कविता: कश्मीर और देश

Sudha Raje
Sudha Raje
दर्द का इक नाम दूजा देश
का कश्मीर है
पीर है पर्वत सरीखी भर
समंदर नीर है
कोई दुस्शासन उसे है
खीचता ही जा रहा
लाज रखने बस बढाता इक
कन्हाई चीर है
काश केसर क्यारियों में
कांगङी फिर से हँसे
खिलखिलायें फिर
शिकारे प्रार्थना बेधीर
है
कौन सा है दर्द
जो कश्मीर ने झेला नहीं
घर से बेघर बुलबुलें हैं
पाँव में ज़जीर है
खून रहबर ही नहीं कुछ
बाँग़बाँ ने भी पिया
है लहू से दामने तर
मामला गंभीर है
क्या खबातीनों के दामन
सिर्फ दुश्मन नोंचते
देख तो लेते पलट
कुछ घर में लुटतीं हीर है
रोटियों पे
बेटियाँ बेची गयीं है
बेक़सां बो गये बंदूक
की फ़सलें सियासत मीर है
सुर्ख शर्मीले बदन पर
जुल्म की हैं लाठियाँ
दर्द सरहद पार
जाता बेवफा तकदीर है
उफ्"सुधा"आबेहयातीं
खून में जमता चिनाब
नफरती बारूद से
जलता लिये
शमशीर है
चुटकियों में मसअला ये
हल तो हो सकता है पर
है सलब सच को वहाँ
झूठ की ताख़ीर है
रो रही डलझील शालीमार आहें भर रहा
हाये दिल्ली क्या कहूँ
किसकी तू ख़बरग़ीर है
सोणियों को खींच के ले गये हवस के भेङिये
हाय नन्हें हाथ में बम है औ खंज़र तीर है
दर्द का इक नाम दूजा देश
का कश्मीर है
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