फूडपार्क और महिला स्टडी सर्कल बगीचा महिला विरामउपवन बनाया जा सकेगा ।
तब लड़कियां पांच बजे सुबह दौड़ने जा सकेंगी ,तब लड़कियां बेझिझक तैरना सीखेंगी और उनको कार चलाना गन चलाना जूडो कैराटे मार्शल आर्टस ताईक्वांडो और बैडमिंटन टैनिस क्रिकेट कबड्डी कुश्ती बाॅक्सिंग सबकुछ खेलने सीखने व्यायाम करने का बेधड़क मौका अपने ही छात्रावासों के बीच मिलता रहेगा ।
तब महिला सिक्योरिटी स्टाफ को केवल एक बड़े फाटक से बाहर पुरुषों को रोकना होगा भीतर केवल स्त्रियाँ ही जा सकेगीं एक महिला मुक्ति परिसर जैसा सुखद सुरक्षित स्वर्ग ये महिला छात्रावास कंपाउंड बन सकता है ।
आवश्यकता है और कारण भी जरूररत है तो लवली के संस्थापक जैसी ललक वाली सोच और निष्ठावान कर्म कर्तव्यपरायणता की ।
जरा से हेर फेर से यह पूरी बाउंड्री पुरुष आवागमन वर्जित क्षेत्र में तब्दील हो सकती है ।
क्योंकि आज लडडकियां सात बजे बाद होस्टल में बंद कर दीं जातीं है गरमी में जाड़े में तो छह बजे ही लड़कियां बंद ।सुबह सात बजे से पहले होस्टल से निकल नहीं सकती ।
तो क्या छह स्टेडियम छह स्विंमिंग पूल छह पार्क छह बाजार छह जिम छह स्टडी सर्कल बनने चाहिये ???
या होस्टल में रहने का मतलब जेल में रहना होना चाहिये ?ना खेलकूद व्यायाम योग तैराकी मार्शल आर्टस ड्राईविंग जीवनोपयोगी पाठ्येतर कलायें ना ही मनोरंजन आहार खरीदददारी !!!महीने में आठ डे आऊट और साल भर के पच्चीनाईटआऊट ??ये तो परिवार से मिलने जुलने बाल कटाने या पढ़ने की सामग्री खरीदने लैपटाॅप मोबाईल ठीक कराने में ही चले जाते हैं । हो सकता है और होता हैकि लड़कियाँ घूमने सिनेमा शाॅपिंग और पसंदीदा खानेपीने हेतु भी ये डेआऊट नाईटआऊट व्यय कर देतीं हैं परंतु ये उपाय ही नहीं है एक स्वस्थ विश्व नागरिक स्त्री के व्यक्तित्व के निर्माण का ।
मेरी सोच है कि यूनिवर्सिटी में बिना पुरुषों के घूरने टोकने रीझने रिझाने टोकने मजाक बनाने के ही लड़कियों को ,
तैरना
कार बाईक साईकिल स्कूटर चलाना
बंदूक रिवाॅल्वर तीर कमान चलाना
कैराटे जूडो मार्शल आर्टस सीख लें
जिम में कम कपड़ों में कठोर दैहिक सौष्ठव बनाना चाहें तो बना सकें
सुबह चार बजे दौड़ना व्यायाम करना योग पूजा प्रार्थना जिम्नास्टिक व्यायाम करना चाहें तो कर सकें ।
यह सब तब ही हो सकता है जब यह माना जाये कि शाम पांच से दस तक लडडकियों को भी खेलने कूदने ड्राईविंग तैराकी निशानेबाजी सीखने का मनोरंजन शाॅपिंग सौंदर्य निखार आहार सुधार का हक है ।
समाज के बीच गली मुहल्लों में इन सबको सीखने के अवसर एशियाई देशों में लड़कियों को सरलता से उपलब्ध गी नहीं विशेषकर कसबों गांवों छोटे नगरों वाले भारत में तो कतई ही नहीं ।
परंतु ये सब आवश्यक अंग है सशक्त स्त्री के अस्तित्व निर्माण के ।
तो मैं आशा अपेक्षा कामना करती हूँ कि लवली यूनिवर्सिटी पढाई के साथ साथ लड़कियों के संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण हेतु सभी जीवन रक्षक कला खेलकूद व्यायाम अनुशासन वाली सुविधायें छात्राओं को अवश्य उपलब्ध कराये ।
क्योंकि लड़कों को गांव के कसबे के नगर मुहल्ले जंगल पुरवा तक के बीच ये सब करने की सीखने की पूरी छूट सहूलियत और आजादी हासिल है जबकि लड़कियों को स्कूल से यूनिवर्सिटी तक की यात्रा में ही कुछ भी सीखना संभव है इनसे बाहर समाज की घूरती पाबंदियां हैं ।


लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में एक दिन .......सुधा राजे
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विद्यार्थी बारहवीं करते करते आज अट्ठारवें साल को छू लेते हैं और माता पिता की आयु चालीस से ऊपर हो चुकी होती है तब तक ऐसी स्थिति में अगले चार पाँच वर्ष उनको और उनके सहोदर एक या अनेक को भी पढ़ना होता है ।यूनिवर्सिटी की फीस लाखों में बैठती है जो सामान्य मध्यमवर्ग कृषक व्यापारी नौकरीपेशा किसी पर भी बहुत भारी पढ़ती है ।लोग प्राय:किसी न किसी प्रकार का ऋण लेकर ही बच्चों को आज पढ़ा पा रहे हैं जिनमें कृषि भवन भूमि तक गिरवी रखी हुयी होती हैं ।
ब्याज जमा करते माता पिता और माता पिता की आर्थिक परेशानियों का बोझ उठाकर यूनिवर्सिटी में रहने पढ़ने चले आये छात्र छात्रायें दिखने में सब सामान्य खुश लगते तो हैं परंतु जिसे भी कुरेदो वही भीतर से नम निकलता है यह हाल है पीड़ा का ।
उपाय क्या है ?पढ़ो कमाओ योजना के अवसर । ई रिक्शा , फूडस्टाल टीस्टाल काॅलसेंटर ईवनिंग ट्यूशन .......और छोटे बड़े हुनर जो अनेक छात्रों के पास होते हैं घर परिवार प्रकृति की विरासत के रूप में । पेंटिंग ब्यूटीशियन टेलरिंग आदि ....कुछ छोटे बड़े हुनर यूनिवर्सिटी भी पढ़ाई के साथ साथ अप्रेंटिस अनुदान के साथ चला सकती है ।मान लो किसी को ड्राईविंग या तैराकी आती है तो वह सहपाठियों या जूनियर छात्रों को सिखा सकता है ।
यह समय इतना अल्प रहे कि पढ़ाई में बाधा न पढ़े और इतना पर्याप्त भी हो छात्र का कुछ वित्तीय स्तर जमापूँजी के रूप में रहने का व्यय कम हो सके ।
एक युवा आत्मविश्वास से भर तभी सकता है जब उसे यह "भय "न हो कि कर्ज में डूबे माता पिता की आशाओं को वह बड़ी पैकेजडील वाली जाॅब मिलेगी या नहीं की नंबर रैट रेस से परे वह डर से मुक्त हो कि माता पिता को वह जाॅब मिले या न मिले तब भी कमा कर खिला पहला सकता है अपना जीवनयापन कर सकता है और कर्ज भी चुका सकता है ।
कहना है मुझे कि छात्र छात्राओं की आत्मघाती प्रवृत्ति के पीछे हर बार कोई असफल प्रेमकथा नहीं होती बल्कि अनेकबार जाॅब न मिलने का डर भी होता है नंबर कम आये तो जाॅब नहीं मिलेगी और जाॅब नहीं मिली तो माता पिता भूमि भवन संपत्ति डूब जायेंगे वह क्या मुँह दिखायेगा मुहल्ले पड़ौस कुटुंब के लोग मजाक बनायेंगे ......इस तरह की सोच डिप्रेशन का शिकार बना डालती है छात्र या तो अनावश्यक तनाव के शिकार होकर नशा मनोरंजन इंटरनेट चैटिंग सर्फिंग और बाहरी बातों में सबकुछ भूलने की कोशिश करने लगते हैं या भीतरी घुटन से चुप्पी ओढ़ लेते हैं और दुर्बल मन वाले बन जाते हैं सौ में से दस बीस युवा इस तरह की मनोस्थिति से ही जूझ रहे होते हैं हिंसा और सेक्स वाली मनोरंजक फिल्में इसमें अत्यधिक भड़काऊ मनोभाव भरकर यदा कदा अपराध की ओर मन मोड़ देते हैं ।
इन सब बातों से बचाने के लिये "पढ़ो कमाओ योजना "विकल्प हो सकती है ।इस से छात्रों को धन कमाने के लिये हुनर बचत का तरीका समय का सदुपयोग और वित्तीय प्रबंधन के हुनर भी आते हैं ।माता पिता का मन पता चलता है कि कितनी मेहनत से रुपया कमाकर वे लोग संतानों को पालते हैं ।
उदाहरण के लिये लवली यूनिवर्सिटी में गरमियों में शरबत लस्सी ठंडई कुल्फी दूध दही कोल्डड्रिंक और आवश्यक पेय पदार्थों की स्टाल छात्रों को लगाने के अवसर प्रतियोगिता के माध्यम से समूह बनाकर दिये जा सकते हैं । सरदियों में चाय काॅफी कुकीज पाॅपकाॅर्न मूँगफली चने रेवड़ी गजक मोजे दास्ताने टोपी मफलर शाॅल स्वेटर पाजामी इनर की स्टाल छात्र लगा सकते हैं । कुछ छात्र पाककला में माहिर हैं तो फास्टफूड की स्टाल लगा सकते हैं तो कुछ छात्र योग मार्शल आर्ट ड्राईविंग स्विमिंग सिखा सकते हैं । कुछ छात्र अनुवाद करने फोटो स्टेट कंप्यूरटर शाॅप जैसे काम करने में कमा सकते है । कुछ ई रिक्शा चला सकते हैं ।
ये एक शरम जैसी अनावश्यक दिखावे वाली भावना से उबरने में सहायता मिलती है । क्योंकि बाहरी दिखावे वाली भावना के चक्कर में श्रम को अपमान की शै समझते हैं इस अनावश्यक शरम के कारण ही अनेक छात्र बड़ी जाॅब की प्रतीक्षा में बड़ी आयु तक मातापिता पर ही बोझ बने रहते हैं और स्वाबलंबी नहीं हो पाते ।
जबकि कार्य कोई तुच्छ नहीं होता बल्कि कर्म ही पूजा है यही संदेश गीता का है तब आठ घंटे कठोर दैहिक श्रम किसी भी वर्ग के युवा छात्र छात्रा की जीवन ऐसी अनुशासन वाली पढ़ाई साबित होगा कि वह बड़ी जाॅब में जाये या छोटी वह प्रसन्नचित्त रहकर कम बजट में अधिक व्यवस्थित जीवन जी सकेगा अपने हाॅबी हुनर को अपनी कमाई का स्रोत बना सकेगा ।
आवश्यकता है इस पर पूरी कार्ययोजना बनाने की । बाज़ारवाद में प्राईवेट यूनिवर्सिटी होने के नाते लाभ पहली बात है वह चाहे कोई भी प्रबंधक कुलपति या बोर्ड समूह हो ,किंतु हर बार यह भी आवश्यक है कि जो पढ़ने आये वह निराश ना जाये ,आत्महत्या न करे ,मनोरोगी ना बन जाये ,परिवार पर बोझ ना बन जाये ,प्राण संकट में ना डाले नशा हिंसा अपराध की तरफ ना मुड़ जाये ।
मैंने अनेक मंचों पत्र पत्रिकाओं से यह बात छात्रों तक पहुँचाने का प्रयास किया है और आज आप से भी यही कहना है कि कर्म करने में शर्म केवल तब आनी चाहिये जब वह समाज परिवार और स्वयं का अहित करने वाला अपराध हो अनैतिक अवैध और अमानवीय हो । कृषि हो भवन निर्माण हेतु श्रमदान छात्रों को उत्साहित करना चाहिये परिश्रम का मूल्य समझने और पारिश्रमिक बचाने कमाने को ।
सादर
सुधा राजे 


सादर
सुधा राजे

कविता :वीरों की जय रहे सदा ही ,वीरों का सम्मान

एक अकेला सिंह सियारों के जंगल शासक है
सिंहवाहिनी उठे हिल उठे अंबर भू  सागर के तल

भूले हो तुम कहाँ आह  दुर्दशा राष्ट्र की देखो तो
छली पी रहे रक्त दीन का ओढ़ तंत्र जनमत कंबल

तिलक चीर अंगुष्ठ मातृ भगिनी करतीं क्यों सदियों से ?
खंड खंड कर मुंड रुंड अरिभाल अगर छू दे अंचल

शोणित सिक्त मेदिनी वीर प्रसविनी निर्निमेष देखे
आह कहीं से उठे वीर हुंकार चीर तारा मंडल

वीर शिरा में लहू नहीं लावे की तपन धधकती है
शौर्य धमनियों में ज्वाला का स्पंदन बहता कल-कल

लोरी स्वाँग प्रभाती संझा अब  गाने का समय नहीं
रक्तोद्वेलक गीत सुनाती रणभेरी जंगल- जंगल

लोक लीक प्रतिमान तुम्हारी ही तुलना से रचे खचे 
भागीरथ श्रीराम शिवाजी राणा गंग जमुन चंबल 

जंग लगी तलवार भी  तपे कीट पतंगे जल  जाते
फिर तो भुजपाशों के आगे रेशम कीट़ों का छल दल

कौन तुम्हें मारेगा ? कैसे कोई डरायेगा तुमको ?
मृत्युप्रेयसी वरण वीर का ही तो संबल बल दिग्बल 

डर !वो होता क्या है पूछो मात्र पीठ दिखला देना
कदम उठा ही दिये बढ़ो फिर हासिल करनी है मंज़िल

पीछे अगर हटी तो समझो सेना नहीं रेवड़ें थीं
डर गये तो वे हुंकारे थीं मात्र कपोतों की हलचल

घर से निकलो तो सौगंध उठाकर जय की याद रहे
शोर बहुत करते हैं थोथे ढोल खोखले खल मंडल

धधक रही ज्वाला में गलकर पिघल पिघल कर ढला हुआ
रक्त रचा इतिहास बदलने चले सर्प का शीश कुचल

©®सुधा राजे

कविता :एक अकेली नन्हीं लड़की

एक अकेली नन्ही लड़की रोज चली आती है घर
कभी शाम को खेल खिलौने लिये कभी कुछ टूटे पर ©®

उस लड़की के बाल सदा ही उलझे बिखरे से
गाल साँवले नयन नक़्श तीखे कुछ निखरे से ©®सुधा राजे

घर तो है ही नहीं कुटुंबी कोई नहीं दिखता
उस लड़की की बात कहीं भी कोई नहीं लिखता ©®सुधा राजे

टूटे फूटे शब्दों में कुछ गाती रहती है
हाथ सने माटी में पर मुस्काती रहती रहती है ©®सुधा राजे

नशा पिये मदहोश पिता हर रात झगड़ता है
माँ को घर के काम रोटियाँ भात रगड़ता है ©®सुधा राजे

पिटती कुटती लड़की दिन भर गाली खाती है
दौड़ भाग से थकी आखिरी थाली खाती है ©®सुधा राजे

ना जाने क्यों उस लड़की पर नजर अटकती है
बहुत हुनर वाली है फिर भी युँ ही भटकती है ©®सुधा राजे

मन की बात न कहती रौनक मेला करती है
चोटें लिये पोंछ कर आँसू खेला करती है ©®सुधाराजे

कैसे जाने पिता नशे में धुत्त कहाँ सोयी
माँ खेतों पर बसे पता क्या हँसी कहाँ रोयी ©®सुधा राजे

घर में पागल चोर नशेड़ी लती मवाली हैं
उस लड़की  के लिये तमाचे थप्पड़ गाली हैं ©®सुधा राजे

ना जाने ये नन्हीं लड़की क्यों आ जाती है
मुझे वेदना की सरिता में रोज डुबाती है ©®सुधा राजे

फटी पुरानी पुस्तक लेकर पढ़ती रहती है
गाँठ गाकर चिंदी धागे मढ़ती रहती है ©®सुधा राजे

कभी वासना भरी छुअन से डरे कभी लड़ती
देख रही उस एकाकिन को नया विश्व गढ़ती ©®सुधा राजे

उसकी बड़ी बड़ी आँखों में आँसू भरे भरे
पपड़ाये अधरों पर  अक्षर तीखे झरे झरे ©®सुधा राजे

नदी लहर जंगल रेतीले टीलों पर जाती
नन्हीं लड़की जाने किसको लिखे रोज पाती ©®सुधाराजे

टूटी ऊन लिये सीकों से बुनती गुनती सी
कभी हठी सी लगे कभी भोली सब सुनती सी ©®सुधाराजे

पूरी पूरी रात  सिसकती रहती कुछ ना कुछ  लिखती
सूनी छत पर कभी कभी ही वो लड़की दिखती ©®सुधा राजे

क्या दुख उसे सोचकर मन कुछ भरा भरा सा है
बचपन से  ही प्रौढ़ सोचकर डरा डरा सा है ©®सुधा राजे

डरती नहीं मरघटों पनघट खेत पहाड़ों से
धूप धुएँ वर्षा से लू से कोह्रे जाड़ों से ©®सुधा राजे

चुपके भरी दोपहर घर से निकल खेलती है
नन्हीं लड़की घर में नित अपमान झेलती है ©®सुधा राजे

कभी दाल सब्जी तो चटनी नमक कभी रूखी
छोटी बहिन चपेटे अकसर  सो जाती भूखी ©®सुधा

कौन पूछने वाला घर में क्या खाती पीती
उपने पाँव ठिठुरती जाने कैसे है जीती ©®सुधा राजे

अपराधी की तरह पीटते रहते हैं भाई
दुश्मन जैसे गरियाती है कोस कोस  माई ©®सुधा राजे

अवसर मिला कि नाते रिश्तेदार लपकते से
पी जाती है दर्द अधर से नयन टपकते से ©®सुधा राजे

जरा शिकायत झूठी सच्ची मिलते पिट जाती
पुस्तक पाते कहीं कोई सब भूल चिपट जाती ©®सुधा राजे

बहुत खुशी की बात कि विद्यालय तो जाती है
किंतु कलेवा लाती ना कुछ खाकर  आती है ©®सुधा राजे

मैले कपड़े किंतु खिली सी हँसी चहकती सी
मेधावी बच्ची अनगढ़ सी बेल  महकती सी ©®सुधा राजे

सूखे हुये आँसुओं वाले धब्बे चेहरे पर
नन्हीं ल़ड़की दिखे भेड़ियों वाले पहरे पर ©®सुधा राजे

मैं अकसर ही उस लड़की से बातें करती हूँ
उसके सपनों अरमानों से सचमुच डरती हूँ ©®सुधा राजे

ध्वस्त भवन  विद्यालय टूटी फूटी दीवारें
टाटपट्टियों पर ही नये सपनों की मीनारें ©®सुधा राजे

बड़ी बड़ी बातें करती वो निपट अकेली सी
प्रौढ़ बालिका पल पल ज्यों संकट से खेली सी ©®सुधा राजे

सोचा तो हर काम काज हर हुनर कुदरती गुन
बड़े लोग भी चकित रहा करते हैं उसकी सुन ©®सुधा राजे

गज़ब आत्मविश्वास कंठ में स्वर तीखी नज़रें
गली मुहल्ले में ढोलक पर उसके गीत झरें ©®सुधा राजे

मुझसे उस नन्हीं का जाने कैसा नाता है
इक दिन भी ना मिले शून्य सा मन हो जाता है ©®सुधा राजे

गैया कुत्ता बिल्ली बकरी गाँव  पालती है
खुद अनाथ सी किंतु सभी को छाँव डालती है ©®सुधा राजे

कहने को परिवार भरा कुनबा है पूरा ही
किंतु जानता कोई न समझे उसे अधूरा ही©®सुधा राजे

मन्दिर मसजिद चर्च शिवालय घंटों तकती है
ध्यान लगा बैठे संतों सी   कैसी भक्ती है !©®सुधा राजे

अंबालय में झाड़ू देकर विग्रह नहलाती
घंटों करे आरती पूजन प्रतिमा बहलाती ©®सुधा राजे

इतनी छोटी वय में ऐसा ईश्वरवादी मन
डर जाती हूँ सोच कि आगे क्या होगा जीवन ©®सुधा राजे

जैसे अपनी निर्माता अपनी अभिभावक है
मेधावी है खेलकूद में उत्तम धावक है ©®सुधा राजे

जाड़े में कथरी पर सोती कथरी ही ओढ़े
कभी न देखे वस्त्र नये मिलते हों दो जोड़े ©®सुधा राजे

जन्मदिवस लड़की का कौन मनाता है घर में
चकित वेदना की पुतली क्या देखे ईश्वर में !!©®सुधा राजे

हक़ ही नहीं खेलने गाने सोने खाने का
घर में नये सामान भेंट में कुछ पा जाने का ©®सुधा राजे

सिलती रहती वस्त्र नवेले उतरन कतरन से
  कभी न  लज्जित देखी उधड़ी गंदी पहरन से ©®सुधा राजे

मंजन साबुन तेल कहाँ वो पाती नये कपड़े
नशा वासना ऐब हर तरह से घर को जकड़े ©®सुधा राजे

उसके घर में पुरुष क्रोधहिंसा से भरे हुये
स्त्री बच्चे दास बने रहते हैं डरे हुये ©®सुधा राजे

सोच रही हूँ पूछूँ क्या क्या माँगा ईश्वर से
हँसते ही ना रो दे पगली चुप हूँ इस डरसे ©®सुधा राजे

सगी और सौतेली दो दो माँयें जिंदा हैं
आठ भाई दो बहिन बताती कुछ शर्मिन्दा है ©®सुधा राजे

पूछा तो चुप हो गयी कहकर मुझको नहीं पता
दो परिवार निभाता कैसे है मदहोश पिता ©®सुधा राजे

कुछ अजीब चित्र से बनाती कुछ गाती लिखती
बच्ची तो है  किंतु बड़ों से भी बुजुर्ग दिखती ©®सुधा राजे

घर सारे छोटे बच्चों को वो बहलाती
दाई धाय माँ बनी लोरियां शिशुओं को गाती ©®सुधा राजे

अभी अभी चलना खुद सीखा बालक पाल रही
गले लगाता कौन उसे ये पीड़ा साल रही ©®सुधा राजे

लेख :पद्मावत के बहाने ,देश के घाव पुराने

पद्मावत ,मलिक मु.जायसी का निराकार ब्रह्मोपासना का सांड्गरूपक महाकाव्य है जिसके राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती का विरह आत्मा परमात्मा पर चौपाई दोहा छंद में लिखा गया है । क्या शाहिद कपूर ,रणबीर सिंह ,दीपिका पादुकोण ,संजय लीला भंसाली और फिल्म सेंसर बोर्ड ने ""पद्मावत ""जायसी के महाकाव्य पर बनायी है ????
यदि नहीं तो यह नाम बदलने का ढकोसला पूरे एक वीर कौम के घाव जलाने जैसा अपराध नहीं तो क्या है ???
आप में से किसी की नानी दादी या मां किसी बदनीयत हमलावर विदेशी से अपने कुल परिवार की मान मर्यादा के लिये यदि आत्महत्या कर लें जल मरें और परिवार के युवा किशोर तरुण नौनिहाल उस हमलावर के हाथों मारे जायें ,फिर उन नानी दादी मां के शव समाधियों के कपोल कल्पित फिल्मीकरण करके लोगों का मनोरंजन किया जाये धन कमाने के लिये तो पता है कैसा लगेगा ??
सतियों की पीड़ा सती के परिवार कभी कैसे भूलेंगे जिन्होंने दहकती आग पर छलांग लगा दी पेट पर बच्चे बाँधकर कि जाईये वीरो युद्ध में पीछे अब कुछ नहीं रहा मरो या मार दो ,??
हर जाति हर वंश की स्त्री सिंध में ,चंदेरी में ,पंजाब में ,मेवाड़ में और यत्र तत्र समूचे भारत में विदेशी आक्रमणकारियों के साथ भारतीयों के युद्ध के समय""सती ""हुयीं ।
भारत उन घावों को कितना भी ढँक ले भूल तो नहीं सकता !!!!
ये ""लीला""शब्द माँ के नाम पर लगाने वाला व्यक्ति भंसाली कैसे नहीं समझ पाता है कि माँ जब नाचने का अभ्यास करती थी मामूली सी खोली में तो पड़ौसी लड़ने आ जाते थे और पिता रोज झगड़ा करता था माँ से इतना प्रेम करने वाला व्यक्ति कि माँ का नाम ही सरनेम की तरह लगाये फिरता है ,,,,,,कैसे नहीं समझ सका कि ""पद्मावती "एक स्त्री रानी मात्र नहीं पूरे भारत को मिला जलता घाव है !!!
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ये है अपना राजपुताना नाज़ इसे तलवारों पर
कूद पड़ीं थीं यहाँ हज़ारों पद्मिनियाँ अंगारों पर
यहाँ प्रताप का वतन पला है आज़ादी के नारों पर ???????
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सवाल फिल्म बनाने की और अभिव्यक्ति की आज़ादी का है ही नहीं ,
सवाल है कि क्या मनोरंजन और कला के नाम पर किसी को भी धन कमाने के लिये किसी के पूर्वजों पर काल्पनिक कहानियाँ वितरण करने का हक है ???
पद्मावती कोई नेता मंत्री या सार्वजनिक व्यक्ति नहीं थीं ,
वे राजपूतों की पूर्वज हैं ,
उनके पितृकुल ,
मातृकुल ,
और सप्तगोत्रकुल के वंशज आज भी है ।
उनके दर्द उन रेतीले ढूहों में धधकती समाधियों पर हर साल हर रोज याद किये जाते हैं ।
क्षत्रियों में प्रत्येक विविवाह में कुलदेवी कुलदेवता की पूजा और गंगाजली कलश स्थापना के ही "देवता लाने "की परंपरा में सती माताओं का अनंत पीढ़ियों तक का डोला लाया जाता है ।
विश्वास और भावना का बल ही हर धर्म की आस्था की गहरी पूँजी है ।
हर सौभाग्यवती और सौभाग्याकांक्षिणई राजपूत स्त्री "सतीमाताओं से वह संयम वह आत्मनियंत्रण वह कष्ट सहने की तितिक्षा और कुलमर्यादा रक्षा का धैर्य माँगती है कि चाहे प्राण जायें या हर तरह का दुख सहना पड़ जाये परंतु मान मर्यादा और सत्त की रक्षा हो ,,,यह वरदान बहुत कलेजा चीरते गीतों पूजा और प्रार्थनाओं के साथ आँसू भरी आँखों से माँगती स्त्रियाँ वह धधक वह दहक महसूसतीं हैं जो सती की समाधि और घर लाये गये उनके प्रतीकात्मक डोले में होती है ।
युग युग तक मुझे भी यही मान सम्मान मिलता रहे यही तड़प उस सौभाग्याकांक्षिणी और हर सौभाग्यवती के मन में रहती है । राजपूत वीर कौम इसीलिये तो है कि उनकी स्त्रियों में आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा पर जूझने लड़ने और मर मिटने का साहस रहा है ।
किसी भी तरह का हक किसी के भी पूर्वजों के चरित्र चित्रण का किसी भी तरह के मनोरंजन कला धनकमाऊ और दिखाऊगीरों को नहीं हो सकता ।
क्या ""जातिसूचक शब्दों के कहने से घाव लगता है ?तो फिर दलित एक्ट में जातिसूचक शब्द कहने पर अपराध क्यों घोषित है ?
क्या इस्लाम के प्रवर्तक पर फिल्म बनाने का साहस है वाॅलीवुड या हाॅलीवुड में ?
सच्ची या झूठी जैसी भी ??
सवाल क्यों न किया जाये कि भारतीय इतिहास में राजपूतों ब्राह्मणों बनियों के मानहनन के लिये हर तरह से फिल्मकारों ने सदी भर से जैसे षडयंत्र सा चला रखा है ??कहीं भी टी वी सीरियल हो या एक फिल्म ""मार्क्सवाद का रूप भारत में कहीं रूस की तरह ब्लैक एंड व्हाईट रहा ही नहीं तो दिखाते क्या मजदूर शोषित और मिलमालिक शोषक सो ,ले दे कर पंडित ठाकुर लाला को बलात्कारी चोर ठग लुटेरा डाकू भयंकर दुर्दान्त हत्यारा पापी नरक का मालिक आदि बनाने रहे ।
जबकि वास्तविक भारत के लुटेरे तानाशाह मिलमालिक पापी हत्यारे बाबर डायर जैसों पर न फिल्मवाले कुछ खास कर सके ना ही टीवी सीरियल वाले ।
क्योंकि संविधान बनने से पहले देसी राजा या तो भारत की आजादी में मार दिये गये थे या बरबाद हो चुके थे बचे खुचे राज्यों के पास एकीकरण के नाम पर संघभारत का सपना दिखाकर संविधान में बार बार संसोधन करके "आरक्षण "की दीवार खड़ी कर दी गयी थी और लोगों के दिमाग में काल्पनिक कहानियाँ राजा ठाकुर जमींदारों के पाप हत्या बलात्कार और निरंकुशता की ये टी वी फिल्म वाले ठूँसते रहे ।
आतंकवादी का मजहब नहीं होता कहने वाले लोग
हर
विलेन की जाति जरूर जानते रहे क्योंकि फिल्म में लड़की या तो पंडित बनिया लाला ठाकुर की या तो बर्बर अपराधी पंडित बनिया लाला ठाकुर होता आया है ।
बड़ी सफाई से पादरी पोप फादर को दयाा की प्रतिमूर्ति ,क्रिस्चियन महिला को दया की देवी दिखाया जाता रहा है ।
सवाल है
यदि
बिल्लू बारबर का नाम बदलना पड़ गया
गाने में से "अपने बिल्लू भयंकर "जोड़ना पड़ गया ,
तो
ये फिल्म वाले जाति क्यों दिखाते हैं पात्र की ? मजहब में दयालु पात्र सदैव ईसाई ही क्यों होता रहा है ?जबकि पूरे भारत को ढाई सौ सालों तक हत्या लूटपाट भुखमरी युद्ध सामूहिक नरसंहार का सामना ईसाईयों यानि अंग्रेजों के कारण करना पड़ा जो ""सफेद लोगों का करत्तव्य यानि भारत को सभ्य रिलीजन में ढालने आये थे ??
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कहीं भी सिवा आतंकवाद पर बनी एक दो डेयरिंग फ्लाॅप फिल्मों के कोई मुसलिम विलेन नहीं दिखाया गया ,मुसलिम पात्र तक पर फिल्म बहुत सावधानी से बनाई गयी , जबकि चंगेज खां ,अहमदशा अब्दाली से लेकर बहादुर शाह जफर तक के कार्यकाल में भारत ने भयंकर मारकाट जबरन धर्मपरिवर्तन मजबूरन परदाप्रथा बालविवाह और विवशत:सतीकरण सामूहिक आत्मोत्सर्ग का सामना किया भयंकर तोड़फोड़ लूटपाट विनाश मंदिर महल शिवालों का ध्वस्तीकरण भुगता ।
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क्षमा करे ,
यहाँ हमारा मकसद किसी जाति मजहब या रिलीजन धर्म कौम की निंदा या प्रसंशा नहीं है ।
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हमारा सवाल है कि इतिहास हम न रच सकते हैं न बदल सकते हैं , किंतु किसी भी परिवार वंश कौम जाति कुल कुटुंब राज्य या राष्ट्र का इतिहास सीधे सीधे जिन लोगों से जुड़ा है उन पर कुछ भी कोई भी कैसा भी कभी भी यूँ ही निजी कमाई मनोरंजन स्वार्थ प्रसिद्धि और कला के नाम पर मोटी कमाई के लिये कर सकता है ??संविधान में यदि अभिव्यक्ति की आजादी हक. है तो क्या आस्थाओं की रक्षा का हक़ नहीं ??????
सतियों की दर्दभरी कहानियाँ हर राजपूत कुल की आस्था हैं पूजा विश्वास धर्म हैं ,
गोगावीर
पाबूजी
जहरपीर
भैरोबाबा
बालाजी
खातीबाबा
हरदौल
वैसे ही पूज्यनीय और आस्था के तत्व हो चुके हैं जैसे दूसरे धर्मों में सेन्ट मैरी ,सेंट जोसेफ ,गुरूनानक,महावीर स्वाामी , आदि ,
आज लोग बहुत भ्रमवश
पद्मावती की कथा को फिल्मी परदे पर पद्मावत नाम से देखने को मरे जा रहे हैं ,यह सोचकर कि यह राजपूतों मुगलों की कथा है हमसे क्या !!
वे भूल रहे हैं कि यह भारतीय सती स्त्रियों के संस्कारों वीरों के अदम्य साहस बलिदान और विदेशी हमलावरों के बीच जीवित रह गये हमारे अक्षुण्ण भारत की सर्वसमाज की अस्मिता से मनमाने खिलवाड़ की फिर एक और हिमाक़त है ।
जिसको कितना भी विवश करके दबाया जाये सहने लायक नहीं बनाया जा सकता ।

सत्ता का अहंकार किये बैठे नेता भूल जाते हैं कि भारत में हर वर्ष दशहरे पर अहंकारियों के पुतले जलाये जाते हैं त्यौहार मानकर
*
रही बात अभिनेत्रियों की
जो बहुत चीख रहीं हैं ,स्वतंत्रता कला अभिव्यक्ति के नाम पर ,,,वे उस महानायिकाा के चरित्र को कभी कल्पना तक में कैसे समझेंगी जिनके लिये चमड़ी भी यदि संभव होती तो फोटोशूट को सनसनी बनाने के लिये निकाल रखतीं ,भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व मनु और पद्मावती करतीं रहीं हैं ,कोई अभिनेत्री नहीं ,
इस देश में नर्तकी तक देशभक्त और सिद्धांतवादी होतीं रहीं हैं ,
उनके भी कुछ उसूल होते थे ...............और क्या कहें ,,,,,,,,दुख बेबसी क्षोभ में

©®सुधा राजे