संस्मरण:सुधा विषपायिनी

हमाऔ रेडुआ
************संस्मरण
आकाशवाणी
की स्थापना का दिन है आज ,
और हम सबको बचपन में ममेरे बड़े भाई  बड़े से रेडियों के पास झुंड बना देख कर बताते ,ये डंडा है न इसको जब घुमाते हैं पहिये से तो इस बक्से के भीतर बंद नन्हे नन्हे मनुष्य बोलने गाने बजाने लगते हैं ।
हम लोग बाद में कौतुक से देखते कि कहानी वाली किताब में बालिश्तिये मियां की कहानी पढ़ी थी उस हिसाब से इस बक्से में कितने मानव बन जायेंगे !!!!
बड़ी करुणा मन को पिघलाती कि बेचारे डंडी के दिखते ही गाने बोलने लगते हैं ।
फिर बाद में गीत सुनने से अधिक
"संप्रति वार्ता:श्रूयन्ताम् "
बहुत बढ़िया लगने लगा आवाज इतनी गंभीर उच्चारण इतने साफ कि मन करता सुनते रहो ।
ये आकाशवाणी है अब आप हरीश भिमानी से समाचार सुनिये ।
धीरे धीरे सीलोन वाशिंगटन चाईना काठमाडू सुनने लगे और बहुत सारी टोन पकड़कर बच्चे सब "चिन किनपूं सूं "टाईप से विदेशी भाषाओं के अनर्थक शब्द स्वर नकलियाने लगे ।
कविता से पहले ही गायन की लत लग गयी थी कुटुंब के सब नेगचार में गायकी में हमारा जोड़ ही नहीं था ,सुनीता की ढोलक और हमारा गायन सब चाचियों मामियों ताईयों मौसियों बुआओं दादियों नानियों जिज्जियों भाभियों पर भारी पड़ जाता था ।समस्या थी नये नये गीत हर बार कहां से लायें सो न जाने कब स्वयं ही रचने लगे हर दिन नया गीत ।हमाऔ रेडुआ
निजी मिला बहुत बाद में पढ़ाकू होने के पुरस्कार स्वरूप ,
जिसका चस्का लगाया ममेरी दीदी बेबीजियासा ने ,वे गीतों की भैरन्ट फैन थीं गातीं भी और लिखतीं भी थीं ,तब हमें भिलाई वाले देव काकासा ने एक डायरी दी और उसमें गीत रेडुआ से सुनकर जल्दी जल्दी लिखने लगे ,
कई बार गीत निकल जाता खर खर में तो बीच के शब्द स्वयं ही भर लेते ,कौन सा संगीत मंडली को याद था सारा ""रेफ्रेन होना चाहिये सही बस्स ,
फिर गीत लिखने की रफ्तार से लेखन टाईपराईटर के बराबर हो गया और शब्दों के अर्थ बहुत बाद तक नहीं आते थे समझ क्योंकि गीतों में उर्दू फारसी भरी पड़ी थी जबकि अवधी बुन्देली दो भाषायें परिवार में बोली जातीं थी और हिंदी इंगलिश स्कूल में तीसरी सिंधी पंजाबी सखियों की बोली रही ,उर्दू का समझना यहीं से चालू हुआ फिर तो हमारी क्लिष्ट गजलें उर्दू में होतीं रहीं बरसों तक आज गजल में से सायास उर्दू हटानी पड़ती है क्योंकि मायनों का स्टार नंबर लगाकर छपने भेजना बढ़िया नहीं लगता ।
मेरी दोस्ती तब भी या तो किसी से होती ही नहीं थी या फिर हुयी तो आज तक टूटी नहीं मन ऐसा ही था कुछ अजीब सा एकांत पसंद स्वभाव बड़े से निजी कक्ष में सब कुछ था बस दरवाजे पर लिख दिया छोटों ने डू नोट डिस्टर्ब व्यंग्य की तरह ,जो फिर आदत ही बन गया ,
रेडुआ वहां विराजमान रहा पहला निजी टेलीविजन आने तक एक समय बाद रेडियो छूट गया क्योंकि समय कम मिलता था शोधकार्य ,लेखन वकालत और सामाजिक संगठनों भाषणों मंचों के बीच रेडियो बिछुड़ गया ।टी वी की आदत पड़ी ही नहीं ।
आज याद आया कि मेरा सबसे अच्छा मित्र तो रेडुआ ही था किताबों के बाद !!!!!!
धन्यवाद #आकाशवाणी
©®सुधा राजे

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