Friday 25 July 2014

सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग चार)

लङकियाँ बेची जाती है? क्यों? और पुरुष
खरीदते है क्यो? बाल श्रम क्यों है? घर
घर बरतन झाङू पोछा वाली बाई बङे
घरों में क्यों? क्यों अब तक सफाई और
सेवा में केवल औरते?क्यों सरनेम औरते
बदलती है? क्यों माँ बाप
को सहायता औरतें नहीं दे पाती?

बूढ़े सास ससुर को कितने जँवाई
अपनी कमाई पर बिना अपमानित किये
रखने को तैयार होते हैं??

माँ विधवा है बूढ़ी है लाचार है और
बेटा परदेश लेकर
चला गया फैमिली """"बेटी पढ़ी लिखी है
या अनपढ़ है लेकिन गृहिणी रह गयी वह
बिलखती है रोती है तङपती है किंतु
माँ को दवाई कपङे और अपने साथ रखकर
सेवा नहीं दे सकती????? क्यों जँवाई
भी तो बेटा है??? जब बहू ससुर सास
की सेविका है तो??? लेकिन
ऐसी हजारों बेटियाँ आज है
जो बिना नजर पर लज्जित होने का बोध
कराये माँ बाप को ""सहारा सेवा दे
रही है
"""विधवा स्त्री तलाकशुदा स्त्री और
विकलांग पति की स्त्री और बाँझ
स्त्री और तेजाब जली स्त्री को केवल एक
सहारा"निजी कमाई "

मगर जिसने बेटी ब्याहने में सब
लुटा दिया उनको???
आत्मविश्वास और
इन्सिक्योर जॉन में काम कम करने से
पैदा हुई बुद्धिमत्ता, समाज के विभिन्न
रूपों की समझ उसे कैसे होगी।फिर उस
संवेदन शील
प्राणी की उपस्थिति वृहत्तर समाज
को भी चाहिए समाज के जटिल
मसलों को सुलझाने में।पर इसका मतलब ये
नहीं कि अदबदा कर कुछ भी करने के लिए
हमें बाहर निकल जाना है अपने स्वधर्म
की परवाह करे बगैर।
क्या हमारा समाज,हमारी व्यवस्था कुछ
ऐसा काम महिलाओं के लिए नहीं सोच
सकती जो हर क्षेत्र में हो पर कम टाइम
टेकिंग।पुरुष भी यदि घर सभालना चाहे
तो उसे भी यही कम घंटों वाला काम
सहर्ष दिया जाए।पर मेरा कहना उस
महिला वर्ग से है जो नौकरी करने वाले
से अधिक है कि क्या अच्छी फिजिक्स और
अच्छी होम साइंस पढ़ के उसे केवल अपने
ही एक परिवार तक उस ज्ञान
को सीमित कर देना चाहिए ।केवल घरेलू
काम निपटाकर सीरियल देखकर घरों में
बैठी इन बहनों के ज्ञान की और
भी लोगों को जरूरत है।अपने वर्ग से नीचे
झांक कर देखें और भी लोग
उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।हम लोग इस
मानव संसाधन के लिए कुछ उचित व
सार्थक सोंचे।
अगर ""परंपरा से पुरुषों ने स्त्रियों पर
जुल्म नहीं किये होते ""विधवाओं
को अभागन न
माना होता विवाहिता को ठुकराया न
होता ""निःपुत्र सास ससुर
की सेवा की होती ""अपनी कमाई पर
स्त्री का हक समझा होता """"तो ये
नौबत
ही नहीं आती कि बिलखती स्त्री ''यौवन
गँवाकर प्रौढ़ावस्था में कमाई के नाम पर
सताई जाती और विवश होकर
अगली पीढ़ी पहले ही अपने भविष्य
को अपने हाथ में ऱखने निकल पङती????
एक ठोस संदेश
भी सदियों की दासता की आदत
छोङो और घर बाहर बराबर काम
करो ''पेरेंटिंग दोनो की जिम्मेदारी है
''नौ महीने पेट में रखकर माँ तो फिर
भी अधिक करती ही है वह कमाऊ
गृहिणी है या घर रहती है उसके
""आर्थिक हक """तय करने वाला कोई
दूसरा क्यों? वह अपना हित अपने स्वभाव
के हिसाब से तय करेगी । बीबी की जॉब
बङी है तो पुरुष गृहिणी बन
क्यों नहीं सकता?? क्योंकि वह सब काम
दासत्व के है? तो बराबर बाँट लो न!!

बहुत कम """औरते ""कुछ
नहीं कमाती 'किंतु अपना परिश्रम वे भी मुफ्त देती हैं परिवार को और ये
परिश्रम कोई दिन या रात के घंटों या मात्रा पर निर्धारित नहीं
एक फराओ नियोक्ता की भाँति परिवार के पुरुष उन स्त्रियों से बेगार कराते
हैं और उनको निठल्ली निकम्मी भी कहा जाता है । क्योंकि उनका वही श्रम
किसी दूसरे के प्रति होता तब तो धन मिलता न?
जबकि अंतर यही है वहीं पुरुष जिस जिस के लिये परिश्रम करता है धन के बदले करता है ।
''फिर भी जो कुछ
भी नहीं कमाती वे पूर्ण कालीन
सेविका की तरह ट्रीट की जाती है??
एक अपमान हेयता है ""गृहिणी ही तो है
"

"और ये देवी वाला राग तो बंद ही कर
दें कोई नहीं समझता देवी माँ तक
को ',रोटी कपङे मकान दवा सम्मान
की गारंटी पहली बात है ""ये कोई शर्त
नहीं कि औरतें ही घर रुकेंगी???? और ये
कोई साबित नहीं कि हर पुरुष ""महान
पिता पति पुत्र है,
तमाम घरेलू हिंसा की जङ में यही घमंड बोलता है कि पुरुष कमाकर लाता है
औरत बैठकर खाती है ।


--
Sudha Raje
Address- 511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
Bijnor
U.P.
Email- sudha.raje7@gmail.com
Mobile- 9358874117

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