कविता: प्रकृति, दिन ढल रहा

ढल रहा, ,,,दिन ढल रहा । फिर
अंततः दिन ढल रहा """"""""
द्रुम-शिखर रवि रश्मियाँ रव
नृत्य कुंजन खग निकर ।
जांगुलिक उर बीन फूँके मत्त
विरहा फणि मुखर।
जलधिका जल अर्क जल आवर्त मन
क्षिति छोर पर ।
मिल अरूण चलता बिछुङता इंदु
लोचन मल रहा
ढल रहा दिन ढल रहा फिर
अंततः दिन ढल रहा
©®¶©®¶Sudha Raje
Dta/Bjnr

साँवली संध्या अचंञ्चल दीप उडुगन
सीँचकर ।
धेनुवत्सों जननि शिशुओं
के मिलन हृद भींच कर ।
शांति वाचन देवनिलयारार्तिक
दृग मींचकर
सुमिर साधन ब्रह्म आराधन
इला जल-थल रहा
ढल रहा दिन ढल रहा फिर
अंततः दिन ढल रहा

झाँकते अवगुण्ठनों से
नयन आकुल   पंथ पर ।
प्रिय प्रतीक्षा मिलन इच्छा दर्श तृष्णा   कंत हर ।
नवयुगल लेते वचन लुक--
--छिप प्रणय हृत्ग्रंथ पर
सुप्त कंजों में भ्रमर दृगबिंब प्रियतम पल रहा
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Sudha Raje

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Sudha Raje

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