लेख: पजेसिवनेस आती कहाँ से है स्त्री में

एक बंधु का सवाल है ""महिलायें इतनी पजेसिव क्यों होती है???
कुछ और नहीं हो सकतीं??

जवाब कमेन्ट पर रखते तो दब जाता ',
अब इसलिये यहाँ

कि, महिलायें केवल 'पजेसिव ही होती है "पहले  तो यह किस लेबोरेटरी का आकलन है? दो दस बीस पचास सैकङा या हजार स्त्रियों के आधार पर ""पूरी दुनियाँ की स्त्री नस्ल क़ौम को एक ही स्केल पर रखना "पुरानी आदत है "
औरतें तो ऐसी औरतें तो वैसी औरतों में यह सोच वह नहीं """""वगैरह

दूसरी बात
यह कैसे साबित हुआ कि ""पुरुष पजेसिव नहीं होते???
होते तो कितने और कितने नहीं??

फिर
अब कुछ बातें कि क्यों "जैसा कहा गया कि महिलायें पजेसिव होतीं हैं
1-महिलायें जिस घर में जन्म लेतीं हैं पाली पोसी जातीं है कालान्तर में यह परंपरा बन गयी कि "वह घर वह नगर गाँव पास पङौस सखी सहेली माँ बाप बहिन भाई त्याग कर उनको एकदम अनजान या अल्पपरिचितों में जाकर रहना पङता है जीवन भर ',
जङों से कटकर
जहाँ हर बातपर यह अहसास बचपन से मायके में दिलाया जाता है "कन्या तो धन पराया "
और ससुराल में स्त्री तो है ही बेघर भला हो सांविझानिक सुधारों का कि बिगङी पर नसीब में हिस्सा लिख दिया वरना न तो पति ही न बच्चे न घर उसका!!!!!
पति बहुविवाह करते या अन्यसंबंध रखते तो "लोग आम बात मानते "और बच्चों के सरनेम वल्दियत और वंश तो होते ही "पिता के नाम "खेत मकान या तो ससुर के होते और या पति के ',आजभी जब तक "पिता दहेज में ना दे या बँटवारे से भाई न होने पर वसीयत से न मिले ""स्त्रियों नाम मकान खेत जमीनें बहुत यदा कदा ही होती हैं ।
जेवर जैसे ही बेटी पैदा हुयी "माँ जमा करके रख देती है 'कल के लिये 'और बेटा हुआ तो बहू को सौंप देना होता है बहू आते ही अकसर चढ़ावा चढ़ाने के लिये ।
कमरा एक वह भी आधा ही उसपर भी पूरे परिवार की आवाजाही बेरोक टोक '

संयुक्त या किंचिंत ही बङे परिवार की बहू के पास तो "निजी समय नाम की चूज रहती ही नहीं "

आर्थिक?
अकसर जो स्त्रियाँ नौकरी नहीं करतीं उनके तो "बैंक खाते ही नहीं "
किसी कारण हैं भी तो वे खुद दो पैसे भी स्वेच्छा ने निकाल नहीं सकतीं '
कमातीं हैं तो भी पाई पाई पर अकसर परिवारों की पैनी नजर है चाहे वह उपले पाथ कर कमाती हों या लेक्चर देकर '।
आखिर "वह क्यों न "पजेसिव हो हर सामान व्यक्ति रिश्ते और समय के हिसाब से जरूरी चीजों के प्रति??
असुरक्षा ही स्वामित्व और कब्जे की भावना बढ़ती है ,
जबकि
व्यवहार में
लाखों ठलुये गाँव की औरतें ही पाल रही हैं ',गौपालन कृषि में कटाई निराई गुङाई सब करके ""पेट में दस किलो का पत्थर बाँध कर नौ महीने ढोओ फिर पीठ पर सात साल तक लादो ''''''''और रसोई तपो """""माँ बाप छोङो ""????तिस पर ठलुयो की शराब जुआ नाचगाने बीङी सिगरेट गुटखा झेलो????? क्या सर्विस वाली लङकी मूर्ख है जो यह नहीं समझती कि """"गृहिणी की तरह जीवन भर पुरुष घर के प्रति "वफादार नहीं रहेगा?????? दूसरे "ससुराल कौन जायेगा??? तीसरे मेन्टल स्टेटस?? चौथे बच्चे तो फिर औरत ही जनेगी!!!!!!!!! फिर लाखो निठल्लों का बोझ औरतें उठातीं है ""दहेज की एकमुश्त पूँजी देकर भी

पुरुष
अपनी पत्नी अपने बच्चों तक में बिजी हो तो झल्लाते हैं '
जबकि औसतन हर तीसरी चौथी स्त्री का पति "अपने समय का बहुत कम हिस्सा पत्नी को देता है ।

औरतों में माता भी है
पेट में रखती है दर्द सहकर नौ माह की यातनायें सहकर बच्चा जनती और सात से सत्ताईस साल तक पल पल रखवाली पोषण बीमारी नाज नखरे उठाकर बङा करती है ।
बेटा हो या बेटी
विवाह होते ही दोनो पराये हो जाते हैं
माँ फिर यूजलैस लक्ष्यविहीन सी रह जाती है!!!!
पुरुष "
कभी अपनी माता को बालक रहते पिता के प्रति भी अधिक केयरिंग नहीं सह पाता ।
जबकि बहिन बुआ बेटी भी महिला होती है ।
लङकों के कपङे सेंट मोबाईल जरा छूकर देखो तो कोहराम हो जाये भाई भाई में एकाध ही कोई हो जो "जायदाद पर इंच न नापे??तिस पर हर तरह की आजादी और अपना देश अपमा परिवार अकसर अपनी पुश्तैनी पहचान का बल!!!
©®सुधा राजे

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