Wednesday 27 February 2019

संस्मरण: सुधा विषपायिनी

मोरी की होरी
(संस्मरण ':सुधा राजे
आगरा मुंबई राजपथ पर है सोनचिरैया अभयारण्य क्षेत्र ,द ग्रेड इंडियन बस्टर्ड ,वहीं माधव नेशनल पार्क है ,वहाँ कुछ वर्ष रहे बचपन में बुन्देली होली बहुत रचनात्मक शांत बहुत मर्यादित बहुत गीत संगीतमय होती थी ,जहाँ रंग को देखकर स्त्रियाँ भागतीं नहीं नीचे उकड़ूँ बैठ जातीं और पुरुष बिना स्पर्श के ही रंग से नहला देते या पिचकारी से रंग डालते छूना वर्जित सा अभ्यास था ,पकवान और मिष्ठान्न के साथ टेसू के फूलों का अर्क केसर मिलाकर तैयार होता ,हलदी को गरमपानी में पकाकर रंग बनते बथुए के रंग बनते और अबीर ईँगुर के रंग बनते ,हर सान्ध्य वेला में मन्दिरों में विशाल दिवाले पर चौक में रंग खेला जाता भाँग समानता से भर भर कर पीतल के लंबे गिलासों या मिट्टी के बड़े कुल्हड़ों में स्त्री पुरुष सबको परोसी जाती थाल लेकर किशोर घूमते और घूँघट में सब खाली हो जाते ,कुछ को न लेना हो तो ,नमन करके वापस रख देतीं । नृत्य होता और तेज संगत पर मंजीरा खरताल चीमटा झाँझ झींका लोटा मटका बजता ,#फाग नामक पक्के बुन्देली राग पर होली गीत गाये जाते जैसे .......दसरथ जू के चारउ लाल सखी री ,बाँधेँ मुकुट खेलेँ होरी ,वे तो बाँधेँ मुकुट खेलेँ होरी ,,,,,वे तो दो गोरे दो साँवरे ,,लाला दो गोरे दो साँवरे ,,,अरे हाँ ssssवे तो सब एकई अनुरूप सखी री .....बाँधेँ मुकुट खेलें होरी । सब  स्त्रियाँ दूज के दिन किले  गढ़ी या बड़ी हवेलियों में एक साथ  में होली मनातीं ,जहाँ सामने नहर या हौज या बड़े  तालाब नुमा जलपात्र का जल पूरा रंग से भर दिया जाता इत्र गुलाब पत्तियाँ और टेसू केसर के रंग ,नृत्य गीत जाने माने संगीतकारों का होता ,,,,,,
उसी सब का अभ्यास था किंतु चंबल भद्रांचल की बात ही पृथक ,वहाँ राठौड़ तोमर सिकरवार भदौरिया परिवारों के पत्थर वाले बहुमंजिले भवन तपती चटकती धूम से तपती पाटौर वाले एक दो तीन मंजिले मकान दीवारे अनगढ़ टेड़े मेढ़े पत्थरों की ,हर तरफ पत्थर ही पत्थर , पानी की बहुत कमी भूमि पर लौह अयस्क और लाल मुरम की पतली पतली परतदार प्लेटों वाली कंकरीली मिट्टी जिसमें कांटेदार बेर बबूल इमली धौ करधई कीकर मुनगा और मजबूत कम पानी वाले ही पौधे जी पाते तेंदूपत्ता वनक्षेत्र और वनवासियों का क्षेत्र वे सर्प गोह जंगली सेही हाथों.से पकड़ लेते ,सटीका नामक एक लकड़ी का खटका बच्चे बनाते और खट् से चिडिया बंद हो जाती ,सब प्राय:उघाड़े रहते ,प्रौढ़ स्त्रियाँ पेटीकोट ब्लाऊज नहीं पहनती केवल सूती धोती कसकर दोनों छोर से बाँधे रहतीं , कठोर जीवन ऊँचे नीचे टीले और पर्वतों का पठारी मार्ग हर तरफ रोशनघास या पलाश की पौध काटते लोग ,
वहाँ ,हमारी होली आई और हम उत्साह में सहेलियों की प्रतीक्षा में क्योंकि सबने कह दिया था कि हम आयेंगे रेंज में खेलने , सुबह ही आ धमकी ,हालांकि सब हमसे पाँच पाँच छह छह वर्ष बड़ीं थीं और हृष्टपुष्ट भी कदकाठी में भी श्रमसाध्य जीवन के कारण कद्दावर ,हम तब परियों की तरह बस घर विद्यालय से बाहर कुछ नहीं समझते थे या तो अपने हिरण खरगोश बकरी कुत्ता बत्तख सफेद चूहे तोता चीतल गाय को जानते थे या भोर साँझ की आरती ,वे सब आयीं ,खाया पिया ,और सबने शालीनता से अबीर लगाकर रुपये दिये चरण छुये ,हमें वहाँ की होली टोली में जाने की आज्ञा मिल ही तो गई न जाने कैसे ,,,इस डर से कि कहीं निलंबित न हो अनुमति हम तुरंत खींचते हुये उन सबको बाहर ले आए । एक लड़की शामिल होती टोली बढ़ती जाती हम सब दूसरी के घर पहुँचते वहाँ से तीसरी के इस तरह हमारी टोली बड़ी होती जाती ,सबको रंग गाढ़ा सा लगा हुआ था । तभी टोली सुनील अनिल नाम की दो लड़कियों के घर पहुँची लड़कों वाला नाम है यह कहकर सब उनको चिढ़ाते थे । उनके पिता वनकर्मचारी थे ,बिना सीमेन्ट लगे पत्थरों वाले घर का पानी बाहर द्वार के बगल में एक बड़े गहरे खड्ड में एकत्र होता था जिसे वे लोग "मोरी"कहते थे । सब परस्पर न जाने क्या संकेत कर रहीं थीं ,हमने पूछा तो बोलीं "पप्पो "को रंग से नहलाना है ये पिचकारियाँ छिपा लो ,हम सबने ऐसा ही किया ,परन्तु ये क्या ,पप्पो बाहर आयी हम लोगों ने एकदम फव्वारा बना दिया ,तब ही एकसाथ कई बड़ी लड़कियों ने हमें उठाया डंगा डोली हवा में झुलाया और "मोरी "में धर दिया । हम एकाएक कुछ न समझ पाने के कारण गोते खाने लगे ,ग्यारह बारह की ही तो आयु थी। खिसियानी सूरत लिये खड़े हुये तो काली राख कीचड़ गंदे पानी में कमर तक खड़े रपट रहे थे जैसे तैसे बाहर निकले । तभी पप्पो की माँ बाहर निकल कर सबको डपटने लगी
"लाली सबसे छोटी बईए नाए छोड़ी तुमन ने धद्दऊँगी रैपटौ कनपट्टो हिल जाग्गौ "
बहुत सारा पानी साबुन लाकर हमें नहलाया ,अब खाते किस मुँह से मन तो खिसिया रहा था भद्द पिट गई सबके सामने बड़े आए होरी वाले ,ले हो गई होरी ,नहा लिए कीचड़ में छि छि छि ,जब तक सोने का पानी गंगाजल से न नहाएँ कुछ खाएँ पिएँ कैसे ,कदाचित पप्पो की माँ ने समझा और कुंडल भिगोकर पानी डाला गंगाजल डाला और तब कुछ खाया । पप्पो की तो उसी वर्ष शादी हो गयी । इंदिरा रत्ना ऊषा अर्चना अनीता माधवी .........बहुत से नाम भूल गये  न जाने कहाँ होंगी किंतु वह "मोरी "की होरी नहीं भूली ©®सुधा राजे

No comments:

Post a Comment