कविता: ::::चीख,लावा और चट्टान

संवेदनाओं और सहिष्णुताओं के मरने से पहले मैं बहुत चीखी थी बहुत ,कोई जितनी पराकाष्ठा तक चीख सकता है उतना ,मेरे भीीतर का सारा आर्तनाद अनसुना रहा क्योंकि हर बार मेरे सामने केवल कुछ दीवारें और काठ पत्थर बन चुके सिद्धांत थे संस्कार थे और थे अपने ही बनाये प्रतिमान ,अहं से परेे मेरा मैं विगलित होने से परे चीख को सुबकियों हिचकियों और सन्नाटों ने रोकने का प्रयास भी कियाा तो था परंतु मेरी जिजीविषा ने ढहना स्वीकार ही नहीं किया न किसी स्वार्थ से भरे कांधे पर न किसी निरुत्तर मौन प्रतिमा के समक्ष ,मुझे जीना था ,परंतु एक लिजलिजी सांस भर के लिये नहीं इसलिये मैं चीखी पूरे अंतरनाद के साथ और ढह गयी आत्मालाप के साथ अपनी ही गोद में एक काँधा अपना ही थामकर मुझे ,पाषाण ही बनना भाया क्योंकि जान लिया था ,कहीं किसी पल में कि वही जो कहीं नहीं ढहा वही पाषाण हो पाया ,संवेदनायें शब्द होकर रह गयीं और मेरे पास बच गये अट्टहास ;तुम कदाचित खोज सको उन प्रस्तर प्रतिमाओं में भावना के रुदन हास अवसाद क्योंकि कभी तो तुमने भी चाहा ही होगा चीखना रुदन से परे आर्तअंतरनाद को न रोक पाया होगा तुम्हारा भी मन कुछ तुम्हारा भी मन काष्ठ पाषाण होने सा लगा होगा .....©®सुधा राजे

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