Sunday 1 April 2018

कविता :एक अकेली नन्हीं लड़की

एक अकेली नन्ही लड़की रोज चली आती है घर
कभी शाम को खेल खिलौने लिये कभी कुछ टूटे पर ©®

उस लड़की के बाल सदा ही उलझे बिखरे से
गाल साँवले नयन नक़्श तीखे कुछ निखरे से ©®सुधा राजे

घर तो है ही नहीं कुटुंबी कोई नहीं दिखता
उस लड़की की बात कहीं भी कोई नहीं लिखता ©®सुधा राजे

टूटे फूटे शब्दों में कुछ गाती रहती है
हाथ सने माटी में पर मुस्काती रहती रहती है ©®सुधा राजे

नशा पिये मदहोश पिता हर रात झगड़ता है
माँ को घर के काम रोटियाँ भात रगड़ता है ©®सुधा राजे

पिटती कुटती लड़की दिन भर गाली खाती है
दौड़ भाग से थकी आखिरी थाली खाती है ©®सुधा राजे

ना जाने क्यों उस लड़की पर नजर अटकती है
बहुत हुनर वाली है फिर भी युँ ही भटकती है ©®सुधा राजे

मन की बात न कहती रौनक मेला करती है
चोटें लिये पोंछ कर आँसू खेला करती है ©®सुधाराजे

कैसे जाने पिता नशे में धुत्त कहाँ सोयी
माँ खेतों पर बसे पता क्या हँसी कहाँ रोयी ©®सुधा राजे

घर में पागल चोर नशेड़ी लती मवाली हैं
उस लड़की  के लिये तमाचे थप्पड़ गाली हैं ©®सुधा राजे

ना जाने ये नन्हीं लड़की क्यों आ जाती है
मुझे वेदना की सरिता में रोज डुबाती है ©®सुधा राजे

फटी पुरानी पुस्तक लेकर पढ़ती रहती है
गाँठ गाकर चिंदी धागे मढ़ती रहती है ©®सुधा राजे

कभी वासना भरी छुअन से डरे कभी लड़ती
देख रही उस एकाकिन को नया विश्व गढ़ती ©®सुधा राजे

उसकी बड़ी बड़ी आँखों में आँसू भरे भरे
पपड़ाये अधरों पर  अक्षर तीखे झरे झरे ©®सुधा राजे

नदी लहर जंगल रेतीले टीलों पर जाती
नन्हीं लड़की जाने किसको लिखे रोज पाती ©®सुधाराजे

टूटी ऊन लिये सीकों से बुनती गुनती सी
कभी हठी सी लगे कभी भोली सब सुनती सी ©®सुधाराजे

पूरी पूरी रात  सिसकती रहती कुछ ना कुछ  लिखती
सूनी छत पर कभी कभी ही वो लड़की दिखती ©®सुधा राजे

क्या दुख उसे सोचकर मन कुछ भरा भरा सा है
बचपन से  ही प्रौढ़ सोचकर डरा डरा सा है ©®सुधा राजे

डरती नहीं मरघटों पनघट खेत पहाड़ों से
धूप धुएँ वर्षा से लू से कोह्रे जाड़ों से ©®सुधा राजे

चुपके भरी दोपहर घर से निकल खेलती है
नन्हीं लड़की घर में नित अपमान झेलती है ©®सुधा राजे

कभी दाल सब्जी तो चटनी नमक कभी रूखी
छोटी बहिन चपेटे अकसर  सो जाती भूखी ©®सुधा

कौन पूछने वाला घर में क्या खाती पीती
उपने पाँव ठिठुरती जाने कैसे है जीती ©®सुधा राजे

अपराधी की तरह पीटते रहते हैं भाई
दुश्मन जैसे गरियाती है कोस कोस  माई ©®सुधा राजे

अवसर मिला कि नाते रिश्तेदार लपकते से
पी जाती है दर्द अधर से नयन टपकते से ©®सुधा राजे

जरा शिकायत झूठी सच्ची मिलते पिट जाती
पुस्तक पाते कहीं कोई सब भूल चिपट जाती ©®सुधा राजे

बहुत खुशी की बात कि विद्यालय तो जाती है
किंतु कलेवा लाती ना कुछ खाकर  आती है ©®सुधा राजे

मैले कपड़े किंतु खिली सी हँसी चहकती सी
मेधावी बच्ची अनगढ़ सी बेल  महकती सी ©®सुधा राजे

सूखे हुये आँसुओं वाले धब्बे चेहरे पर
नन्हीं ल़ड़की दिखे भेड़ियों वाले पहरे पर ©®सुधा राजे

मैं अकसर ही उस लड़की से बातें करती हूँ
उसके सपनों अरमानों से सचमुच डरती हूँ ©®सुधा राजे

ध्वस्त भवन  विद्यालय टूटी फूटी दीवारें
टाटपट्टियों पर ही नये सपनों की मीनारें ©®सुधा राजे

बड़ी बड़ी बातें करती वो निपट अकेली सी
प्रौढ़ बालिका पल पल ज्यों संकट से खेली सी ©®सुधा राजे

सोचा तो हर काम काज हर हुनर कुदरती गुन
बड़े लोग भी चकित रहा करते हैं उसकी सुन ©®सुधा राजे

गज़ब आत्मविश्वास कंठ में स्वर तीखी नज़रें
गली मुहल्ले में ढोलक पर उसके गीत झरें ©®सुधा राजे

मुझसे उस नन्हीं का जाने कैसा नाता है
इक दिन भी ना मिले शून्य सा मन हो जाता है ©®सुधा राजे

गैया कुत्ता बिल्ली बकरी गाँव  पालती है
खुद अनाथ सी किंतु सभी को छाँव डालती है ©®सुधा राजे

कहने को परिवार भरा कुनबा है पूरा ही
किंतु जानता कोई न समझे उसे अधूरा ही©®सुधा राजे

मन्दिर मसजिद चर्च शिवालय घंटों तकती है
ध्यान लगा बैठे संतों सी   कैसी भक्ती है !©®सुधा राजे

अंबालय में झाड़ू देकर विग्रह नहलाती
घंटों करे आरती पूजन प्रतिमा बहलाती ©®सुधा राजे

इतनी छोटी वय में ऐसा ईश्वरवादी मन
डर जाती हूँ सोच कि आगे क्या होगा जीवन ©®सुधा राजे

जैसे अपनी निर्माता अपनी अभिभावक है
मेधावी है खेलकूद में उत्तम धावक है ©®सुधा राजे

जाड़े में कथरी पर सोती कथरी ही ओढ़े
कभी न देखे वस्त्र नये मिलते हों दो जोड़े ©®सुधा राजे

जन्मदिवस लड़की का कौन मनाता है घर में
चकित वेदना की पुतली क्या देखे ईश्वर में !!©®सुधा राजे

हक़ ही नहीं खेलने गाने सोने खाने का
घर में नये सामान भेंट में कुछ पा जाने का ©®सुधा राजे

सिलती रहती वस्त्र नवेले उतरन कतरन से
  कभी न  लज्जित देखी उधड़ी गंदी पहरन से ©®सुधा राजे

मंजन साबुन तेल कहाँ वो पाती नये कपड़े
नशा वासना ऐब हर तरह से घर को जकड़े ©®सुधा राजे

उसके घर में पुरुष क्रोधहिंसा से भरे हुये
स्त्री बच्चे दास बने रहते हैं डरे हुये ©®सुधा राजे

सोच रही हूँ पूछूँ क्या क्या माँगा ईश्वर से
हँसते ही ना रो दे पगली चुप हूँ इस डरसे ©®सुधा राजे

सगी और सौतेली दो दो माँयें जिंदा हैं
आठ भाई दो बहिन बताती कुछ शर्मिन्दा है ©®सुधा राजे

पूछा तो चुप हो गयी कहकर मुझको नहीं पता
दो परिवार निभाता कैसे है मदहोश पिता ©®सुधा राजे

कुछ अजीब चित्र से बनाती कुछ गाती लिखती
बच्ची तो है  किंतु बड़ों से भी बुजुर्ग दिखती ©®सुधा राजे

घर सारे छोटे बच्चों को वो बहलाती
दाई धाय माँ बनी लोरियां शिशुओं को गाती ©®सुधा राजे

अभी अभी चलना खुद सीखा बालक पाल रही
गले लगाता कौन उसे ये पीड़ा साल रही ©®सुधा राजे

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