सुधा राजे की कविता --"" सुनहरे सपनो वाली परी""

जब उसने पहली बार झूठ बोला,
मैं बहुत रोयी
जब उसने दूसरी बार मुझे मेरे अपनों से काटने को मुझे दूसरे कामों का
हवाला दिया, मैं चौंकी और समझौता करके स्वयं को कर्त्तव्य कह कर बहलाया,
जब उसने तीसरी बार मुझे पिता के घर की बातों पर उपहास से कचोटा मैंने
"ज़वाब दिया तल्खी से ।
जब उसने पाँचवीं बार कमाई के नशे में घर को शोर गंदगी बदबू से भरकर
मुझे "बेघर होने का अहसास कराया,
मैं रोयी जागी और खाना पीना छोङ दिया,,
मैंने सोचा
मैं रूठी तो वह मना लेगा
मैं रोऊँगी तो उसे रहम आयेगा
मैं भूखी रहूँगी तो वह मनुहार से खिलायेगा ।
मैं सेवा करूँगी तो दिल में जगह दे देगा,
मैं बच्चे दूँगी तो वह मेरा हो जायेगा ।
मैं घर तक सीमित हो जाऊँगी तो वह 'शांत होकर मेरा आदर करेगा, मैं उसको
ताकतवर बनाऊँगी तो वह मेरी रक्षा करेगा ।
"""
किंतु ऐसा नहीं हुआ ।
सबसे नहीं जाना ।
सबको पता था वह मालिक है और मैं दासी
यही रीति है ।
मुझे परंपरा हक़ नहीं देती ।
मेरी सुनवाई धर्म नहीं करता ।
मेरा पक्ष उसके परिजन पङौसी मित्र नहीं लेते ।
मैं
रोती रही
रोती रही
हर सुबह
हर शाम रोती रही
जब
उसने मुझे हर पल केवल दास समझा
मैं सहजीवी संगिनी समझती थी खुद को ।

उसने हर पल एक देह एक घरेलू वस्तु समझा
मैं प्रेम चाहती थी खुद को प्रेम देती थी उसको


उसके ताने तीखे होते गये और मेरे आँसू लावा ।
उसकी चीखें कर्कश होती गयीं और मेरी सिसकियाँ तीखे जवाब।
अब
जब वह एक गाली देता
मैं सौ पलट कर देती ।
वह
मुझे पीटता मारता घसीटता ताने देता जलील करता और धकेल कर घर से बाहर निकाल देता ।
मैं
उस पर पत्थर बरसाती
शोर करके लोगों को इकट्ठा कर लेती और 'कानून के समाज के डर से वह कुछ दिन
चुप हो जाता ।

अब मैं उसे देखते ही बङबङाने लगती
जमकर ताने देती बाप माँ के औकात के और सारे गुनाह गिनवाती ।
वह
जोर से चीखता पीटता और गालियाँ देता ।
परंतु
अब मुझे परवाह नहीं थी न सामाजिक अपमान की
न प्यार खो देने के डर की
न पिटने गाली खाने की

घर बरबाद होने की
घर तो मेरा दिल दिमाग यौवन सगे संबंधी मित्र शुभचिंतकों की तरह उजङ गया था
अब
संतान समझ चुकी थी मेरे खोखले दांपत्य का सच ।

मैं लङती मारती पीटती गरियाती गाली खाती उस
नर्क में रह रही थी ।
जिसे मैं ही कभी पाने के लिये सब छोङकर आयी थी ।

अब मैं दर्द की चट्टान पर खङी थी और भीग चुकी थी हज़ारों बार अपने ही लहू
से हर तरफ थी चोटें काले दाग नीले निशान उभरी औऱ दबी खऱोंचे चबङियों की
सीढ़ियों की हड्डियों के दर्द और मासिक की गङबङियाँ दुख के प्रचंड
हाहाकार से गुजर कर मैं वीतरागी हो गयी ।
कर्कशा कलहकारिणी और उद्दण्ड,
अब मुझे याद आये अपने सपने अपनी चीज़ें और अपने छूटे शौक़ ।
टूटी फूटी देह बिखरा मन और विगत यौवन उजाङ सौन्दर्य के साथ में ',उठने की
हर बार अब कोशिश तो करती हूँ ', हर बार गिर कर रो पङती हूँ उन हाथों के
दर्द से जिनपर खुशी के लिये मेंहदी लगाते सोचा न था मैं इतनी "कुरूप
कर्कशा ''क्रूर होने वाली हूँ, मैं गाना तो चाहती हूँ परंतु आवाज़ साथ
नहीं देती कंठ अब भर्रा जाता है ""खोजने लगती हूँ बावली की तरह अपने भीतर
कहीं घुटघुट कर मर गयी वह कोमल लजालु सपनीली सुनहली परी सी दुलहन "और सुख
अब इस में है कि मेरे हाथ पर होते हैं मेरे अपने हुनर से उगाये चंद रुपये
और बदन पर अपनी मेहनत से बुने सिले कपङे जिसका हर सूत मैंने खरीदा है ।
कानून से यह घर मेरा है । यह सामान भी वे सब संताने भी और वे चंद रुपये
भी जो मैं छीन लेती हूँ ।

अब कौर नहीं अटकता पहले खुद खाने पर न अब कहीं मन अटकता है किसी के जहर
बुझे ताने पर, ।

जब
परवाह नहीं सुख पाने की तमन्ना नहीं घर सजाने की डर नहीं प्रेम खोने का ।
तो क्यों हो शौक़ अब किसी के कंधे पर रोने का ।
जिस वक्ष पर सिर धर के बहाने थे ज़माने भर की पीङा के आँसू ।
वह सिर अब वहीं उठता रात को तकिये से दूसरे कमरे से आती खाँसी या कराह की
आवाज पर, '
मैंने किसी चंद्रमा को नहीं रखने दिया था कदम मन की कुटिया में ।
किंतु
मैं शिला हो चुकी थी क्योंकि 'मैंने अपनी खुशी अपने सुख रख दिये थे दूसरे
की झोली में और जगह बनाना चाहती थी उसके दिल में जहाँ पहले केवल मेरा रूप
यौवन था बाद में श्रम और फिर धन के साथ मैं रिक्त शिला भर रह गयी ।
परंतु मुझे किसी "राम ''की प्रतीक्षा नहीं मैंने खुद के हर टुकङे से
पत्थर तराशना सीख लिया है अपने अपने घर के लियो अपने मंदिर के भीतर अपनी
ही प्रतिमा के लिये ।
बस ये कोई नही समझा कि वह अबोध मासूम भोली सुनहरे सपनो वाली परी लङकी
"इतने कठोर ग्रेनाईट की चट्टान में कैसे हदल गयी!!!!
©®सुधा राजे

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Sudha Raje
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