संस्मरण: सुधा विषपायिनी

बात उन्नीस साल पुरानी है और कुछ पत्रकार जो तब मेरठ बिजनौर मुरादाबाद में रहते थे कदाचित उनको याद भी हो ',,
विवाह के बाद ससुर जी की गंभीर बीमारी के दौरान लगातार घर रहना पङा और, कदाचित ऐसी कोई बहू हो जो तुरंत उतरी हो गाङी से और घर के काम काज में लग गयी हो 'विवाह के बाद घर तत्काल ही खाली हो गया रह गये तीन जीव 'एक अजनबी जोङा और एक वृद्ध बीमार ',।
पहली ही थाली के बाद भोजन की तैयारी में जुटना पङा और रिशेप्सन दो दिन बाद था तो उसके लिये भी लगे कैटरर्स और हलवाईयों को सर सामान देना पङा ',। जब भी जिस भी कमरे में जाते तमाम आडंबर गैरजरूरी चीजें और खाली डिब्बे पॉलिथिन बोतलें रैपर्स और अनुपयोगी उतरनें पङी मिलतीं ',अतिथि सब विदा हो गये 'एक दूर के रिश्ते की लङकी आठ दिन रुकी 'उसी की सहायता से स्थानीय बोली और परंपरायें समझने का प्रयास करते ।
भयंकर बारिश और दिन भर सन्नाटा शाम को ही दो घंटे की चहलपहल सी लगती ।
कहाँ पचास साठ आदमियों की रोज की भीङ और भरी बस्ती की चहलपहल कहाँ ये एकदम सूना घर!!
अगली सुबह ही झाङू उठायी और लग गये काम पर, 'आठ दस गाय भैंस बैल और गौशाला से लेकर नये बने मकान तक सारा तीन  बीघे जितना मैदान साफ करते रोज और 'थककर चूर हो जाते, 'बरसों से रीती हवेली में केवल जरूरत भर के काम की जगह साफ करके सब सुबह निकल जाते रात को आते, '।
एक सप्ताह बाद एक ठीक ठाक लॉन और किचिनगार्डेन तैयार हो गया :फिर जब तक कुछ न कुछ खरीदने के लिये बाजार जाना चूकिं एलाउ नहीं था सो दूसरे कसबे जाकर बाईक से घरेलू सामान 'खरीदकर लाते लगातार शॉपिंग, और कई हजार रुपये जो विभिन्न रस्मों में निजी बटुए में मिले थे व्यय हुये तब जाकर एक ठीक ठाक गृहस्थी जुङी जिसमें न तवा था न चायदानी छन्नी न ही मसालदानी न मटका स्टैण्ड न ही ट्रे और न छुरी काँटे चम्मच और कङछी बेलन चमचा सँड़सी, '।
क्योंकि एक लङकी पङौस की भोजन पकाती थी केवल रोटियाँ 'चावल और सब्जी होटल से आती रहती थी या होटल में ही खाना खा लिया जाता था ।चाय पीता ही कौन था यदा कदा आवश्यकता पङी तो करीब के कैंटीन से आ जाती थी '
गौशाला की देखभाल 'तसलीम' और उसका भाई हबीब करता था 'वही जैसी तैसी सानी कुट्टी पानी करता और दूध निकाल कर रख जाता, 'जितना पिया जाता पितापुत्र पी लेते बाकी 'शाम सुबह दूधवाला भर ले जाता '
एक पखवारा बीतते बीतते सर सामान की पूरी तरह छँटनी होकर जब ""कबाङ इकट्ठा हुआ और फालतू कपङे बकसे मटके डिब्बे बोतलें रैपर्स तो लगभग दस फीट ऊँचा अंबार लग गया मैदान में, और जब आग लगायी तो दो दिन तक धुआँ अंगार सुलगते रहे ।
फिर बचा खुचा सामान कबाङी को बेचा तो, 'पूरे घर के लिये बढ़िया परदे और डिनरसैट उसी पैसे से आ गया ।
दूसरे नगर आते जाते पीछे बाईक पर बैठे बैठे ही जो देखा उसे बदलने की ठानी और एक सैकङा भर पोस्टकार्ड लिख मारे विभिन्न विभागों को, 'कुछ महीनों बाद जब घर घर नोटिस आने लगे ""झङाऊँ पाखाने "बंद करो तो लोग परेशान हो गये ।
क्या मंदिर क्या मसजिद ',यूपी का ये इलाका ''सन दोहजार तक लगभग हर गली में ""गली नाम से ही कही जाती कच्ची शौचालय व्यवस्था से ही चलता था ।
झाङने वाली सब औरतें आती और झाङकर सारी गंदगी उसी गली सङक पथ के किसी खंडहर पङे मकान या कोने मैदान में ढेर लगाती रहती ',बच्चे खेलते रहते औरतें आती जाती और गंदगी की दुर्गंध से सारा नगर भभकता रहता ',।
एक दिन नाम खुल ही गया ',क्योंकि काररवाही जल्दी न होने पर पत्र मीडिया में भेजना पङा और सगभग हर स्थानीय पेज पर छप भी गया ',कलेक्ट्र तहसीलदार और नगरपालिका, से लेकर राजधानी तक पत्र लिखे, कि ""सिरबोझ मैला परंपरा बंद करायी जाये ""
किसी ने हमारा नाम बता दिया "सफाईकरने वाली महिलाओं को 'अगले ही दिन "सोमो "जो सिरबोझ ढोती थी हमारी गलियों के उन औरतों की मुखिया थी ',आकर डलिया दरवाजे पर धरकर कई दरजन महिलाओं के साथ झगङने लगी, '
,,,बहूजी पेट पे लात तो न मारो ""
कई घंटे की बहस समझाईश के बाद सोमो "समझने को तैयार हुयी तो बस्ती में दो 'दल बन गये ।
एक दल सिरबोझ मैला बंद करके सूअर पालन मुर्गीपालन ब्रुश कारीगरी असपतालों और नगरपालिकाओं तथा स्कूलों में जॉब के लिये 'राजी हो गया तो '
दूसरा दल टस के मस नहीं हुआ अपनी "यजमानी और इलाका की उगाही छोङने को "मजदूरी और खाद के साथ त्यौहारी भी बङी वजह थी ।
अंततः कुछ परिवार हमारे साथ कचहरी गये और लॉन मंजूर हुआ किसी का किसी ने घर से ही धन संग्रह करके नया रोजगार शुरू किया ',
क्योंकि, 'नोटिस से परेशान उनके सदियों पुराने ''यजमान लोगों के घर धीरे धीरे आधुनिक फ्लश शौचालय बन चुके थे और बाकी के घर बनते जा रहे थे "पचास रुपया महीना और त्यौहारी विवाह के नेग आदि से उतना लाभ नहीं था जितना "खाद "से होता था ।
आखिरकार, दूसरे दल के लोगों की भी संख्या घटने लगी जब 'उनके भी कस्टमर नोटिस से परेशान होकर शौचालय बनवाने लगे '।
एक दिन उन लोगों को भी पता चल ही गया और अनेक पङौसी जिनसे सबसे अधिक रिश्तेदार थे 'हमारी बैठक पर चढ़ आये और हमें तो कम परिवार के बुजुर्ग हमारे ससुर जी को हमारे खिलाफ भङकाने में कामयाब हो गये ।
शाम को घर में पहली बार बहस हो गयी, '''और बहू लक्ष्मी से हम बङे शहर की ज्यादा पढ़ी ज्यादा दिमाग खराब लङकी कहलाये ""
।अब परिवार से कैसे लङें???
नतीजा हमने कोट पहना और अदालत जा पहुँचे वहाँ अपना पूर्व का परिचय दिया और आदेश पारित होने की सारी काररवाही करवाकर घर आये 'यह बिना आज्ञा पहला कदम था घर से बाहर "।
हालांकि कह दिया था कि कोर्ट देखने जा रहे है यहाँ का और साथ में चूँकि कोई नहीं था सो अकेले ही जाना पूछताछ करना और सारी कागजी प्रक्रियायें पूरी की, '
अगले सप्ताह मासिक आखिरी  मंगलदिवस होने से 'सोमो और कुछ अन्य सिरबोझ मैला ढोने वाली स्त्रियों को साथ लेकर गये और 'वहाँ मौजूद तत्कालीन सांसद "कोई ''रवि "सरनेम धारी से बहस हो गयी '।
आखिर कार एक एक करके ''झङाऊ शौचालय ढहाये जाने लगे रास्तों पर से "मल के ढेर हटाये जाने लगे और 'इसके लिये हम कलेक्टर #लीना जौहरी कलेक्टर पाठक जी और कुछ तहसील अधिकारियों को आज भी धन्यवाद करते है 'जहाँ भी हो ।
फिर घर में डाँट पङी "आपके हाथ का खाना नहीं खायेगें सबको छू लिया और सबके साथ एक ही जीप में बैठकर घूमने गयी, जाओ गंगाजल से नहाओ, '
।नहाते तो रोज ही सुबह शाम हम पश्चिमी यूपी वाले गंगाजल से ही तो हैं कहते ही फिर डाँट पङी और वैचारिक मतभेद में पीढ़ी अंतराल सामने आ खङा हुआ ।
एक ही साल भीतर लगभग हर स्कूल में हम गये और वहाँ ''लङकियों के लिये अलग तो क्या किसी तरह का कोई टॉयलेट ही नहीं था!!!!! ',मीडिया का फिर सहारा लिया और आवाज उठा दी, 'स्कूल की प्रबंधक रुपयों का दुखङा ले बैठीं, 'और स्थानीय विधायक को विवश होकर बजट देना पङा जिससे बालिकाओं के लिये पृथक टॉयलेट बना और बाउण्ड्री भी ऊँची हुयी ।
फिर भी जंग जारी थी "खास खास नागरिकों की श्रेणी में बुलावा आया जब नगरपालिका से तो वहाँ भी पहला भाषण जो ससुराल में दिया था ""सङक न होने और गली गली कूङा ढेर लगे होने पर था ।
मुसलिम बुजर्गों की बहुलता वाली नगरपालिका के भीङ भरे समारोह में य़े कौन "बलकटी "किस तरह खटखट चढ़ कर मंच पर बोल रही है सुगबुगाहट शुरू हो गयी और सवालों की बौछार सग पङी 'जहाँ आज भी औरतों सिर ढँके नकाब बाँधे बिना नहीं निकलतीं वहाँ पूरे नगर को माईक से लाऊडस्पीकर पर गंदा और अव्यवस्थित एक,, नयी उमर की बहू कहदे????
किंतु तमाम आलोचनाओं के बीच भी नगरपालिकाअध्यक्ष से पृथक मुलाकात में हम समझा पाने में कामयाब रहे और लखनऊ दिल्ली तक पत्रों से बात उठायी वहाँ कुछ दूर पास के नातेदारों से भी मदद मिलॅ कागज आगे बढ़ाने में और ''लोग एक दिन चकित थे आजादी के बाद पहली बार """नगर के भीतर ''खड़ंजा उखङने लगा और हर चौराहे पर बङे बङे कूङेदान रखवाये गये ।
ये कूङेदान हमारी गलत सलाह ही साबित हुये, क्योंकि लोगों को आदत जब तक न हो साफ सफाई की तब तक सफाई हो ही नहीं सकती ''।
मलिन बस्तयों और मजदूर किसान बस्तियों के जो लोग अँधेरे में नदी नाले के किनारे जाते थे शौच को वे लोग बच्चे और बूढ़े उन कूङेदानों में पॉलिथीन में मल भर कर फैंकने लगे और कूङा आसपास अगलबगल पङा रहने लगा 'कूङेदान गजबजाने और बेहद दुर्गंध मारने लगे ',आखिर कार सब के सब हटवाये गये ।
और हमारे सामने सवाल आया ""गरीब मलिन बस्तियों और मजदूरों गरीब कृषकों भिखारियों और खानाबदोश वनवासी जातियों की बस्ती में जब तक 'शौचालय सरकार नहीं बनवायेगी वे लोग तो नहीं ही बनवायेगे,,,,, स्थानीय नेताओं से मिले राजधानियों को लिखा और फिर मीडिया में, अंततः एक बस्ती में शौचालय बनवाया गया ।फिर तो दूसरी और तीसरी करते करते लगभग हर मलिनबस्ती और गरीब बस्ती में ""सार्वजनिक शौचालय बन गये ।
किंतु ये क्या लोग तो अब भी बाहर ही जाते है!!!!!
आखिरकार एक एनजीओ गठित हो गया और रजिस्टर्ड भी ।
उसकी मासिक बैठकें हम लगातार अलग अलग जगहों पर करते और वहाँ की महिलाओं को साफ सफाई  जचगी की सावधानियाँ और रोजगार के उपायों पर बताते ",,वहीं फिर औरतें घरेलू हिंसा की शिकायतें लाने लगीं और एनजीओ ने सैकङों परिवारों के घरेलू विवाद सफलतापूर्वक सुलझाये और  महिलाओं को अस्पताल में प्रसव कराने की जानकारी अस्पताल में मीटिंग करके दी "लङकियों को स्कूल भेजने की जानकारी अशिक्षित महिलाओं को स्कूल में मीटिंग करके दी वहाँ पुलिस तहसील और ब्लॉक के अधिकारी भी बुलाते और एक एक करके अनेक गाँवों में लहर चल पड़ी ।

इसी बीच पता चला कि एक मलिनबस्ती में बीचों बीच देशी शराब की हट्टी है और वहाँ दूर पास के गाँव तथा ड्राईवरों की भीङ देर रात तक लगी रहती है डैक बजता रहता है और लङकियों को फिकरे औरतों को घरों में मारपीट सहनी पङती है ।पियक्कङ इसकदर अंधे हो गये कि दारू के लिये औरतों के गहने जब नहीं मिले तो साङियाँ और बरतन गिरवी रखकर पीने लगे :एक रात ऐसी ही औरतें दरवाजे पर रोने लगी,, मन करुणा और क्रोध से भर गया तब रात को लैंडलाईन से तीन चार गाँवों की औरतों को इकट्ठा होने को संदेश भेजा और रात में ही औरतों ने शराब की दुकान पर ताला डालकर अड्डा जमा दिया कुछ दिन जमे रहे 'शराबी दिन में कुछ न कहते परंतु रात में जब बूढ़ी औरतें और समर्थक लङके रह जाते तब धमकाते "अंततः डिप्टीकलेक्टर और स्थानीय लोगों की रोज बढ़ती समर्थन की भीङ से एक दिन शराब ट्रकों में भरकर बस्ती से बाहर दूर रखी गयी ।औरतें नाचती गाती आयी और हमें घर पर जब हम रात का खाना बना रहे थे फूल मालाओं से लाद दिया ।
तब तक हमारे पङौसियों को कुछ पता ही नहीं था ।और फिर एक डाँट पङी ""परायी आग में जलना पढ़ाना लिखाना बेकार गया ""

पहली फीस मिली अंजुमन जहाँ से उसके अपने हाथ से बनी हमारे आराध्य की तसवीर "मुरलीधर कृष्ण ""
हालांकि अब तक अनेक केस निःशुल्क सुलझाये जा चुके हैं किंतु आज सोचते हैं तो झुरझुरी छूट जाती है """कि कैसे ये सब घटता रहा!!!!!
एक जर्जर विद्यालय में पढ़ते प्राईमरी के बच्चे और चारों तरफ लकङी की आरामशीनें!!! जब कुछ बेनामी पत्र लिखे तो जाँच तो हुयी परंतु काररवाही नहीं,,,, और अंततः फिर जाकर कलेक्टर से व्यक्तिगत रूप से मिले,,, तब भी बस दौरा हो गया ""अंत में मीडिया और फिर दोनों राजधानी तक सामूहिक हस्ताक्षर से पत्र भेजे """"
कई सालबाद एक मामले में ये बात खुल गयी और चिढ़ गये लोग ''
परंतु तब तक स्कूल नया बन चुका था और टालें हट चुकीं थी ""

तब पता चला कि शिक्षा की तो हालत ही सबसे खराब है!!!!!!! और क्या करते?? तब याद आया कि ग्रेजुएशन के बाद हमने पोस्टग्रेजुएशन के साथ साथ यू बी समाज सेवार्थ एन एस एस लीडर होने के दौरान गाँव गाँव कैंप लेकर साक्षरता में पढ़ाया और ""कुशल प्रशिक्षक की ट्रैनिंग लेकर टीचर्स को पढ़ाकर प्रमाणपत्र भी लिया है ।
और फिर घर पर ही चालू हुयी परदानशीन बुरकेवाली लङकियों की शिक्षा, 'जब पहली खेप पढ़ गयी तब, एक प्रोग्राम आया है का पता चला औऱ साक्षरता केंद्र खोल दिया, । सुबह से शाम तक कचहरी और घर की सेवा के बाद जब थक जाते तब, दो पीरियड लेने पङते लैंप की रोशनी में पहला परदानशीन औरतो लङकियों का जिनके पिता भाई पति अरब और खाङी देशों में थे '"दूसरे वे मदरसों के लङके जो हिंदी इंगलिश सीखकर मौलवी बनना या अरब जाकर कमाना चाहते थे ।
कुछ सालों तक 'यही दिनचर्या रही फिर एक भीषण हादसे ने हमें अस्पताल पहुँचा दिया । पति की रीढ़ का ऑपरेशन और अपनी  टूटी टाँग के साथ घर से ही फिर कलम तो चली हम नहीं कई साल तक, 'फिर लगा कि काफी कुछ बदल चुरा है अब कूङा रोज उठाने ट्रेक्टर आते है ',कच्चेशौचालय नहीं है । एक बार सफाई करने वाली सहेलियाँ अपनी बस्ती में ले गयी एक सभा में तो देखा सब बदल गया सबके मकान पक्के हैं घरों में टॉयलेट्स हैं और सङकें पक्की हर मोङ पर सरकारी नल लगा है औऱ कहीं भी मल के ढेर नहीं अलबत्ता सूअऱ जरूर घूम रहे हैं बाङों में लोगों के घर कारें हैं मोबाईल हैं बाईक है परदा समाप्त हैं ,
ये तब की बात है जब मोदी योगी को वहाँ कोई जानता तक नहीं था

दुर्घटना ने हमारा जीवन ही संकट में ला दिया और हम अज्ञातवास में चले गये """वहाँ से जब लौट पाने लायक हुये तो संगठन टूट चुका था और  हमारे अपने दायित्व मुँह बाये चुनौती बने थे """""तब लगा कि अब जर्नलिज्म की दुनियाँ में उतरना पङेगा,,, और डेढ़ साल की बेटी को लेकर हमने एम जे एम सी करने की ठानी,,,, जिसकी भी अपनी ही एक दास्तान है,,, बहरहाल अस्सी प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण हो गये यही बङी बात थी,,


©सुधा राजे

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