Sunday 3 February 2019

लेखमाला: :पद्मावत के बहाने ,भारत के घाव पिराने

बाॅय फ्रैंड के पैसे से पिज्जा खाकर फटी जींस में घूमती लड़कियाँ और टीवी मोबाईल पर सारी मरदानगी दिखाकर बारातों में नाचने वाले लड़के ..कभी नहीं समझ सकते कि हिंदू स्त्री  के सत को दूषित करना एक ख्वाब रहा है युगों से आतताईयों का ,भारतीय स्त्री किसी भी वर्ण की जन्मजात वीरांगना ही होती रही है उसे कोई जबरन सती नहीं करता था ना ही कोई उसे तप त्याग संयम का जीवन जीने को विवश करता था ,वह स्वयं ही उस तरह की मिट्टी की बनी हुयी थी कि उसके और समाज के पुरुषों को आत्मसम्मान के लिये लड़ मरने और बलिदान होने पर विवश कर देती थी ,यह परंपरा तो आज भी जारी है ,सेना पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों में हज़ारों वीर देश के भीतर और सीमा पर और गुप्त या प्रकट अभियानों में आत्मोत्सर्ग कर जाते हैं कैप्टन बत्रा कैप्टन कालिया जैसे लाखों वीर आज़ादी के बाद से अब तक मरते रहे हैं और उनकी प्रेरणा ये चंद रुपयों पर कमर लहराने वालियाँ नहीं उनके परिवार की घोर संयमी अपार वीर साहसी संकट से हर तरह जूझ पाने में सक्षम सिद्धांतों के लिये घोर गरीबी तक सहकर भी वीर बालक जन्मने वाली माता बहिन पत्नी बेटी और दादी नानी बुआ मौसी हैं ।
आपने एक फिल्म देखी ""प्रेमरोग ""आज तक उसके गीत लोग गाते हैं नाचते हैं ।
उसमें एक विधवा की बड़ी दुर्दशा दिखाई गयी है ।लोगों ने यह भी देखा कि बहुत सुंदर वर और प्रेमी पति अचानक मर जाता है और जेठ ही अपनी नवेली अनुज वधू का बलात्कार नशे में करता है ,जेठानी उसे मायके छोड़ आती है और वहाँ परिवार वाले घोर अन्याय करते हैं ।
एक अन्य जाति का लड़का उसे अपनाता है और तबाही मच जाती है ।
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फिल्म के बाद लोगों में एक यकीन फैल गया कि ठाकुर लोग अपने घर की ही औरतों पर घोर अत्याचार करते हैं वे बेबसी अभाव अन्याय अपमान और त्याग विवश जीवन जीतीं हैं !!!!
जबकि राम की तीनों मातायें विधवा राजमाता थी ,
रानी लक्षमीबाई विधवा रानी रणसेनानी थी
शिवाजी की माता विधवा राजमाता थी
महारानी विजयाराजे विधवा राजमाता थी
हमारी ही बुआ ,नानीबुआ ,विधवा थी परंतु स्वयं के आत्मत्याग संयम और सादगी से रहना यह उनका ही चयन रहा ,सब मनाते कि आप एक सामान्य जीवन जीयें परंतु उनके पति को वे कभी मृत मानती ही नहीं थी ,सदा ही उस अमर प्रेम को गले लगाये रही हर कौर गले के नीचे उतारने से पहले अपने पति को जीवित मानकर समर्पित करतीं रहीं । राजपूत विधवा को ऐसे अत्याचार कभी कहीं नहीं झेलने पड़े जैसे उस कौड़ी की फिल्म में उपरिवार ने अभिनीत किये थे ,
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इसके विपरीत होता यह रहा है कि समस्त कुल कुटुंब उस विधवा के दुख भार का ताप महसूस करते हुये सम्मान संरक्षण प्रेम और सेवा में जुट जाता रहा है ।
विधवाओं की दुर्दशा बंगाल में सबसे अधिक रही ,और वहाँ उसका कारण विदेशियों द्वारा अकेली दुकेली पायी जाती स्त्री का अपहरण और लूट कर अरब ईरान और विदेले जाना रहा । सती प्रथा कहीं भी विवश करके नहीं चलती थी राजपूतों में अन्यथा कुंती को भी जला देतेऔऱ कैकयी को भी ,दुर्गावती और चेन्नम्मा को राजमाता वीरांगना का रूप ही नहीं मिलता ।
भारतीयों ने तो विधवा देवी धूमावति ,करणी माता ,तक का पूजन यजन सम्मान किया है।
हमारा गौरव उनसे है जो आत्मोत्सर्ग के लिये स्वयं के संयम की पराकाष्ठा पार कर गयीं और लकीर खींच दी कि यहाँ से तुम्हें देश के लिये लड़ मरना है ,
मेरी सेज सूनी रहे या मेरी कोख जल जाये या मेरा सुहाग बचे या नहीं परंतु
राष्ट्र का सम्मान बचना ही चाहिये जाओ ना घर की दीवारे दालाने मजबूत करने की चिंता करो ना बालकों के पालन पोषण की ।
हम में ताकत है संयम है हम स्वयं का संतान का और आवश्यक रहा तो तुम्हारे माता पिता परिजनों का भी पेट भर सकते हैं ।
बलिदानी हुतात्मा आत्मोसर्गी हिंदू वीरों की सुहाग सेज पर से उठकर रण में जाने की कहानियाँ भरीं पड़ीहैं ,
आज भी बलिदानी वीर सैनिक के घर जाकर देखें मीडिया के भाँड़ और सरकारी साँड़ कि स्त्रियाँ घोर गरीबी में भी चारा कुट्टी सानी पानी भूसा मजदूरी खेती दुकान से सास ससुर बच्चे पाल लेतीं हैं परंतु मज़ाल नहीं किसी कामी लोलुप की वासना से उसका चरित्र डोल जाये । यह सब उस परंपरा के लोग हैं जिनके लिये रण एक उत्सव होता आया है । आज भी सीमा पर ठिठुरती बर्फ में खड़ा जवान भोर से नाश्ता बाद में पहले गोली चलाता है दो लाशें देश के दुशमनों की जिस भोर गिराता है उस दिन अपना सेना में आना सार्थक समझता है ।
काक्रोच के डर से बंगला बदल लेने वाली दस बजे सोकर उठने वाली बेड कोई छोकरी नाम नकल भले ही रानी राजरानी प्रिसेज रख ले परंतु एक मामूली कुछ हजार पाने वाले सिपाही तक की बहिन बेटी जितना भी साहस उसमें हो नहीं सकता । जंगलों पहाड़ों में बनी अपने हाथों गोबर माटी से लीपी झोपड़ी में रहती सैनिक की माँ तिलक लगाकर वीर को कहती है पीठ न दिखाना ,।
प्रेम का अर्थ केवल दैहिक भोग भरपूर भोग लेना समझने वाली नस्लें कभी नहीं समझ सकतीं कि वीर की प्रिया तो सदा ही वैधव्य सन्यास विरह ब्रह्मचर्में रहती आयी है ।हर दिन हर समय रण में रहना या रण की तैयारी करते रहना वीर का कार्य है नित्य क्रिया और तब जो हर दिन रण में रहता आया हो वह वासना  के अभाव को कुछ नहीं समझता । ना वे स्त्रियां उस एक कामरोग से पीड़ित नस्ल वाली स्त्री की भाँति अपना अदेह विदेह प्रेम त्याग देतीं हैं ।
यह देॆश सुकन्याओं सावित्रियों सीताओं मनु दुर्गा चेनम्मा के दम खम साहस संयम से सँवरा है । एक अदम्य साहसी पुत्र बनाना किसी पहाड़ को काटकर मीनार बनाने से कम कठिन कार्य नहीं हैं । अन्यथा हर कोख से राणाप्रताप निकल पड़ते हर घर में शिवाजी कटारें बघनखे खनका रहे होते रात रात भर ब्लू फिल्म न देख रहे होते
आज की युवा पीढ़ी कदाचित यह सच

नहीं समझेगी हम आप दोनों ही मानते हैं ,परन्तु अब सहन नहीं होती घुटन इस सत्य को आज भी लाखों परिवार जारी रखे हुये हैं अनाम अघोषित और यह सिलसिला चल रहा है ....

आवश्यक है कि हमारे समाज को बाँटने नफरत फैलाने और भारतीयता को लज्जा की विषय वस्तु बनाने वाले मीडियाप्रपंच का घड़ा अब फोड़ दिया ही जाये

जय माता जी सादर ,भारतीय स्त्री सदा ही पुरुष से अधिक मुक्त शक्तिशाली अधिकार संपन्न और माननीया रही है ।
रही बात शराब और धूम्रपान की भारतीयों ने उस पर स्त्री को पूरे अधिकार दिये है ,
याद करे
दुर्गा शप्तसती में जगदंबा कहती है
""खड़ा रह मूर्ख बकता हुआ जब तक मैं यह प्याला मद्य का समाप्त कर लूँ "

देवी को हम बलि में सिर देते रहे हैं फिर प्रतीक रूप में खोपड़ा कहकर नारियल देने लगे ।
शीश बलि का अर्थ ही यही था कि वीरनारी के लिये कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है ।
किंतु उसका आशय वीर नारी ही है ,
केवल विलासिता के लिये ऐब करना नहीं है ,
जो पुरुषों से भी भयंकर साहस रखती हो उसपर बंधन क्या और मुक्ति क्या

©®सुधा राजे

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