Wednesday 20 February 2019

संस्मरण:एक थी सुधा...."सुधा विषपायिनी"

(कुछ खोकर पाते हैं कुछ पाकर खोते हैं )
सुधाडायरी के कुछ पन्नों से ,संस्मरण भी कह सकते हैं आप
"एक थी सुधा .......
....बड़े से उस वीरान दूरी पर जंगल छोर पर बने सरकारी बंगले में केवल मेरी सिसकियाँ गूँज रहीं थी ;सब चुपचाप खड़े या पड़े या दीवार से चिपके निढाल टिके थे जैसे सब मर गये हों या पत्थर की मूर्तियाँ हों ,कोई न मुझे चुप करा रहा था न किसी के पास हाथ तक रखने की हिम्मत रही थी  ,रात को पुलिस आयी थी ,सरकारी अधिकारी परिवार का लिहाज होने से शांति से सारी बातें हुयीं जिनका मुझे पता नहीं था बारह वर्ष तेरह की आयु की लड़की को केवल इतना समझ में आ रहा था कि "पुलिस मतलब डर "और भाई अब संकट में है ,कहीं पास ही जंगल में कोई कांड हुआ था , वहाँ कई लड़कों के निशान मिले थे ,भाई गाड़ी से आते जाते थे उन जंगलों में दोस्तों के सा,
सब सन्नाटे में थे और हम बिलख कर रो रहे थे
,मानव हत्या का आरोपी बनाया गया था भाई को ,घबराया हुआ भाई रात को आया था भाभी शून्य मन से पत्थर की तरह बता रहीं थीं ,अट्ठारह साल का लड़का  ,और हम सब डरे हुये थे ,अब क्या होगा ?फाँसी ?आजीवन कारावास ?हवालात में दुर्दान्त अत्याचार ?
चीखें रुदन में फिर सुबकियों में बदल गयीं किंतु किसी ने हमसे चुप होने या पानी तक पीने को नहीं कहा ,
हम सब उसके बाद अज्ञातवास में चले गये ,दूर गाँव के नातेदारों के यहाँ फिर वहाँ से दूसरे गाँव
,फिर तीसरे और अंत में सरकारी बंगला और घर सब से दूर एक किराये के बड़े से किंतु मुख्य नगर से दूर के मकान में ।
स्कूल बंद हो चुका था ,मेरी पढ़ाई अब केवल मेरे हवाले थी मेधावी होने से क्या होता था ,नाम कट गया था ,किसी को नहीं ज्ञात था हम लोग कहाँ हैं ,न कोई सहायक न नौकर न ही पारिवारिक मित्र न ही नातेदार सब से दूर हम कमजोर लोग समझे जाने वाले सदस्य यानि स्त्रियाँ बच्चे बुजुर्ग उस मकान में लंबे समय तक रहे ,वहाँ दूर दूर तक निर्माणाधीन भवन थे बड़े मैदान के भीतरी छोर पर दो मंजिला वह अधबना भवन था नीचे कुछ दुकानों के सिवा दूर तक केवल दिन भर के लंबी दूरी के ट्रकों का शोर रहता था ।
कई किलो सोना घर की स्त्रियों के शरीर से उतर कर तिजोरी से निकल कर '
बहुत विश्वसनीय सुनार के हाथों में पहुँच चुका था 'जो चुपचाप आता और रुपये रख जाता । कई किलो चाँदी धीरे धीरे घर से निकल गयी । थाली में अब बहुत सारी चीजें गायब रहने लगीं थीं ,हम सब छोटों को अब न कहानियाँ मिलतीं न लोरियाँ न ही घूमने खेलने किसी के घर जाने की आज़ादी ।
भाई को सरेण्डर करवादिया था सब दोस्तों के साथ और महीनों के लिये जेल चले गये ,घर में कुछ भी स्वादिष्ट पकता तो सब थाली पर रो देते और भूख बिना खाये ही समाप्त हो जाती ,जो भी पकवान बनता भी तो जेल भेजने के लिये पकता ,।
युगों की तरह समय बीत गया ,कुछ वफादार सहायक चुपचाप आते और बाजार वगैरह के काम निपटा जाते ,हर पल सब चौकन्ने रहते ,हथियार सिरहाने और नींद बहुत कच्ची ,
कोई त्यौहार नहीं न कोई खरीददारी न ही उत्सव बस पूजा पाठ प्रार्थना उपवास ,बहुत लंबे समय के बाद ,कई अदालतों से होकर अंतत:निर्णय का पल आ गया ,भाई के भाग्य का निर्णय होना था । सब जैसे हृदय की हर धड़कन धड़ धड़ महसूस कर रहे थे ।
बड़े पुरुष अदालत से जब लौटे तो किसी ने न पानी दिया न मीठा न ही अभिवादन ,सब चुपचाप कोने पकड़ कर खड़े हो गये जैसे मूर्तियाँ हों यंत्रचलित ,
बापू कुरसी पर हैट टाँगकर चुपचाप बैठ गये ,पानी माँगा ,पीकर आँसू निकल  पड़े ,
हम सबके प्राण कंठ में थे ,तब बोले जैसे ""बाईज्जत बरी""कर दिया परमात्मा ने ,
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अभी सब खुश हों कि रोयें ,कोई नहीं हँसा न रोया तभी ,दूसरे वाले भाई जो कोने में दाँत भींचकर सिर घुटनों में दिये बैठे थे ,एकदम उठे और एक टेलीग्राम की परची थमा दी ,बापू ने देखा ,और धम्म से माथा पकड़ कर बैठ गये ,
हम दौड़े ,पानी लेकर ,
परची भूमि पर से उठायी उस पर दूर बहुत दूर रहते दूर के मामा के गाँव से आयी एक वाक्य छपा था
""योर सन इज डेड कम सून"
एक बेटे को फाँसी से बचाकर लाये भाग्य का एक पल हँसता भी रोता भी अभी सँभला नहीं था ,बापू बहुत देर तक भूमि पर पड़े रहे फिर आकाश तक पहुँचती चीखों से कंठ फाड़कर रो पड़े ,हे भगवान् !!!!!!!!!हमें नहीं मालूम हम किस दुख को रो रहे थे ,बापू को यह आघात न कुछ कर दे ,यह उनमें सबसे भयानक था कि बड़े की बाईज्जत रिहाई के पीछे यूग जैसे बीते सैकड़ों दिनों की गुमनामी कैद वनवास था ,बड़े भाई की रिहाई का हर्ष था या दूसरे की मृत्यु का समाचार था सब एक बार फिर भूमि पर पड़े थे मैं बापू के पाँवों को पकड़े रो रही थी नहीं बापू बापू नहीं नहीं बापू नहीं नहीं !!!!!!!!!नहीं नहीं पापा नहीं .......ये नहीं में क्या था पता नहीं ,,,,,,,बापू खड़े थे आकाश की तरफ चेहरा किये पूरी शक्ति भर कंठ से चीख रहे थे और हम जो कभी किसी के पाँव नहीं छूते थे बापू के घुटने पकड़े चीख रहे थे नहीं पापा नहीं पापा ..........उस अधबने सुनसान दोमंजिले में कोई रहता है ,,,,,यह पहली बार लोगों को जैसे पता चल रहा था ,,,,,,,कुछ लोग आकर हम में से एक एक को सँभाल रहे थे ।
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अभी तत्काल निकलना है ,बापू ने सँभल कर कहा ,
सब जो जैसा जहाँ पड़ा था ,
छोड़कर बापू और दूसरे भाई दूरवाले मामा के गाँव के लिये ट्रेन पकड़ने रवाना हो गये ।
मेरे हाथ में बंदूक थमाते बोले चौकस रहना ,जेल से परवाना निकलने और छूटने में देर लगेगी ।
सब स्त्रियाँ अधमरी पड़ीं थी बच्चे सहम कर दुबके हुये थे ,
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शाम हो गयी किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था ,अंधकार पड़ा था न आरती न ही बिआरी हुयी ,रात के दस बजे द्वार खटका ,मैंने कारतूस का पट्टा कंधे पर कसा बंदूक सँभाली ,नीचे झाँका ,कड़क कर कहा कौन ,नीचे से बापू के बहुत वफादार सहायक की धीमी स्पष्ट आवाज आयी 'बिन्नू राजा हम , हम सब एक साथ धड़धड़ सीढ़ियों से उतरते पहुँचे ,सामने कई महीनों के बाद ,भाई खड़े थे ,न कोई हर्ष न कहा सुना ,चुपचाप सब ऊपर आ गये ,भाभी कोने में चिपकी बैठीं थी ,भाई चुपचाप हमारे पाँव छूकर एक कुरसी पर सिकुड़ कर बैठ गये ,जो उनके कद के हिसाब से बहुत छोटी थी ,सब चुप ,बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला ,हमने कहा भाभी से भोजन लगाईये ,दोनों पुरुषों ने चुपचाप भोजन किया ,भाई ने पूछा बापू कहाँ हैं ? भाभी सिसकतीं हुयीं भीतर चलीं गयीं ,बच्चे सो चुके थे ,मेरे पास भरभराकर रोने के सिवा कुछ जवाब ही नहीं था,टेलीग्राम  भाई के हाथ में रख दिया ,
,टुकड़े टुकड़े सारी बात भाई को पता चली ,
और वह पत्थर हो चुकी छाती लिये महीनों से चुप रहता लड़का ,
दीवार से चिपक कर चीख मार कर रोने लगा ,
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किसके आँसू पोंछूँ ?
क्योंकि मुझसे खड़े तक नहीं हुआ जा रहा था(जीवन के अध्याय एक थी सुधा डायरी आत्मकथा से ) ©®सुधा राजे

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