अब भी सहरा में आँसुओं
की नदी बहती ह
बर्फ़ सरहद पे गिरी
गाँव" वो"सिहरती है
ख़ून में
लिपटा तिरंगा वो जिस्म
कद्दावर
बर्फ़ में दफ़्न
हरी वर्दियाँ बिखरती हैं
धुंध कोहरे को चीरते
वो लफ़्ज़ "जय भारत"
वो सफेदी पे लाल बारिशें
बरसतीं हैं
वो झुर्रियाँ वो आँखें
धुँधली हुयी रो -रो के
थरथराती वो थकाने
जो रोज़ मरतीं हैं
सफेद थान में
जिन्दा वो लाशें तन्हा हैं
वो "किलक" मुफ़्लिसी में
जो यतीम पलती है
वो उड़ाने जो मय्यतों पे
लायी आबादी
वो ज़नाज़े जो बरातें
भी रश्क़ करतीं हैं
वो सख्त सर्द
हवा जख्मी सिपाही कोहन
वो चिट्ठियाँ लहू से धुल के
अश्क़ भरतीं हैं
वो आँसुओं से तर-ब-तर भिंचे
नरम तकिये
कलाई सूनी रजाई खनक
पिघलती है
आह वो आग वो दिल
ज़िस्मो -ज़ां ज़मीर जले
वो ख्वाहिशें जो गर्म ख़ून
में मचलतीं हैं
वो गर्म गर्म बयानों पे
सियासत ठंडी
वो सर्द फर्ज़ राहतें फ़रेब
करतीं हैं
वो ख़ैरख्वाह वो ग़ंज़ीने
कहाँ गये बोलो? ?
अब भी बंदूक वो सरहद पे यूँ
ही चलती है
वो राखियाँ समाधियों पे
हिचकियाँ रखतीं
वो डोलियाँ जो बिना भाई
के निकलती हैं
वो आईने पे चाक़ चूर लहू
की बिन्दी
वो अपने खून से ज़र-बर्क़
माँग भरती है
आग बारूद वो संग़ीन
वो चमक़ लाशें
वो गली उँगलियाँ जलती बरफ
अकड़तीं हैं
सर्दियाँ वर्दियाँ ठंडी बरफ़
घने कोहरे
शबनमें चश्मे "" सुधा"" उफ्फ
चिनाब जलती है
©®सुधा राजे
Sunday 3 February 2019
गजल: अब भी सहरा में आँसुओं की नदी बहती है
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