संस्मरण:एक सुधा विषपायिनी

एक थी सुधा (संस्मरण )
इलाहबाद ...<दूसरी कड़ी >
आनंदभवन की विशाल परिक्रमा से घूमकर कम्पनी बाग से तेज चलते हुये हरे भरे वृक्षों लताओं पुष्पों से लदे प्राचीन शैली के मनमोहक भवनों की काई लगी खंडहर हो रही दरकती भव्य विरासतों की उदास कतारों से होते हुए कर्नल गंज तक यदा कदा ,अहिन्दीभाषी एक लड़की के साथ जो मुँह बोले भाई की पत्नी होने से भाभी भी थी और सहेली भी ,हम लोग गुड़ की तेज गंध से भरी किराने की दुकानों में कहीं भोजपुरी कहीं अवधी कहीं बिहारी सुनते सुनते सीख भी गए किंतु बस कमी यही रही कि हमारी भोजपुरी बिहारी अवधी कब एक से दूसरी बोली में जा मिलती है हमें पता नहीं चलता ।

हँसी ठट्ठे का कारण रहती आई ए एस ,आई एफ एस ,आई पी एस ,की तैयारी कर रहे लड़कों का छत तोड़ ठहाका तब जब कोई स्थानीय छात्र बेधड़क साहित्यिक हिन्दी में ठेठ भोजपुरी मिलाकर इंग्लिश से छौंक देता । याद है कुछ संवाद ऐसे आज भी एक अनायास मुस्कराहट तो आ ही जाती है । "एक ठो मैडमवा आईल रहल झौंतरा खोंसि के बनवले रहल जूड़ा अ कहलस शट्ट अप ई दादा हम ते साईलेंट हो गईलीं ऊ साऊण्डवा बजत रहल न ट्रांजिस्टरवा मा"गज़ब दिमाग दार पीढ़ी थी वह ,तीस से सौ रुपये प्रति बच्चा ट्यूशन पढ़ाने भविष्य के कलेक्टर , एंबेसडर ,मंत्री ,उपलब्ध थे इलाहबादियों को । हिन्दी माध्यम के गाँव कसबों के विद्यालयों से निकले ये युवक युवतियाँ बिना कम्प्यूट मोबाईल टी वी को देश ही नहीं खगोल का सारा आवश्यक डाटा उंगलियों की पोरों पर तड़ातड़ सुना डालते । रेलमंत्री से ग्राम प्रधान तक सब के इतिहास सुना देते और दिन भर साईकिल से या पैदल इलाहबाद की सड़कों पर पसीना बहाते रहते ।

सफेद रंग तब फैशन में था ,और बेलबाॅटम के साथ टाईट शर्ट या जैकेट डैनिम औक काॅर्ट राईज वेलवेट पहनने वाले बहुत थे । तो भी भूदानी खादी का झोला कुरता पाजामा चप्पल पहनने वाले भी सम्मानित थे । उस युग में भी हमारे तो बाल ही बाॅय कट थे सो समस्या आई कटिंग कहाँ कराएँ ,तब इतने ब्यूटी पार्लर नहीं थे । हमने सोचा कोई तो मिलेगा ,अब हर जगह तो खानदानी खवास नहीं चल सकते साथ । संगम की तरफ टहलते हुए भोर में एक एक साईन बोर्ड पढ़ते निकल पड़े और एक जगह मिल ही गया लेडीज जेन्ट्स हेयर कटिंग सैलून । एक दंपत्ति थे और हमारी कटिंग ऐसे हुयी कि हम बताते जाते और वह स्त्री कटिंग करती जाती । आगे की खानाबदोश जिंदगी में अनेक बार स्वयं ही अपने बाल काटने का भी गौरव प्राप्त होता रहा ।
आई ए एस की तैयारी चरम पर जब होती तो लड़के लड़कियाँ देर रात स्ट्रीट लाईट्स में भी विभिन्न कोचिंग्स या स्वाध्याय हेतु रहते किराये के कमरों से निकलकर पार्कों ,टी स्टालों में बैठ जाते । काॅफी हाऊस भी थे परन्तु वे स्थापितों की भड़ास के शोर गुल में सन्नाटे वाली संसद जैसे थे बस ।

संगम तट तक जाने का चाव मूल रूप से गंगा से अजीब सा अनुराग ही था जो क्रमश:बढ़ता ही रहा । अक्षय वट और पातालपुरी मन्दिरों की रंगबिरंगी भीड़ से अधिक मुझे नाव में बैठकर बस यूँ ही रेतीले किनारों तक भीगी हवा में साँस लेते हुए गंगा यमुना को निहारना अच्छा लगता था । किनारे पर झोपड़ियों में तख्त पड़े रहते हर क्षेत्र के कुलपंडित हैं वहाँ ,पितृकुल के पानवाले बाबा रहे ,ऐसे ही अनेक निशान हैं हर क्षेत्र के पंडित के और उनके बहीखातों में यदि कोई भी आपके परिवार का संगम पर आया है मिलकर विवरण लिखा गया है तो विवरण मिलता है । जो लोग होटल लाॅज धर्मशाला नहीं चाहते वे पंडित जी के डेरे में ठहरते हैं वहीं पकाते खाते हैं और उनकी ही थाली लोटा डोरी प्रयोग करते हैं । पर्वों पर हम नहीं गए कभी भीड़ से बचने के लिए ।
इलाहबाद का तब का विशेष आकर्षण था ताँगा और रिक्शा । ताँगे की लकड़ी की पटरीवाली स्पोक में पहिये में डंडी घिसटाकर तबले के क्लिष्ट बोल निकालता कोचवान पूरा एनसाईक्लोपीडिया रहता । आप पूछ भर लो किसी साहित्यकार या नेता का नाम । बस वह सारा इतिहास सुना देता । रिक्शा वाला तक या तो अमिताभ मिथुन जीतेन्द्र विनोदखन्ना राजेश खन्ना देवानंद दिलीपकुमार राजेन्द्रकुमार राजकपूर की बातें करता या फिर पूरा ब्रिटिश पार्लियामेन्ट से नाजी जर्मनी फासिस्ट इटली कम्युनिस्ट चीन से डेमोक्रेटिक अमेरिका तक बतियाने लगता । अकसर सब निरक्षर या कम पढ़े लोग रहते । ज्ञान का कारण था ""श्रुत परंपरा का रूप ""विद्यार्थी रिक्शे ताँगे पर आते जाते ,किताबों से लेकर विश्लेषण तक बतियाते रहते और खैनी रगड़कर थपकी मार कर गाल के कोने में दबाने को गमछा से पसीना सुखाने ठहरे रिक्शे वाले या बड़े पेड़ की छाया में घोड़े के मुँह पर दाने कुट्टी चारे का जूट का थैला लटका कर बीड़ी पीने रुके ताँगे वाले अकसर यह सब सुनते ही नहीं सक्रिय परिचर्चा में भी जुट जाते । बहिनी और भइया बाबू और काका कहने के रीति रिवाजों के बीच सर जी मैडम जी बहुत नहीं पनपे थे तब तक । स्कूल की शिक्षिका या तो मास्टराईन थीं या बहिनजी ,वैसे ही शिक्षक या तो मास्टरसाहब थे से या गुरुजी आचार्यजी पंडित जी । तब दुनियाँ खुली खुली थी । गली में इतना डर नहीं लगता था । पुरुष शब्द इतना अविश्वसनीय नहीं था तब कविताएँ किसी किसी दिन आधा दर्जन गीत बन कर आँखों से भी बहतीं और रजिस्टर डायरी पर भी तो कभी कभी शून्य में वार्ता का आत्मालाप ऐसा जारी हो जाता कि "राजकुँवर सिद्धार्थ की भाँति हम उठ कर रात में रोने लगते । न ये कह सकते हैं कि वह रोना क्या था ,न ये कह सकते हैं कि कुछ नहीं था । क्योंकि हृदय से भरे समृद्ध कदाचित वे पल छिन छिने ही मुझे भौतिक संसार में धेकलकर एक भीड़ बनाने के लिए । ईश्वर से झगड़ा भी चलता मनुहारें भी । कभी समाज की तरफ देखता मन तो लगता नन बन जाएँ किसी मठ में जाकर तपस्या करें या हिमालय पर चले जाएँ । कभी मोह घेरता कहता जाॅब करो तो ऐसी कि सहारा बनो ,वरना लौट जाओ । देश से अधिक विश्व मानवता हावी थी । और मन में अकसर कौटिल्य से मार्क्स और बेंथम से मनु का झगड़ा बना ही रहता । शंकराचार्य की कथा सुनकर स्वयं को तुच्छ समझते तो यह भी होता कि समवस्क लोग निहायत बचकाने अनपढ़ अनगढ़ लगते । तब हम लगातार किताबें पढ़ रहे थे जो मिलता जैसा मिलता पढ़ जाते । बिजली फ्यूज हो जाती तो चाँदनी रात में चांद की रौशनी में तीन घंटे में मोटी किताब पूरी कर डालते । पढ़ने की रफ्तार बहुत तेज थी और पढ़ने के साथ" कोलाज "की तरह वाक्य शब्द रेखांकित करने की ऐबी आदत भी । हालाँकि बरसों बाद वही किताबें जब खोलीं यदा कदा तो वे रेखांकित वाक्य समझ और अर्थ बदल चुके थे ।
टिप्पणी करते अकसर शिक्षक
'पाँव के नाखून से शिखा तक ठसाठस दिमाग ही दिमाग भरा है इस देह में शेष कुछ है कि नहीं "
कविता ऐसे सवार थी कि बोलते सोते जागते हर समय मन में गुनगुन मची रहती परन्तु लिख कर कहीं भी रखने की आलसी प्रवृत्ति ने अच्छे बुरे बहुत गीत गँवा दिए । जो पत्रिका पैसा माँगती उसे छोड़कर सब में भेजते । व्यवसायिक पत्रिकाओं से टिप्पणी आती रचना तनिक छोटी करके भेजें ।
कविता को छोटा करना हमें रास नहीं आता और हम भेजते ही नहीं । 18 से 19 की आयु तक लगभग सब बड़े कवि मंच पर मिल चुके थे । किंतु हम जा ही कब पाते कविसम्मेलन , केवल तब जब मंच गृहनगर में हो और साथ में कोई संरक्षण जा रहा हो ।
इसलिए निमंत्रण खेद सहित फेरने की ही आदत बनी रही ।
तब कविता चुटकुला नहीं थी ।
हास्य व्यंग्य तक में "काका हाथरसी "जैसे लोग थे ।
तब मोबाईल कैमरा नहीं था और मंच पर हूटिंग की परंपरा नहीं थी । श्रोता कविता को समझता था और कवि "हीरो "बन जाता । हमसे ही हर मंच के बाद अनेकों ने आॅटोग्राफ लिए ।
प्रयाग की मिट्टी में "अटाला चौक " भी है । यह देखकर हम चौंक गए ।
वहीं पड़ा था परीक्षा सेंटर । कस कर प्यास लगी और दूर दूर तक केवल पसलियाँ हड्डियाँ पशुओं की लाशें टँगी थी । खट खट कर माँस काटा और तोला जाता था । हम कई किलोमीटर चलकर एक होटल में रुके तो "पानी नहीं पिया कई डिब्बे फ्रूटी पी गए ।
तब का इलाहबाद ,जज वकील कलेक्टर साहित्यकार ही नहीं नेता भी बनाने की कार्यशाला था जैसे । एक सिरे से कभी कभी लगता इटली का कोई पुराना नगर है ,आज भी एक वशीकरण सा फिर जाता है पुराने वास्तु से बने खुले खुले भवनों को देखकर , नयी गगनचुंबी इमारतों की डिब्बे पर डिब्बे पर डिब्बा जैसी बनावट देखकर तनिक भी तो दुबारा देखने का जी नहीं करता ।
है ही क्या इनमें ?न हवा पानी प्रकाश को विस्तार न ही अपने पन से सराबोर पास पड़ौस निवासी ॆ, 
तब के इलाहबाद में ""दोस्त को चूना लगाने चलें का मतलब "बजट बचायें चलो किसी के कमरे पर चाय पी कर आएँ "
कालीमिर्च नींबू चीनी की चाय तब सीखी ।
तब तक गैस घर घर नहीं पहुँची थी । महानुभावों के घरों में "स्टोव विराजमान थे ।©®सुधा राजे

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