Thursday 28 February 2019

गजल, लिखावट रेत पर

Sudha Raje
लिखावट रेत पै उल्फ़त लहर
धो गयी सुनहरी सी
बची रह
गयी जो खाली ज़िदगी इक
शाम ठहरी सी
चमकते सुर्ख पानी पे
वौ परतौआफताबी रंग
टपकते पुर लहू आँसू दमकते
ज़ाम ठहरी सी
वो चुप खामोश ऊँचे
नारियल के ताङ के ताने
वो सन्नाटे सवाहिल
चौतरफ़ आवाम ठहरी सी
वो पेचो ख़म सियह
जुल्फों में उलझा डूबता
सूरज
वो गर्दो दर्द चश्मे तर
जो राहे आम ठहरी सी
सवालों के लिये आवाज़ देते
रेहङी वाले
ज़वाबों की वो ठंडी कुल्फियाँ अंज़ाम
ठहरी सी
कुरेदी पैर के नाखून से
गीली ज़मी यूँ ही
सुधा बेबस
किसी की बात
दहने बाम ठहरी थी
¶©®¶©®
चले आना घिसटते रेत पर
अनमिट निशानों सा
वो इक पूरी कहानी
आँसुओं
के नाम ठहरी सी
तुलूये-माह के सँग
संग़सारी
अश्क़बारी भी
वो खुद की बेग़ुनाहे
ख़ुदक़ुशी
बेनाम ठहरी सी
Sudha Raje

लघु लेख

आप बहुत द्रवित हो सकते हैं किंतु अनाथ गंदा बच्चा घर नहीं ला सकते ,कहाँ तक लायेंगे ,वे लोग संगठित हैं 122देशों से उनको चैरिटी मिलटी है फंडिंग होती है सरकार भी छूट देती है माईनाॅरिटी के नाम पर ,और आप स्वयं भी तो काॅन्वेन्ट यानि रिलीजन प्रचारक आश्रम को मोटी फीस ,यूनिफाॅर्म बुक्स ,कंपटीशन ड्रेस आदि के लिये लाखों रुपये देते हैं..वे उन अनाथों को अनाथालखोलकर पाल लेते हैं ..परिवर्तन कराने से भी बढ़ते हैं ,और सब अनाथ उनका ही रिलीजन तो अपनाते हैं जो दे वही देवता ,आप दया को संगठित रूप दे दीजिये वह शक्ति बन जायेगी ,,,,जिसका सूर्य अस्त नहीं होता था ,हवन शुद्धि करके "आर्य कहिये "या "भारती"या कुछ और परंतु संगठित होकर ही बच सकोगो जितने आप सब हो ,इतने वे रोज सड़कों पर से उठा लेते हैं ©®सुधा राजे

लेख~:होली क्यों नहीं मनाओगे

होली क्यों नहीं मनाओगे ?(सुधा राजे)
कोई किसी के घर मर भी जाता है तो भी हुरियारे टोली लेकर पानी डालने जाते है सोग उठाने ,रंग को पानी कहकर
,
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व
पृथक है ,और सांस्कृति दासता पृथक
,

स्वर्ण किसी भी धातु में मिल जाये ,वह उसका मूल्य बढ़ा देता है ,
स्वर्ण में कुछ मिल जाये वह उसका मूल्य घटा देता है,
सद्भाव सबके साथ रखो ,मिलावट स्वयं में किसी की न होने दो ,
सोने की मुंदरी मखमल की मंजूषा में रखी जाती है और अनंतकाल तक साथ रह सकते हैं दोनो
,
,

हरा और भगवा जब तक एक दूसरे को समझें समझायेंगे तब तक सफेद चेहरे वाले न  कुछ देखने देंगे न समझने ,बचुरचाप तुम्हारा संगीत बदल देंगे अपने संगीत से ,चुपचाप तुम्हारी रीत बदल देंगे अपनी रीत से ,चुपचाप तुम्हार नाम बदल देंगे अपने नाम से चुपचाप तुम्हारा दाम बदल देंगे अपने दाम से ,बदल देंगे तीज त्यौहार उत्सव और विचार परिधान और आभूषण भोजन और स्वाद ,तुम कब उनके हर तरह से भौंडी नकल पैरोडी मात्र रह गए हो तुम्हें पता तक नहीं चलेगा ,जब करोगे स्वयं के मूल की बात मौलिकता की बात तो बनोगे उपहास .......तुम जानते तक तो हो नहीं कि बर्थडे कहीं जन्मदिवस की वर्षगाँठ होकर मनता कैसे था ,पायर्सिंग से पहले "कर्णवेध उपबीत "होता था ,न्यूयीयर से पहले नववर्ष गुड़ी पड़वा चैतीचंद होता था ,बड़ा दिन से पहले माघस्नान मास होता था ,हैलोवीन से पहले "सुआटा "और दशहरा होता था ,,ईस्टर से पहले भीष्म एकादशी होती थी ,गुडफ्राईडे से पहले ,यमद्वितीया होती थी
,मदर्स डे से पहले मातृनवमी होती थी हर माह में दो बार ,फादर्स डे से पहले ,प्रात:पितृवंदना सायं पितृसेवा होती थी पितर पक्ष होते थे ,पितृऋण होता था ,फ्रैंडशिप डे से पहले ""कार्तिक मास होता था जिसमें डालो डेली मिले सहेली करके चांदनी में लड़कियाँ गंगा जल छिड़क कर दुपट्टे बदल लेतीं थी और लड़के गोप ग्वाल मंडली के टोपी बदल भाई बनते थे ,इनवायरमेन्ट डे से पहले पीपल पूनम बगदाही अमावस्या वटसावित्री आँवलिया नवमी बेल प्रदोष महुआतीज गंगा दशहरा यमुनाभाऊबीज ,धूलि रेणुका पूर्णिमा ,हरछट ,होते थे ,डाॅटर्स डे से पहले कन्यापूजन नवरात्रियाँ वर्ष में तीन बार होती थी ,,वेलेनटाईन से पहले ""मदनोत्सव मास वसंत फागुन होता था .......तुम कैसे जान पाओगे कि लवमैरिज प्रपोज और हगडे किस डे से भी बहुत पहले "समन और स्वयंवर होते थे ....ह्यूमन राईट्स से पहले ,जीवात्मा मात्र पर दया थी ..तुमने सिर्फ वह पढ़ा है जो तुम्हें सफेद चेहरोंने पढ़वाया , हरे काले रंगों ने नहीं पढ़ने दिया .....एक बार काश कि तुम खुद पढ़ते अपना गाँव दादी का गाँव नानानी का गाँव माँ का बचपन ,,,,,,पिता के पूर्वजों के रंग रूप .....
फागुन होली रंग रोली ,सबको शुभ हो©®सुधा राजे

संस्मरण: एक थी सुधा, सुधा विषपायिनी

माँ बहुत याद आतीं हैं जब जब होली आती है ,कई दिन पहले से हम सब लग जाते थे ,पेराखेँ ,गूजा ,गुझियाँ ,पपरियाँ मठरी ,बताशपैनी ,शकरपारे ,गुड़लटा, मगद मोदक ,बरा ,बरी,  और बहुत सारे पकवान बनाने में ,बुन्देलखंड में धुलैंडी को तब लोग होली नहीं खेलते थे ,केवल सामान्य गायन वादन होता था ,राख की कीच की होली पहले दिन रहती थी । क्यों ?क्योंकि मणिकर्णिका रानी लक्ष्मीबाई का प्रथम पुत्र धुलैंडी के दिन नहीं रहा और झाँसी अंग्रेजों ने बरबाद तबाह कर दी ,मोरोपंत तांबे को एक जलते हुए मकान में फेंक दिया ,तात्या को फाँसी दे दी और रानी को स्वयं को बाबागंगादास की कुटिया में जोहर करना पड़ा ,
पूरा बुंदेलखंड अंग्रेजों की क्रूरता काशिकार हुआ ,ग्वालियर पुरस्कार का ,तब से दूज को होली खिलती आ रही है और प्रथमा को सब वाहन बंद कर दिये जाते हैं दूज पूजकर तिलक लगवाकर ही चालू होते हैं ""यंत्र कालिका की पूजा हर मशीन पूजा के साथ होती है ।
भाईयों का तिलक पहले बहिनें करतीं हैं तब वे सफेद पोशाक में कोरे कपड़े पहन कर होली खेलने निकलते थे । अब तो लोग पुराने से पुराने में यहाँ दिखते हैं तो जी ही नहीं करता छींटा तक डालने का । होली टोली मुहल्ले के सब कुँवारों की ही होती थी सबकी अनिवार्य सदस्यता थी ,ये लड़के बड़े बड़े ठेलों पर हर परिवार से लकड़ी घास कंडे रुपये ,माँगते
_"ल्याओ माई ऊतरा ,जीबैँ तोरे पूतरा
,
तभी कोई भीड़ में नीचे छिपकर बैठ जाता और चीखता
~~"ल्याओ मताई कंडा ,जीयेँ तुमाए संडा "
~
~
हँसी मजाक नकली क्रोध के बीच ठेले भर भर कर मैदान में जमा होते और रुपयों से रंग मिठाई नारियल पूजन सामग्री गुलाल भांग बादाम पिस्ते  काजू किशमिश आते ,
,
होली पूजन मुहल्ले का सबसे बूढ़ा पंडित करता ,बीच में लंबा ध्वज लगता ,दहन के समय सब पूजा करते और आग लेकर घर जाते ,
उस आग पर आँगन में ""छल्ले पिरोये बरबूलों पर आग जला कर बिना तवे की "गकरियाँ बनती ,यानि हथपथी रोटी ,जिनपर घी पोतकर गुड़ के साथ सब प्रसाद लेते ,
,
उधर होलिका जैसै ही ध्वज गिराती पंडितजी शकुन विचार करते ,
,
और प्रारंभ हो जाता ""गा गा कर कुँवारों का गाली देना सब को बिना बड़ा छोटा विचारे ""
,
दूसरे दिन खाट पर होली का राजा गले में जूते सिर पर झाड़ू मुँह पर लाल पीले रंग पहने टाँग कर बारात निकलती ,
,
कोई लड़का लुँगरा फरिया यानि बुन्देली घना घाघरा ओढ़नी पहन कर स्त्री बन जाता और घर घर रंग बाँटते मिठाई प्रसाद बाँटते वह सब चंदे का खरीदा रहता ।
लड़कों की लूट का शिकार खड़ूस लोग होते जिन्होंने चंदा तो दिया नहीं और होली के दिन किवाड़ बंद करके बैठ गये ,उनको जमकर गीत मयी गालियाँ और होली कीचड़ राख के थापे मिलते ,
जिसको साफ करने को अगले दिन मेहतर लोग दुगुने दाम वसूलते ,सब हँसते बस क्या करते ,
बापू को होरी का भयंकर शौक था
,फाग पार्टी कई हजार रुपये देकर तब बुलवाते ,और सैकड़ों गिलास भाँग चलती ,बाद में सबको रुपये देते और मजमा लग जाता दूर दूर तक के गाँवों के नातेदार होरी की हमारे परिवार की फाग पार्टी की सभा देखने आते ,तब ""लेखराज सिन्धी की फाग मंडली बहुत प्रसिद्ध थी और नर्तक स्त्री वेश पुरुष वेश में तबले सारंगी बाँसुरी झाँझ मँजीरा पर जमकर बिलंबित से प्रारंभ होकर द्रुत के चरम तक नाचते ,
,
तब रुपये बरसाना अपमान समझा जाता था थाल में गुलाल के साथ धर कर नजराने दिये जाते ,
,
भाँग चढ़ती तो कोई एक ही धुन में मगन हो जाता ,
,
एक परिवारिक मित्र थे भाई के सहपाठी चुपके से अधिक गटक गए .....
बाद में पूरी रात रोते रहे ,,,दाऊ साब ,,हमाए पाँव बढ़ रए यार कछू करो .....अपने पाँव देखते और रोने लगते ,
हम सब हँसते तो और रोने लगते ,
,
एक बार हमने भाभीसा को चटनी कहकर भाँग चढ़वा दी .....परदों वाले दिन थे तब साड़ी पर भी शाल पहनतीं थी बहुएँ ..... सुबह भाई कह रए ,हद है पागलपन की ,,,,पूरी रात हँसती रही ,,कभी गाने लगती कभी नाचने हुआ क्या है ?हम चुप ,कि ये अधिक हो गया कहीं डाँट न पड़े परन्तु तब असत्भाषण की संस्कृति नहीं थी सो सिर झुकाकर डरते हुये भी सच कह दिया ,
अब पड़ा तमाचा सोचकर चुप थे कि सब हँसने लगे ,
बोले लेओ जू ,जौ भई साँसऊँ की होरी ,,,,
माँ की दूर पास की बहिने आतीं ,बापू का जोकर बन जाता चुपचाप कठपुतली बने रहते कोई बिंदा लगाती कोई काजल कोई चोटी बाँध जातीं कोई लुंगरा फरिया ,बापू को बुरा नहीं लगता परन्तु मौसियों के सामने घिघ्घी बँधी रहती ,बुन्देली संस्कृति में स्त्री को पकड़ना छूना तब तक नहीं था ,पुरुष सिर झुकाए जैसा नचातीं वैसे ही नाचते रहते ,गारीं गातीं तो खिसिया कर मुसकरा देते ।
मौसिया  कहती हमाई दुलैया मूँछन वारी ,
और बापू ही नहीं सब पुरुषों का हाल बेहाल बनता । बड़े से हौद में कौन कब डुबो दिया जाये पता नहीं ,
फिर सबको जी भर कर पकवान मिलते । हर रोज रंग पंचमी तक यही रंग चलता ,गीले रंग बंद हो जाते ,

एक बार बापू उस बुन्देली होली के धोखे में ऐसे ही चुपचाप एक बृज चंबल की सीमा वाले गाँव में पटेल के घर होली पर चले गये ,पहले सबने जिमाया ,फिर रंग लगाया बापू चुपचाप बैठे रहे जबकि सब पुरुष पराँत थाली सिर पर रखकर भागे ,तभी पाँव पीठ पर लट्ठ पड़ने लगे ,बापू भौंचक्के ये क्या ,असभ्यता है ,अगले ही पल घूँघट वाली बहुयेँ पाँव छूकर बडडी स्त्रियाँ टीका लगाकर रुपयों के साथ मिठाईयाँ दे रहीं थीं ,पिट कुट कर स्वागत की यह होरी जब हम सकबको सिकाई कराने के साथ सुनने को मिली सब लोटपोट हो गए ।माँ का चेहरा इतना कोमल था कि चंदन अबीर लगाते भी लगता कहीं खरोंच न लग जाये ,चाँदी जैसे बाल उनके सचमुच जब तक हो गए तब तक भी हम माँ को ही सबसे पहले पीला टीका लगाते रहे ,माँ गईँ तब से होरी ही गई ,जी ही नहीं करता न गाने का न ही हुरियाने का ©®सुधा राजे शुभ रात्रि

Wednesday 27 February 2019

संस्मरण: सुधा विषपायिनी

मोरी की होरी
(संस्मरण ':सुधा राजे
आगरा मुंबई राजपथ पर है सोनचिरैया अभयारण्य क्षेत्र ,द ग्रेड इंडियन बस्टर्ड ,वहीं माधव नेशनल पार्क है ,वहाँ कुछ वर्ष रहे बचपन में बुन्देली होली बहुत रचनात्मक शांत बहुत मर्यादित बहुत गीत संगीतमय होती थी ,जहाँ रंग को देखकर स्त्रियाँ भागतीं नहीं नीचे उकड़ूँ बैठ जातीं और पुरुष बिना स्पर्श के ही रंग से नहला देते या पिचकारी से रंग डालते छूना वर्जित सा अभ्यास था ,पकवान और मिष्ठान्न के साथ टेसू के फूलों का अर्क केसर मिलाकर तैयार होता ,हलदी को गरमपानी में पकाकर रंग बनते बथुए के रंग बनते और अबीर ईँगुर के रंग बनते ,हर सान्ध्य वेला में मन्दिरों में विशाल दिवाले पर चौक में रंग खेला जाता भाँग समानता से भर भर कर पीतल के लंबे गिलासों या मिट्टी के बड़े कुल्हड़ों में स्त्री पुरुष सबको परोसी जाती थाल लेकर किशोर घूमते और घूँघट में सब खाली हो जाते ,कुछ को न लेना हो तो ,नमन करके वापस रख देतीं । नृत्य होता और तेज संगत पर मंजीरा खरताल चीमटा झाँझ झींका लोटा मटका बजता ,#फाग नामक पक्के बुन्देली राग पर होली गीत गाये जाते जैसे .......दसरथ जू के चारउ लाल सखी री ,बाँधेँ मुकुट खेलेँ होरी ,वे तो बाँधेँ मुकुट खेलेँ होरी ,,,,,वे तो दो गोरे दो साँवरे ,,लाला दो गोरे दो साँवरे ,,,अरे हाँ ssssवे तो सब एकई अनुरूप सखी री .....बाँधेँ मुकुट खेलें होरी । सब  स्त्रियाँ दूज के दिन किले  गढ़ी या बड़ी हवेलियों में एक साथ  में होली मनातीं ,जहाँ सामने नहर या हौज या बड़े  तालाब नुमा जलपात्र का जल पूरा रंग से भर दिया जाता इत्र गुलाब पत्तियाँ और टेसू केसर के रंग ,नृत्य गीत जाने माने संगीतकारों का होता ,,,,,,
उसी सब का अभ्यास था किंतु चंबल भद्रांचल की बात ही पृथक ,वहाँ राठौड़ तोमर सिकरवार भदौरिया परिवारों के पत्थर वाले बहुमंजिले भवन तपती चटकती धूम से तपती पाटौर वाले एक दो तीन मंजिले मकान दीवारे अनगढ़ टेड़े मेढ़े पत्थरों की ,हर तरफ पत्थर ही पत्थर , पानी की बहुत कमी भूमि पर लौह अयस्क और लाल मुरम की पतली पतली परतदार प्लेटों वाली कंकरीली मिट्टी जिसमें कांटेदार बेर बबूल इमली धौ करधई कीकर मुनगा और मजबूत कम पानी वाले ही पौधे जी पाते तेंदूपत्ता वनक्षेत्र और वनवासियों का क्षेत्र वे सर्प गोह जंगली सेही हाथों.से पकड़ लेते ,सटीका नामक एक लकड़ी का खटका बच्चे बनाते और खट् से चिडिया बंद हो जाती ,सब प्राय:उघाड़े रहते ,प्रौढ़ स्त्रियाँ पेटीकोट ब्लाऊज नहीं पहनती केवल सूती धोती कसकर दोनों छोर से बाँधे रहतीं , कठोर जीवन ऊँचे नीचे टीले और पर्वतों का पठारी मार्ग हर तरफ रोशनघास या पलाश की पौध काटते लोग ,
वहाँ ,हमारी होली आई और हम उत्साह में सहेलियों की प्रतीक्षा में क्योंकि सबने कह दिया था कि हम आयेंगे रेंज में खेलने , सुबह ही आ धमकी ,हालांकि सब हमसे पाँच पाँच छह छह वर्ष बड़ीं थीं और हृष्टपुष्ट भी कदकाठी में भी श्रमसाध्य जीवन के कारण कद्दावर ,हम तब परियों की तरह बस घर विद्यालय से बाहर कुछ नहीं समझते थे या तो अपने हिरण खरगोश बकरी कुत्ता बत्तख सफेद चूहे तोता चीतल गाय को जानते थे या भोर साँझ की आरती ,वे सब आयीं ,खाया पिया ,और सबने शालीनता से अबीर लगाकर रुपये दिये चरण छुये ,हमें वहाँ की होली टोली में जाने की आज्ञा मिल ही तो गई न जाने कैसे ,,,इस डर से कि कहीं निलंबित न हो अनुमति हम तुरंत खींचते हुये उन सबको बाहर ले आए । एक लड़की शामिल होती टोली बढ़ती जाती हम सब दूसरी के घर पहुँचते वहाँ से तीसरी के इस तरह हमारी टोली बड़ी होती जाती ,सबको रंग गाढ़ा सा लगा हुआ था । तभी टोली सुनील अनिल नाम की दो लड़कियों के घर पहुँची लड़कों वाला नाम है यह कहकर सब उनको चिढ़ाते थे । उनके पिता वनकर्मचारी थे ,बिना सीमेन्ट लगे पत्थरों वाले घर का पानी बाहर द्वार के बगल में एक बड़े गहरे खड्ड में एकत्र होता था जिसे वे लोग "मोरी"कहते थे । सब परस्पर न जाने क्या संकेत कर रहीं थीं ,हमने पूछा तो बोलीं "पप्पो "को रंग से नहलाना है ये पिचकारियाँ छिपा लो ,हम सबने ऐसा ही किया ,परन्तु ये क्या ,पप्पो बाहर आयी हम लोगों ने एकदम फव्वारा बना दिया ,तब ही एकसाथ कई बड़ी लड़कियों ने हमें उठाया डंगा डोली हवा में झुलाया और "मोरी "में धर दिया । हम एकाएक कुछ न समझ पाने के कारण गोते खाने लगे ,ग्यारह बारह की ही तो आयु थी। खिसियानी सूरत लिये खड़े हुये तो काली राख कीचड़ गंदे पानी में कमर तक खड़े रपट रहे थे जैसे तैसे बाहर निकले । तभी पप्पो की माँ बाहर निकल कर सबको डपटने लगी
"लाली सबसे छोटी बईए नाए छोड़ी तुमन ने धद्दऊँगी रैपटौ कनपट्टो हिल जाग्गौ "
बहुत सारा पानी साबुन लाकर हमें नहलाया ,अब खाते किस मुँह से मन तो खिसिया रहा था भद्द पिट गई सबके सामने बड़े आए होरी वाले ,ले हो गई होरी ,नहा लिए कीचड़ में छि छि छि ,जब तक सोने का पानी गंगाजल से न नहाएँ कुछ खाएँ पिएँ कैसे ,कदाचित पप्पो की माँ ने समझा और कुंडल भिगोकर पानी डाला गंगाजल डाला और तब कुछ खाया । पप्पो की तो उसी वर्ष शादी हो गयी । इंदिरा रत्ना ऊषा अर्चना अनीता माधवी .........बहुत से नाम भूल गये  न जाने कहाँ होंगी किंतु वह "मोरी "की होरी नहीं भूली ©®सुधा राजे

दोहे: सुधा दोहावली

#MyYogyAadityaNath ji
जोगी तेरे जोग ने जोरी होरी फाग
या नूँ कैबे बाबरा ,या नूँ कहे विहाग
ठाठ फकीरा जोगिया निपट निडर नि:शंक
जोगी तू कासौँ डरै तो सौँ डर बै कंक
,रंग बिरंगे थार में रोरी रंग अबीर
जोगी तेरे जोग में गोरख सूर कबीर
जाकौँ भाबै रंग सो रंग हि रंग लगाए
जो निरंग निरमन रहे सो क्यों रँग विच आए
गूढ़ हृदय की मूढ़ मन ,तन की कूढ़ निकार
जोगी तू भवबंध तजि ,दै सब मोह विकार
©®सुधा राजे

Monday 25 February 2019

लेख:पश्चिमी उत्तरप्रदेश, जैसा मैंने देखा, एक एलियन की दृष्टि से

#YogyAadityaNathJI
पश्चिमी उत्तरप्रदेश :जैसा मैंने देखा ;एक एलियन की दृष्टि से
.....कथा एक प्रवास की ,(सुधा राजे )
अगली किश्त ......25/2/2018/

नशे और हिंसा की गिरफ्त में जकड़ा हरा भरा क्षेत्र
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आप जब कहीं भी इस क्षेत्र में सड़क या रेलमार्ग से निकलें तो एक पौधा सर्वत्र दिखाई देता है "भाँग" जिसे विजया भी कहते हैं ,बरसात के बाद पूरा क्षेत्र भाँति भाँति के खर पतवार से भर जाता है जिसमें "भाँग ,पटेरी ,फूस ,पार्थेनियम यानि गाजरघास ,अरंड ,आक मदार और विविध प्रकार की घास है । स्थानीय लड़के हर आयु के जब देखो तब भाँग का पौधा मल कर रगड़ते रहते हैं दोनों हथेलियों से ,रस जब हरा हरा चिपक जाता है तो बालों पर पोत लेते हैं ,फिर रगड़ते हैं ,और जब वह रस सूख जाता है तब गोली सी बनाकर चिलम या बीड़ी सिगरेट हुक्का आदि में धरकर पीते हैं ,इसे "सुल्फा "कहते हैं दस वर्ष से नब्बे वर्ष तक के श्रमिक कारीगर कृषक मजदूर अधिकांश या तो सुल्फा पीते मिलते हैं या गाँजा ,शेष को देसी दारू ऐसे है जैसे चाय पानी रोज की बात । दो दशक पहले हमने इस क्षेत्र में शराब की दुकानें घनी बस्ती मुहल्लों आदि से हटवाने के लिये आंदोलन प्रारंभ किये थे तब सोशल मीडिया नहीं था डायल वाले एक्सचेंज के नियंत्रित फोन चलते थे फिर अखबारों में हमारे सामाजिक सुधार अभियान सुर्खियों में रहे और सब को आश्चर्य भी लगता था कि "स्त्री?वह भी इस क्षेत्र की !!ये कैसे संभव है । कारण यही कि तब तक स्त्रियाँ या तो काले बुरके और लंबे घूँघट में बंद रहतीं थीं या गन्ना छीलने ,गेहूँ काटने ,निराई गुड़ाई करने घास लकड़ी लेने मुँह छिपाकर जंगल खेत जातीं थीं । सन्ध्या होते ही पुरुष शराब में धुत्त होने जगह जगह झुंड बनाकर पीने और झगड़ने लगते ,और रात होते ही घर घर से मारपीट चीखपुकार रोने कलपने की आवाजों के साथ भीषण गंदी गालियाँ हवा में कौंचने लगतीं ,अकसर किसी न किसी परिवार में सुबह कोई या तो पुलिस चौकी पहुँच जाता या झोलाछाप डाॅक्टर के पास । इन दो आँखों से यह सब देखा भी और मरहम पट्टियाँ भी कीं कभी सिर फोड़ लिये भाईयों की कभी ,नीले हरे दाग लिये कराहतीं मजबूर स्त्रियों की । असहनीय पीड़ा सहतीं उन सब स्त्रियों की एक एक कहानी दर्द का पूरा महाकाव्य है , गुस्सा उस दिन फट पड़ा था जब नंगे होकर शराबियों ने छत पर उत्पात मचाया और बस्ती की मजबूर स्त्रियों ने पुराने कपड़ों की दरी पर लेटी लड़कियों को भरी गरमी में कोठरी में सुलाया ,आधी रात को वे सब मेरे पास आयीं ,और शराबियों से पिटीं कुटीं सैकड़ों स्त्रियाँ भभकर रो पड़ीं ,किसी की साड़ी गिरवी रखी थी किसी की पायल किसी के कुंडल तो किसी के बिछुये ,हद तो यह थी कि उनमें एक दो इतने गिर चुके थे कि परिवार की स्त्री तक के साथ होती हद दरजे की अश्लीलता केवल इसलिये सह रहे थे कि वह दोस्त "दारू पिलाता है"। उस बस्ती को जब देखा तो बहुत देर तक रोते रहे हम । फिर दर्जनों गाँवों में यह लहर चल गयी जैसे ही यह पता चला कि हमने वह शराब की हट्टी बस्ती से हटवा दी ,एक के बाद एक गाँव की स्त्रियाँ बागी होती गयीं ,साथ में थे किशोर किशोरी बच्चे , बाद में हम एक सड़क दुर्घटना के शिकार हो जाने पर बुन्देलखंड स्वास्थ्य लाभ के लिये चले गये और वह क्रम नेतृत्व विहीन होकर दिशाहीन राजनीति का शिकार हो गया । ये तब की बात है जब राज्य में बसपा की सरकार थी ।
होता क्या है कि हर वर्ष किसी न किसी प्रकार का चुनाव तो होता ही है । सांसद ,विधायक ,एम एल सी ,पंच ,प्रधान  ,वार्ड मेंबर ,चेयरमैन ,गन्ना सोसायटी, और तरह तरह के मंडल समिति आदि ,इस क्षेत्र की यही विचित्र दुखद परंपरा है कि छोटे से छोटा चुनाव तक लाखों रुपये की सौदेबाजी बन जाता है । चुनाव शुरू होते ही औसतन हर पुरुष नशे में धुत्त दिन हो या रात लड़खड़ाता दिखने लगता है , कहीं कहीं तो नाली में गटर में कीचड़ में घूरे पर कूड़ी पर खेत सड़क बाजार में पसरे शराबी मिल जाते हैं ,और यह बड़ी साधारण सी बात है । लोग निकलते रहते हैं हँसते रहते हैं ,पहले हर एक के पास मोबाईल नहीं था ,अब हैं तो यदा कदा वीडियो फोटो भी बनते रहते हैं और इसकी पकड़ में कभी कभार वरदी वाले भी आ जाते हैं । अब तक इस क्षेत्र का हाल यही रहा है जैसे अघोषित घोषणा हो
""आगंतुक अपनी अपने सामान की अपनी मान मर्यादा नैतिकता की स्वयं रक्षा करें ""
कहने को तो मुसलिम शराब नहीं पीते पीना हराम है ,किंतु आप मजे से शादी वलीमा दावत मीलाद या अन्समारोहों पर जमकर मँहगी या सस्ती शराब पीते हुये उनको भी देख सकते हैं ,बस यह तनिक परदे के भीतर का मामला है सड़क पर कुछ कम नसीब गरीब मुसलमान मिलेगा नशे में ,तो वहाँ गाँजा सुलफा अफीम और हाँ मेडिकल वाली नशा कारक औषधियाँ तो हैं ही । स्त्रियों का भी बहुत बड़ा प्रतिशत बीड़ी हुक्का और घूँघट में शराब पीने का लती पाया जाता रहा है ।
शराब को दवाई "कह देता है कारीगर मजदूर ,क्योंकि बहुतायत रोजगार पुताई या पेंटिंग ब्रुश कारखानों ,सीमेन्ट गोदामों ,रूई धुनाई कताई ,पेपर मिल ,कबाड़ी रिसाईक्लिंग लोहा गलाने की फैक्टरियों ,गैराजों ,खेतों खलिहानों की गहाई कटाई दाँय उसाँय ढुलाई नलाई ,आदि में है। जिनमें बारीक बाल ,धूल ,कण ,रेशे ,आदि कंठ साँसनली में चले जाते हैं ,उनको साफ करके पेट में उतारने से गला साफ रहता है फेफड़ों में नहीं जाती गंदगी ,ऐसा कहकर तर्क देते हैं सब पियक्कड़ । इन कारखानों में नाबालिग बच्चे भी बहुतायत काम करते है, हमने छोटे छोटे प्रयास चुपचाप तंत्र को सूचना देकर ,लिखकर ,समझाकर किये तो कुछ हद तक सफल भी हुये परंतु अपना नाम हम नहीं ला सकते थे तब सामने ,और दायित्व बहुत थे ,सो यह कार्य पूरा नहीं हो सका ,आज भी ,बच्चों के नाम तो स्कूल में लिख जाता है परंतु जाते वे कारखानों में ही हैं वह भी आधी मजदूरी पर ,और यह कहने की शर्त पर कि यहाँ मजदूर नहीं हैं काम सीख रहे हैं ,क्योंकि आधी मजदूरी भी तीस रुपये घंटे से बीस रुपये घंटे और पक्का होने पर तीन हजार से पाँच हजार रुपये महीने तक होती है जिसका लालच त्यागना सरल नहीं है ।
नशे की सबसे खतरनाक शिकार कम पढ़ी लिखी किंतु तनिक ठीक ठाक रहन सहन वाली लड़कियाँ हैं ,हमने देखा कि नर्स का काम सीख रही एक लड़की ,जब हम एक अधिकृत चिकित्सक के यहाँ भर्ती थे तब स्वयं ही अपने हाथ पर इंजेक्शन लगा रही थी ,वह दवाई जो प्रसव पीड़ा के अतिशय दर्द होने की भयानकता पर तनिक राहत के लिये लगाया जाता है । कुछ मेडिकल स्टोर   जिनके संचालक प्राय:कम पढ़े लिखे हाईस्कूल या इंटर तक पढ़े लड़के हैं ,लायसेंस तो होलसेल का है ,बेचते दवाई रिटेल में हैं ,नशे के तत्व वाली खाँसी की दवायें ,एनलजिसिक और प्रतिबंधित दवायें जो केवल चिकित्सकीय परामर्श से ही दी जा सकतीं है ,सीधे ही माँगने पर दे देते हैं ,एक लड़की रोज कई सारी डायजीपाम खा जाती थी ,शादी के बाद आयी मिलने तो हमने पूछा कैसे चल रहा है अब ?बोली चालू है अब नहीं छोड़ सकती ,ये तनिक पुरानी बात है ,परन्तु गुटखा बीड़ी सिगरेट कच्ची पक्की शराब भाँग और नशे की दवाईयाँ ,अनपढ़ मजदूर मेहनत कश छोटे रोजगारों में लगे लोगों में सबसे अधिक हैं । मज़ाल है कि बाराती रवाना हो लें जब तक मूलाधार से नाक तक दारू न ढँकोस लें । बारात की घुड़चढ़ी दूल्हे के घर से ही विलंबित चलने की परंपरा ही दारूबाजों की मेहरबानी से है और यही सबसे आकर्षण की शै है शादी में जाने की उनके । लड़की वालों के दरवाजों पर बारात डेरे से सजकर निकलती बारात घंटों पागलों की भाँति नाचती सड़क पर लोटपोट होती लड़कों की प्रतियोगिता बन जाती है कि कौन कितनी पी सकता है कितना कूद कर लोटकर नाच सकता है कितनी देर तक सड़क पर लोट पोट हो सकता है कितनी अश्लीलता कामुकता अभद्रता दिखा सकता है । बाराती पियक्कड़ों का नाच देखने लायक तक नहीं होता न बच्चों के देखने लायक फिर भी स्त्रियों के लिये वही छिपकर देखने का मनोरंजन है और लड़के तुक तुक कर देॆकते हैं कहाँ लड़की है कोई ,उसी जगह फिर लोटपोट नंगई ,। गीत तो चलते ही हैं हरियाणवी पंजाबी और सिनेमाई अश्लीलता के परम अमर्यादित बोलों वाले तो युवक क्या बूढ़े तक कपड़ा फाड़ डांस करने लगते हैं । इधर कुछ वर्षों से डीजे अवतार हो ही गया है सो वहाँ जयमाला स्टेज के सामने यदि डी जे नहीं लगाया तो बारात लौटती तक देख ली हमने । डी जे पर बारात आते ही ततैया काटे वाला पागल डांस चालू हो जाता है ,जिसमें जमीन पर कपड़े उतारकर लोटना सबसे चरम गति है ,। इसी में अब दूल्हा निकासी पर घर की स्त्रियाँ भी नाचने लगीं है ,और दुलहन के दरवाजे पर भी बारात में जाने वाली स्त्रियों का नाच जमकर वीडियो लुटते रुपये और रुपये सिर पर लगा लगा कर खिंचते फोटो एक अजीब सी अशालीन अपारंपरिक आधुनिकता के नाम पर गृहिणी कमपढ़ी लिखी बेडौल  स्त्रियों का अभद्र नाच बनकर रह गया है ,जिनकी वीडियो ,दूसरे परिवारों से आये मित्र मेहमान आगंतुक राहगीर बनाकर उसपर अश्लील गाना सेट करके अपना भी मनोरंजन करते हैं बाद में ऐसे घरेलू वीडियो यदा कदा सोशल मीडिया पर भी देखे जा सकते हैं ।
नशा एक और बढ़ता कदम फैलाता कारोबार हो चुका है स्थानीय लोगों का पंजाब कनेक्शन ,सीमापार आवागमन । बहुत से परिवारों के लोगों का रोजगार पंजाब की चीजों से चलता है और वे वहाँ आते जाते रहते हैं ऊनी कपड़े ,इलेक्ट्रोनिक्स ,बाल ,पशुचर्म पशु ,माँस ,शराब, कपड़े, साग सब्जी ,कृषिउपज आदि ,और जाते रहते हैं कश्मीर सीमांत क्षेत्रों तक ,सेविनसिस्टर्स प्रांत यानि पूर्वोत्तर के सात राज्यों तक ,राजस्थान के सीमान्त तक और बंगाल बिहार महाराष्ट्र अरब देशों तक ,कभी माल बेचने कभी कच्चा माल लाने ,कभी माल सप्लाई का आॅर्डर लेने तो कभी मजहबी उपदेश प्रचार की जमातों धर्मयात्राओं आदि में ।शिक्षा के लिये बहुत कम ही परिवारों से लोग इस प्रांत से बाहर निकलते हैं अपितु शिक्षित उच्च शिक्षित लोग येन केन प्रकारणेन इस क्षेत्र से बाहर निकलने को छटपटाते रहते हैं । यह विडंबना ही है कि कृषि और गाँव का घर तक बेचकर उच्च शिक्षित लोग बेहतर माहौल की तलाश में इस क्षेत्र को एक एक करके छोड़ देते हैं दिल्ली से दुबई तक मुंबई से लंदन तक प.उ.प्र. का मूल निवासी मिल सकता है । कारण यह है कि इस माहौल को बदल पाना किसी एक दो के वश की बात ही नहीं । अब तक भी बिजली ही पूरी नहीं आती अब से पहले तो सप्ताह सिस्टम था ,एक सप्ताह रात को बिजली आती थी एक सप्ताह दिन को बिजली आती थी वह भी मात्र आठ से दस घंटे । एक दो समस्या हो तो कोई सुधारे ,जब सारा का सारा क्षेत्र ही अभ्यस्त हो अवैध खानपान रहन सहन गंदगी अश्लीलता कट्टपन स्त्री बच्चों पर हिंसा गाली झगड़ों का तब ,यह सुधार व्यवस्था और तंत्र की सहायता के बिना पूरा नहीं हो सकता । क्योंकि इसे सदियों से ऐसा जानबूझकर बनाया जाता बने रहने दिया जाता रहा है । हम दम ठोक कर कह सकते हैं कि यहाँ चुनाव प्रत्याशी रात रात भर मिठाई शराब कपड़े सामान रुपये और जमकर खुलेआम पंडाल में दावतें देते रहते हैं । एक मामूली वार्ड मेंबर तक प्रति व्यक्ति हजार से दो हजार रुपये तक व्यय कर देता है । पुलिस किसे किसे और कहाँ तक पकड़ेगी ,पुलिस के लोग तो स्वयं ही इसी क्षेत्र के निवासी हैं और उनको भी कुछ अचंभा नहीं लगता ,वैसे काररवाही के नाम पर कुछ पेटियाँ शराब जब्त करके दिखा दी जातीं हैं ,हमारी गुमनाम सूचना पर ,और सभा में सामने दी गयी चुनौती तथा सलाह पर ,कुछ झल्लाये हुये पुलिस वालों ने एक दो रुपयों की पेटी और फल मिठाई भी पकड़े कहीं कहीं ।परन्तु एक साफ सुथरा बिना नशे का बिना दारू पिलाये बिना दावतें खिलाये चुनाव करवाना ,इस क्षेत्र में फिलहाल तो असंभव ही है इसीलिये सारे भाषण तर्क वितर्क जागृति सभायें बेकार हो जातीं हैं क्योंकि ,चुनाव तो आखिरी रात को हुयी गुटबंदी और कुल पहुँची शराब रुपयों खेप उपहार कपड़े और सामान पर ही होता है ,उन वोटरों को मतलब ही नहीं कि चुनाव बाद प्रत्याशी क्या क्या कर सकता था उनके कल्याण के लिये जो वह अब नहीं करेगा क्योंकि सीधी गिनती है ,न जाने क्या करे क्या न करे "वोट की कीमत तो एडवांस में ले ही लो "ऐसे ऐसे नाज नखरे दिखाते हैं वोटर कि जी यहाँ काश तानाशाही ही सही होती ,पचास कदम की दूरी तक के लिये वाहन भिजवाये जाते हैं और लड्डू पेड़े रसगुल्ले एक से अधिक एक प्रत्याशी सरे आम बाँटता जाता है । नशे का आदी इस तरह चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी ही बनाता है ,क्योंकि दो तीन महीने जमकर मुफ्त शराब पीने को मिलती है तब ,हर चुनाव में वोटर सब काम छोड़कर हर शाम सुबह पीता रहता है ,बच्चे तक नारे लगाने पोस्टर चिपकाने विरोधी पोस्टर उखाड़ने और परिवार को चुपचाप सामान भिजवाने वाले एजेंट बनकर मिठाई कोल्ड ड्रिंक ही नहीं शराब भी चखते रहते हैं इस तरह जब लत पड़ जाती है दो चार महीने की मुफ्त से तब ,मजदूरी का आधा धन ,शराब की हट्टी पर जाने लगता है ,फिर कोई चुनाव और फिर कोई दारू का मुफ्त दौर .....©®सुधा राजे