Sunday 10 February 2019

लेख संस्मरण:एक सुधा विषपायिनी

सिलबट्टे वाली मेंहदी
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किसने किसने रचायी पीसी ?

सावन के दिन जब आते थे कभी हम बचपन की सखियाँ ढेर सारी मेंहदी के पत्ते सुरूट कर झोली भर लाते । कुटुम्ब के सब भाईयों की लाड़ली थे सो सबको मिलकर हमारे लिये मेंहदी पीसनी पड़ती सिलबटे को औंधा करके या कहीं चपटा नीला बड़ा पत्थर खोजकर उसपर मेंहदी पिसती । गृहसहायकों से यह काम हमें कराना पसंद नहीं था कि सुना था जो मेंहदी पीसे वही सबसे प्यारा भाई ।यह मेंहदी पीसने में सब फेल हो जाते तब ममेरे भाई जो छहफीटे पहलवान थे जनमजेठे 'दाउसाब मेंहदी पीसते औऱ इस तरह सब के हाथ लाल हो जाते । दाऊसाब तो बरसाती जूतों में मेंहदी भरकर सो जाते पहन कर ठंडक के लिये और पांव लाल हो जाते ।तब लोग आसपास मेंहदी तुलसी नीम आंवले लगाये रखते थे ।
तब बच्चे तो थे फिर भी सृजनशीलता थी सो हम और सखियां मिलकर फूल पत्ते सुरांती चौक हथेलियों पर रखते ,कहीं कहीं चंदा चपेटा तारे सूरज रखते । तब ये कोन या पुंगी पन्नी पाॅलिथिन कहीं थी तक नहीं, कभी कभी मधुमक्खी के छत्ते की मोम से फूल बनाकर थोपा लगा लेते और रिक्त जगह स्टेन्सिल की तरह रच जाती । महीनों तक लाल हाथ रहते । हमें मेंहदी लगाये रखना देर तक आफत लगता सो बीच बीच में कुरेदकर देखते कि रची कि नहीं और कहीं खेल कूद का समूह आ गया तो कहां की मेंहदी और भाग देते चौकड़ी के साथ पीली मेंहदी रह रह जाती तो मुँह बनाते कि हमारे सब भाई गंदे हमें प्यार ही नहीं करते । तीन दरजन भाईयों की लाड़ली बहिन होना क्या कम आफत रहता तो कभी कोई तो कभी कोई भाई रूठता मनाता झगड़ता रहता प्राय:बड़े भाई तो कम परंतु छोटे बहुत हलकान रहते मेहदी रची कि नहीं ।किसी दिन फुफेरे बड़े आये और कह दिया छोटे से कि मेंहदी चूमने से रचती नहीं बस छोटे आये और चूम ली मेंहदी ,अब हमने आग बबूला होकर हथेलियां रगड़ लीं और टप टप आँसू ,उधर छोटे के मुख का वानर सेना जैसा हाल हो गया ,सब बड़े हँस रहे और हम दोनों बहस कर रहे .........................
........सावन की यादें साझा करते मन वहीं बचपन की पत्तियाँ सुरूट रहा है

तब कोई कह देता भिंडी का रस डालो ,कोई कहता कत्था ,और भब्सा साब की पानदान वाली कत्थे की कटोरी रीती हो जाती ।
तो कभी बैठकर भिंडिया कतरकर रस निकालते ।
एक बार किसी ने कह दिया गौरैया की बीट डाल लो ,तो बस खोजने लगे हर जगह गौरैया की बीट ,तब बड़ी बड़ी तसवीरें फ्रेम करवाकर इस तरह टाँगी जातीं कि पीछे त्रिकोणाकार रिक्त जगह पर गौरैया घोसले बना लेतीं ,
तसवीरों के पास रोज सुबह शाम देखते कि कहीं मिली चिड़िया की बीट ,बड़ा कठिन कार्य होता ।कोई कह देता पेट्रोल मल लो हाथ पर तो बुलट की प्रतीक्षा होती दाऊसाब की आते ही बहानों से झाड़ू की सींक पर रुई लपेटकर पेट्रोल निकाल कर हाथों पर मलते । जब पूछा जाता कि किसने खोली टंकी तो साफ मुकर जाते ।
परंतु हाथों की गंध सारा भेद खोल देती ।

एक चतुरानी ने कह दिया काले कचारे पीस कर मिला लो ,तब किंचित  मोटी काली चूड़ी नववधू को मायके में पहनाते थे कालिका को चढ़ाते ,
सो काले कचारे पर बहस हो जाती ,हमारा दिमाग कहता कांच है ,चतुरानी सखी कहती उसने बड़ी ज्ञानिन से सुनी गलत हो नहीं सकता ,परंतु कचारा नहीं मिलता जल्दी तो बात मुल्तवी हो जाती
दालें फूल के डिजायन में चिपकाकर भी थेपा लगाकर डिजायन उकेरे जाते ,
बाद में एक जैन लड़की थी घाटीगांव में होटल चंद्रलोक के पास उनकी मां तो नहीं थी परंतु लड़कियां चतुर सुघर थीं उन्होंने मेहदी माढ़ी बारीक परंतु तब भी सुई की नोंक ही से ।
तब पाॅलिथीन का अता पता ही कब था ,पहली बार निरमा और गुटखा से पन्नी ताड़काजू का भारत प्रवेश हुआ

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..सावन की मेंहदी हो सके तो देसी पत्तीवाली ही लगायें ,,चाईनीज मेंहदी से सीमापर खड़े किसी बड़े छोटे भाई का मन न जलायें
©®सुधा राजे

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