Thursday 31 July 2014

सुधा राजे का लेख -""दासता बनाम संस्कृति"" (भाग 3)

तीज कोई अकेले
पत्नियों का त्यौहार नहीं है ।
आप कभी पश्चिमी उप्र में आकर देखें
""भाई और भतीजे पिता ""अपनी दूर
पास रहतीं बेटियों बुआओं पोतियों के
घर जाते है 'और
वहाँ ""सिंधारा या सिंझारा देकर
आते हैं ।ये होता है कपङे
चूङियाँ मेंहदी और घेवर कुछ रुपये ।
अब
इसमें गुलामी खोजने से पहले सोशल
स्ट्रक्चर को देखना पङेगा ।
कृषि और कलाकारी प्रधान देश
का मुख्य आय स्रोत कृषि और हर
रिश्ते के पुरुष पर
डाली गयी ""स्त्रियों की जिम्मेदारी ""
आज धारा 125के तहत भरण पोषण
का दावा करने
वाली किसी भी उपेक्षित
स्त्री को ये
दावा ""दासता नहीं हक नजर
आता है?
जबकि दासता वहीं है जहाँ कोई
देना ही नहीं चाहता और हाथ
फैलाना पङता है ।
पिता जिस तरह पुत्र को देता है
बङा भाई छोटे भाई को देता है ।
बाबा पोते को देता है ।
चाचा भतीजे को देता है ।
इसी तरह
मनीषियों में हर ऋतु के हिसाब से
स्त्रियों के उल्लास के लिये तीज
त्यौहार के बहाने रचे ।
अब तीज पर क्या करतीं हैं
स्त्रियाँ??
खूब सजती है
ये सजावट के पैसे कौन देता है?
पिता पति बाबा और भाई,,,,,,
नये कपङे नये गहने नयी मेंहदी उबटन
श्रंगार
और बङे मंदिर या बाग पार्क
या कहीं खुली जगह में झुंड में
इकट्ठी होकर झूलना
गीत गाना और पूजा करके परिवार के
लिये मंगल कामना करना ।
क्या
किटी पार्टी मनोरंजन
का बहाना है? तीज नही??
क्या ब्यूटी पार्लर
खुशी का बहाना है घर के उबटन
मेंहदी सजावट नहीं??
वाटर पार्क और सिनेमाघर सुख
देता है पिकनिक भी ।
तो क्या
बाग बगीचे मंदिर में झूलना और
रस्सी कूदना नहीं??
क्लब और बार डिस्कोथेक और सङक पर
बारात और स्टेज शो में नाचना मन
बहलाता है ''
तीज पर घरों के बीच इकट्ठे होकर
नाचना दासता है??
ये पर्व बनाये ही इसलिये गये
कि पुरुष कर्त्तव्य के प्रति जागरुक
हों और हर तीज त्यौहार पर
पत्नी बहिन बेटी को कपङे गहने
रुपया और मेल जोल मेला झूला गीत
नाच की मोहलत दे सके ।
वरना तो पुरुष खेती और
मजदूरी व्यापार का बँधा
स्त्री
रसोई बच्चे और घर बार की बँधी ।
ये नीरसता टूट जाती है ।
चाव से जब सजकर
लङकियाँ सहेलियों के साथ
गाती खिलखिलाती है!!!
दासता?
गेट टुगेदर पार्टी नहीं?
दासता बर्थ डे पर केक कैंडिल और
हैप्पी बर्थ डे गाकर
ताली बजाना नहीं?????
दासता होटल में हनीमून मनाने
की होङ नहीं???
दासता न्यू ईयर पार्टी के नाम पर
हुङदंग मचाना नहीं ???
दासता शराब सिगरेट पीकर
अंग्रेजी गालियाँ बकना नहीं???
भारत माता ग्राम वासिनी ।
ग्रामीण
स्त्रियों की किटी पार्टी है तीज
गेट टुगैदर है वय सावित्री
गणगौर
न्यूईयर है
और
होली है ""रेन डांस "
ये त्यौहार मेले लाते है
दुख की धूल झङाते हैं ।
राखी बाँधकर भाई से डिजायनर कपङे
लेना दासता नहीं??
पिता के घर से बार बार रकम
उपहार और छठी दशटोन भात
की रकम उपहार लेना दासता नहीं??
सच कहे तो ये ""त्यौहार बहुत सोच
समझकर रखे गये है जो टूटते दरकते मन
को मन से जोङ देते है परिवार
की डोरियाँ नवीन करते है और
कर्त्तव्य बोध कराते है पुरुष
को कि स्त्रियों को उपहार
रुपया गहने जेवर और खेल कूद गीत
नाच का अवकाश भी चाहिये
सहेलियाँ भी और मायके जाना भी ।
अपनी कमाई का चौथा भाग घर
की स्त्रियों के गहने कपङों जेवर और
मनोरंजन पर खर्च करना तमाम
गृहसूत्रों में यूँ ही नहीं लिखा उनके
लिये दो दर्जन पर्व भी बनाये
ताकि कोई भूल न हो अगर दासता है
तो है अपनी संस्कृति में खोट और
विदेशी में अंधानुकरण करना ।
तीज त्यौहार तो उल्लास के लिये रचे
है मनाईये बढ़ चढ़कर ।
आज धारा 125के तहत भरण
पोषणका दावा करनेवाली किसी भी उपेक्षितस्त्री को येदावा ""दासता नहीं हक
नजरआता है?जबकि दासता वहीं है
जहाँ कोईदेना ही नहीं चाहता और
हाथ फैलाना पङता है ।
परंपरायें तो ठीक है """व्यक्तियों ने
विकृतियाँ बना ली है और हैलोबीन
क्रिसमस इफतार पर खुश होने वाले
""महान ""भी इनकी गहराई पर
कभी नहीं सोचत
©®सुधा राजे

सुधा राजे का लेख -""दासता बनाम संस्कृति"" (भाग 2)

आपकी आधुनिकता का सम्मान हम
तभी कर सकते हैं जब आप हमारे
ग़वारपन को अपमानित न करें ।
कोई लंबी चोटी बिंदी बुरका घूँघट
पायल नथ और परिवार में
ही रमी रची बसी स्त्री ""का यदि आप
मजाक बनाती है बजाय उसे सम्मान
देने के ।
तो आपका आधुनिक वेश और कपङे ज्ञान
और अभिव्यक्ति कमाई और
ओहदा """उसके लिये भी दो तसले
गोबर बराबर भी कीमत
नहीं रखता क्योंकि गोबर तो फिर
बीस रुपये दे ही देगा ।
©®सुधा राज

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

सुधा राजे का लेख -""दासता बनाम संस्कृति"" (भाग 1)

व्रत उपवास को ""नारीवाद ""के
चश्मे से देखना बङा उपहास प्रद है ।
किसी भी मजहब में हो
प्रार्थना और तप
संयम की सीख के अंग है ।
कुछ ""पढ़ें भी ।
सब तपस्यायें पहले पुरुषों ने भी की है

मंदिर मसजिद गुरुद्वारा गिर्जाघर
कहीं भी
जाकर
मनुष्य क्या माँगता है???
परिवार की खुशी
दीर्घायु सुख प्यार आरोग्य और
परमात्मा की कृपा ।आपदाओं से
रक्षा!!!
स्त्री और पुरुष दोनों ही ये सब
माँगते हैं ।
अब जिसको जो जो ""प्यारा वांछित
और जरूरी लगता है माँगता है ""
औरतें
रोज़ा रखकर क्या माँगती है???
पुरुष
प्रदोष एकादशी मंगल और
नवरात्रि व्रत शिवरात्रि व्रत
कांवङ यात्रा अमरनाथ मानसरोवर
चतुर्धाम व्रत रखकर क्या माँगते
है????
धर्म?
अर्थ
काम
मोक्ष
,,,,नौकरी रोजगार मकान दुकान
बेटा बेटी विवाह पत्नी और दैहिक
बल बुद्धि सत्ता ।
सब का क्या करेगे?
परिवार
और अपने प्रयजनों के सुख पर ही खर्च
करेगे???
विकृतियों की बात मत कीजिये ।
विकृतियाँ तो स्त्रियों में
भी ""शोचनीय स्तर तक जा पहुँची है
"
कोई "भाई
नहीं कहता कि मारूँगा पीटूँगा वरना मेरे
लिये दूज दशहरा राखी व्रत कर!!!
किंतु बहिन को प्यार है अपने वीर से
तो रखती है चुपके से आँसू बहाती है
भगवान के आगे मेरे भाई
की रक्षा करो उसे जॉब दो बरकत
दो औलाद दो वगैरह ।
कोई नहीं थोपता था कि "मनवांछित
वर पाने को व्रत रखो "
किंतु "जिसको विश्वास
होता था कि ""ईश्वर मेरी भूख
हङताल से दयालु हो जायेगा और
मेरी बात मान लेगा वह
रखती थी कठोर व्रत "असंभव वर
पाने को संभव करने को "
पुरुष
भी तो करते रहे तमाम पूजा पाठ
अपनी वांछित लङकी से विवाह करने
को ।
चाहे यह सब दिखाना संकोच वश न
कहें ।
गांधी जी ने अनशन कर करके हुकूमते
ब्रितानिया ने बार बार बात
मनवायी
ऐसे ही एक आमरण अनशन के समय
नोआखाली के दंगाई कातिल लहू
सनी तलवारे खंजर चाकू लेकर गाँधी के
चरणों में रो पङे ।
अन्ना हजारे की तेरह दिन की भूख
हङताल ने सारा देश झुका दिया ''सब
कह उठे मैं हू अन्ना "
और विवश सरकार को लोकपाल
विधेयक बनाना पङा ।
ये सब व्रत केवल पति के लिये
ही तो नहीं!!
कुछ ही हैं ।
लेकिन मानो या नहीं ये कठोर सच है
कि "पुरुष कठिन और जोखिम
भरी परिस्थितियों में कार्य करते हैं

स्त्री सहनशील संयमी है प्रकृति से
एक कमाता है दस खाते हैं । वह
सारी ऊर्जा सबकी जरूरतें पूरी करने
पर व्यय कर देता है ।
और सबकी सब सहूलियतें इस बात पर
निर्भर हैं कि "कमाऊ रक्षक सलामत
रहे "
बस हर माँ बहिन बेटी इस सत्य
को जब समझ लेतीं हैं तब ""ईश्वर से
हठ पूर्वक प्रार्थना मनवाने
की कोशिश करतीं हैं ।
चाहे मिस्सा बलिदान फ्राईडे फास्ट
रोज़ा जुम्मा रोजा
या
विविध प्रांतों में प्रचलित विविध
व्रत हो ।
शिव पार्वती
जैसा संग और प्रेम चाहने के लिये
पार्वती की तीजें व्रत
मनायीं गयीं ।
किसने कहा कि व्रत करो?
मन नहीं तो मत करो
किंतु किसी की आस्था को
नारीवाद के नामपर "दुआ करने से मत
उपहास बनाओ"

कोई । ईश्वर से क्या क्या माँगता है "ये
उसकी व्यक्तिगत भावना का विषय है "।
आज के अल्ट्रा मॉडर्न युग में भी ""संयम
और आत्मनियंत्रण इंन्द्रिय निग्रह
""उतना ही जरूरी है जितना त्रेता में
था । चाहे पुरुष
हों या स्त्री यदि नास्तिक
भी हों तो भी अपने अपनों और
अपनी चीज़ों के लिये ""कल्याण
"की भावना तो रखते ही हैं । अब
धार्मिक लोग इसके लिये रोज़ा व्रत
फास्ट इबादत पूजा पाठ करने लगे बस्स।
यदि कोई धार्मिक माता अपने परिवार
के लिये ''सोलह सोमवार सावन भादों के
मंगल या रोजे नमाज या जपुजी और
सेवाजी करती है तो """इसमें कोई
हेयता कैसे घुस गयी?? हर
स्त्री जो पति से प्यार करती है
या प्यार नही भी तो भी अपने परिवार
की रीतिवश साथ रहती है जानती है
कि ""पति को सेहत सफलता और लंबी आयु
मिले तो बच्चों सहित उसका भी भला है
"""वह ""चुपके से करे परंतु
प्रार्थना तो करती ही है।
अगर एक स्त्री में संयम
नहीं होगा इंद्रिय निग्रह
नहीं होगा परिवार के कल्याण के लिये
सच्ची भावना नहीं होगी तो?निःसंदेह
एक परिवार का सत्यानाश निश्चित है ।
किंतु इसका कदापि ये अर्थ नहीं है
कि जो जो स्त्रियाँ व्रत उपवास
पूजा पाठ नहीं करतीं वे
पति बच्चों परिजनों का भला नहीं चाहतीं ।
ये विशुद्ध अंतः करण का मामला है ।
अनेक स्त्रियाँ कोई भी व्रत
नहीं करतीं और इसके विपरीत अनेक पुरुष
कठोर साधना करते हैं ।प्रश्न है "उद्देश्य
का ""अकसर पुरुष भी परिवार और स्वयं
का भला ही चाहते हैं ।किंतु इससे न
तो नारीवाद आहत होता है न
स्त्री कोई हेय है ऐसा ध्वनित होता है।
हमारे परिचित अनेक पुरुष कांवङ लेने
जाते है पैदल व्रत करते हुये आते आते पांव
जख्मी हो जाते हैं '''कुछ
की मनोकामना ""अच्छी पत्नी और संतान
पाना भी होती है '"""हमारे विवाह के
बाद हमारे ससुर जी वृद्धावस्था में
भी कांवङ लाने गये ''बहू आने की खुशी के
धन्यवाद में ""तब सारे रिवाज पता चले
"""चूँकि सास नहीं थी सो "अहोई व्रत
भी करते थे ''पुत्र के लिये "।
तीज कोई अकेले पत्नियों का त्यौहार
नहीं है ।आप कभी पश्चिमी उप्र में आकर
देखें ""भाई और भतीजे पिता ""अपनी दूर
पास रहतीं बेटियों बुआओं पोतियों के घर
जाते है 'और
वहाँ ""सिंधारा या सिंझारा देकर आते हैं
।ये होता है कपङे चूङियाँ मेंहदी और घेवर
कुछ रुपये ।अब इसमें गुलामी खोजने से पहले
सोशल स्ट्रक्चर को देखना पङेगा ।
कृषि और कलाकारी प्रधान देश का मुख्य
आय स्रोत कृषि और हर रिश्ते के पुरुष पर
डाली गयी ""स्त्रियों की जिम्मेदारी ""आज
धारा 125के तहत भरण पोषण
का दावा करने
वाली किसी भी उपेक्षित स्त्री को ये
दावा ""दासता नहीं हक नजर आता है?
जबकि दासता वहीं है जहाँ कोई
देना ही नहीं चाहता और हाथ
फैलाना पङता है ।पिता जिस तरह पुत्र
को देता है बङा भाई छोटे भाई
को देता है ।बाबा पोते को देता है ।
चाचा भतीजे को देता है ।इसी तरह
मनीषियों में हर ऋतु के हिसाब से
स्त्रियों के उल्लास के लिये तीज
त्यौहार के बहाने रचे ।अब तीज पर
क्या करतीं हैं स्त्रियाँ??खूब सजती है ये
सजावट के पैसे कौन देता है?
पिता पति बाबा और भाई,,,,,,नये कपङे
नये गहने नयी मेंहदी उबटन श्रंगार और
बङे मंदिर या बाग पार्क
या कहीं खुली जगह में झुंड में
इकट्ठी होकर झूलना गीत गाना और
पूजा करके परिवार के लिये मंगल
कामना करना ।
क्या किटी पार्टी मनोरंजन
का बहाना है? तीज नही??
क्या ब्यूटी पार्लर खुशी का बहाना है
घर के उबटन मेंहदी सजावट नहीं??वाटर
पार्क और सिनेमाघर सुख देता है पिकनिक
भी ।तो क्या बाग बगीचे मंदिर में
झूलना और रस्सी कूदना नहीं??क्लब और
बार डिस्कोथेक और सङक पर बारात और
स्टेज शो में नाचना मन बहलाता है ''तीज
पर घरों के बीच इकट्ठे होकर
नाचना दासता है??ये पर्व बनाये
ही इसलिये गये कि पुरुष कर्त्तव्य के
प्रति जागरुक हों और हर तीज त्यौहार
पर पत्नी बहिन बेटी को कपङे गहने
रुपया और मेल जोल मेला झूला गीत नाच
की मोहलत दे सके ।वरना तो पुरुष
खेती और मजदूरी व्यापार
का बँधा स्त्री रसोई बच्चे और घर बार
की बँधी ।ये नीरसता टूट जाती है ।चाव
से जब सजकर लङकियाँ सहेलियों के साथ
गाती खिलखिलाती है!!!दासता?गेट
टुगेदर पार्टी नहीं?दासता बर्थ डे पर
केक कैंडिल और हैप्पी बर्थ डे गाकर
ताली बजाना नहीं?????दासता होटल में
हनीमून मनाने की होङ नहीं???
दासता न्यू ईयर पार्टी के नाम पर
हुङदंग मचाना नहीं ???दासता शराब
सिगरेट पीकर
अंग्रेजी गालियाँ बकना नहीं???भारत
माता ग्राम वासिनी ।ग्रामीण
स्त्रियों की किटी पार्टी है तीज गेट
टुगैदर है वय सावित्री गणगौर न्यूईयर है
और होली है ""रेन डांस "ये त्यौहार मेले
लाते है दुख की धूल झङाते हैं ।
राखी बाँधकर भाई से डिजायनर कपङे
लेना दासता नहीं??पिता के घर से बार
बार रकम उपहार और छठी दशटोन भात
की रकम उपहार लेना दासता नहीं??सच
कहे तो ये ""त्यौहार बहुत सोच समझकर
रखे गये है जो टूटते दरकते मन को मन से
जोङ देते है परिवार की डोरियाँ नवीन
करते है और कर्त्तव्य बोध कराते है पुरुष
को कि स्त्रियों को उपहार रुपया गहने
जेवर और खेल कूद गीत नाच का अवकाश
भी चाहिये सहेलियाँ भी और मायके
जाना भी ।अपनी कमाई का चौथा भाग
घर की स्त्रियों के गहने कपङों जेवर और
मनोरंजन पर खर्च करना तमाम
गृहसूत्रों में यूँ ही नहीं लिखा उनके लिये
दो दर्जन पर्व भी बनाये ताकि कोई भूल
न हो अगर दासता है तो है
अपनी संस्कृति में खोट और विदेशी में
अंधानुकरण करना ।तीज त्यौहार
तो उल्लास के लिये रचे है मनाईये बढ़
चढ़कर ।
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

Wednesday 30 July 2014

सुधा राजे का लेख -- प्रजानामचा

प्रजानामचा
""""""""""""
जहाँ मुँह किया सङक प्लेटफार्म
चिङियाघर हवामहल जंतरमंतर
ताजमहल कुतुबमीनार चारमीनार
हजरतगंज चिल्काझील
विक्टोरिया टर्मिनल गेटवे ऑफ
इंटिया गूजरीमहल """"""पिच्च
"""पिच्च """
बेशऊर बदतमीज
असभ्य """"""
और क्या!!!!!!!
शहर की ओर मुँह टाँग बढ़ाये क्यों चले
आते हो?
जब तमीज नही लच्छिन नही शऊर
नही सलीका नहीं गुणढंग मैनर्स
नहीं!!!!!!!!
शहर में रहने का मुँह है तुम जैसों का?
अरे लगातार कितना ही विकास कर
लो ।
चकाचक सङके बढ़िया प्लेटफार्म
शानदार मेट्रो और भव्य पार्क,
किंतु
इन सबके अरीब करीब आने
को भी तमीज चाहिये ।
घर में मशीने ठूँसने से सभ्यता आती है
क्या??
जहाँ मन किया थूक दिया
जहाँ मन किया पेशाब करने खङे
हो गये ।
जहाँ मन किया खाया पिया प्लेट
दोना बोतल पत्तल फेंक दी!!!!!!
कहीं भी जोर जोर की आवाज में
बतियाने गरियाने और अट्टहास करने
लगे,, कहीं जहाँ जी चाहा मोबाईल
पर फुल वाल्यूम में तेज भद्दे गीत
सुनाने लगे!!!!!
जाओ जाओ जंगलों में ही वापस लौट
जाओ ।
ये नगर तुम्हारे लिये
नहीं """विकसित और सभ्य लोगो के
लिये बने है इनको सङाओ मत गंदा मत
करो ।
कहीं भी हॉर्न बजाना शुरू
कहीं भी ओवरटेक
कहीं भी साईड कटबाजी
कहीं भी बिजली चोरी टैक्सचोरी ""रचनाओं
की चोरी ""आईडियाज
की चोरी!!!!!!!!
कहीं भी कचरा फैला दिया!!!
कहीं भी वाटरबॉडी गंदी कर
डाली ।कही भी शोर मचाने लगे!!!
किसी से भी भङक कर झगङने लगे ।
????
कब घर के टीवी फ्रिज एसी ओवन
लैपटॉप बाईक कार के साथ """खुद
को समय के लिहाज और हिसाब से अप
टू डेट ""करोगे??
विकसित सभ्य और सुसंकृत नगरों के
लिये उतने ही अनुशासित सभ्य और
सहिष्णु नागरिक भी तो चाहिये।
""सभ्य ""साफ प्रशासन के लिये
""आत्मसंयमी सभ्य नागरिक
भी तो चाहिये।
जब तक हम इसमे लिप्त रहेंगे तब तक
राजनेताओं, नौकरशाहों आदि आदि के
भ्रष्टाचार की बात करने का भी हक
नहीं बनता।
बच्चे ""कहा हुआ नहीं ""किया हुआ सीखते
है '।
©®सुधा राजे

सुधा राजे का लेख -- प्रजानामचा

प्रजानामचा
""""""""""""
जहाँ मुँह किया सङक प्लेटफार्म
चिङियाघर हवामहल जंतरमंतर
ताजमहल कुतुबमीनार चारमीनार
हजरतगंज चिल्काझील
विक्टोरिया टर्मिनल गेटवे ऑफ
इंटिया गूजरीमहल """"""पिच्च
"""पिच्च """
बेशऊर बदतमीज
असभ्य """"""
और क्या!!!!!!!
शहर की ओर मुँह टाँग बढ़ाये क्यों चले
आते हो?
जब तमीज नही लच्छिन नही शऊर
नही सलीका नहीं गुणढंग मैनर्स
नहीं!!!!!!!!
शहर में रहने का मुँह है तुम जैसों का?
अरे लगातार कितना ही विकास कर
लो ।
चकाचक सङके बढ़िया प्लेटफार्म
शानदार मेट्रो और भव्य पार्क,
किंतु
इन सबके अरीब करीब आने
को भी तमीज चाहिये ।
घर में मशीने ठूँसने से सभ्यता आती है
क्या??
जहाँ मन किया थूक दिया
जहाँ मन किया पेशाब करने खङे
हो गये ।
जहाँ मन किया खाया पिया प्लेट
दोना बोतल पत्तल फेंक दी!!!!!!
कहीं भी जोर जोर की आवाज में
बतियाने गरियाने और अट्टहास करने
लगे,, कहीं जहाँ जी चाहा मोबाईल
पर फुल वाल्यूम में तेज भद्दे गीत
सुनाने लगे!!!!!
जाओ जाओ जंगलों में ही वापस लौट
जाओ ।
ये नगर तुम्हारे लिये
नहीं """विकसित और सभ्य लोगो के
लिये बने है इनको सङाओ मत गंदा मत
करो ।
कहीं भी हॉर्न बजाना शुरू
कहीं भी ओवरटेक
कहीं भी साईड कटबाजी
कहीं भी बिजली चोरी टैक्सचोरी ""रचनाओं
की चोरी ""आईडियाज
की चोरी!!!!!!!!
कहीं भी कचरा फैला दिया!!!
कहीं भी वाटरबॉडी गंदी कर
डाली ।कही भी शोर मचाने लगे!!!
किसी से भी भङक कर झगङने लगे ।
????
कब घर के टीवी फ्रिज एसी ओवन
लैपटॉप बाईक कार के साथ """खुद
को समय के लिहाज और हिसाब से अप
टू डेट ""करोगे??
विकसित सभ्य और सुसंकृत नगरों के
लिये उतने ही अनुशासित सभ्य और
सहिष्णु नागरिक भी तो चाहिये।
""सभ्य ""साफ प्रशासन के लिये
""आत्मसंयमी सभ्य नागरिक
भी तो चाहिये।
जब तक हम इसमे लिप्त रहेंगे तब तक
राजनेताओं, नौकरशाहों आदि आदि के
भ्रष्टाचार की बात करने का भी हक
नहीं बनता।
बच्चे ""कहा हुआ नहीं ""किया हुआ सीखते
है '।
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
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Tuesday 29 July 2014

सुधा राजे का लेख --"" भारतीय सोच।""

सीरिया
ईराक
इजरायल
अफगानिस्तान
कैमरून
पाकिस्तान
बांगलादेश
फिलिस्तीन
में
भी रमज़ान था!!!!!!
वहाँ भी ईद होगी न????
सुना था "रमज़ान में ×शै×तान
जंजीरों में जकङा रहता है!!!!
कल
एक "अहमदी ''मुहल्ले के कुछ
घरों को आग लगादी गयी और कुछ
लङकियाँ मर गयीं पङौसी मुल्क के
अल्पसंख्यक होते हैं वे ''जिनको हज तक
का हक नहीं है "
कोई
बताये कि भारत के किसी अल्पसंख्यक
को किसी तीर्थ नगरी तक
जाना निषिद्ध है क्या?
यही है भारतीय बंधुता और
सहिष्णुता जो मूल भारतीय
निवासियों में है जन्मजात ।
और ।
चाहे कुछ सौ साल पहले उन्होनें
विविध मज़हब बना लिये हों या
अपना धर्म बदल लिया हो ।
उनका ""भारतीय "डीएन ए "
बंधुता के स्वभाव का रहा है ।
जब जब हिंसा पसंद देशों के
लोगों का आना जाना भारत में
बढ़ता है ।
भारतीय
समुदायों की बंधुता को जानबूझ कर
ईर्ष्यावश बरगलाया और अलगाववाद
का निशाना बनाया जाता है ।
भारत
की भारतीयता उसके मेल जोल
मिलनसारिकता और सहिष्णुता के
स्वभाव में है,
किंतु
जब जब ""विदेशी विचार और
नागिरकों का ""साशय
हमला होता है तब तब "
भारत का सौहार्द बिगङ जाता है ।
ये चाहे "तो वैचारिक साम्राज्यवाद
के मकसद से हो ।
मजहबी साम्राज्यवाद के मकसद से हो
सीमावर्ती प्रदेशों पर कब्ज़े
की नीयत से हो ।
भारत
को अशांत राष्ट्र और भेदभाव करने
वाली सामाजिकता घोषित करने के
मकसद से हो ।
या भारत को फिर से उपनिवेश
बनाकर संसाधनों का दोहन करके
लूटने के मकसद से हो ।
किंतु
साफ साफ
दिमागों में ज़हर भरने का काम
ज़ारी है ।
हर पंथ
में फूट डालो राज करो
की
भाषा बोलने वाले
ओपिनियन लीडर्स
बैठे है
ये
स्थानीय "सब्बू दादा "
से
लेकर
शीर्ष धर्मगुरू या नेता तक हैं ।
हिंदू धर्म में जहाँ कोई """केंद्रीय
नेतृत्व '''नहीं होने से अकसर लोग
निजी तौर पर फैसले लेते हैं वहीं कुछ
पंथ मजहब अपने स्थानीय धर्मनेता से
भी बरगलाये जाते हैं ।
जरूरत है
पढ़ लिख कर विवेक से
देशहित निजहित समाजहित
और अपने मानव होने
की सार्थकता को समझने की ।
कभी कोई बङा आदमी नहीं बरबाद
होता 'नफरत '
से
केवल दिहाङी मजदूर किसान
कारीगर फेरीवाले छोटी पूँजी के
लोग तबाह हो जाते है ।
झगङो के लिये केवल निठल्ले बढ़ चढ़कर
मनोरंजन हेतु सबसे पहले आगे बढ़ते हैं ।
बेरोजगार परजीवी निकम्मे लोग शुरू
करते हैं और फिर सब संक्रमित होते
जाते हैं ।
भारतीय हो पहले भारत की परवाह
करो,
फिर
तीन सौ देशों की "हालत पर
चीखना "
सबको पीढ़ी दर पीढ़ी यहीं रहना है
क़यामत तक
परदेश में जा बसने पर भी भारतीय
पहचान पीछा नहीं छोङेगी ।
होश
में आओ.!!!
जो जो नफरत सिखाता है
वही तो '×शै×तान 'है
©सुधा राजे।

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

Monday 28 July 2014

सुधा राजे की कविता --"" सुनहरे सपनो वाली परी""

जब उसने पहली बार झूठ बोला,
मैं बहुत रोयी
जब उसने दूसरी बार मुझे मेरे अपनों से काटने को मुझे दूसरे कामों का
हवाला दिया, मैं चौंकी और समझौता करके स्वयं को कर्त्तव्य कह कर बहलाया,
जब उसने तीसरी बार मुझे पिता के घर की बातों पर उपहास से कचोटा मैंने
"ज़वाब दिया तल्खी से ।
जब उसने पाँचवीं बार कमाई के नशे में घर को शोर गंदगी बदबू से भरकर
मुझे "बेघर होने का अहसास कराया,
मैं रोयी जागी और खाना पीना छोङ दिया,,
मैंने सोचा
मैं रूठी तो वह मना लेगा
मैं रोऊँगी तो उसे रहम आयेगा
मैं भूखी रहूँगी तो वह मनुहार से खिलायेगा ।
मैं सेवा करूँगी तो दिल में जगह दे देगा,
मैं बच्चे दूँगी तो वह मेरा हो जायेगा ।
मैं घर तक सीमित हो जाऊँगी तो वह 'शांत होकर मेरा आदर करेगा, मैं उसको
ताकतवर बनाऊँगी तो वह मेरी रक्षा करेगा ।
"""
किंतु ऐसा नहीं हुआ ।
सबसे नहीं जाना ।
सबको पता था वह मालिक है और मैं दासी
यही रीति है ।
मुझे परंपरा हक़ नहीं देती ।
मेरी सुनवाई धर्म नहीं करता ।
मेरा पक्ष उसके परिजन पङौसी मित्र नहीं लेते ।
मैं
रोती रही
रोती रही
हर सुबह
हर शाम रोती रही
जब
उसने मुझे हर पल केवल दास समझा
मैं सहजीवी संगिनी समझती थी खुद को ।

उसने हर पल एक देह एक घरेलू वस्तु समझा
मैं प्रेम चाहती थी खुद को प्रेम देती थी उसको


उसके ताने तीखे होते गये और मेरे आँसू लावा ।
उसकी चीखें कर्कश होती गयीं और मेरी सिसकियाँ तीखे जवाब।
अब
जब वह एक गाली देता
मैं सौ पलट कर देती ।
वह
मुझे पीटता मारता घसीटता ताने देता जलील करता और धकेल कर घर से बाहर निकाल देता ।
मैं
उस पर पत्थर बरसाती
शोर करके लोगों को इकट्ठा कर लेती और 'कानून के समाज के डर से वह कुछ दिन
चुप हो जाता ।

अब मैं उसे देखते ही बङबङाने लगती
जमकर ताने देती बाप माँ के औकात के और सारे गुनाह गिनवाती ।
वह
जोर से चीखता पीटता और गालियाँ देता ।
परंतु
अब मुझे परवाह नहीं थी न सामाजिक अपमान की
न प्यार खो देने के डर की
न पिटने गाली खाने की

घर बरबाद होने की
घर तो मेरा दिल दिमाग यौवन सगे संबंधी मित्र शुभचिंतकों की तरह उजङ गया था
अब
संतान समझ चुकी थी मेरे खोखले दांपत्य का सच ।

मैं लङती मारती पीटती गरियाती गाली खाती उस
नर्क में रह रही थी ।
जिसे मैं ही कभी पाने के लिये सब छोङकर आयी थी ।

अब मैं दर्द की चट्टान पर खङी थी और भीग चुकी थी हज़ारों बार अपने ही लहू
से हर तरफ थी चोटें काले दाग नीले निशान उभरी औऱ दबी खऱोंचे चबङियों की
सीढ़ियों की हड्डियों के दर्द और मासिक की गङबङियाँ दुख के प्रचंड
हाहाकार से गुजर कर मैं वीतरागी हो गयी ।
कर्कशा कलहकारिणी और उद्दण्ड,
अब मुझे याद आये अपने सपने अपनी चीज़ें और अपने छूटे शौक़ ।
टूटी फूटी देह बिखरा मन और विगत यौवन उजाङ सौन्दर्य के साथ में ',उठने की
हर बार अब कोशिश तो करती हूँ ', हर बार गिर कर रो पङती हूँ उन हाथों के
दर्द से जिनपर खुशी के लिये मेंहदी लगाते सोचा न था मैं इतनी "कुरूप
कर्कशा ''क्रूर होने वाली हूँ, मैं गाना तो चाहती हूँ परंतु आवाज़ साथ
नहीं देती कंठ अब भर्रा जाता है ""खोजने लगती हूँ बावली की तरह अपने भीतर
कहीं घुटघुट कर मर गयी वह कोमल लजालु सपनीली सुनहली परी सी दुलहन "और सुख
अब इस में है कि मेरे हाथ पर होते हैं मेरे अपने हुनर से उगाये चंद रुपये
और बदन पर अपनी मेहनत से बुने सिले कपङे जिसका हर सूत मैंने खरीदा है ।
कानून से यह घर मेरा है । यह सामान भी वे सब संताने भी और वे चंद रुपये
भी जो मैं छीन लेती हूँ ।

अब कौर नहीं अटकता पहले खुद खाने पर न अब कहीं मन अटकता है किसी के जहर
बुझे ताने पर, ।

जब
परवाह नहीं सुख पाने की तमन्ना नहीं घर सजाने की डर नहीं प्रेम खोने का ।
तो क्यों हो शौक़ अब किसी के कंधे पर रोने का ।
जिस वक्ष पर सिर धर के बहाने थे ज़माने भर की पीङा के आँसू ।
वह सिर अब वहीं उठता रात को तकिये से दूसरे कमरे से आती खाँसी या कराह की
आवाज पर, '
मैंने किसी चंद्रमा को नहीं रखने दिया था कदम मन की कुटिया में ।
किंतु
मैं शिला हो चुकी थी क्योंकि 'मैंने अपनी खुशी अपने सुख रख दिये थे दूसरे
की झोली में और जगह बनाना चाहती थी उसके दिल में जहाँ पहले केवल मेरा रूप
यौवन था बाद में श्रम और फिर धन के साथ मैं रिक्त शिला भर रह गयी ।
परंतु मुझे किसी "राम ''की प्रतीक्षा नहीं मैंने खुद के हर टुकङे से
पत्थर तराशना सीख लिया है अपने अपने घर के लियो अपने मंदिर के भीतर अपनी
ही प्रतिमा के लिये ।
बस ये कोई नही समझा कि वह अबोध मासूम भोली सुनहरे सपनो वाली परी लङकी
"इतने कठोर ग्रेनाईट की चट्टान में कैसे हदल गयी!!!!
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

सुधा राजे की कविता --"" सुनहरे सपनो वाली परी""

जब उसने पहली बार झूठ बोला,
मैं बहुत रोयी
जब उसने दूसरी बार मुझे मेरे अपनों से काटने को मुझे दूसरे कामों का
हवाला दिया, मैं चौंकी और समझौता करके स्वयं को कर्त्तव्य कह कर बहलाया,
जब उसने तीसरी बार मुझे पिता के घर की बातों पर उपहास से कचोटा मैंने
"ज़वाब दिया तल्खी से ।
जब उसने पाँचवीं बार कमाई के नशे में घर को शोर गंदगी बदबू से भरकर
मुझे "बेघर होने का अहसास कराया,
मैं रोयी जागी और खाना पीना छोङ दिया,,
मैंने सोचा
मैं रूठी तो वह मना लेगा
मैं रोऊँगी तो उसे रहम आयेगा
मैं भूखी रहूँगी तो वह मनुहार से खिलायेगा ।
मैं सेवा करूँगी तो दिल में जगह दे देगा,
मैं बच्चे दूँगी तो वह मेरा हो जायेगा ।
मैं घर तक सीमित हो जाऊँगी तो वह 'शांत होकर मेरा आदर करेगा, मैं उसको
ताकतवर बनाऊँगी तो वह मेरी रक्षा करेगा ।
"""
किंतु ऐसा नहीं हुआ ।
सबसे नहीं जाना ।
सबको पता था वह मालिक है और मैं दासी
यही रीति है ।
मुझे परंपरा हक़ नहीं देती ।
मेरी सुनवाई धर्म नहीं करता ।
मेरा पक्ष उसके परिजन पङौसी मित्र नहीं लेते ।
मैं
रोती रही
रोती रही
हर सुबह
हर शाम रोती रही
जब
उसने मुझे हर पल केवल दास समझा
मैं सहजीवी संगिनी समझती थी खुद को ।

उसने हर पल एक देह एक घरेलू वस्तु समझा
मैं प्रेम चाहती थी खुद को प्रेम देती थी उसको


उसके ताने तीखे होते गये और मेरे आँसू लावा ।
उसकी चीखें कर्कश होती गयीं और मेरी सिसकियाँ तीखे जवाब।
अब
जब वह एक गाली देता
मैं सौ पलट कर देती ।
वह
मुझे पीटता मारता घसीटता ताने देता जलील करता और धकेल कर घर से बाहर निकाल देता ।
मैं
उस पर पत्थर बरसाती
शोर करके लोगों को इकट्ठा कर लेती और 'कानून के समाज के डर से वह कुछ दिन
चुप हो जाता ।

अब मैं उसे देखते ही बङबङाने लगती
जमकर ताने देती बाप माँ के औकात के और सारे गुनाह गिनवाती ।
वह
जोर से चीखता पीटता और गालियाँ देता ।
परंतु
अब मुझे परवाह नहीं थी न सामाजिक अपमान की
न प्यार खो देने के डर की
न पिटने गाली खाने की

घर बरबाद होने की
घर तो मेरा दिल दिमाग यौवन सगे संबंधी मित्र शुभचिंतकों की तरह उजङ गया था
अब
संतान समझ चुकी थी मेरे खोखले दांपत्य का सच ।

मैं लङती मारती पीटती गरियाती गाली खाती उस
नर्क में रह रही थी ।
जिसे मैं ही कभी पाने के लिये सब छोङकर आयी थी ।

अब मैं दर्द की चट्टान पर खङी थी और भीग चुकी थी हज़ारों बार अपने ही लहू
से हर तरफ थी चोटें काले दाग नीले निशान उभरी औऱ दबी खऱोंचे चबङियों की
सीढ़ियों की हड्डियों के दर्द और मासिक की गङबङियाँ दुख के प्रचंड
हाहाकार से गुजर कर मैं वीतरागी हो गयी ।
कर्कशा कलहकारिणी और उद्दण्ड,
अब मुझे याद आये अपने सपने अपनी चीज़ें और अपने छूटे शौक़ ।
टूटी फूटी देह बिखरा मन और विगत यौवन उजाङ सौन्दर्य के साथ में ',उठने की
हर बार अब कोशिश तो करती हूँ ', हर बार गिर कर रो पङती हूँ उन हाथों के
दर्द से जिनपर खुशी के लिये मेंहदी लगाते सोचा न था मैं इतनी "कुरूप
कर्कशा ''क्रूर होने वाली हूँ, मैं गाना तो चाहती हूँ परंतु आवाज़ साथ
नहीं देती कंठ अब भर्रा जाता है ""खोजने लगती हूँ बावली की तरह अपने भीतर
कहीं घुटघुट कर मर गयी वह कोमल लजालु सपनीली सुनहली परी सी दुलहन "और सुख
अब इस में है कि मेरे हाथ पर होते हैं मेरे अपने हुनर से उगाये चंद रुपये
और बदन पर अपनी मेहनत से बुने सिले कपङे जिसका हर सूत मैंने खरीदा है ।
कानून से यह घर मेरा है । यह सामान भी वे सब संताने भी और वे चंद रुपये
भी जो मैं छीन लेती हूँ ।

अब कौर नहीं अटकता पहले खुद खाने पर न अब कहीं मन अटकता है किसी के जहर
बुझे ताने पर, ।

जब
परवाह नहीं सुख पाने की तमन्ना नहीं घर सजाने की डर नहीं प्रेम खोने का ।
तो क्यों हो शौक़ अब किसी के कंधे पर रोने का ।
जिस वक्ष पर सिर धर के बहाने थे ज़माने भर की पीङा के आँसू ।
वह सिर अब वहीं उठता रात को तकिये से दूसरे कमरे से आती खाँसी या कराह की
आवाज पर, '
मैंने किसी चंद्रमा को नहीं रखने दिया था कदम मन की कुटिया में ।
किंतु
मैं शिला हो चुकी थी क्योंकि 'मैंने अपनी खुशी अपने सुख रख दिये थे दूसरे
की झोली में और जगह बनाना चाहती थी उसके दिल में जहाँ पहले केवल मेरा रूप
यौवन था बाद में श्रम और फिर धन के साथ मैं रिक्त शिला भर रह गयी ।
परंतु मुझे किसी "राम ''की प्रतीक्षा नहीं मैंने खुद के हर टुकङे से
पत्थर तराशना सीख लिया है अपने अपने घर के लियो अपने मंदिर के भीतर अपनी
ही प्रतिमा के लिये ।
बस ये कोई नही समझा कि वह अबोध मासूम भोली सुनहरे सपनो वाली परी लङकी
"इतने कठोर ग्रेनाईट की चट्टान में कैसे हदल गयी!!!!
©®सुधा राजे

--
Sudha Raje
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सुधा राजे का लेख -"" आडंबर के नाम पे""

कब हम अपनी धार्मिक कुंठाओं और
आडम्बरों से बाहर आयेंगे??
धोखे से दिशा टीवी लग गया और
देख रहे है कि """"कई घङे दूध
कई घङे दही मख्खन
कई घङे शहद कई घङे तेल जल और फिर
राख!!!!!!!
शनि अभिषेक
के बाद
फिर लगभग लँगोट मात्र में नग्न
पुजारी
कुंड
में मल मल कर नहाता है ।
कमेन्टरी चल रही है??
कोई
बताये कि
यही अर्पण अगर
प्रतिमा को भेंट रखकर '"साफ
सुथरा ''अनाथ गरीब लाचार
बच्चों को बाँट
दिया गया होता तो???
हमारा
दावा है शनि देव जरूर खुश हो जाते
रोको इस आडंबर को
जो
जो
जागृत हैं
परंतु देखो बङे बङे व्यापारी धनिक
इस बरबादी को ""आस्था "का नाम दे
रहे हैं!!!!!!!

सवाल है "हम कितना समझते है अपने
धर्म को?? ""अनेक ग्रंथों का अध्ययन
करने के बाद यही निचोङ
मिला कि """मानषोपचार पूजन
""सर्वोत्तम है यानि हम प्रतिमा के
समक्ष देवता को याद करके भेंट सामने
रखकर अर्पित करके """"ज़रूरतमंदों
"""को बाँटते है देवता के नाम पर
तो """"वह प्रसादम कहकर
"""उपकार और वितरण के अपरिग्रह
अस्तेय का मार्ग है """जो पुण्य है और
समाज के असंतोष को ""रोकता है "

सवाल है "हम कितना समझते है अपने धर्म
को?? ""अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने के
बाद यही निचोङ
मिला कि """मानषोपचार पूजन
""सर्वोत्तम है यानि हम प्रतिमा के
समक्ष देवता को याद करके भेंट सामने
रखकर अर्पित करके """"ज़रूरतमंदों
"""को बाँटते है देवता के नाम पर
तो """"वह प्रसादम कहकर """उपकार
और वितरण के अपरिग्रह अस्तेय का मार्ग
है """जो पुण्य है और समाज के असंतोष
को ""रोकता है " ।
आराधना का सर्वोत्तम तरीका है ""अपने
आराध्य के लिये उपवास करे ""और उस
दिन बचाया संपूर्ण आहार """दान कर दें
उनको जिनको मजबूरन उपवास
जैसी हालत से गुजरना पङता है
"""जो जो चीजें इफरात में मिली है
"""उनको देवता के नाम पर भेंट करके
""वंचितों में बाँट दें और ""बुराई से बचे
मन कर्म वचन से ""परहित ""

""ईश्वर ""भाव का ही तो नाम
है ""ध्यान जप व्रत संयम और
"""परपीङा से अपने
को रोकना """यही आचार है।
मंदिर में """एक पात्र रखें सब लोग
देवार्थ अर्ध्य समर्पित करें ""अब
उसको किसी ""संस्था के माध्यम से ""दूध
दही घी शहद और भोजन से वंचित
""परिवारों तक भिजवा दें ""।

भयंकर """कचरा बनाया गया ""कई घङे
दही दूध घी माखन
का """हमारा परिवार पूरे साल खाकर
बचा भी लेता जिसको वह केवल तीस
मिनट में कचरा कूङा हो गया??? एक तरफ
लोग कूङे में से ब्रेड के टुकङे बीनते है
""उफ्फ ''पाखंडी कहीं है क्रूर लोग।
ओरछा, 'रामराजा मंदिर में कलाकंद
(मिल्ककेक) का प्रसाद लगता था हमारे
बचपन में किंतु """सर्वोत्तम याद ये है
कि सब पुजारी खोज खोज कर मंदिर के
दूर पास सबको प्रसाद बाँटते और कोई
""बिना दोना भर प्रसाद पाये
सोता नहीं था, यानि यात्री अनाथ
भूखा नहीं सोता था ""अब
तो पता नहीं ""तब यही नियम था।
शनि "की प्रसन्नता का अचूक उपाय
हमारे कुलपुरोहित जी बताते है ""अपने
कर्मचारी दास सेवक नौकर मातहत और
असिस्टेन्ट सफाई कर्मी और सेवादार
को प्रसन्न रखो । ये लोग शनि प्रधान
व्यक्ति कहे जाते हैं
इनको ही तवा चीमटा काला कपङा कंबल
कोयला सरसों तेल उङद और
काली जौ काली ऊन
काला चमङा काली बकरी और काली भैंस
लोहे के कङाह आदि भेंट में देते रहने
चाहिये ।अब विज्ञान सोचो ।
सावन शाक "निषिद्ध
भादों दही निषिद्ध क्वाँर
करेला निषिद्ध कार्तिक
मट्ठा निषिद्ध '''कारण है कि आषाढ़ में
पत्रीछेदक कीङे सब्जियों पर लग जाते हैं
और इनके कारण दूध संक्रमित होता है
तो चार महीने मथ मथ कर घी एकत्र
करतीं है महिलायें जो आठ महीने
को घी मिलता है """""बृज और बुंदेलखंड के
ग्वाले हर चतुर्थी को दूध "मुफ्त
"ही बालकों को बाँटते है ये ""आज
भी जारी है कान्हा के आदेश से।
अगर दास दासी कर्मचारी हैल्पर नौकर
सेवक खुश हों तो ""संकट ""आयें
ही नहीं न??
प्रतिमायें "ईश्वर नहीं है
''समझो मोबाईल पिताजी नहीं हैं '''किंतु
मोबाईल के सामने बैठकर बतियाने से
पिताजी हर बात सुन लेते हैं मोबाईल में
पिताजी की तसवीर है और टचस्क्रीन पर
पिताजी को छूने जैसा अहसास है """"अब
पिताजी कहीं दूर बैठे देख रहे हैं भोजन
जल सब किंतु मोबाईल को मत डुबोओ खाने
में पिताजी को ऑफर करके ""दावत
करा दो परिवार की ""।
©®सुधा राजे

सुधा राजे का एक संदेश---""परमात्मा के लिए जमीन""।

मसज़िद कहीं दिख ही नहीं रही है!!
ज़मीन एक के बाद तीन मालिकों ने
बेच दी!!
निजी मकान में कोई पूजा करता है
कोई इबादत ।
फिर जब वह जिसको जमीन बेच
देता वह उसको इस्तेमाल करता है ।
अब हिंदू अगर अपना घर ईसाई
को बेचेगा तो वहाँ बाईबिल
पढ़ी जायेगी और ईसाई अपना घर
मुसलिम को बेच देगा तो वहाँ नमाज़

फिर वही जमीन सिख
खरीदेगा तो गुरुग्रंथ का पाठ
होगा ।
लेकिन
जो चीज एक कंकङ पत्थर मिट्टी चूने
से बनती है वह तो ""नाशवान है न???
ये नाशवान जो हैं वे चीजें
पूजना ही ""
"बुत परस्ती है ""
अरब
देशो में ।
अब तक हज़ारों मस्ज़िदें
और कब्रें विकास कार्यों के लिये
'बाधक होने पर हटा दीं गयीं ।
क्योंकि
मक्का मदीना के अलावा
बाकी सब मसजिदें केवल एक """जगह
का प्रबंध हैं जहाँ कि सहूलियत से सब
इकट्ठे होकर इबादत कर सकें ।
तसवीर तक खिंचवाकर रखना
बुतपरस्ती है ।
फ़ानी दुनियाँ की हर चीज़ फ़ानी है

मुसलिम राष्ट्र घोषित तमाम
देशों में खुद "मुसलिम ''हाथों ने तमाम
मस्ज़िदें युद्ध में ढहा दीं ।आज नाम
निशान तक नहीं!!!!!
हिंदू ""निशानियाँ पूजते हैं इसलिये
क़ाफिर कहे जाते हैं "
क्योंकि ये हर चीज पूजने लग जाते है
जो इनको डराती या भली लगती है

मसज़िदों का विस्तार "इसलामिक
साम्राज्यवाद का ही एक नमूना है ।
इसलाम के मूलभूत सिद्धांतों से
इसका कुछ भी लेना देना नहीं है ।
हिंदू सिख जैन बौद्ध
निशानियाँ पूजने वाले बुत परस्त लोग
है भले ही किंतु
सार तत्व
इनका भी यही है कि ''मर्त्यलोक
का सब कुछ नाशवान है
तो ""आत्मा ''में
ही परमात्मा का वास है और देह
ही परमात्मा का मंदिर है ।
गुरुग्रंथ साहिब को गुरू घोषित करने
के पीछे ही मंतव्य यही था
कि "अब ये ज्ञान अक्षर शब्द संदेश
ही गुरु हैं "
व्यक्ति पूजा बंद ।इसके प्रकाश में
सत्पथ को समझो और शिष्य(सिख)
समझो खुद को य़े सीख जिसने
सीखी वही ''सिख ''
समान एक रूप दिखने के लिये पंच
ककार धारण किये रहो ।
कैसी बिडंबना है!!!
एक वहाँ खरीदी हुयी जमीन पर
गुरूद्वारा बनाना चाहता है ।
दूसरा
वहाँ बेच कर पाकिस्तान चले गये
परिवार की घरेलू मसजिद गिराने
का दावा करके दो सौ गज
भूमि छीनकर वहाँ ''मसज़िद "
बनाना चाहता है ।
क्या
विद्रूपता है
दोनों ही वहाँ
परमात्मा को पुकारने की जगह
बनाना चाहते हैं ।
इसी बात पर मौतें आगज़नी दुकाने
जलाना बसे कारें ठेले बाईक साईकिलें
जलाना
रेलजाम
रोडजाम
मारपीट
पत्थरबाजी
स्कूल बंद
अस्पताल बंद
कर्फ्यू लगा
लोग घरों में बंद
वाह वाह वाह
रे
इंसान
तेरी वहशियाना फितरत
©®सुधा राज

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

सुधा राजे का एक संदेश ---""परमात्मा के लिए जमीन""।

मसज़िद कहीं दिख ही नहीं रही है!!
ज़मीन एक के बाद तीन मालिकों ने
बेच दी!!
निजी मकान में कोई पूजा करता है
कोई इबादत ।
फिर जब वह जिसको जमीन बेच
देता वह उसको इस्तेमाल करता है ।
अब हिंदू अगर अपना घर ईसाई
को बेचेगा तो वहाँ बाईबिल
पढ़ी जायेगी और ईसाई अपना घर
मुसलिम को बेच देगा तो वहाँ नमाज़

फिर वही जमीन सिख
खरीदेगा तो गुरुग्रंथ का पाठ
होगा ।
लेकिन
जो चीज एक कंकङ पत्थर मिट्टी चूने
से बनती है वह तो ""नाशवान है न???
ये नाशवान जो हैं वे चीजें
पूजना ही ""
"बुत परस्ती है ""
अरब
देशो में ।
अब तक हज़ारों मस्ज़िदें
और कब्रें विकास कार्यों के लिये
'बाधक होने पर हटा दीं गयीं ।
क्योंकि
मक्का मदीना के अलावा
बाकी सब मसजिदें केवल एक """जगह
का प्रबंध हैं जहाँ कि सहूलियत से सब
इकट्ठे होकर इबादत कर सकें ।
तसवीर तक खिंचवाकर रखना
बुतपरस्ती है ।
फ़ानी दुनियाँ की हर चीज़ फ़ानी है

मुसलिम राष्ट्र घोषित तमाम
देशों में खुद "मुसलिम ''हाथों ने तमाम
मस्ज़िदें युद्ध में ढहा दीं ।आज नाम
निशान तक नहीं!!!!!
हिंदू ""निशानियाँ पूजते हैं इसलिये
क़ाफिर कहे जाते हैं "
क्योंकि ये हर चीज पूजने लग जाते है
जो इनको डराती या भली लगती है

मसज़िदों का विस्तार "इसलामिक
साम्राज्यवाद का ही एक नमूना है ।
इसलाम के मूलभूत सिद्धांतों से
इसका कुछ भी लेना देना नहीं है ।
हिंदू सिख जैन बौद्ध
निशानियाँ पूजने वाले बुत परस्त लोग
है भले ही किंतु
सार तत्व
इनका भी यही है कि ''मर्त्यलोक
का सब कुछ नाशवान है
तो ""आत्मा ''में
ही परमात्मा का वास है और देह
ही परमात्मा का मंदिर है ।
गुरुग्रंथ साहिब को गुरू घोषित करने
के पीछे ही मंतव्य यही था
कि "अब ये ज्ञान अक्षर शब्द संदेश
ही गुरु हैं "
व्यक्ति पूजा बंद ।इसके प्रकाश में
सत्पथ को समझो और शिष्य(सिख)
समझो खुद को य़े सीख जिसने
सीखी वही ''सिख ''
समान एक रूप दिखने के लिये पंच
ककार धारण किये रहो ।
कैसी बिडंबना है!!!
एक वहाँ खरीदी हुयी जमीन पर
गुरूद्वारा बनाना चाहता है ।
दूसरा
वहाँ बेच कर पाकिस्तान चले गये
परिवार की घरेलू मसजिद गिराने
का दावा करके दो सौ गज
भूमि छीनकर वहाँ ''मसज़िद "
बनाना चाहता है ।
क्या
विद्रूपता है
दोनों ही वहाँ
परमात्मा को पुकारने की जगह
बनाना चाहते हैं ।
इसी बात पर मौतें आगज़नी दुकाने
जलाना बसे कारें ठेले बाईक साईकिलें
जलाना
रेलजाम
रोडजाम
मारपीट
पत्थरबाजी
स्कूल बंद
अस्पताल बंद
कर्फ्यू लगा
लोग घरों में बंद
वाह वाह वाह
रे
इंसान
तेरी वहशियाना फितरत
©®सुधा राज

--
Sudha Raje
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Sunday 27 July 2014

प्रकाशनार्थ :: फुफ्फू के टोंचने:- ""पत्रकारों की हिन्दी""

ये ये ब्रांड न्यू कार
हम अपने व्युअर्स के लिये लाये है न्यू
लुक, शाईनी कलर, ब्रॉड विण्डोज,
बढ़िया ग्रिप, मैक्जिमम माईलेज,
पावरफुल एंजिन, एडजस्टेबल हैड
लाईट्स और रियर व्यू मिरर,
ऑटोमोबाईल इंजियरिंग का क्लासिक
वंडर,,
स्पेसियस कम्फर्टेबल सीट्स,
अब टाईम है लग्ज़री ऑन रोड अपनाने
का, हाईस्पीड टैक्नोलॉजी के लिये
"अभी ऑर्डर करे हमारी ड्रीम कार
का ऑफर लिमिटेड टाईम के लिये,,
नंबर है #$&*-+()97*&:""$%&**--
टेस्ट ड्राइव के लिए आपका वेलकम है, फर्स्ट थ्री एचीवर्स के लिए थ्री
थाउसैंड का अट्रैक्टिव गिफ्ट!!!
क्या समझे???
????
???
यही है हमारे 'पत्रकारों की वह
"हिन्दी "
जो वे बुद्धू बक्से पर बोलते हैं ।
अब
बताईये इसमें कितने ""शब्द
""हिंदी के हैं और क्या प्रतिशत है???
गंगा की भाँति "हिन्दी "भी कराह
रही है
©®सुधा राज

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Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
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Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

sudha raje's thought- keep yourself in other's stance

whenever we talk of justice we think of the big or small offences
committed against us; and we remember the hurts which those offences
had caused us.
but do we ever remember those small crimes which we had committed
against the others ???
the first time you slapped an innocent child , because he was asking
for small part of your time ;
when you broke your promise to a family member ;
when you said hurtful things to your inferiors;
when you broke the trust of a friend;
when you didn't use the chance that your life had provided you and
make the optimum use of it ;
when you failed to perform a duty that was assigned to you;
I am sure you will find quite a number of such situations regarding
your circumstances !!
When we see and realize the crimes committed by us, the offences which
the others commit against us start being nothing but small trifles...
©®sudha raje

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Sudha Raje
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Saturday 26 July 2014

सुधा राजे का संदेश -"" ईद के बहाने""।(प्रकाशनार्थ)

•••••••••ईद मुबारक़•••••••••
यूँ तो हर बात से सहमत नहीं हुआ
जा सकता, और न ही हर बात
को समय के लिहाज़ से
सही कहा जा सकता है! तमाम बातें
सगे भाई से भी नहीं हाँ में
हाँ कही जा सकतीं
फिर भी इस्लाम
की हमें बहुत सी जो चीज़ें
अच्छी लगतीं हैं उनमें से कुछ है "
"हर हाल में ज़ुमे की नमाज़ पर
पूरी कॉलोनी का मसज़िद जाना ।
पाँच समय नियम से नमाज़
अदा करना ।
अपनी आय में से पाँच दो से लेकर
प्रतिशत तक धन "ज़कात
"अदा करना ।
क़तार में एक सफ़े में दुआ करना ।
दुआ करते समय 'सब अपनों को दुआओं में
याद रखना और उनके लिये भी दुआ
करना जिन्होने दुआ करने
की इल्तिज़ा की है उस तालिबे दुआ के
लिये भी दुआ करना ।
किसी भी धर्म के
व्यक्ति को "इसलाम अपनाने
को प्रेरित करना ।और
किसी का भी मुसलिम हो जाना संभव

जमातें
जिनमें समूह बनाकर दस से साठ तक के
लोग नगर नगर गाँव गाँव घर घर
जाकर ""एकता और दीन
की शिक्षा से सबको जोङे रखते हैं ।
इन ज़मातों के लङकों के लिये हर
परिवार में बारी बारी से भोजन
की व्यवस्था ।
जल के स्नान के अभाव में भी ''वुज़ु
"करके ही इबादत कहीं भी बस ट्रेन
सङक पर कर लेने की सहूलियत ।
ईदग़ाह पर पूरे नगर की सामूहिक
नमाज एक ही जगह होना
अज़नबी के भी ज़नाजे में शामिल
होना और ज़नाजे की नमाज पढ़ना ।
लङकियों के घर रिश्ते का पैग़ाम
भेजा जाना ।
स्त्री के लिये खर्चाएपानदान
हर बच्चे को घर या मदरसे में 'कुरान
पढ़ने के लिये अरबी उर्दू सिखाने
की कम से कम व्यय पर अनिवार्य
व्यवस्था ।
बेवाओं और अनाथों के लिये मसजिदों से
जकात की नियमित व्यवस्था ।
एक साथ रोज़ा नियत बाँधकर
रखना और एक समय पर 'इफ़्तार करके
खोलना।
भोजन बाँटना भोजन कराना औऱ
भोजन को सम्मान देना भोजन
को गिरने न देना, औऱ उन
घऱों को भोजन भेजना जिनके लिये
इफ़्तार सहरी कठिन है।
तो आज
अपनी सब मुसलिम सखियों बंधुओं भाई
बहिनों को "ईद की शुभकामनायें '
हमें भी याद रखें दुआओं में सेहत और अमन
के लिये '
भारतीय और भारत मिलकर रहें
शांति और खुशहाली के साथ आमेन
©®सुधा राजे


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Sudha Raje
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Friday 25 July 2014

सुधा राजे का लेख - एड्स का हौवा या फ्री सेक्स का बढ़ावा??

एड्स का हौआ?
या
फ्री सेक्स का बढ़ावा?

एक परिचित की बहिन को विवाह के तीन साल बाद ही सदा सदा के लिये घर लौटना पङा "
कारण, उसके शौहर का निजी ट्रक था जिसपर वह फल और ब्रुश आदि लेकर
उत्तराखंड से मुंबई तक का सफर करता था ।
साल के गिने चुने दिन घर रहता और उसी इक्का दुक्का छू छई में दो बच्चों
की माँ बन गयी वह ""सुहागिन बेवा "
फिर एक बार घर आकर बीमार पङने पर जाँच करायी तो पता चला "एड्स "हो चुका था ।
इसके बाद ज़ुल्म करने की इंतिहा हो गयी वह चाहता था कि बीबी उसकी है तो
हर हाल में उसका हक़ है वह मरेगा तो बीबी को जीवित रहकर क्या करना है ।
बंद कमरे के बलात्कार से बचने के लिये वह मजबूर होकर मायके लौट आयी और
बच्चों का बोझ उनके मामा पर पङ गया ।शौहर घर से फरार हो गया । मामा विवश
होकर मस्कट जाकर मजदूर बन गया और विवाह नहीं किया क्योंकि दीदी और उसके
दो बच्चों को पालना था या यूँ कहे वह बहिन को छोङ नहीं सकता था इसी वजह
से कोई लङकी वाला तैयार नहीं हुआ ।

उस मजबूर स्त्री का पति ट्रक बेचकर टैक्सी चलाने लगा और देहरादून में एक
किराये के कमरे पर जब मरने लगा तब खबर दी 'गुमशुदा शौहर एक दशक बाद मिला
और दो चार दिन में मर गया ।

क्या कहती है ये सत्यकथा?

आपने कभी
विज्ञापन गौर से देखे हैं?
#DrHarshvardhan
ने क्या ग़लत कहा है!!!!
(माफी बुजुर्गों से बेअदबी के लिये)
किंतु जब जब ये कंडोम के विज्ञापन आते हैं लगता है प्रचार किया जा रहा है
जमकर अय्याशी करो अब डरने की जरूरत नहीं क्योंकि कंडोम है तुम्हारे पास ।
और हर वक्त कंडोम रखो करीब क्योंकि रता नहीं कब कहीं भी लङकी मिल जाये और
कंडोम जेब में ना होने से हाथ से मौका निकल जाये ।लङकी जैसे हर तरफ रात
दिन सङक पहाङ समंदर कहीं भी मिल सकती है लेकिन कंडोम वक्त पर साथ नहीं तो
सुनहरा मौका गँवाना पङ सकता है ।""


ये सब अंतर्निहित संदेश है
हर विज्ञापन की भाषा कहती है कि जेब में कंडोम मतलब कोई परवाह नहीं ।
जमकर मस्ती करो लङकियाँ पटाओ और ऐश करो!!!!


जबकि
न तो पत्नी को पति और पति को पत्नी के प्रति हर हाल में वफ़ादार तन मन से
रहने का कोई संदेश है ।

न ही कोई संदेश है कि बच्चों में अंतर रखने के लिये ये एक सुरक्षित उपाय है ।

न ही यह संदेश है कि एड्स से बचना है तो चरितिरवान रहे एक पत्नीव्रत का
पालन करें अप्राकृतिक सेक्स ना करें और नशे ड्रग्स आदि से दूर रहें और
दूर रहे सङकछाप टैटू गोदने और नाक कान बिंधवाने वालों से ।
एक दूसरे के अंडरपेंट्स इस्तेमाल ना करें ना ही एक दूसरे के "लिप्सटिक
ट्वीजर प्लकर और सेफ्टीरेजर इस्तेमाल करें कंघी और नेलकटर भी निजी ही
रखें ।


कंडोम भले ही एक हद तक यौन संक्रमण से बचाता हो ।
किंतु बाजारू औरतों या पुरुष वेश्याओं का एड्स से बचाया जाना जरूरी नहीं
है क्या????????

क्या एड्स संक्रमित वेश्या के साथ बिना यौन संबंध के अन्य प्रकार से किसी
इंन्फेक्शन से एड्स नहीं हो सकता?

शरीर का कोई भी इंटरनल इश्यूज एड्स संक्रमण कर सकता है यहाँ तक कि मासिक
श्राव । दूध की बूँदे । मुँह के छाले मसूङों से रक्तश्राव और कटे फटे
होठों से एक ही सुई से ड्रग्स लेने से और अप्राकृति यौनाचार से!!!!!!


क्या केवल एक कंडोम का जमकर विक्रय करके लोगों के दिमाग में यह बात नहीं
ठूँस ठूँस भर दी गयी है कि कंडोम इस्तेमाल करो और जमकर सेक्स करो अब तो
एड्स से डरने की कोई जरूरत ही नहीं!!!!

हमने अनेक वर्षों तक बोल्ड विवरण देकर स्कूलों कॉलेजों में जाकर समझाया
कि एड्स क्यों कब कैसै हो सकता है और क्या क्या बचाव है ।

आज दुख होता है जब एड्स रोगी की मौत की घटना दबा दी जाती है ।

कंडोम है ना एड्स नहीं हो सकता क्या यही कहना नहीं चाहता विज्ञापन मीडिया????

भारतीय संस्कृति का आदर्श पत्नी के प्रति वफादारी है ।

तवायफ प्रथा मुगलकाल की देन है तब भी वे अकसर "गाने बजाने से मनोरंजन करतीं थीं "

वेश्यागामी को नर्कगामी कहा गया है ।
और
देवदासी प्रथा का अर्थ केवल बाद में बिगङा तब भी यह एक प्रथा थी जिसकी
पत्नी मर गयी जो कुरूप और अन्य कारणों से विवाह नहीं कर सका वही अकसर
कोठों पर जाता था ।

परिवार के प्रति वफादारी ही सब तरह से संस्कृति में प्रधान रहती थी ।

लोग नाच गाना जरूर देखते किंतु दैहिक संबंध बनाने वाले को """बुरा ही कहा
जाता रहा ""बुजुर्ग और महिलायें अंकुश रखते कि कोई चरित्रहीन न हो जाये ।

आज??

कुंमार बेटे को बाप कंडोम थमाता है??

तो
कुँवारी लङकियों को कहो कि माँओं से बर्थ कंट्रोल ऐर कंट्रासेप्टिव पिल्स
दिया करें!!!!!!!!!


क्योंकि
ये हर जगह मौजूद बिछने को तैयार लङकियाँ का जन्नत और इंद्रलोक से बरसेंगी???

हर वह व्यक्ति जो स्वयं रो समाज के प्रति जरा भी जिम्मेदार समझता है हम
चाहते हैं कि अब वक्त है उठकर बात करे पहल करे हर जगह बस ट्रेन स्कूल
चौराहे पर "

पच्चीस साल ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करो और विवाह करके अपनी पत्नी
के प्रति वफादार रहो और दो संतान के बाद पुरुष नसबंदी करवा लो ।

पचास के बाद पुनः कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करो और अपनी सारी योग्यतायें
समाज सेवा पर लगा दो ।

पचहत्तर के बाद अपनी समस्त संकलित वस्तुयें जरूरत के सामानों के सिवा
संतानों में बाँट दो और अपने ज्ञान को संसार के उद्धार हेतु लगा दो ।


बिना आत्मसंयम के विष्टा खाने वाले जीव और मानव में कोई अंतर नहीं ।

संस्कृति बचाईये
हर समस्या का समाधान यहीं मिलेगा ।
copy right ©®सुधा राजे

यह लेखमाला विभिन्न पत्रिकाओं में जारी है क्रमशः

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Sudha Raje
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सुधा राजा का लेख -"" शोर और साधना के बीच "" (भाग दो)

नमाज
का बुलावा होती है अजान जो एक मिनट को माईक पर बारहों महीने हर रोज एक
साथ पूरे भारत की हर मसजिद से बजती है ।
जो जहाँ जिस वक्त जो कुछ कर रहा होता है सब काम छोङकर वहीं या करीब की
मसजिद में नमाज अदा करता है ।
ये ""अजान, ""एक अलार्म है '''कि प्रार्थना का वक्त हो गया ""
जो हर मसजिद में नियुक्त मुअज्जन लगाता है ।

यंत्रों का प्रयोग मुसलिम इबादत में वर्जित है ।
माईक पर हर दिन केवल पाँच बार अजान होती है जो """हर हाल में पाँच ★मिनट
★में पूरी हो जाती है ।
यानि?
प्रतिदिन कुल मिलाकर केवल "★पच्चीस मिनट को माईक का प्रयोग किया जाता है
एक साथ एक ही वक्त पर *★

हम नहीं कहते कि यह सही है ।
क्योंकि शोर तो धरती के खिलाफ अपराध है ।
किंतु यह अलार्म है ।

अब?
देखें तौले और महसूस करें लगभग हर हिंदू मंदिर पर सुबह सुबह ही दो घंटे
आरती की कैसेट लगाकर "भोंपू "बजाया जाता है "
जबकि यह शास्त्रवर्जित है ।
क्योंकि आरती संपूर्ण पूजा का अंतिम अंग है ।जो सबकी उपस्थिति में मुख
स्वर से घंटा गरूङखंभ शंख मंजीरों के साथ होनी चहिये और ""पंच आरती भी
केवल पच्चीस मिनट प्रतिदिन एक बेला में लेती हैं ""

गाकर देख लें "

ये भोंपू जब बजना शुरू कर दिये जाते हैं जबकि मंदिर का पुजारी भी
नित्यक्रिया से निवृत्त नहीं होता । जँभाई लेते उठे और डैक लगा दिया ।
तब जब कोई हैंगओवर को ठीक कर रहा होता है कोई टॉयलेट तो को खर्राटों में
तो कोई अन्य क्रियाकलाप में रत होता है ।

पढ़ने वाले बच्चे व्याकुल होकर झल्लाते है उफ उफ उफ '''''''

न तो कोई आरती का भोपूँ गायन सुनकर सब काम छोङकर जो जहाँ जैसा है
प्रार्थना करने बैठ जाता है न ही कोई """मंदिर की तरफ दौङ लगा देता
है!!!!!

फिर ये आरती वहाँ ""असल में हो भी तो नहीं रही होती है!!!!!!!

एक एक मंदिर कई कई घंटे शोर मचाता है,,

न समय निर्धारित है न ""गीत आरती भजन मंत्र निश्चित ""???


तो किसलिये??

अजान लाऊड स्पीकर से क्यों इससिये???

तो चलो पच्चीस मिनट आप भी हर दिन शोर करो मगर शर्त है कि हर शोर पर
"""लोग पूजा करना प्रारंभ करें???? करेंगे??

हर पढ़ने वाले ।
बीमार
लेखक
और ध्यानी
योगी
तापस
जापक
साधक
को बता दो कि अमुक बजे से अमुक बजे तक
हम मंदिर वाले लोग रोज शोर का भोपूँ बजायेगे!!!!!!

तब तक सब """प्रतीक्षा करके दूसरे कार्य करलो या जाकर पूजा में ही शामिल
हो लो?? होगा?? निश्चित वक्त?

अगर नहीं
तो लगातार शोर
खगोलीय संरचना के प्रति अपराध है ।
अपराध है उन सब मौन ध्यानियों जापकों के पाठको विद्यार्थियों के प्रति जो
एकांत शांति खोजते हैं ।

ईर्ष्या में शोर करना तो कतई धर्म का हिस्सा नहीं???
रहा रमज़ान तो ""हर साल के केवल उन्नीस दिन!!!!!!!

वह भी जगाने का अलार्म है हालांकि यह भी गलत है ।
फिर भी रात को तीन से पाँच के बीच बीस पच्चीस पुकारें औऱ क्या!!!!!


नवरात्रियाँ
भागवत
अखंड रामायण
जागरण
कीर्तन
झाँकी
रामलीला
रविदास लीला
कांवङ यात्रा पर शोर?
कुंभ का शोर
दीवाली का शोर
होली का शोर
दशहरे का शोर
गणपति पूजा का शोर
रथयात्रा का शोर
गनगौर गरबा और हर रोज का शोर
कौन करता है ।

भूल गये??????? पूरे साल कहीं न कहीं तीखे शोर कौन करता है?

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Sudha Raje
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चीटरनामा3

कम से कम दो शिक्षक "हमने पकङे ऐसे जो खुद पढ़ाने की बजाय अपने खेत और
दुकान पर चले जाते "उनको पढ़ाना ही नहीं आता था "एक युवक शिक्षित मजदूरी
पर रख लिया जो कुछ सैकङा रुपयों के बदले पढ़ाने चला जाता और एक रेडीमेड
एप्लीकेशन हर वक्त साथी स्टाफ के पास रहती अगर कोई बङा अधिकारी दौरे पर
आया तो बस तारीख डाली और लगा दी ।या फिर पहले सूचना देकर बुला लिया, एक
तो अपना निजी स्कूल चलाते हैं दूसरे परलोक चले गये वे खुद अनुकंपा से
टीचर बने थे अब उनका बिगङैल बेटा जो हर धंधे में असफल रहा अनुकंपा से
टीचर है!!!!! ।
ये केवल एक नमूना है ""गुरुओं के आचरण का "'

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चीटरनामा2

टीचर?
अगर अपना कर्त्तव्य जिसके लिये उनको इतना मान मिला है "पूरी तरह निभा रहे
होते तो!!!
आज हिंदुस्तान का ये हश्र न हो गया होता ।
कि पब्लिक स्कूलों के भयानक धनदोहन के चंगुल में कराहते गरीब मध्यवर्ग
"सरकारी स्कूल में बच्चे नहीं भेजना चाहते ।
क्योंकि सरकारी स्कूल में "ऊँची डिगरी ऊँची तनखा वाले लोग तो हैं "
मगर कम डिगरी कम तनखा वाले "प्रायवेट स्कूल के टीचर जैसा अनुशासन साफ
सफाई और पढ़ाई नहीं "
बात तो तब है कि जब सरकारी स्कूल के बच्चों की सफलता का प्रतिशत पब्लिक
स्कूल से अधिक हो ।
पाँच सौ से तीन चार हजार रुपये कमाने वाली पब्लिक स्कूलों की टीचर जिस
समर्पण से बच्चे पढ़ाती है ।
सरकारी मास्टर मास्टरनी उसका आधा भी ध्यान नहीं देते जबकि उनका वेतन लगभग
दस गुना होता है

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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग सात)

पुरानी बीबी अय्याश पति को केवल अय्याशी में बाधा ही लगती है ।औरत चाहे
जितना मेनटेन करके मातृत्व और घरेलू सेवा में पिसकर रूप सेहत फिगर सब
बरबाद हो ही जाता है ।
जबकि नौकरी पेशा पुरुष के पास खुद पर ध्यान देने को समय रहता है और रहता
है अपनी मरजी से उङाने को पैसा ।
नतीजा वह अच्छा पहनता ओढ़ता है घर का बॉस और पुरुष होने के नाते श्रेष्ठ
आहार और हुकूमत भी कब्ज़े में रहती है दुधारू ढोर की चार लात सहनी पङतीं
है सो परवरिश माँ करती है परंतु कमाई के लिये सब निर्भर बङे छोटे चुप
रहते हैं ।


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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग छः)

Sudha Raje
महिलाओं को उपदेश देने से पहले ये दहेज
प्रथा बंद करो और बेटी को पुत्र
की तरह माँ बाप को सहारा देने का हक
दो घरेलू औरत को निठल्ली बेकार और पैर
की जूती समझना बंद करो और औरतें बच्चे
पैदा करने की मशीन या केवल पुरुष
की सेवा का यंत्र नहीं हैं यह समझाओ वे
कलाकार वैज्ञानिक डॉक्टर इंजीनियर
साहित्यकार और हुनरमंद हैं ।
शादी का मतलब जीवन भर
चारदीवारी की कैद
का पट्टा नहीं होता और न ही कच्छे
बनियान टॉयलेट पॉटी सूसू जूठन धोने
का ठेका 'दलितों के बाद अब
स्त्रियों को गुलामी में रखने
की मानसिकता बंद करो । विवाह
करना उतना जरूरी नहीं है
जितना जरूरी है मानव की तरह सम्मान
से जीना । लाखों औरतें जॉब और परिवार
दोनों बखूबी सँभालती हैं जबकि पुरुष
केवल एक ही काम कर पाता है ।
गृहिणियों को जितना अपमानित
सदियों से कमाई के नाम पर किया
Like · 1 · Edit · 10 minutes ago
Manmohan Singh
बहुत अच्छा विषय , और बहुत ही अच्छे ढंग
से उठाया आपने .... पिछले सप्ताह हमारे
लुधियाना शहर में भी बिल्कुल
ऐसी ही एक घटना हुई ..खबर
छपी कि एक नौजवान एक लग्जरी कार में
मॄत पाया गया..वजह थी हेरोइन
की ओवरडोज ....खुलासा हुआ
कि माता पिता एक मशहूर डाक्टर
दँपत्ति हैं ,जो इसीप्रकार रातदिन
पैसा कमाने में व्यस्त थे ....उन्हें बहुत देर
से पता चला कि अकेलेपन से परेशान
इकलौता बेटे ने ड्रग्स से दोस्ती कर
ली थी ... दुखी माँबाप ने स्वीकार
किया कि बेटा कहता था कि आपके पास
तो मेरे लिये कोई समय ही नहीं है .....
अब दोनों अकेले हैं टूट चुके हैं
Like · 2 · 8 minutes ago
Ajay Saini
शानदार। हाथ को पलट कर
देखना पड़ेगा कि हिफाजत से बंद
की गयी मुट्ठी मे क्या हैं
सोना या कोयला।
Like · 1 · 4 minutes ago
Prabhat Tripathi
सभी अपनीआर्थिक उत्पादकता बढ़ाने में
लगे हैं। सबकुछ भूल कर।
Like · 1 · 4 minutes ago
Brajbhushan Prasad
आपने मेरे मुंह की बात छीन ली। कल मैंने
यही बात कही थी। घर पर ध्यान
देना,बच्चों पर ध्यान देना और उन्हें
संस्कारी बनाना ये भी अपने आप में लाख
रूपये की नौकरी जैसी ही है। मै जब
वैशाली,गाजियाबाद के एक किराये के
मकान में रहता था तो एक हमारे
पडोसी थे दोनों मियां बीबी IBM में
काम करते थे एक छोटा बच्चा करीब 6
महीने का था जिसे वे वैशाली के ही एक
क्रंच में डाल देते थे जो हमलोगों के बगल में
ही था। शाम को जब आते तो बच्चे
को भी साथ लेते आते।
मेरी बड़ी बेटी भी वैशाली में
ही रहती थी तो प्राय रोज ही मै
नास्ता करने के बाद उससे मिलने
जाया करता था रास्ते में ही वह क्रंच
था। हमेशा ही मैंने उस पड़ोसी के बच्चे
को रोते हुए पाता था। एक दिन
तो आया ने उसे चूप कराने के लिए
जोरदार थप्पड़ भी लगाया। यह सब मेरे
लिए तो असहनीय था मैंने उन दम्पत्ति से
शिकायत भी की लेकिन उन लोगों ने उस
पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया।
कहानी कहने का यही मतलब है की जिस
समय बच्चे को माँ बाप का प्यार
मिलना चाहिए उस समय जिन्दगी के
आपा धापी के वजह से उसे दे नहीं पाते।
Like · 2 minutes ago
Subhash Vikram
माँ बाप बेटे या बेटी के आज के लिए
नहीं सोचते ,उन्हें अपने बच्चे का भविष्य
सुधारना होता है । जो अभी सामने है
उसे छोड़ उस सपने के पीछे भागने
में,जो अभी आने
वाला है ,की प्रवित्ति जब तक ख़त्म
नहीं होगी ये घटनाएं रोज
घटती रहेंगी ।
Like · 2 minutes ago
Sudha Raje
पचास से अस्सी साल तक एक ही घर नें बंद
चौबीस घंटे ऑन ड्यूटी तैयार ""पुरुष
मिलने लगें ""तो अब
करोङों प्रतिभाशाली लङकियाँ मंगल तक
पर जाने को तैयार है नये नये अविष्कार
कर रही हैं और बच्चों को पाल कर
भी मानव रूप में एक हस्ती बनकर अपने
सम्मान से जी रही हैं
"""लङकियाँ '""केवल रसोई बेड और साफ
सफाई के लिये नहीं बनी है
पुरुषों की तरह उनमें भी हर प्रकार
का हुनर है एक कोख बाँध दी प्रकृति ने
सो भी ये सिद्ध होता है कि संतान के
लिये स्त्री अधिक कर्त्तव्य परायण है ।
पीठ पर बच्चे बाँधे करोङो औरतें
रोटी कमाती हैं । और ये कमाना केवल
सरकारी प्रायवेट जॉब नहीं है । ढोर
पालना खेत की कटाई निराई गुङाई
करघा चरखा टोकरी चाय बागान
मछली पालन शहद पालन सिलाई और
कुक्कुट पालन से लेकर घरों घरों बरतन
झाङू पोछा करना भी है """"पुरुष? कब
बैठ कर खिलाता है??? बीमार बेकार
पति को छोङकर कम ही विरली औरतें
जाती है लेकिन औरत को बीमार बेकार
देख पुरुष जरूर मायके पटक कर
दूसरी शादी कर लेता है
"""हमारा बेधङक संदेश है """घर बसाने से
पहले अपने निजी कमाई का प्रबंध जरूर
कर लें लङकियाँ ""क्योंकि पति के
बेवफा निकलने बीमार होने मर जाने
तलाक देने और घर में बंद करके अत्याचार
करने से बचाता है
"""रोज
किसी भी बहाने
आता निजी पैसा ""

बच्चों के फैसले
वही माँ ले सकती है जो कमाती है।


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Sudha Raje
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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग पाँच)

अमूमन पचास प्रतिशत से अधिक पुरुष शराब बीङी सिगरेट गुटखा सिनेमा और होटल
ढाबे के पकवानों पर अपनी कमाई बिना पत्नी और माता से पूछे ही खर्च करते
हैं ।
जबकि पूर्ण कालीन सुशील गृहणियाँ इस खर्च को रोकते ही मारी पीटी गरियाई
और न कुछ ज्यादा सही तो तानों से ही बेधी जाती है कि """मेरी कमाई मैं
चाहे जहाँ खर्च करूँ तेरे बाप का माल नहीं,,,
जबकि पूर्ण कालीन गृहिणी को विवश किया जाता है मायके से छटी दशटोन छूछक
भात पर धन धातुयें और वस्त्र मँगाने को ।
जो नहीं मँगा पातीं उनका अपमान किया जाता है ।
और ममता?? अगर पालती है तो पूर्ण कालीन गृहिणी के बच्चे नहीं बिगङते?? ये
गारंटी कौन लेगा?? कि पूर्ण कालीन गृहिणी पर ज़ुल्म नहीं होंगे? उसकी
संतानें बुढ़ापे और वैधव्य में धोखा नहीं देगी? दो चार अपवादों से समाज
नहीं चलता । वरना ममता की छाँव में पले गरीब लङके कूङा नहीं बीनते और
गरीब लङकियाँ ""माँस ""की तरह नहीं बिकतीं ।सब की सब नौकरी रोजगार करने
वाले दंपत्ति के बच्चे ""कोई बिगङे ही तो नहीं???? जबकि गृहिणियों के
बिगङे पति और बच्चों की संख्या ज्यादा है

--
Sudha Raje
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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग पास)

अमूमन पचास प्रतिशत से अधिक पुरुष शराब बीङी सिगरेट गुटखा सिनेमा और होटल
ढाबे के पकवानों पर अपनी कमाई बिना पत्नी और माता से पूछे ही खर्च करते
हैं ।
जबकि पूर्ण कालीन सुशील गृहणियाँ इस खर्च को रोकते ही मारी पीटी गरियाई
और न कुछ ज्यादा सही तो तानों से ही बेधी जाती है कि """मेरी कमाई मैं
चाहे जहाँ खर्च करूँ तेरे बाप का माल नहीं,,,
जबकि पूर्ण कालीन गृहिणी को विवश किया जाता है मायके से छटी दशटोन छूछक
भात पर धन धातुयें और वस्त्र मँगाने को ।
जो नहीं मँगा पातीं उनका अपमान किया जाता है ।
और ममता?? अगर पालती है तो पूर्ण कालीन गृहिणी के बच्चे नहीं बिगङते?? ये
गारंटी कौन लेगा?? कि पूर्ण कालीन गृहिणी पर ज़ुल्म नहीं होंगे? उसकी
संतानें बुढ़ापे और वैधव्य में धोखा नहीं देगी? दो चार अपवादों से समाज
नहीं चलता । वरना ममता की छाँव में पले गरीब लङके कूङा नहीं बीनते और
गरीब लङकियाँ ""माँस ""की तरह नहीं बिकतीं ।सब की सब नौकरी रोजगार करने
वाले दंपत्ति के बच्चे ""कोई बिगङे ही तो नहीं???? जबकि गृहिणियों के
बिगङे पति और बच्चों की संख्या ज्यादा है

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग चार)

लङकियाँ बेची जाती है? क्यों? और पुरुष
खरीदते है क्यो? बाल श्रम क्यों है? घर
घर बरतन झाङू पोछा वाली बाई बङे
घरों में क्यों? क्यों अब तक सफाई और
सेवा में केवल औरते?क्यों सरनेम औरते
बदलती है? क्यों माँ बाप
को सहायता औरतें नहीं दे पाती?

बूढ़े सास ससुर को कितने जँवाई
अपनी कमाई पर बिना अपमानित किये
रखने को तैयार होते हैं??

माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है
या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी वह
बिलखती है रोती है तङपती है किंतु
माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई
भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास
की सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध
कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही है
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई "

मगर जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको???
आत्मविश्वास और
इन्सिक्योर जॉन में काम कम करने से
पैदा हुई बुद्धिमत्ता, समाज के विभिन्न
रूपों की समझ उसे कैसे होगी।फिर उस
संवेदन शील
प्राणी की उपस्थिति वृहत्तर समाज
को भी चाहिए समाज के जटिल
मसलों को सुलझाने में।पर इसका मतलब ये
नहीं कि अदबदा कर कुछ भी करने के लिए
हमें बाहर निकल जाना है अपने स्वधर्म
की परवाह करे बगैर।
क्या हमारा समाज,हमारी व्यवस्था कुछ
ऐसा काम महिलाओं के लिए नहीं सोच
सकती जो हर क्षेत्र में हो पर कम टाइम
टेकिंग।पुरुष भी यदि घर सभालना चाहे
तो उसे भी यही कम घंटों वाला काम
सहर्ष दिया जाए।पर मेरा कहना उस
महिला वर्ग से है जो नौकरी करने वाले
से अधिक है कि क्या अच्छी फिजिक्स और
अच्छी होम साइंस पढ़ के उसे केवल अपने
ही एक परिवार तक उस ज्ञान
को सीमित कर देना चाहिए ।केवल घरेलू
काम निपटाकर सीरियल देखकर घरों में
बैठी इन बहनों के ज्ञान की और
भी लोगों को जरूरत है।अपने वर्ग से नीचे
झांक कर देखें और भी लोग
उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।हम लोग इस
मानव संसाधन के लिए कुछ उचित व
सार्थक सोंचे।
अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
""आर्थिक हक """तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव
के हिसाब से तय करेगी । बीबी की जॉब
बङी है तो पुरुष गृहिणी बन
क्यों नहीं सकता?? क्योंकि वह सब काम
दासत्व के है? तो बराबर बाँट लो न!!

बहुत कम """औरते ""कुछ
नहीं कमाती 'किंतु अपना परिश्रम वे भी मुफ्त देती हैं परिवार को और ये
परिश्रम कोई दिन या रात के घंटों या मात्रा पर निर्धारित नहीं
एक फराओ नियोक्ता की भाँति परिवार के पुरुष उन स्त्रियों से बेगार कराते
हैं और उनको निठल्ली निकम्मी भी कहा जाता है । क्योंकि उनका वही श्रम
किसी दूसरे के प्रति होता तब तो धन मिलता न?
जबकि अंतर यही है वहीं पुरुष जिस जिस के लिये परिश्रम करता है धन के बदले करता है ।
''फिर भी जो कुछ
भी नहीं कमाती वे पूर्ण कालीन
सेविका की तरह ट्रीट की जाती है??
एक अपमान हेयता है ""गृहिणी ही तो है
"

"और ये देवी वाला राग तो बंद ही कर
दें कोई नहीं समझता देवी माँ तक
को ',रोटी कपङे मकान दवा सम्मान
की गारंटी पहली बात है ""ये कोई शर्त
नहीं कि औरतें ही घर रुकेंगी???? और ये
कोई साबित नहीं कि हर पुरुष ""महान
पिता पति पुत्र है,
तमाम घरेलू हिंसा की जङ में यही घमंड बोलता है कि पुरुष कमाकर लाता है
औरत बैठकर खाती है ।


--
Sudha Raje
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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग तीन)

लोग कुतर्क देते हैं कि स्त्री जब घर में रहकर पूर्ण कालीन गृहिणी होती
है तब वह "साक्षात देवी "कही जाती है!!!!!
इतना ही देवी समझते???? तो ये
जलती चीखती कुटती लतियाई
जाती माँ यें और बहुविवाह सहने के बाद
भी भी ठुकराई बीबियाँ """"कमाने
निकलतीं ही क्यों """आज सब पढ़े लिखे
लङके जॉब वाली बीबी चाहते है साथ में
मोटा दहेज भी और न कमाने
वाली स्त्री को तो बेटा ही साथ
नहीं रखता जवान होकर

गुलाम जब गुलामी छोङता है तो ऐसे
ही बिलबिलाता है हुकूमत
का आदी अत्याचारी पुरुषवादी दिमाग!
क्यों न अगले पाँच हजार साल पुरुष घर
सँभालें औरतें कमाई कर लेंगी यह साबित
हो चुका है।

क्यों मिर्चें लगतीं हैं इस बात से कि ""पुरुष बर्तन माँजे झाङू लगाये
कपङे धोये टॉयलेट्स साफ करें खाना परोसे कीज बटन रफू तुरपन करे बाग बगीचे
की निराई करे खाद पानी दे बच्चों को तैयार करे उनकी पढ़ाई कराये डायरी
चैक करे होमवर्क कराये और घर में बंद रहे सालों साल वही सुबह भोर सबसे
पहले उठना और सबसे बाद में सोना!!!!

क्यों बुरा लगता है किसी कमाऊ स्त्री का ऐसा पति देखकर??

सवाल है पुरुष वादी सोच का वरना तो एक व्यवसाय या ज़ब के रूप में तमाम
पुरुष ये सब काम करते ही है किंतु वही सब काम जब अपने घर में करने की
बारी आती है चाय बनाने का भी अहसान स्त्री पर चढ़ाते हैं चाहे वह पूर्ण
कालीन गृहिणी हो या कमाऊ गृहिणी घर के कामकाज तो स्त्री पर ही ""शोभते
""हैं क्योंकि ऐसा करने से पुरुष की पुरुषवादी हनक साख और घमंड को क्षति
पहुँचती है ।
अब बारी स्त्रियों की है उनको दासता की हीनभावना से निकलकर बराबरी न सही
किंतु मानवोचित सम्मान से जीने के लिये आत्मनिर्भर रहना ही होगा और घर के
काम आधे आधे बाँटने होगे ।
शुरुआत अनेक आदर्श परिवारों से हो चुकी है किंतु जमी जमायी सत्ता खोने से
डरे मर्दवादी उत्पीङक स्त्री शोषक आज भी यही उपदेश देते हैं कि स्त्री को
परदे करके घर में सङ सङ कर मर जाना ही भाग्य है । जबकि स्त्री पर कोई भी
अत्याचार गुजरने पर ये सब चुप रहते है ।
समय है बाहर निकलें और अपना हाथ अपनी कमाई अपने फैसले और समान सम्मान
समान हक की न्यायिक अवधारणा से ही घर बसायें ।वह घर नहीं जेल होती है
जहाँ एक स्त्री दासी और पुरुष मालिक होता है । कोई पुरुष परमेश्वर नहीं
है सारा रगङा कमाई का है । पहले स्त्रियाँ खाने पहनने रहने को पुरुष पर
निर्भर थी फिर कानून बने और हक तो दे दिये गये किंतु सामाजिक ताने बाने
ने कभी स्त्री का हक नहीं माना स्थायी संपत्ति पर आज भी बिगङी जिंदगी के
साथी तो वे माँ बाप तक नहीं बन पा रहे हैं जो कि ''पसंद तक नहीं पूछते
विवाह के वक्त और पटक देते है जहाँ बिरादरी का सस्ता मोल का लङका दिख गया
"इसलिये कहते हैं ''जो कमायेगा उसकी चार लात हजार बात औरत को मन मारते
खानी पङेगी । जूते चमङे रबङ कपङो के हो या कङवी अपमान जनक बातें किंतु
कदाचित ही कोई पूर्ण कालीन गृहिणी हो जिसे कभी
"दहेज और रूपरंग और कमाई "
के ताने न मिले हों ।
जवाब देगी तो गाली खायोगी और झगङेगी तो लात घूँसे डंडे ।
यह कहावत गाँव गाँव पसरी है और कोई भी ऐसी गृहिणी से जरा भी सहानुभूति तक
नहीं दर्शाता जो "कमाऊ पति ससुर के तानों और उपहास व्यंग्य कटाक्ष और
आदेशों "पर जवाब देती हो या विरोध करती हो अपमानित होने पर बोलना भी
गवारा नहीं । औरते ही कह पङती है ""बोल्ले जियादा ""जबान जियादे चलती है
"

दुख हो या सुख एक साथी है अपनी जॉब अपने नाम मकान और अपनी पेंशन अपना
बैंक बैलेन्स एक सर्वथा निजी धन और पहचान ''
इसे समझो
जो तुमसे प्रेम करता होगा उसे उस सबसे इनकार नहीं होगा ।
और जो तुम्हें जॉब से अपने नाम मकान जमीन बैक बैलेंस से रोकता होगा वह
कतई प्रेम नहीं करता क्योंकि उसको न तुम पर भरोसा है न तुम्हारी परवाह ।
©®सुधा राजे

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Sudha Raje
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Thursday 24 July 2014

सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग दो)

Sudha Raje
तलाक के बाद
मारी मारी फिरती औरतें??? पति मरने
के बाद मारी मारी फिरती औरते??
पिता के पास धन न होने से
कुँवारी बङी उमर तक बैठी लङकियाँ??
और योग्य होकर भी दहेज कम होने से
निकम्मे और खराब मेल के लङकों को ब्याह
दी गयीं लङकियाँ "धक्के मार कर घर से
निकाली गयीं माँयें और बीबियाँ??????
इसी एशिया और भारत के तीन टुकङों में
सबसे अधिक है????
क्योंकि इनका निजी घर इनके नाम
नही और कमाई का निजी निरंतर
जरिया नहीं

और जो बाँझ औरतें है?? वे कसाई
की गौयें?क्योंकि हर बात पेरेंटिंग के नाम पर स्त्री पर थोप दी जाती है
कि माता अगर घर पर रहकर घर की सेवा करेगी तो बच्चों को हर वक्त ममता की
छांव मिलेगी ?तो जिनके बच्चे किसी कारण से नहीं हो सकते वे औरतें? अपनी
मरज़ी बच्चा गोद नहीं ले सकतीं क्योंकि पति को अपने ही बीज से पैदा बच्चा
चाहिये और ग़ैर के बीज के पेङ को अपनी संपत्ति का वारिस बनाना ग़वारा
नहीं । तब? परिणाम स्वरूप भयंकर मानसिक टॉर्चर समाज भी करता है और परिवार
भी बहुत कम पुरुष स्त्री के बाँझ होने पर बच्चा गोद लेते हैं अकसर बच्चा
गोद तब लिया जाता है जब कमी प्रजनन बीजों की पुरुष में निकल जाती है ।
इसके विपरीत जो स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं वे यदि चाहें तो स्वस्थ होने पर
भी अपना बच्चा जन्म देने के बज़ाय समाज हित में अनाथ बच्चों को भी गोद ले
सकती है ।

बच्चों को हर तरह से ""पढ़ा लिखा कर
योग्य बनाने को करोङो रुपया चाहिये
""""कितने पुरुष अकेले ये बोझ उठा पाते
है?एक लेडी डॉक्टर लेडी नर्स
लेडी टीचर लेडी पुलिस
"""कैसी मिलेगी '''घरेलू गृहिणियों को?
यदि लङकियाँ किसी न किसी परिवार से जॉब करने नहीं निकलेगीं तो कहाँ से
आयेंगी लेडी गायनोकोलोजिस्ट और स्त्री शिक्षक स्त्री पुलिस स्त्री नर्स?

व्यवहार में यही साबित हुआ है
कि डॉक्टर टीचर नर्स प्रोफेसर
वैज्ञानिक माता के बेटे बेटियाँ ""अधिक
योग्य सुखी और जिम्मेदार नागरिक बनतेआये है """"बजाय पूर्ण कालीन पति और
मायके पर निर्भर गृहिणी के ।क्योंकि एक माता जो मेहनत हुनर या शिक्षा और
तकनीक के बल पर जब पैसा रुपया कमाती है तो बच्चों को बचपन से ही माता के
संरक्षण में अपने निजी कार्य स्वयं करने और अधिकांश घरेलू कार्यों में
आत्मनिर्भर रहने की आदत पङ जाती है । वह पैसे रुपये कमाने खर्चने और
बचाने के सब तरीके समझने लगता है । जबकि जिनकी माता पूर्ण कालीन गृहिणी
है वे बच्चे बहुत बङी आयु तक न तो भोजन पकाना सीख पाते हैं न परोसकर खाना
और कपङे धोना स्वयं पहनना समय का पालन करना और सारी चीज़ें सही जगह रखना
और अपने जूठे बर्तन सिंक पर रखना कूङा डस्टबिन में डालना तक जरूरी नहीं
समझते ।
आप किसी छोटे नगर कसबे गाँव या महानगर के आम साधारण परिवारों में जाकर
देखें, बङे बङे किशोर और युवा बेटे माता के सामने कपङों का ढेर लगाकर हर
समय कुछ न कुछ हुकुम झाङते मिलेंगे ।माँ न हुयी हर वक्त चलता मुफ्त का
रोबोट हो गयी!!!
कभी पढ़ाई के बहाने कभी खेल के बहाने कभी मूड के बहाने घर में काम काज
में वे बच्चे अकसर काम में हाथ नहीं बँटाते जिनकी मातायें पूर्णकालीन
गृहिणी हैं ।उनको लगता है माँ करती ही क्या है । चूँकि चॉकलेट टॉफी कपङे
खिलौने और सब चीजें मनोरंजन और खाने पीने की "पिता की कमाई "से आतीं हैं
तो सीधा असर यही पङता है कि बच्चे पापा की चमचागीरी पर उतर आते हैं ।
पापा घुम्मी कराने ले जाते हैं माँ घर में सङती रहती है । पापा खुश तो हर
फरमाईश पूरी और मम्मी? अब ये तो खाना पकाने साफ सफाई करने की मशीन है ।
ज्यों ज्यों बङे होते जाते हैं परिवार में "अधूरी पढ़ाई छोङकर पूर्णकालीन
गृहिणी बनने वाली माता की अनसुनी होने लगती है ।सीधी सीधी बात सात साल के
बाद हर दिन बच्चा सीखता है कि खुशियाँ आतीं हैं पैसे रुपये से और पैसा
रुपया लाते हैं पापा । तो घर का मालिक पापा हैं और हुकूमत उसकी जिसकी
कमाई ।
जबकि जिन घरों में माता भी कमाती हैं वहाँ पिता का व्यवहार माता के प्रति
कम मालिकाना कम हुकूमती कम क्रूर होता है और बराबरी जैसी स्थिति घरेलू
खर्चे उठाने में होने की वजह से बच्चा माँ पिता दोनों के साथ लगभग समान
बरताव करता है पति भी स्त्री से हर बात पर राय मशविरा करना जरूरी समझता
है ।
घर में रुपया पैसा ज्यादा आता है तो स्कूल बढ़िया हो जाता है । खाने की
थाली में व्यञ्जन भरे भरे हो जाते हैं और नहाने धोने पहनने देखने सोने और
घूमने फिरने को अधिक संसाधन होते हैं ।बच्चे को अनुशासित दिनचर्या मिलती
है और ""तरस ''कर नहीं रह जाना पङता । क्रूरता कम होती है माता पर तो ऐसा
बच्चा ""स्त्रियों का सम्मान करना सीखता है ।
ये सही है कि बच्चे को स्कूल के समय के अलावा हर समय अभिभावक चाहिये ।
किंतु ये भी सही है कि कोरी ममता से कुछ भविष्य बनता नहीं है बच्चे । चरा
चरा कर साँड बना डालने से कुछ हल नहीं है जीवन को आगे विकसित उन्नत और
सभ्य समाज की प्रतियोगिता में ""अच्छा स्कूल अच्छे कपङे अच्छा भोजन
बढ़िया टॉनिक फल सब्जी दाल साबुन शेंपू बिस्तर मकान जमीन बैंक बैलेंस और
बढ़िया व्यवसायिक शिक्षा चाहिये ।
ये
सब आता है रुपये पैसे से । कितने पिता हैं जिनके अकेले के बूते की बात है
ज़माने के हिसाब से एक घर पढ़ाई दवाई कपङे बिजली कूलर गीजर पानी
सबमर्सिबल एयर कंडीशनर आलमारी डायनिंग टेबल बिस्तर और मोटी फीस चुकाकर
जॉब दिलाने की दम रखते हैं?
अकसर सात साल तक आते आते बच्चे की जरूरतें ही विवश करतीं हैं स्त्री को
छोङी गयी पढ़ाई और जॉब फिर से शुरू करने के लिये ।
मँहगाई तो है ही कमर तोङ बच्चे बङे होते जाने के साथ साथ "निरर्थक बचा
समय भी चारदीवारी में बंद बँधा जीवन भी काटने लगता है । और एक एक करके
सब अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं । कौन फिर वह एक एक रात
गिनता है जब माता देर से सोयी और जल्दी जागी?
जब पत्नी दिन भर कुछ न कुछ काम हाथ में लिये कोल्हू के बैल सी पूरे घर
में मँडराती रही?
देह कमजोर और किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त हो जाती है शरीर बेडौल हो
जाता है क्योंकि बंद दीवारों से आधी सदी बाहर नहीं निकली स्त्री फिर बाहर
जाने का शौक और आत्मविश्वास ही खो देती है ।
इसके विपरीत
जो स्त्रियाँ किसी न किसी जॉब में लगी रहती हैं वे अपनी कमाई का कुछ न
कुछ हिस्सा खुद पर भी खर्च करने से स्वस्थ ऱहती है और प्रतिदिन ठीक से सज
सँवर कर काम काज करने जाने की दिनचर्या से चुस्त दुरुस्त भी रहतीं है ।
और बाहरी समाज से मिलना जुलना एकरसता और तनाव को तोङता रहता है । अच्छे
कपङे पहनने और नियमित दिनचर्या के अनुसार अनुशासित रहने से वे देर तक
युवा रहती हैं और खुश भी
हर मामूली सी चीज के लिये पति से रुपया माँगने को मजबूर स्त्रियाँ अधिकतर
मन मारकर जीना सीखती रहती है दमन ही आदत हो जाती है । या तो फिर झूठ
बोलकर रुपया बचाती है निजी खर्च के लिये । और तब भी कुछ पसंद का खाना
पहनना उनको अपने ऊपर फिजूल खर्ची लगता है । बहुत अमीर पति नहीं है तब तो
कलह की जङ ही बन जाता है बीबी का कपङा गहना मेकअप और कुछ अलग सा खा लेना
और किसी बहिन भांजे भतीजे माता पिता सहेली को कोई ""उपहार देना तो सपना
ही रह जाता है "
ज्यों ज्यों बच्चे युवा होकर अपने कैरियर विवाह और परिवार बसाते जाते हैं
स्त्री ""बेकार ""पङी ट्राईसाईकिल पालना वॉकर की तरह की याद बनकर रह जाती
है ।
जबकि आत्मनिर्भऱ स्त्री का सबसे बढ़िया समय ही पचास साल की आयु के बाद
प्रारंभ होता है वह पर्याप्त सामाजिक हैसियत धन और अनुभव जुटा लेने के
बाद ''स्वावलंबी बच्चों को ताने देने डिस्टर्ब करने के बजाय अपनी फिटनेस
हॉबीज समाज सुधार के कार्य आध्यात्म और वे सब शौक पूरे करने पर जुट जाती
है जो वक्त न मिलने के कारण विवाह के बाद से बीस साल बंद रह गये ।
माता की ममता दूध कोख का तो कर्ज़ रहता ही है सब पर किंतु वह माता "सुपर
मॉम "साबित होकर हमेशा अपनी संतान के जीवन में आदर पाती है जो उसको आगे
बढ़ाने में अपनी कमाई का पैसा भी लगाती है ।
ऐसी कोई भी साजिश जो औरतों पर
थोपती हो """स्वयं को केवल
सेविका दासी और बच्चे पैदा करने
की मशीन होना """""समय
का पहिया उलटा घुमाने की साजिश है
"""बौखलाया तो गोरों का समाज
भी था जब कालों ने
दासता छोङी थी आज सब बराबरी से
रहते हैं """पुरुषों को भी घर में झाङू
पोंछा बरतन कपङे रोटी टॉयलेट कच्छे
बनियान बराबरी से हाथ बँटाकर
बिना लज्जित हुये करना सीखना जब तक
नहीं आयेगा """"ये
जाती सत्ता बौखलाती रहेगी """दलित
सेवक न मिलने पर सामंतो की तरह
ये ""महिलायें तय
करेंगी उनको क्या करना है ''''ये तय करेगे
काले लोग उनको क्या करना है ""ये तय
करेगे दलित उनको क्या करना है """


माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी
वह बिलखती है रोती है तङपती है किंतु माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास की
सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही हैं ।और ये केवल वही बेटियाँ जिनको उनके माँ बाप ने या खुद उन्होने
संघर्ष करके पढ़ा और कला या शिक्षा के दम पर आत्मनिर्भर हैं ।
ऐसी बेटियाँ पिता माता को मुखाग्नि भी दे रहीं हैं और पुत्र से अधिक सेवा
भी कर रहीं हैं बहू या जामाता तो पराया जाया है किंतु बेटी और बेटा तो
अपनी ही संतान है । फिर वह बेटी ही विवश रह जाती है जो पूर्ण कालीन
गृहपरिचारिका बन कर रह जाती है इससे भी अधिक बजाय माँ बाप का बुढ़ापे का
सहारा बनने के ऐसी बेटी के घर भात छटी छूछक और तीज चौथ के सिमदारे भेंटे
भेजने को बूढ़े माँ बाप की पेंशन पर भी लूट पाट रहती है ।
क्या वीभत्स चित्र है कि युवा बेटी को विधुर बूढ़ा बाप या बूढ़ी माता
पेशन से कटौती करके त्यौहारी भेजती है!!!
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई " जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको?केवल जँवाई का इंतिज़ार की कब बुढ़िया मर जाये तो कब घर
जमीन बेच कर अपने वैभव में समाहित कर लें ??

अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
"आर्थिक हक "तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव के हिसाब से

--
Sudha Raje
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Bijnor
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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग एक)

Sudha Raje
तलाक के बाद
मारी मारी फिरती औरतें??? पति मरने
के बाद मारी मारी फिरती औरते??
पिता के पास धन न होने से
कुँवारी बङी उमर तक बैठी लङकियाँ??
और योग्य होकर भी दहेज कम होने से
निकम्मे और खराब मेल के लङकों को ब्याह
दी गयीं लङकियाँ "धक्के मार कर घर से
निकाली गयीं माँयें और बीबियाँ??????
इसी एशिया और भारत के तीन टुकङों में
सबसे अधिक है????
क्योंकि इनका निजी घर इनके नाम
नही और कमाई का निजी निरंतर
जरिया नहीं

और जो बाँझ औरतें है?? वे कसाई
की गौयें?क्योंकि हर बात पेरेंटिंग के नाम पर स्त्री पर थोप दी जाती है
कि माता अगर घर पर रहकर घर की सेवा करेगी तो बच्चों को हर वक्त ममता की
छांव मिलेगी ?तो जिनके बच्चे किसी कारण से नहीं हो सकते वे औरतें? अपनी
मरज़ी बच्चा गोद नहीं ले सकतीं क्योंकि पति को अपने ही बीज से पैदा बच्चा
चाहिये और ग़ैर के बीज के पेङ को अपनी संपत्ति का वारिस बनाना ग़वारा
नहीं । तब? परिणाम स्वरूप भयंकर मानसिक टॉर्चर समाज भी करता है और परिवार
भी बहुत कम पुरुष स्त्री के बाँझ होने पर बच्चा गोद लेते हैं अकसर बच्चा
गोद तब लिया जाता है जब कमी प्रजनन बीजों की पुरुष में निकल जाती है ।
इसके विपरीत जो स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं वे यदि चाहें तो स्वस्थ होने पर
भी अपना बच्चा जन्म देने के बज़ाय समाज हित में अनाथ बच्चों को भी गोद ले
सकती है ।

बच्चों को हर तरह से ""पढ़ा लिखा कर
योग्य बनाने को करोङो रुपया चाहिये
""""कितने पुरुष अकेले ये बोझ उठा पाते
है?एक लेडी डॉक्टर लेडी नर्स
लेडी टीचर लेडी पुलिस
"""कैसी मिलेगी '''घरेलू गृहिणियों को?
यदि लङकियाँ किसी न किसी परिवार से जॉब करने नहीं निकलेगीं तो कहाँ से
आयेंगी लेडी गायनोकोलोजिस्ट और स्त्री शिक्षक स्त्री पुलिस स्त्री नर्स?

व्यवहार में यही साबित हुआ है
कि डॉक्टर टीचर नर्स प्रोफेसर
वैज्ञानिक माता के बेटे बेटियाँ ""अधिक
योग्य सुखी और जिम्मेदार नागरिक बनतेआये है """"बजाय पूर्ण कालीन पति और
मायके पर निर्भर गृहिणी के ।क्योंकि एक माता जो मेहनत हुनर या शिक्षा और
तकनीक के बल पर जब पैसा रुपया कमाती है तो बच्चों को बचपन से ही माता के
संरक्षण में अपने निजी कार्य स्वयं करने और अधिकांश घरेलू कार्यों में
आत्मनिर्भर रहने की आदत पङ जाती है । वह पैसे रुपये कमाने खर्चने और
बचाने के सब तरीके समझने लगता है । जबकि जिनकी माता पूर्ण कालीन गृहिणी
है वे बच्चे बहुत बङी आयु तक न तो भोजन पकाना सीख पाते हैं न परोसकर खाना
और कपङे धोना स्वयं पहनना समय का पालन करना और सारी चीज़ें सही जगह रखना
और अपने जूठे बर्तन सिंक पर रखना कूङा डस्टबिन में डालना तक जरूरी नहीं
समझते ।
आप किसी छोटे नगर कसबे गाँव या महानगर के आम साधारण परिवारों में जाकर
देखें, बङे बङे किशोर और युवा बेटे माता के सामने कपङों का ढेर लगाकर हर
समय कुछ न कुछ हुकुम झाङते मिलेंगे ।माँ न हुयी हर वक्त चलता मुफ्त का
रोबोट हो गयी!!!
कभी पढ़ाई के बहाने कभी खेल के बहाने कभी मूड के बहाने घर में काम काज
में वे बच्चे अकसर काम में हाथ नहीं बँटाते जिनकी मातायें पूर्णकालीन
गृहिणी हैं ।उनको लगता है माँ करती ही क्या है । चूँकि चॉकलेट टॉफी कपङे
खिलौने और सब चीजें मनोरंजन और खाने पीने की "पिता की कमाई "से आतीं हैं
तो सीधा असर यही पङता है कि बच्चे पापा की चमचागीरी पर उतर आते हैं ।
पापा घुम्मी कराने ले जाते हैं माँ घर में सङती रहती है । पापा खुश तो हर
फरमाईश पूरी और मम्मी? अब ये तो खाना पकाने साफ सफाई करने की मशीन है ।
ज्यों ज्यों बङे होते जाते हैं परिवार में "अधूरी पढ़ाई छोङकर पूर्णकालीन
गृहिणी बनने वाली माता की अनसुनी होने लगती है ।सीधी सीधी बात सात साल के
बाद हर दिन बच्चा सीखता है कि खुशियाँ आतीं हैं पैसे रुपये से और पैसा
रुपया लाते हैं पापा । तो घर का मालिक पापा हैं और हुकूमत उसकी जिसकी
कमाई ।
जबकि जिन घरों में माता भी कमाती हैं वहाँ पिता का व्यवहार माता के प्रति
कम मालिकाना कम हुकूमती कम क्रूर होता है और बराबरी जैसी स्थिति घरेलू
खर्चे उठाने में होने की वजह से बच्चा माँ पिता दोनों के साथ लगभग समान
बरताव करता है पति भी स्त्री से हर बात पर राय मशविरा करना जरूरी समझता
है ।
घर में रुपया पैसा ज्यादा आता है तो स्कूल बढ़िया हो जाता है । खाने की
थाली में व्यञ्जन भरे भरे हो जाते हैं और नहाने धोने पहनने देखने सोने और
घूमने फिरने को अधिक संसाधन होते हैं ।बच्चे को अनुशासित दिनचर्या मिलती
है और ""तरस ''कर नहीं रह जाना पङता । क्रूरता कम होती है माता पर तो ऐसा
बच्चा ""स्त्रियों का सम्मान करना सीखता है ।
ये सही है कि बच्चे को स्कूल के समय के अलावा हर समय अभिभावक चाहिये ।
किंतु ये भी सही है कि कोरी ममता से कुछ भविष्य बनता नहीं है बच्चे । चरा
चरा कर साँड बना डालने से कुछ हल नहीं है जीवन को आगे विकसित उन्नत और
सभ्य समाज की प्रतियोगिता में ""अच्छा स्कूल अच्छे कपङे अच्छा भोजन
बढ़िया टॉनिक फल सब्जी दाल साबुन शेंपू बिस्तर मकान जमीन बैंक बैलेंस और
बढ़िया व्यवसायिक शिक्षा चाहिये ।
ये
सब आता है रुपये पैसे से । कितने पिता हैं जिनके अकेले के बूते की बात है
ज़माने के हिसाब से एक घर पढ़ाई दवाई कपङे बिजली कूलर गीजर पानी
सबमर्सिबल एयर कंडीशनर आलमारी डायनिंग टेबल बिस्तर और मोटी फीस चुकाकर
जॉब दिलाने की दम रखते हैं?
अकसर सात साल तक आते आते बच्चे की जरूरतें ही विवश करतीं हैं स्त्री को
छोङी गयी पढ़ाई और जॉब फिर से शुरू करने के लिये ।
मँहगाई तो है ही कमर तोङ बच्चे बङे होते जाने के साथ साथ "निरर्थक बचा
समय भी चारदीवारी में बंद बँधा जीवन भी काटने लगता है । और एक एक करके
सब अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं । कौन फिर वह एक एक रात
गिनता है जब माता देर से सोयी और जल्दी जागी?
जब पत्नी दिन भर कुछ न कुछ काम हाथ में लिये कोल्हू के बैल सी पूरे घर
में मँडराती रही?
देह कमजोर और किसी न किसी व्याधि से ग्रस्त हो जाती है शरीर बेडौल हो
जाता है क्योंकि बंद दीवारों से आधी सदी बाहर नहीं निकली स्त्री फिर बाहर
जाने का शौक और आत्मविश्वास ही खो देती है ।
इसके विपरीत
जो स्त्रियाँ किसी न किसी जॉब में लगी रहती हैं वे अपनी कमाई का कुछ न
कुछ हिस्सा खुद पर भी खर्च करने से स्वस्थ ऱहती है और प्रतिदिन ठीक से सज
सँवर कर काम काज करने जाने की दिनचर्या से चुस्त दुरुस्त भी रहतीं है ।
और बाहरी समाज से मिलना जुलना एकरसता और तनाव को तोङता रहता है । अच्छे
कपङे पहनने और नियमित दिनचर्या के अनुसार अनुशासित रहने से वे देर तक
युवा रहती हैं और खुश भी
हर मामूली सी चीज के लिये पति से रुपया माँगने को मजबूर स्त्रियाँ अधिकतर
मन मारकर जीना सीखती रहती है दमन ही आदत हो जाती है । या तो फिर झूठ
बोलकर रुपया बचाती है निजी खर्च के लिये । और तब भी कुछ पसंद का खाना
पहनना उनको अपने ऊपर फिजूल खर्ची लगता है । बहुत अमीर पति नहीं है तब तो
कलह की जङ ही बन जाता है बीबी का कपङा गहना मेकअप और कुछ अलग सा खा लेना
और किसी बहिन भांजे भतीजे माता पिता सहेली को कोई ""उपहार देना तो सपना
ही रह जाता है "
ज्यों ज्यों बच्चे युवा होकर अपने कैरियर विवाह और परिवार बसाते जाते हैं
स्त्री ""बेकार ""पङी ट्राईसाईकिल पालना वॉकर की तरह की याद बनकर रह जाती
है ।
जबकि आत्मनिर्भऱ स्त्री का सबसे बढ़िया समय ही पचास साल की आयु के बाद
प्रारंभ होता है वह पर्याप्त सामाजिक हैसियत धन और अनुभव जुटा लेने के
बाद ''स्वावलंबी बच्चों को ताने देने डिस्टर्ब करने के बजाय अपनी फिटनेस
हॉबीज समाज सुधार के कार्य आध्यात्म और वे सब शौक पूरे करने पर जुट जाती
है जो वक्त न मिलने के कारण विवाह के बाद से बीस साल बंद रह गये ।
माता की ममता दूध कोख का तो कर्ज़ रहता ही है सब पर किंतु वह माता "सुपर
मॉम "साबित होकर हमेशा अपनी संतान के जीवन में आदर पाती है जो उसको आगे
बढ़ाने में अपनी कमाई का पैसा भी लगाती है ।
ऐसी कोई भी साजिश जो औरतों पर
थोपती हो """स्वयं को केवल
सेविका दासी और बच्चे पैदा करने
की मशीन होना """""समय
का पहिया उलटा घुमाने की साजिश है
"""बौखलाया तो गोरों का समाज
भी था जब कालों ने
दासता छोङी थी आज सब बराबरी से
रहते हैं """पुरुषों को भी घर में झाङू
पोंछा बरतन कपङे रोटी टॉयलेट कच्छे
बनियान बराबरी से हाथ बँटाकर
बिना लज्जित हुये करना सीखना जब तक
नहीं आयेगा """"ये
जाती सत्ता बौखलाती रहेगी """दलित
सेवक न मिलने पर सामंतो की तरह
ये ""महिलायें तय
करेंगी उनको क्या करना है ''''ये तय करेगे
काले लोग उनको क्या करना है ""ये तय
करेगे दलित उनको क्या करना है """


माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी
वह बिलखती है रोती है तङपती है किंतु माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास की
सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही हैं ।और ये केवल वही बेटियाँ जिनको उनके माँ बाप ने या खुद उन्होने
संघर्ष करके पढ़ा और कला या शिक्षा के दम पर आत्मनिर्भर हैं ।
ऐसी बेटियाँ पिता माता को मुखाग्नि भी दे रहीं हैं और पुत्र से अधिक सेवा
भी कर रहीं हैं बहू या जामाता तो पराया जाया है किंतु बेटी और बेटा तो
अपनी ही संतान है । फिर वह बेटी ही विवश रह जाती है जो पूर्ण कालीन
गृहपरिचारिका बन कर रह जाती है इससे भी अधिक बजाय माँ बाप का बुढ़ापे का
सहारा बनने के ऐसी बेटी के घर भात छटी छूछक और तीज चौथ के सिमदारे भेंटे
भेजने को बूढ़े माँ बाप की पेंशन पर भी लूट पाट रहती है ।
क्या वीभत्स चित्र है कि युवा बेटी को विधुर बूढ़ा बाप या बूढ़ी माता
पेशन से कटौती करके त्यौहारी भेजती है!!!
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई " जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको?केवल जँवाई का इंतिज़ार की कब बुढ़िया मर जाये तो कब घर
जमीन बेच कर अपने वैभव में समाहित कर लें ??

अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
"आर्थिक हक "तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव के हिसाब से

--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
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सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने के लिए क्या है लङकी??""(भाग एक)

लेख ""तेरे पास जीने के लिए क्या है लङकी???!!!!! ""

(सर्वाधिकार कॉपी राईट एवं अनुवाद सहित लेखकाधीन ''सुधा राजे '')

'सामी 'मेरी सबसे प्रिय सखी 'एम ए एल एल बी अदीब क़ामिल करने के बाद उसकी
शादी माँ की बहिन के लङके से परिवार ने कर दी ।खूब जहेज़ और गहने कपङे
बाईक सब दिये लंबी चौङी दावत और ज़श्न के बाद,
'सामी 'ख़ुशी ख़ुशी 'अपनी वक़ालत शुरू करने का विचार त्याग कर गृहिणी बन
गयी पूर्ण कालीन बहू बीबी और चाची की तरह हर समय शौहर और सास ससुर की
सेवा में हाज़िर । 'सामी 'को पहले ही हफ़्ते पता चल गया कि शौहर की एक
प्रेमिका है और वहअपने निजी गैराज
पर जाते आते वहीं घंटों रह जाता है ।
शौहर को बताया था दीनदार किंतु वह शराब का आदी भी था और कैशोर्य से ही
चरित्रहीन ।
सामी जब गर्भ से थी तो उसने समझाने की कोशिश की होने वाली संतान का
वास्ता दिया रोयी गिङगिङायी ख़ुदा का ख़ौफ दिखाया बदले में मिली लातें
पेट कमर पीठ पर और धुँआधार गालियाँ

''पीता हूँ तो अपनी कमाई की पीता हूँ तेरे बाप का माल नहीं है ''शक्ल
देखी है आईने में? तेरा काम घर सँभालना है चुपचाप रोटी पका बरतन माँज और
पङी रह "

जबकि सामी के पिता की पूँजी भी गैराज में लगायी जा चुकी थी और एक कमरा भी
उसी पूँजी से छत पर तैयार कराया गया था ।

बच्ची पेट में मर गयी और सामी को कई हफ्ते तक डॉक्टर को नहीं दिखाया गया,
जब चीखते चीखते बेहोश हो गयी तो डरकर बूढ़े सास ससुर ने सामी के भाई को
फोन किया पङौस से तब सामी की ज़ान बची ऑपरेशन से बच्ची निकाली,
सामी के सपने टूट चुके थे । फिर भी वह दीनदार संस्कार वान लङकी घर बिगङने
के डर से चार माह बाद समझौता करा कर विदा कर दी गयी । हफ्ता भर भी नहीं
बीता कि मारपीट और ज़ुल्म चालू हो गये 'कि रिटायरमेंट पर बाप के पैसे से
हिस्सा ला ताकि वह अपना ट्रक खरीद सके ।
सामी गर्भ से थी और घसीट कर पीटी गयी । बेल्टों से जूतों से और रास्ते पर
फेंक दी गयी कि पैसा लाना तो आना ।
सामी के बेटा हुआ 'और फिर पैसे देकर बिरादरी ने समझौता कराकर भेज दिया
।अब सामी बीमार रहने लगी काम काज में पहले जैसी फुर्ती और मनभावना की
हुनर नहीं रहा सजना सँवरना सूनी सेज देखकर भला न लगता और जब कभी होता तो
मेल जबरदस्ती से होता एक तरह का रेप और कुकर्म भी । सामी ने माँ भाई से
लाख मदद माँगी मगर सब बदनामी का डर दिखाकर पीछे हट जाते सामी केवल
नौकरानी ही थी ।
अब निक़ाह के सामान पुराने हो गये और जेवर बेच कर शौहर ने गैराज पर लगा
दिये और तमाम सामान दो तीन रखैलों पर खर्च कर दिये ।सामी साबुन तेल मंजन
शेंपू दवाई चाय चप्पल अंतःवस्त्र जैसी चीज़ों तक को तरसा दी गयी ।
करीब के स्कूल में पढ़ाने की इज़ाजत माँगी तो जूते मिले और आवारा का ताना ।
पढ़ाई को गालियाँ तो रोज ही मिलती ।सुंदर सुघङ शालीन लङकी सामी से मिलने
जब हम पहुँचे तब वह पहचानी भी नहीं गयी । कमर तक लंबे बाल झङकर कंधे तक
पूँछ से बचे थे गेंहुआ सलौना रंग काला और भरा बदन काँटा हो चुका था आवाज
रोते रहने से मधुरता खो चुकी थी ।
सामी नाटक करती रही सुखी होने का किंतु बचपन की सखी से कब तक नाटक चलता ।
शौहर आया उसका तो दो पल नहीं लगे ताङते कि दोनों में एक हुकूमत के घमंड
में तो दूसरी बेबस पिता की मौत के बाद से बेटे की परवरिश जगहँसाई के डर
से लाचार ।
कुछ महीने बाद सामी का खत मिला कि उसको तीन तलाक देकर घर से बाहर धकेल
दिया बच्चा भी भगा दिया और एक पङौसी की मदद से बस में बैठकर वह मायके आ
पङी है अब भाई भाभी ने दम खा रखा है कि बेटा छोङ दे तेरा बोझ कैसे उठायें
पहले ही बेवा माँ कम है क्या ।
हमने सामी से मिलने की ठानी और कुछ हफ्तों के बाद घर में दो कमरे सामी की
माँ ने ले लिये अपने और बेटी के लिये ।
सामी वकालत नहीं कर सकती थी कॉन्फिडेंस एकदम गिर चुका था और सेहत खराब थी
बच्चा छोटा ।मरदों के बीच बेपरदा बैठने पर इलज़ाम का डर ।आखिर उसे एक
स्कूल में जॉब मिली और धीरे धीरे वह अपना खर्चा निकालने लगी ।अम्माँ जिस
पेंशन पर पहले चुपचाप अंगूठा लगाकर बेटे को दे देतीं थी वह अम्माँ ने
रखनी शुरू की तो रोटियाँ बंद कर दीं बेटे ने ।
सामी ने माँ और अपने बेटे दोनों को सँभाल लिया ।
बिरादरी के लोग तमाम बातें बनाते वह बिना परदे के पढ़ाने जाती और मुकदमा
लङकर सामान वापस ले लिया निकाह का हालांकि सब तोङ फोङकर दिया और तमाम
ज़लील करके मेहर दिया जिसे उसने फिक्स कर दिया गस साल के लिये ।
बेटा छीन ले गये ।बेटा जब बीमार पङ कर मरने की नौबत आयी तब वापस सामी को
दिया कि बालिग होने पर वापस लूँगा और रखैल घर ले आया ।
सामी के लिये तमाम बूढ़े विधुर निकम्मे प्रौढ़ रिश्तेदार शादी को पैग़ाम
भेजने लगे अनेक को तो दूसरी तीसरी बीबी बनाने का शौक़ था ।
किंतु सामी अब जाग चुकी थी ।वह आगे टीचर ट्रेनिंग में शामिल हुयी
बहुप्रतिभाशाली थी सो अंततः परमानेंट जॉब मिल गयी ।
अम्माँ ने आधे मकान का बैनामा सामी के वाम जब किया तो भाई भाभी ने दोनों
को मारा पीटा अंततः दरवाजे बँट गये और सामी माँ के हिस्से में रहने लगी ।
हमने कुछ रिश्ते बहुत फूँककर बताये तो एक ही ज़वाब मिला """अब नहीं ""अब
इन हड्डियों में मार खाने की ताक़त और दिल में किसी के ताने पीने का सब्र
नहीं ""
शादी करके देख ली बच्चा भी पराया है ।रहा ये ज़िस्म सो अब इसपर कितने दिन
मर्द को बाँधने को माँस बचा है?
तब से जहाँ कहीं भी मैं जाती हूँ हर लङकी से केवल एक ही बात कहतीं हूँ
''पहले एक जॉब पकङो फिर शादी करो और अपनी जॉब कभी मत छोङना । पहला बच्चा
होने से पहले तय कर लो कि घर की जिम्मेदारी आधी आधी बाँटनी पङेगी और पालन
पोषण में हाथ बँटाना पङेगा । क्योंकि आज भी बहुतायत पुरुषों को बरतन
माँजना खाना पकाना टॉयलेट साफ करना पोंछा लगाना बच्चों के लिये बोटल भरना
बस्ता लगाना और होमवर्क कराना कपङे धोना
''जोरू की गुलामी लगते हैं "
यानि अमूमन एक बहुत बङी आबादी में घर के भीतर की हर सेवा औरतों पर ही
जबरन या स्वेच्छा से दीन ईमान कर्त्तव्य कहकर थोपी हुयी है । या तो पूर्ण
कालीन वी है स्त्री या फिर जॉब करने वाली कामकाजी गृहिणी ।अर्थात हर हाल
में घरेलू सेवायें औरतों का ही काम माना जाता है ।अपवाद स्वरूप बहुत कम
परिवारों में पति छोटे मोटे कार्यों में बाथ बँटाने लगे है ।किंतु गंदगी
साफ करना तो फिर भी हर हाल में या तो नौकरानी करेगी या गृहिणी करेगी ।
विवाहेत्तर संबंधों में लिप्त पति से भी धोखा खाकर जाने कब शादी तलाक में
बदल जाये का डर भी है ही । साथ ही डर है बीमारी एक्सीडेंट प्राकृतिक आपदा
नौकरी चली जाने और चोरी डकैती आगजनी में लुट जाने का और यदि पति को कुछ
हो गया तो प्रौढ़ विगत यौवना माँ का बच्चे लेकर दर दर की ठोकरें खाने का
डर है ।
न जाने जीवन के कि पङाव पर कौन किसे छल जाये वक्त और हालात से ।
इसी लिये हर लङकी के सबसे पहले कम से कम स्नातक तक शिक्षा हासिल करनी
चाहिये फिर एक जॉब पकङनी चाहिये तब सब प्रकार की बातें पहले ही परख कर
कहकर शादी करनी चाहिये ।
शादी दोनों की होती है बच्चे भी दोनों के है तो जब माँ पेट में बच्चा
रखती है घरेलू सेवायें पुरुष करे और जब बच्चा छोटा है तक आधा आधा काम घर
का बच्चे का और बाजार का बाँट लिया जाना आज के समसामयिक जीवन का सबसे
स्वस्थ नजरिया है ।मातृत्व के बाद स्कूल के काम भी बाँटे जाने चाहिये
"होमवर्क एक कराये तो दूसरा टिफिन तैयार करें और जो एक छोङने जाये तो
यूनिफॉर्म दूसरा धोये प्रेस करे ।
पैरेन्टिंग के काम पहल करके बाँटने है यह पहले ही परख कर तब बच्चा जन्मने
का फैसला लिया जाये ।
वर्तमान समय के संक्रमण कालीन दौर के हिसाब से तो यह सही है कि लङकियाँ
कोई भी फ़ैसला भावना की बज़ाय विवेक से लें और "पहला बच्चा "विवाह के दो
साल बाद ही करें ।आज इतने सुरक्षित गर्भनिरोधक उपाय आ चुके हैं कि विवाह
से पहले ही लेडी डॉक्टर से मिलकर पता कर लें कि कैसे दो साल तक बच्चा
पैदा नहीं करने की रोकथाम की जाये ।
उन दो साल के दौरान ससुराल पति बच्चे को लेकर नये परिवार का दृष्टिकोण
बेटी बेटा की चाहत और दांपत्य के साथ जॉब को नयी ज़िम्मेदारी के हिसाब से
सैटल करने का पर्याप्त समय मिल जाता है ।
बच्चा कब जन्म ले यह समय तय किया जा सकता है और कहाँ पैदा हो कहाँ आराम
करना है वे छह

महीने भी तय किये जा सकते है ।प्रेगनैंसी के दौरान और डिलेवरी के समय
कौन करीब रहेगा ये व्यवस्था की जा सकती है । बच्चे को स्कूल जाने के दिन
तक क्या क्या पृथक अरेञ्जमेंट चाहिये वे सब सामान और व्यक्ति जुटाये जा
सकते हैं ।
तो शिक्षित होना पहली जरूरत और दूसरी है जॉब तीसरी है सही मेल की शादी और
चौथी है पहला बच्चा दो साल बाद ।
दूसरे बच्चे के बारे में कम से कम छह साल बाद ही सोचें ताकि पहला बच्चा
मदद कर सकें छोटे की परवरिश में ।और एक बच्चा पूरी तरह पेरेंटिंग पाकर
सँभल चुका हो ।


मेरे अपने हालात ऐसे बिगङ जायेंगे मैंने भी सोचा नहीं था । अच्छी खासी
लेखिका प्रसिद्ध हो चुकी थी और हाईकोर्ट की वकील भी समाज के सुधार
कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी और अपने प्रण के मुताबिक पिता
की मरजी से चुने गये परिवार में शराब नही दहेज नहीं की रीति पर विवाह
किया था ।
परंतु बहुत जल्दी ही अहसास हुआ कि 'दहेज 'माँगा नहीं किंतु वांछित तो था
। वकालत छोङकर परिवार का दिल जीतने का मन बनाया और हर तरह से सबकुछ मन
वचन कर्म से करने लगी । तभी एक हादसे में पति की रीढ़ की हड्डी
क्षतिग्रस्त हो गयी । मेरे सामने उनके ऑपरेशन के लिये लाखों रुपये जुटाने
के लिये जेवर और जमीन बेचने के सिवा कोई विकल्प नहीं था । स्वाभिमानी
लङकी मायके से कब हाथ पसारती है और बिन माँगे मदद करता कौन है । दिल्ली
गाजियाबाद कोटा बूँदी जयपुर तब जाकर ऑपरेशन कराया और विशेष तकनीक से
प्राप्त मातृत्व भी ढोया क्योंकि आशंकायें बहुत थीं । सफलता या असफलता की
।कुछ साल ऐसे गुजरे कि वकालत करने की तो गुंजाईश ही नहीं थी बेड पर बंधे
पति और गोद के दोनों बच्चों के साथ बेड पर करवट तक लेने में असक्षम ससुर
की भी जिम्मेदारी थी ।
तब समाज सेवार्थ की गयी टीचिंग के अनुभव काम आये और शहर की मेडिकल शॉप
बेचकर गाँव आ बसे वहीं कोचिंग खोली और सिलाई सिखानी जारी की । पति जब
ठीक हुये तो एल आई सी का काम शुरू कर दिया । कुछ साल बाद वकालत एल आई सी
और ट्यूशन से ही जीवन फिर चला ।
साठ किलोमीटर की प्रतिदिन यात्रा और दिन भर काम रात देर से सोना सुबह
जल्दी जागना ।
लगभग दस साल बाद अँधेरा छँटा और पति ने खेती शुरू की दुबारा मेडिकल चालू
किया ।खुद किराये पर रहकर हमने निजी घर किराये पर दे रखा था । बच्चे साथ
साथ काम करते घर पर साग सब्जी लगायी औऱ कुछ भी फालतू नहीं खरीदा ।तब समझ
आया कि जॉब भावुकता में छोङना मेरी भूल

आज बीस साल हो गये रात अब भोर की तरफ है लेकिन पूरे सत्तरह साल कलम बंद
रही और मंच का मुँह नहीं देखा । अपने क्रूर कङवे अनुभव से कहती हूँ
लङकियो! आत्मनिर्भर बनो तब शादी करो जॉब का विकल्प शादी नहीं

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