Thursday 18 December 2014

सुधा राजे की कविता :- जेहन पे ये ताले

दिल भला दर्द सँभाले तो सँभाले कैसे,
जल गये बाग कोई फूल निकाले कैसे
चीख दहशत से घुटी है कि "सुधा " नफरत
से '
पङ गये सोच पे ज़ेहन पे ये ताले कैसे
©®सुधा राजे।


Monday 15 December 2014

सुधा राजे की कविता :- "आखिरी समय"

वह आखिरी समय टूटते टूटते इकबार
और बस
कहती उठ खङी होती है और सहने
और कहने की सोचकर
परंतु न तो हर बार
सब कुछ सहा जाता है ।न हर बार सब कुछ
कहा जाता है ।
और कोई कभी कब समझ
पाता है कुंदन कंचन के चमकते दमकते
चेहरों की खनकती बोली में कितने
शरबिद्ध सुर हैं
अंतरनाद की पीङाओं के
उसके वैभव निहार
'ईर्ष्याभरी कितनी ही आँखें
निहारती हैं उन
ऊँची खिङकियों को
जहाँ से हर सुबह शाम
दो बङी बङी डबडबायी आँखें
'टकटकी लगाये आह भर कर देखती रह
जातीं हैं पीले परागों कहकते कहकहों और
लहकते जीवनरागों को ।
हरे स्पर्शों शीतल
हवाओं और नरम मिट्टी की सौंध को एक
गहरी सांस भरने के लिये झरोखे पर आने
को विवश '
अपना अपना राग 'गाते दो ओर छोर
कहीं नदी की हवा से गीले होकर बरस
जाते हैं हर रात पुआल की ऊष्मित तृप्त
नेवाँस
और अटारी के ठंडे एकाकी रतजगे
एकांत अहसास में ।
डूबता सूरज और
उगता चांद दोनों ही मूक रह जाते हैं तब
जब हृदय से बङे हो जाते है गरिमा के
मिथक और कंठ में नहीं समातीं हिचकियाँ
©®सुधा राजे "


सुधा राजे की कविता :- "आई चली गई"

आई तो बहुत पहले ही जा चुकी थीं इस घर
से '
तब जब बाबा ने दहाङते हुये
सुना दिया था अपना फैसला कि 'आई 'अब
कभी अगर अपनी आई के घर गयी तो फिर
लौट नहीं सकेगी ।
आई रह गयी बाबा के साथ लेकिन बँट
गयी 'दो टुकङों में एक टुकङा रह
गया बाबा का और
दूसरा चला गया उसकी अपनी आई अपने
बाबा भाऊ के घर ।
आई फिर बँटी जब 'बेटी पैदा हुयी और
दादी खुश नहीं थी 'बेटा हुआ तो दादा ने
मुहल्ले भर को दावत देदी '।
बाबा और बेटे के बीच फिर रोज
बँटती रही "आई "और टूटकर बिखर
गयी खील खील जब 'विदाई की 'ताई
की आई ने '।
आई तब एक बार और निकल गयी घर से एक
और टुकङा ताई के घर जाकर रहने
लगा और 'आई 'रह गयी बस जरा सी 'भाऊ
के साथ 'बाबा और भाऊ के बीच पुल बनकर
दरकती '।
भाभी के आने का बङा चाव था आई को और
चाँद का टुकङा खोजती रह गयी आई 'एक
बार और टूट गयी जब भाऊ ले आया एक
संगमरमर का बुत अपनी पसंद से तब
पहली बार आई 'डर गयी और बाबा और
भाऊ के बीच टूट गये पुल के बीच
दरकती डोरियों पर टँगी आई
'रही सही भी चली गयी वनवास पर
वानप्रस्थ 'या सन्यास पर, ।
आई 'पोते
पोतियाँ खिलाती सँभालती फिर टुकङे
टुकङे हो गयी '
जब पहली बार पहली बार नहीं रहा और
आँगन में दीवारें खङी हो गयीं 'आई
का कमरा दो हिस्सों में बाद में बँटा 'आई
पहले ही ईँटों की तरह तपकर टूट
गयी फिर पकी माटी सी।
झुर्रियाँ जिस रफ्तार से बढ़ रही थीं आई
'बचपन की ओर उसी रफ्तार से लौट
रही थी कभी अपने कभी ताई और भाऊ
के।
आई फिर पूरी की पूरी ही निकल
गयी एक बार सारे के सारे घर से जब सबने
चीखकर 'आई को अहसास कराया कि उसने
किया ही क्या है!!!!!
और अब उसे घर के मामले में बोलने
की जरूरत ही क्या है!!!!!
जब 'पोती ने 'आई को रूढ़िवादी और भाऊ
ने झल्लाकर बेवजह टाँग अङाने
वाली कहकर 'मन से निकाल दिया ।
आई ने आखिरी बार पल्लू होंठों पर रखकर
रोना रोका रोकी चीखें हिचकियाँ और
रोक लीं बददुआय़ें ।
यह सारा उपवन तो लगाया उसीने
ही था वह शिकवा किससे करती '
बाबा और आई के बीच तो कबकी दीवारें
आसमान तक चिनी जा चुकीं थीं ।
जब छोटू ने संदेश दिया 'आऊ साहिब
चलीं गयीं हमेशा को दुनियाँ से ''
तो सबसे पहले चीखा भाऊ ।ताई
भी रोयी बाबा भी 'और सबके रोते
चेहरों पर मुझे दिख रही थी एक एक
नयी उगती हुयी झुर्री "एक एक सफेद
होती लट और सिकुङती उंगलियों पर
दरकती त्वचा '
मुझे लगा "आई "गयी भी और सबको दे
गयी "लंबी उम्र की दुआयें आखिर
माँ जो थी ।
वैसे आई गयी ही कब थी!!!! और न जाने क्यूँ
लगता है "आई अभी नहीं बहुत बहुत बहुत
पहले ही कब की जा चुकी थी ।
पता नहीं क्यों मेरे पास न आँसू थे न
विलाप न रुदन न सवाल
सबको लगता था भाऊ और ताई को आई से
बेहद प्यार था 'या फिर बाबा को '
©®सुधा राजे


Thursday 4 December 2014

सुधा राजे का नजरिया:- जरा सा पेच। 2

जिस तरह एक पुरुष की गवाही पर एक
पुरुष को फाँसी चढ़ती थी गुलाम भारत
उसी तरह आधे गुलाम रह गये भारत में
एक "औरत की भौंक भौंक टेंटें पर
हजारों लङकियों के खिलाफ 'फरमान
जारी होते है कैरियर और विवाह
बरबाद होते है "

वीडियो बनाने से गुनाह हो गया तब
जब लङके "पिटे??? और हर तरफ से
लङकियों के 'घरेलू लङकियों के
फोटो बिना पूछे धङाधङ खीचे जाते हैं
तब कोई बिलबिलाता क्यों नहीं???
बलात्कार के वीडियो जारी किये जाते
हैं तब कोई जलता जलाता क्यों नहीं???
लङके क्यों पिटे???
क्या लङकियाँ पागल थी?? या लङकों ने
कुछ गंदा कहा या छू दिया??
जरूरी तो नहीं कि अपराध नजर आने पर
किया हो?? और लङके लङकों से रोज
पिटते हैं तब खबर नहीं?? बात तो जलने
जलाने की है ""लौण्डियों से पिट गये!!!!!
अब लङकियों को बदनाम करो '
क्या 'संभव नहीं कि "खाप "के डर से
औरतें आधुनिकता से चिढ़ी औरतें झूठ बोल
रही हो??? वीडियो तो लोग
बिल्ली के नाचने का भी हर पल बनाते
है """वीडियो बनाने
वाला अपराधी 'कैसे जब कोई
जरूरी सूचना सुबूत करनी हो?

लोगों को परेशानी लङकों के पिटने से
है????? या इस बात से है कि ""मर्द
होकर लङकियों से पिटे????या इस बात
से है कि """वीडियो बनाया क्यों???
आज तक लङकियों के नाम पते सब उजागर
कर दिये गये '''???और लङकों को मुँह ढँक
के रखा गया???? कोई
जरूरी नहीं कि मामला छेङछाङ
का हो """""लेकिन हर बार जब
लङकी पर यौन हमला होता है तब
भी तो कोई ""जरूरी नहीं कि लङकी के
कपङे मैटर होते हैं??? हो सकता है
लङकियों ने सीट के पीछे ही पीट
दिया हो लङकों को!!!!!!!
तो मुकदमा करो मारपीट शांति भंग
का और क्या!!!!!!

लेकिन केवल ""इस आधार पर
कि लङकियों ने वीडियो "पीटने
का क्यों बनाया!!!!!!
लङकों को निर्दोष और शरीफ घोषित
करने से पहले
"लङकियों को भी सुनना चाहिये "हर
बार लङकी ही क्यों छेङी जाये पिटे और
वीडियो की शिकार हो?

और अगर """देश में
ऐसी मानसिकता पनप रही है
कि लङकियाँ जीरो "टॉलरेन्स पर आने
लगी है """और हर बार
मजनूगीरी की धुनाई करके
"वीडियो बनाकर ""सबको बताने से
शरमाती नहीं तो!!! वजह कौन है?
यही कायर समाज ही न
''जो अपनी बच्चियों को "खुली साँस न
दे सका?
©®sudha raje


सुधा राजे का नजरिया:- जरा सा पेच।

जरा सा पेच
एक लङकी को हर जगह लोग छेङते हैं
कोहनी वक्ष पर मार कर चुभा देते हैं '
गंदे इशारे आँख से हाथ ले गाना और वाक्य
से करते हैं "
छूने चिपक कर बैठने कमर पेट पीठ सिर
कहीं भी हाथ पांव लगाने
की कुचेष्टा करते हैं
नींद या नशे का बहाना करके लद जाते हैं
सभा कचहरी बस रेल वायुयान तक में!!!!!!!!
लङकी वो जो बिना कुछ कहे या बस
जरा सा विरोध करके चुप रह जाती है
बवाल के डर से और आगे बढ़ जाती है तो वे
लोग दूसरी लङकी को शिकार बनाते हैं ।
और
पेंच
ये है कि ऐसा एक लङकी की जिंदगी में
एक दो चार बार नहीं ★
बार बार
हर जगह
हर दिन होता रहता है #
सतर्क और सावधान
लङकियों को ही रहना पङता है
सो जब
# कोई घूरता है 'वे निगाहें चुरातीं है
छूना चाहता है वे सिकुङ कर दूर हटतीं है
कोंचने से बचने के लिये किसी स्त्री के
बगल में और सहेली के साथ झुंड या कोने में
बैठती हैं ।
हम सब गंदे स्पर्शों से बचने के लिये डेनिम
के मोटे जैकेट पहनते थे और बैग में धातु
की स्लेट रखते थे 'डिवाईडर के तौर पर
'स्कूल कॉलेज या ट्रेन में दूसरी सवारी से
बचने को कोहनी बाहर की तरफ फिर बैग
और छतरी बीच में ''""""
पिनअप दुपट्टे और चौङे बेल्ट
भी इन्हीं सब का हिस्सा होते थे ।
फिर भी ''''घूरती आँखें कहकहे और गाने
जुमले '''''!!!!!
हर लङकी का पीछा करते रहते हैं
लगातार बार बार हर दिन '''''
अंतर बस इतना है कि जब तक सहन
किया जाता है ये सब जब तक
कि "अपहरण बलात्कार और
बदनामी की नौबत ना आ जाये """
कोई
बाप भाई अगर यह कहता है
कि उसकी बेटी घर से बाहर
आती जाती तो है लेकिन कोई कभी छेङ
नहीं सकता तो ''''या तो वह बंद
निजी वाहन में जाती होगी या बंदूकों के
साये में """""""
परंपरावादी
औरतें ही ऐसी लङकियों की सबसे अधिक
निंदा करती हैं और '''''कारण होता है
उनका पढ़ना '
उन लङकियों के कपङे
उन लङकियों का बिना बाप भाई के अकेले
आने जाने का साहस """""
आप को यकीन न हो तो ""कम
पढ़ी लिखी बुजुर्ग महिलाओं के सामने
""लङकियों का ज़िक्र करके देख
लीजिये!!!!!!!!!!
वे लङकों को कुछ
नहीं कहेंगी बल्कि लङकियों को अकेले आने
जाने से रोकने
जींस पेंट कमीज पहनने से रोकने
और ऊँची तालीम दिलाने से रोकने
की बात करेंगी
वे महिलायें "मोबाईल रखने का मतलब
""छिनाल होना ""समझा देगी 'उनके
हिसाब से लङकियों को मोबाईल केवल
"यारों को बुलाने के लिये चाहिये "
माँ बाप भाई बहिन के संपर्क में
रहना सुरक्षा हेतु पुकार
को भी मोबाईल होता है मुसीबत में मदद
देता है या जानकारी देकर पढ़ाई मे
सहायक है यह वे नहीं मानतीं """"
बहुत सी महिलाओं के आधुनिक लङकियों के
प्रति इस क्रूर रवैये की वजह है
उनकी अपनी जिंदगी '
जब उनकी छोटी आयु में
शादी हो गयी नाबालिग आयु में अनेक
बच्चों की माता और प्रौढ़ होने से पहले
दादी बन गयीं ।अब
पूरी जिंदगी तो गुजार दी मेहनत
सेवा और बंदिश में ।
वे संचार क्रांति के बाद का युग
नहीं समझती ।
वे लङकियों को ""कल्पना भी नहीं कर
सकतीं कि वे शादी किये
बिना अकेली नगर में
रहतीं पढ़ती या जॉब करती और लङकों के
छेङे जाने पर विरोध करतीं है ।
अगर सारा आयु हर लङकी हर छेङने वाले
को "ऐ काश!! कि धुनाई रख सके तो?????
ये कितनी बार होगा????
एक दो दस पाँच बीस पच्चीस??
प्रौढ़ महिलायें तक कोहनी बाजी और
बैड टच की शिकार तो होती ही हैं
उन पर भी फिकरे कसे जाते हैं
ये और बात है कि आते जाते रोज
उनको आदत हो जाती है दूरी रखकर
निबटने और डपटने की """""
अगर सब औरतें हर दिन हर घूरने फिकरे
कसने और बैड टच करने वाले को ""धुन दें
तो???
रोज कहाँ कहाँ कितनी घटनायें होगी??
तो "आज ये कौन सा तर्क है कि अमुक
लङकी ने पहले भी एक को "पीटा????
पूछो जरा दिल पर हाथ रखकर हर
लङकी से
कि कितनो को पीटा या फटकारा या डपटा या ""बचकर
भागी या सिकुङ कर बैठी!!!!!!
अगर लङकी को परेळान किया जाये और
वह चुपचाप सहकर सिकुङ जाये तो ठीक "
चर्चा तक नहीं होता "???
कि अरे आज बङी बुरी बात हुयी वहाँ एक
चौराहे पर कुछ लफंगों ने
लङकियों को "छेङा??????
मगर '
ये जरूर 'दर्द का विषय है कि हाय हाय
लङकियाँ "लङकों को पीट गयीं??
जब लङके लङकियों को तंग कर परेशान
करते हैं कि विवश डरकर पढ़ना तक छोङ
देती हैं अनेक लङकियाँ तब कैरियर खराब
नहीं होता??
जब छेङछाङ के डर से
लङकियों की शादी कर दी जाती है तब
""एक प्रतिभाशाली लङकी का कैरियर
बरबाद नहीं होता????
तब ये "ब्रैनवाश्ड ""बुजुर्ग
स्त्रियाँ नैतिक दैत्य बनकर
लङकी का ब्याह कर दो की रट लगाकर
माँ बाप का जीना हराम कर देती हैं और
बेमेल बेप्रेम की बेवक्त शादियाँ करके कैद
कर दी जाती है हजारों लङकियाँ "
ऐसे हर गली हर रेलगाङी हर बस हर
दफ्तर हर सभा में यत्र तत्र मौजूद
""लङकियों को फिकरे टोंचने बैड टच और
टँगङी कोहनी चिकोटी 'बकौटा भरने
वाले """
तब कब ऐसा होता है कि ""दस नैतिक
दैत्यानियाँ और नैतिक दानव उठकर छेङने
वालों की """लात जूतम पैजार करके "
गारंटी बने कि ""लङकियो डरो मत
दो चार नैतिक ""रक्षक हर जगह तैनात
है????
बङी तकलीफ होती है लङकियाँ बिगङने
पर लेकिन एक दो मामले भी ऐसे
नहीं """कि पाँच बुजुर्ग औरतें
कभी "छेङछाङ करने वालों के खिलाफ
थाने जाकर शपथ पत्र दें????
या कि चप्पलें बजा दें बदतमीज
छिछोरों पर दस बीस महामानव????
चिंतन जारी है """
किसे डराया जा रहा है??
और क्यों??
हम सबने कभी न कभी ये घूरती आँखें
महसूस की हैं ।अभी कुछ ही महीनों पहले
की घटना है कि एक लंबी मॉडल
जैसी देह की लङकी 'सुभारती मेरठ से
हमारे साथ ऑटो में बैठी रेलवे स्टेशन के
लिये और ऑटो ड्राईवर ने
उसको जानबूझ कर नोंच लिया ठीक
पसलियों पर 'लङकी भभक
ही तो पङी और ड्राईवर प्रौढ़ होकर
भी ढिठाई पर 'सब मजे लेकर पूछने लगे
क्या हुआ!!!लङकी बताये तो कुछ
नहीं किंतु हमने कहा कॉलर पकङ बुड्ढे
का और
'लगा 'ऑटो वाला भागा खाली ऑटो लेकर
""""लोग आपस में बतियाने लगे "कपङे
तो देखो छोरियों के 'जबकि उस
लङकी ने पैन्ट कमीज काफी ढीली और
मफलर पहन
रखा था ''साङी वालियों से अधिक
ढँकी थी वह ''''हमने उसको शाबास
कहा और कुछ
चेतावनियाँ भी """"मेडिकल आने
वाली मरीज मजदूर महिलाओं की नजर
में लङकी की गलती थी,,,, जबकि वह
लङकी मेडिक या इंजीनियरिंग
की छात्रा थी 'परदेश में होस्टल में
रहकर पढ़ती है '''''अगर कोई
सवारी वीडियो बनाती तो??
ऑटो वाले का लायसेंस चला जाता न!!!!
बेशक "पोर्न की हर हाथ में उपलब्धि ने
लङकों को ""सेक्स
कीङा ""बना डाला है और हर वक्त
भङके यौनपिपासु कीङे की भावना से
भरे रहते है अधिकतर पोर्न दर्शक ।
सवाल ये है कि """"छेङछाङ में पिटने
या जेल जाने वाले लङके को बचाने
"""जिस तरह गवाह बनकर औरतें
या आदमी खङे हो हो जाते हैं
""""""क्या कभी ऐसा भी हुआ
कि ""लङकी चुपचाप चली गयी हो और
बस ड्राईवर या कंडक्टर
या सवारियों की औरतें आदमी """पहल
से स्वेच्छा से उतर कर
थाना कचहरी जायें और
दोषी लङकों को पहचान कर
गवाही दें?????
अकसर रोज अपडाऊन करने वाली टीचर
वकील क्लर्क प्रोफेसर नर्स महिलायें
खूब ट्रैण्ड हो जातीं हैं कि """कंधे पर
झुकर सोने लगते हैं लोग
"""खिङकी खोलने के बहाने झुकते है
जानबूझ कर बगल में बैठे हों तो लगातार
हाथ पांव चलाते हैं और बस में मोबाईल
पर भद्दे गाने बजाते हैं """"चुपचाप
लङकियों की वीडियो या तसवीर खींच
लेते हैं """""अब लङकियाँ अगर
''''''ऐसा करने लगीं है तो???
सिखाया किसने कि "सुबूत
रखो "वरना क्या पता कल
क्या कहानी गढ़ दें?
आप "कभी स्कूल जाती बस पर गौर करें
''स्कूली लङकियों को भी सिकुङकर
बैठना पङता है कुछ लङके अगर जानबूझ
कर हरकतें कर रहे हैं तो कंडक्टर
ड्राईवर 'अनदेखी तब तक करते हैं जब
तक कि पेरेन्ट्स से लङकी शिकायत न करे
""""दो बस बदलने के बाद 'लङकी और
भी तो है
आपकी ही लङकी का झगङा क्यों??
सवाल उठा दिया जाता है """"कौन
समझाये कि वे विवश लङकियाँ सह
लेतीं है ये सोचकर कि "पापा नाराज
होकर कहीं पढ़ना न छुङा दें??
जिस देश में एक
यूनिवर्सिटी का वी सी ""लायब्रेरी जाना बंद
करवा देता लङकियों का """कि लङके
पीछे आयेंगे तो भीङ होगी??
वहाँ ऐसी लङकी ही सुहाती है जो आँसू
बहाती दुपट्टा सँभालती घर जा दुबकें।
ये बिडंबना नहीं तो और क्या है
कि """लङकों की बदतमीजी नहीं रोक
पाने वाला कायर समाज
"""लङकियों के जींस मोबाईल और
कॉलेज ट्यूशन जाने पर रोक लगाता है??
खासकर हरियाणा पंजाब
यूपी बिहार???? और '''''फिर ये
गारंटी भी नहीं लेता कि साङी सलवार
कमीज बुरका घूँघट में """लङकी जान
माल आबरू से सुरक्षित रहेगी????

कितने ही कॉलेज """लङकियों के पैंट
पहनने को दोषी मानने लगे हैं
""""गजब??? क्या गांव की परदानशीन
औरतें सपरक्षित हैं??? आज की खबर है
कि कटिहार की बारह तेरह साल
की कक्षा छह की लङकी """यौन शोषण
से गर्भवती????
सवाल ये है ही नहीं अब कि "रोहतक
बस में क्या हुआ "सवाल है कि जब "लङके
रेप करके लङकियों के वीडियो बनाकर
ब्लैक मेल करते हैं और आत्महत्या करतीं हैं
लङकियाँ तब एक समाज
की कुंभकरणी नींद
क्यों नहीं टूटती????????तब ये
दादी नानी लङकों पर लगाम
क्यों नहीं लगातीं???????हरियाणा बस
में जो 'साबित हो कि लङकियों ने
लङको को मारा पीटा तो 'उनपर
मुकदमा चलेगा गुंडागीरी और चोट
पहुँचाने का "किंतु जिस तरह से ""एक
दम ये प्रचार किया जा रहा है
कि """लङकियाँ जींस न पहने मोबाईल
न रखे और क्यों वीडियो बनायी ""उस
को "क्यों "बल देकर ये
हौवा बढ़ाया जा रहा है
ताकि "लङकियों के प्रति मनोबल टूटें
और "छेङछाङ पर भी कल कोई हिम्मत न
करे??
जब "लङके महिला सीट से उठते
ही नहीं जब लङके गंदे गीत बजाते हैं जब
लङके 'भीङ में हाथ टलाते है """तब
दादी नानी अम्माँयें क्यों नहीं गवाह
बनती??? और क्यों नहीं इतना प्रबल
विरोध होता? जब
लङकियों की फोटो कोरल ड्रा और
फोटोशाप से बिगाङ कर ब्लैक मेल किये
जाते हैं तब समाज सङक पर उतर कर
क्यों नहीं एक दम """बंद कराता "ये
हमले!!!!!!!!!!

जब एक लङका ये कहता है कि """ये
तो "ऐसी ही लङकियाँ है
"""तो ऐसी ही लङकियाँ?? मायने
कहाँ तक जाता है?? रही बात तीन
लङके!!!!!!!!!!! दो लङकियाँ???????? और
फिर भी पिटते रहे????? जब तक नैतिक
कमजोरी न हो "लङके मार नहीं खाते ।
हम कोई दावा नहीं करते
कि "लङकियों को छेङा गया """""किंतु
इतना जरूर है कि जिस तरीके से फटाफट
गवाह और लङकियों के घर पहचान
की कुख्याति की जा रही है और
पिछला एक वीडियो भी सामने आ
गया कि एक लङका और वे पीट चुकी है
""""तो कोई तर्क
नहीं बनता क्योंकि ""हर दिन
यात्रा में जाते आम आदमी को पता है
रोज एक न एक ""लफंगा हर बस रेल भीङ
में मिल ही जाता है """"छूने
की कुचेष्टा ''साबित करना असंभव है
'''क्या दिखता है कोंचना या आँख
दबाना या किस उछालना?
सोचें तो """""हर रोज
हजारों लङकिया हाईस्कूल तक आते आते
बिठा दी जाती है घर केवल
"""""छेङछाङ की हरकतों के डर से??????
कितनी लङकियों को झूठे फोन कॉल
डराकर घर में बंद करा देते हैं?? कितने
माँ बाप ""अपडाऊन यात्रा के डर से
कैरियर रोक देते हैं
हजारों लङकियों का????? कब ऐसा हुआ
कि ड्राईवर ने बस थाने ले
जा खङी की हो कि "लो साब ये
छेङछाङ कर्ता अपराधी???

अब सच जो भी हो """"""असंभव ही है
सामने आना """"क्योंकि लङकों के पिटने
की तो वीडियो है """किंतु उससे पहले
क्या हुआ ये कौन गारंटी ले? चूंकि तीन
लङकों के कैरियर का सवाल है तो ""
नातेदार ही नहीं """स्त्रियों पर
तालिबानीकरण के समर्थक भी टूट पङे
हैं """""परंतु काश ये सब बहादुर
"""समाज से सदा को छेङखानी बंद
कराने को ऐसे ही बिलबिलाते तो ""ये
सब आक्रामक लङकियाँ न बनती।
हरियाणा वह प्रांत है जहाँ सबसे कम
स्त्री पुरुष अनुपात है """""जहाँ भ्रूण
कन्या वध सबसे अधिक हुये पाये गये
""जहाँ खाप पंचायतें सर्वाधिक हिंसक
हैं """जहाँ तालिबानी फरमान लागू है
""""वहाँ जींस पहनना ही गुनाह है
"""आँखें तरेरे बिना कोई
जींसवाली लङकी देखता ही कब है?
बिलकुल """"कम
पढ़ी लिखी दादी नानी "पोता चाहती है
और """आज इसीलिये बहू मोल लानी पङ
रही है अनेक "सासों को "उनको "नई
बहुयें और लङकियाँ पसंद नहीं

और यही ""ब्रैनवाश्ड
स्त्रियाँ """स्त्री शिक्षा की दुश्मन
हैं """लङकों की गलतियों पर
परदा डावती है और बहू पर जुल्म
करती है और बेटी को जॉब नहीं करने
देती """"हालात बदल रहे है धीरे धीरे
""

अनेक पिता अपनी बेटियों की पढ़ाई
लिखाई के लिये
"""अपनी बेटी की माँ से झगङते रहे हैं
जबकि माँ चाहती रही लङकी पढ़ाई
छोङ गोबर पाथे रोटी बेले """"अनेक
लोगों ने बेटियों के हित में प्रांत
ही छोङ दिया।
गलत हाथ गंदी आवाजें गंदे इशारे
फब्तियाँ और घिनौने दबाब स्पर्श और
गीत '
कोई देखता नहीं होगा क्या "????बस रेल
मेट्रो, ऑटो टैम्पो 'स्टेशन, बाजार
हस्पताल 'स्कूल कॉलेज, ऑफिस गली सङक
मुहल्ले ट्यूशन कक्षा ''
'
'????
क्यों नहीं एक माहौल बनता कि अश्लील
फिकरे गीत टच और इशारे करने वाले
तत्काल वहीं दबोच लें आस पास के लोग
कि """पकङो मारो ये है वह
लफंगा जानवर इसकी वजह से शरीफ लङके
भी शक के और शरीफ लङकियाँ डर के
कारण परेशान रहते है """"!!!!!!!
पकङो पकङो मारो मारो
चोर चोर चोर
की आवाज तो अकसर झुंड लगाकर लगाते हैं
व्यापारी दुकानदार पङौसी????
तब
क्या ""वीर विहीन मही मैं जानी????
फिर क्यों बिलबिलाते हैं तथाकथित
'सौन्दर्य के पुजारी कि अब
लङकियाँ "मर्दों की तरह होने लगीं?
क्यों न हों जब "मर्द स्त्रैण होने लगे!!!!!!
सुंदर नाजुक और कीमती चीजें तभी रह
सकती हैं जब 'लोग भले ईमानदार और
स्वच्छ मन तन वाले हों,
क्या हर लङकी 'किसी बाप भाई
की बेटी बहिन नहीं???
तो ऐसा क्यों कि अजनबी लङकी के साथ
कोई "छेङछाङ बदतमीजी 'समाज के हर
मानव का मामला नहीं???
क्या हम भारतीय इसी कारण बदनाम
नहीं???
क्यों नहीं बङी आयु की औरतें तब बढ़कर
झुंड बुलाकर पहचान कर ""लफंगों को पीट
डालतीं जब कोई
लफंगा किसी स्कूली छात्रा हो बच्ची को "बैड
टच या बैड कम्पलीमेन्ट देता है!!!!!
रहा सवाल कपङे?
तो "सबसे अधिक बुरा व्यवहार सलवार
कमीज और साङी वालियाँ ही झेलतीं आ
रही हैं और लोग बुरके में भी घूरते हैं और
मौका मिले तो टच भी करते है "
यह भी समाज की अजीब मानसिकता है
कि बाजार में बैठकर "सबकुछ बेचता है "?
और घर में बैठकर बुराई करता है?
"जो लङकी 'लङकों से झगङा करे वह
"बदचलन? और जो चुपचाप 'छेङसहकर घर
बैठे वह "सुशीला?
जींस मोबाईल और पढ़ने पर पाबंदी?
अरे डूब मरो कायरो तुम सब कभी ''समाज
में शराब गुटखा दहेज सिगरेट
गाँजा तंबाकू ड्रग्स कन्यावध और छेङछाङ
पर पाबंदी लगाने के नाम पर?
""""""""मरदानगी मर जाती है?
भूल गये यही देश था जहाँ मुँह अँधेरे औरतें
शौच को खेत जातीं कुंयें ताल नदी पर
नहाती रहीं पनघट पर
पानी भरती रहीं?
ये दादी नानी अम्मायें '''घर के
दारूबाजों के आगे भीगी बिल्ली? और
लङकियों पर 'दबादब भौंकना?
जिस तरह एक पुरुष की गवाही पर एक
पुरुष को फाँसी चढ़ती थी गुलाम भारत
उसी तरह आधे गुलाम रह गये भारत में
एक "औरत की भौंक भौंक टेंटें पर
हजारों लङकियों के खिलाफ 'फरमान
जारी होते है कैरियर और विवाह
बरबाद होते है "
©®सुधा राजे।


Wednesday 3 December 2014

सुधा राजे का " नजरिया" :- जरा सा पेच

जरा सा पेच
एक लङकी को हर जगह लोग छेङते हैं
कोहनी वक्ष पर मार कर चुभा देते हैं '
गंदे इशारे आँख से हाथ ले गाना और वाक्य से करते हैं "
छूने चिपक कर बैठने कमर पेट पीठ सिर कहीं भी हाथ पांव लगाने की कुचेष्टा करते हैं
नींद या नशे का बहाना करके लद जाते हैं
सभा कचहरी बस रेल वायुयान तक में!!!!!!!!

लङकी वो जो बिना कुछ कहे या बस जरा सा विरोध करके चुप रह जाती है बवाल के
डर से और आगे बढ़ जाती है तो वे लोग दूसरी लङकी को शिकार बनाते हैं ।


और
पेंच
ये है कि ऐसा एक लङकी की जिंदगी में
एक दो चार बार नहीं ★
बार बार
हर जगह
हर दिन होता रहता है #
सतर्क और सावधान लङकियों को ही रहना पङता है
सो जब
#कोई घूरता है 'वे निगाहें चुरातीं है
छूना चाहता है वे सिकुङ कर दूर हटतीं है
कोंचने से बचने के लिये किसी स्त्री के बगल में और सहेली के साथ झुंड या
कोने में बैठती हैं ।
हम सब गंदे स्पर्शों से बचने के लिये डेनिम के मोटे जैकेट पहनते थे और
बैग में धातु की स्लेट रखते थे 'डिवाईडर के तौर पर 'स्कूल कॉलेज या ट्रेन
में दूसरी सवारी से बचने को कोहनी बाहर की तरफ फिर बैग और छतरी बीच में
''""""

पिनअप दुपट्टे और चौङे बेल्ट भी इन्हीं सब का हिस्सा होते थे ।


फिर भी ''''घूरती आँखें कहकहे और गाने जुमले '''''!!!!!
हर लङकी का पीछा करते रहते हैं
लगातार बार बार हर दिन '''''


अंतर बस इतना है कि जब तक सहन किया जाता है ये सब जब तक कि "अपहरण
बलात्कार और बदनामी की नौबत ना आ जाये """


कोई
बाप भाई अगर यह कहता है कि उसकी बेटी घर से बाहर आती जाती तो है लेकिन
कोई कभी छेङ नहीं सकता तो ''''या तो वह बंद निजी वाहन में जाती होगी या
बंदूकों के साये में """""""

परंपरावादी
औरतें ही ऐसी लङकियों की सबसे अधिक निंदा करती हैं और '''''कारण होता है
उनका पढ़ना '
उन लङकियों के कपङे
उन लङकियों का बिना बाप भाई के अकेले आने जाने का साहस """""


आप को यकीन न हो तो ""कम पढ़ी लिखी बुजुर्ग महिलाओं के सामने ""लङकियों
का ज़िक्र करके देख लीजिये!!!!!!!!!!


वे लङकों को कुछ नहीं कहेंगी बल्कि लङकियों को अकेले आने जाने से रोकने
जींस पेंट कमीज पहनने से रोकने
और ऊँची तालीम दिलाने से रोकने की बात करेंगी
वे महिलायें "मोबाईल रखने का मतलब ""छिनाल होना ""समझा देगी 'उनके हिसाब
से लङकियों को मोबाईल केवल "यारों को बुलाने के लिये चाहिये "

माँ बाप भाई बहिन के संपर्क में रहना सुरक्षा हेतु पुकार को भी मोबाईल
होता है मुसीबत में मदद देता है या जानकारी देकर पढ़ाई मे सहायक है यह वे
नहीं मानतीं """"

बहुत सी महिलाओं के आधुनिक लङकियों के प्रति इस क्रूर रवैये की वजह है
उनकी अपनी जिंदगी '

जब उनकी छोटी आयु में शादी हो गयी नाबालिग आयु में अनेक बच्चों की माता
और प्रौढ़ होने से पहले दादी बन गयीं ।अब पूरी जिंदगी तो गुजार दी मेहनत
सेवा और बंदिश में ।
वे संचार क्रांति के बाद का युग नहीं समझती ।
वे लङकियों को ""कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि वे शादी किये बिना अकेली नगर
में रहतीं पढ़ती या जॉब करती और लङकों के छेङे जाने पर विरोध करतीं है ।

अगर सारा आयु हर लङकी हर छेङने वाले को "ऐ काश!! कि धुनाई रख सके तो?????

ये कितनी बार होगा????

एक दो दस पाँच बीस पच्चीस??

प्रौढ़ महिलायें तक कोहनी बाजी और बैड टच की शिकार तो होती ही हैं
उन पर भी फिकरे कसे जाते हैं
ये और बात है कि आते जाते रोज उनको आदत हो जाती है दूरी रखकर निबटने और
डपटने की """""

अगर सब औरतें हर दिन हर घूरने फिकरे कसने और बैड टच करने वाले को ""धुन दें तो???


रोज कहाँ कहाँ कितनी घटनायें होगी??

तो "आज ये कौन सा तर्क है कि अमुक लङकी ने पहले भी एक को "पीटा????


पूछो जरा दिल पर हाथ रखकर हर लङकी से
कि कितनो को पीटा या फटकारा या डपटा या ""बचकर भागी या सिकुङ कर बैठी!!!!!!

अगर लङकी को परेळान किया जाये और वह चुपचाप सहकर सिकुङ जाये तो ठीक "
चर्चा तक नहीं होता "???
कि अरे आज बङी बुरी बात हुयी वहाँ एक चौराहे पर कुछ लफंगों ने लङकियों को
"छेङा??????

मगर '
ये जरूर 'दर्द का विषय है कि हाय हाय लङकियाँ "लङकों को पीट गयीं??


जब लङके लङकियों को तंग कर परेशान करते हैं कि विवश डरकर पढ़ना तक छोङ
देती हैं अनेक लङकियाँ तब कैरियर खराब नहीं होता??
जब छेङछाङ के डर से लङकियों की शादी कर दी जाती है तब


""एक प्रतिभाशाली लङकी का कैरियर बरबाद नहीं होता????


तब ये "ब्रैनवाश्ड ""बुजुर्ग स्त्रियाँ नैतिक दैत्य बनकर लङकी का ब्याह
कर दो की रट लगाकर माँ बाप का जीना हराम कर देती हैं और बेमेल बेप्रेम की
बेवक्त शादियाँ करके कैद कर दी जाती है हजारों लङकियाँ "

ऐसे हर गली हर रेलगाङी हर बस हर दफ्तर हर सभा में यत्र तत्र मौजूद
""लङकियों को फिकरे टोंचने बैड टच और टँगङी कोहनी चिकोटी 'बकौटा भरने
वाले """


तब कब ऐसा होता है कि ""दस नैतिक दैत्यानियाँ और नैतिक दानव उठकर छेङने
वालों की """लात जूतम पैजार करके "

गारंटी बने कि ""लङकियो डरो मत दो चार नैतिक ""रक्षक हर जगह तैनात है????


बङी तकलीफ होती है लङकियाँ बिगङने पर लेकिन एक दो मामले भी ऐसे नहीं
"""कि पाँच बुजुर्ग औरतें कभी "छेङछाङ करने वालों के खिलाफ थाने जाकर शपथ
पत्र दें???? या कि चप्पलें बजा दें बदतमीज छिछोरों पर दस बीस
महामानव????

चिंतन जारी है """

किसे डराया जा रहा है??
और क्यों??
©®सुधा राजे


सुधा राजे का लेख :- स्त्री और समाज :- माँ महान है !!पर किसकी??

तसवीरें जैसी दिखतीं हैं वैसी होतीं नहीं हैं ।
रिश्ते तत्काल नहीं टूटते ', वा ही कोई तोङने के लिये विवाह करता है ।
धोखाधङी की शादियों को जाने दें तो अमूमन "हर लङकी लङका हमेशा साथ रहना
है ये भावना लेकर ही विवाह करते हैं ।
फिर जहाँ पत्नी केवल गृहिणी होती है वहाँ अकसर "पति का रौब ग़ालिब रहता
है और स्त्री का अस्तित्व बच्चों सास ससुर पति में खो जाता है ।
जहाँ पत्नी ""आर्थिक स्तर पर मजबूती से खङी होती है और सामाजिक रूप से
सक्रिय होती है वहाँ "तमाम पुरुष स्त्री और तमाम अवसर उसे मिलते हैं ।
पुरुषप्रवृत्ति की तरह दोस्ती और मनोरंजन भी । स्त्री में प्रतिभा है
सुन्दरता है और बैक मजबूत है फिर उसका पेट भरा है बदन पर कपङे बढ़िया है
आर्थिक सुरक्षा मजबूत है । तब ""पुरुष अहंकार आहत होता है ""दाता
""स्वामी ""और पति ""होने का ""अभिमान ""इन सब बातों को ''क्रमशः टोकने
रोकने लगता है । क्योंकि ',अक्सर ग़ार ज़िम्मेदार पुरुष करते भी यही हैं
अपनी पत्नी को घर में दायरे में रखकर ""परस्त्री को "आई टॉनिक "सभा री
रौनक समझकर "हँसी मज़ाक बतियाना और "फ्लर्टिंग " अनेक विद्रूप संबंध इन
"बातों बातों में पनप जाते हैं । कहीं स्त्री का मन आहत असंतुष्ट होता है
कहीं तन । कहीं हिंसा मानसिक सह रही होती है कहीं शारीरिक । कहीं उसके
सपने बङे और कैरियर की महात्त्वाकांक्षा और ऊँची होती है जबकि पति परिवार
"हालात "अनुकूल नहीं होते और कहीं ',पति का मन कहीं और धन परस्त्री
कैरियर या अपनी मंजिल में उलझा होता है । अब ये सब बातें एक ""गैप ""पैदा
करतीं हैं ""छोटे नगरों और कसबों में जहाँ संस्कार समाज जाति खाप
पंचायतें बिरादरी बदनामी धर्म पाप पुण्य कमजोर आर्थिक शक्ति बच्चों का
भविष्य मायके ससुराल के परोक्ष दवाब स्त्री और हाँ पुरुष को भी ""हर हाल
में जोङे में रहने पर विवश रखते हैं ""वहीं महानगरीय अत्याधुनिक जीवन
शैली में कब चुपके से किसके वैवाहिक जीवन में कौन चोर बनकर "पति चुरा ले
गयी "या पत्नी चुरा ले गया "पता तब चलता है जब एक दिन झगङा तलाक की नौबत
पर आ जाता है । ये तलाक ''वैवाहिक हिंसा मारपीट असाध्य रोग छूत की असाध्य
बीमारी वैवाहिक संबंध न निभा पाने लायक मानसिक या दैहिक नपुंसकता गायब
रहना और चरित्रहीनता पॉलीगेमी वगैरह कुछ भी हो सकता है । आज भी
अत्याधुनिक समर्थ महानगरीय "परिवार की स्त्री को छोङ दें तो अमूमन औसत
भारतीय स्त्रियाँ ""हर हाल में अपनी शादी क़ायम रखती है ""

पति विकलांग है । मानसिक विक्षिप्त है । क्रोधी है शराबी है । यहाँ तक कि
दहेज उत्पीङन नपुंसकता या बलात्कार और बंदी कर रखने वाले पति को भी
निभातीं हैं ।


Monday 1 December 2014

सुधा राजे की रचनाएँ-:-

1. सोच के देखो जला गाँव घर कैसा लगता है

मरता नहीं परिन्दा 'बे -पर
कैसा लगता है ।
जिन को कोई
डरा नहीं पाया वो ही राही।

मार दिये गये मंज़िल पर डर
कैसा लगता है ।
आदमखोर छिपे
बस्ती में ,,अपने अपने घर । अपनों से
मासूम हैं थर थर कैसा लगता है ।
अभी शाम
को ही तो कंघी चोटी कर
भेजी ।
सङी लाश पर नोंचा जंफर
कैसा लगता है ।
इश्क़ मुहब्बत प्यार
वफ़ा की लाश पेङ पर थी।
श्यामी का फाँसी लटका
"वर 'कैसा लगता है ।
चुन चुन कर सामान बाँध
कर रो रो विदा किया ।
जली डोलियों पर वो जेवर कैसा लगता है

बाबुल
का सपना थी वो इक
माँ की चुनरी थी ।
शबे तख़्त हैवान वो शौहर कैसा लगता है

छोटे बच्चे आये बचाने
माँ जब घायल थी ।
वालिद के हाथों वो खंज़र कैसा लगता है

जाने कब खा जाये लगाना फिर भी रोज
गले ।
रिश्तों के जंगल में अजगर कैसा लगता है ।
सुधा कहानी कब
थी उसकी सुनी गुनी जानी। हुआ बे क़फन
ज़िस्म वो मंज़र कैसा लगता है ।??????

2. किरचें टुकङे तिनके क़तरे
रेज़ा रेज़ा आईना ।
दिल सी हस्ती ग़म सी बस्ती चाक़
कलेजा आईना।
रूह की गहरी तहों में बैठा हर पल शक़्ल
दिखाता सा।
कभी चिढ़ाता कभी रूलाता किसने
भेजा आईना।
जब भी दिखा दिया अहबाबों को, सारे
ही रूठ गये।
राहत का तकिया हमको था
उनको नेज़ा आईना।
जिस दिन से पीछे से उसने ग़ौर से
देखा था चुपके ।
क़दर बढ़ गयी इसकी तबसे अब *आवेज़ा-
आईना।
जो कोई ना देख सके ये
"सुधा" वही दिखलाता है।
या तो इसको तोङ फोङ दूँ या रब। ले
जा आईना।
लगा कलेजे से हर टुकङा नोंक ख्वाब
की सूरत सा।
टुकङे टुकङे था वज़ूद
भी युँही सहेज़ा आईना ।
जब तक कोई तुझे न तुझ सा दिखे रूह
की राहत को ।
तब तक तनहा तनहा यूँ ही मिले गले
जा आईना ।
मंदिर की देहली पर जोगन ,,जोगन
की देहली मोहन ।
मोहन की देहलीज़ ये टूटा जगत् छले
जा आईना ।
दागदार चेहरे भी हैं इल्ज़ाम आईने पर
ऱखते ।
जितना तोङे अक़्श दिखाकर ख़ाक मले
जा आईना ।
चुभी सचाई लहू निकल कर चमक उठे
**औराक़ भी यूँ ।
तोङ के जर्रों में फिर नंगे पाँव चले
जा आईना ।

3.


सुधा राजे की रचनाएँ-:-

1. > कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखूबाई की।
>
> अम्माँ मर गई पर कैं आ
> गयी जिम्मेदारी भाई
> की।
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखू बाई की।
>
> आठ बरस की उमर
> अठासी के
> बाबा
> अंधी दादी।
>
>
> दो बहिनों की ऐसों
> करदी बापू ने जबरन शादी।
>
> गोदी धर के भाई हिलक के
> रोये याद में माई की।
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखू बाई की।
>
> चाचा पीके दारू करते
> हंगामा चाची रोबै।
>
> न्यारे हो गये ताऊ चचा सें
> बापू बोलन नईं देबे।
>
> छोटी बहिना चार साल
> की
> उससे छोटी ढाई की।
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखूबाई की।
>
> भोर उठे अँगना बुहार कै
> बाबा कहे बरौसी भर।
>
> पानी लातन नल से तकैँ।
>
> परौसी देबे लालिच कर।
>
> समझ गयी औकात
> लौंडिया जात ये पाई
> -पाई की..
>
>
> कैसे इतनी व्यथा सॅभाले
> बिटिया हरखू बाई की।
>
> गोबर धऱ के घेर में
> रोटी करती चूल्हे पे रोती।
>
> नन्ही बहिन उठा रई
> बाशन
> रगङ राख से वो धोती।
>
> बापू गये मजूरी कह गये
> सिल दै खोब
> रजाई की।
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखू बाई की।
>
> भैया के काजैं अम्माँ ने
> कित्ती ताबीजें बाँधी।
>
> बाबा बंगाली की बूटी
> दादी की पुङियाँ राँधी।
>
> सुनतन ही खुश हो गयी
> मरतन ""बेटा ""बोली दाई
> की।
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले
> बिटिया हरखू बाई की।
>
> जा रई थी इसकूल रोक दई
> पाटिक्का रस्सी छूटे।
>
> दिन भर घिसे बुरूश
> की डंडी।
>
> बहिनों सँग मूँजी कूटे
> दारू पी पी बापू रोबै
>
> कोली भरैं दुताई की।
>
> कैसें इतनी व्यथा सँभालै
बिटिया हरखूबाई की।
>
>
> बाबा टटो टटो के माँगे
> नरम चपाती दादी गुङ।
>
> झल्ला बापू चार सुनाबै
> चाची चुपके कहती पढ़।
>
> छोटी बहिन
> पूछती काँ गई
> माई!!! रोये हिलकाई की
>
> कैसे इतनी व्यथा सँभाले बिटिया हरखू
बाई की????

2. दिल की बस्ती लूट रहा ये कारोबाररूपैये
का।
लोकतंत्र या साम्यवाद हो
है सरकार रुपैये का।
बहिना बेटी बुआ खटकती क्यों है
रुपिया लगता है।
भैया पैदा रो ले 'हँस मत साझीदार रूपैये
का।
प्यार खरा बेबस रोता है
मेंहदी जली गरीबी की।
उधर अमीरं ले गया डोली सच्चा प्यार
रुपैये का।
क्यों गरीब
का प्रतिभाशाली बच्चा ओहदे पाये
सखे!!!!
अलग अलग विद्यालय
किस्मत है ललकार रुपैये का । वचनपत्र
पर
लगी मुहर है अंकसूचिका पहचानो। काग़ज
असली नकली चलता यूँ दमदार
रूपैया का।
रूपिया है तो ननदी खुश है ननदोई देवर
सासू

बीस लाख का तिलक पाँच का भात बज़ार
रूपैये का।
कोई भी ना हो तेरा फिर
भी जलवे जलसे दम होँगे

इकला ही रैबैगा रहा जो मारा यार
रूपैये का।
रूपिया दे वो ही 'सपूत है रूपिया दे
वो बीबी है

रुपिया दे वो ही तो माँ है दिल
दिलदार रूपैये का।
न्याय मिलेगा उसे कङक
जो रुपिया देय वकीलों को । सुनवाई
होगी गड्डी दे थानेदार रुपैये का।
रूपिया दे दरबान
मिला देगा मंत्री से चटपट सुन ।
रूपिया दे
तो वोट
मिलेगा ज़लवेदार रुपैये का।
रूपिया हारा नहीँ हार गये
जोगी भोगी संन्यासी ।
मंदिर गिरिजे
मस्जिद चढ़ता है दरबार रुपैये का।
रूपिया होता बाबूजी तो हम
भी संपादक होते ।
तीस किताबेँ छप
गयीँ होती बेफ़नकार रूपैये का।
रुपिया हो तो आवे
रुपिया बहुरुपिया रिश्ता है "सुधा" ।
ऐब
हुनर हैँ हुनर ऐब हैँ
फ़न दरकार रुपैये
का

3. Sudha Raje
(Nota)
अस्वीकृति का अधिकार
और
नेता के कुलक्षण
*****
व्यंग्य है कृपया बुरा न माने । 1.
राजनीति के
कामचोर हैं
अव्वल ये हर्रामखोर
हैं
1-वे जो संसद में सोते हैं
वे जो हंगामे बोते हैं
2-वे जो आज ज़मानत पर
हैं
ख़्यानत पर हैं लानत
पर हैं
3-काला अक्षर भैंस
बराबर
रिश्वत बाज़ी ऐश
सरासर
4-
ये ही तो हैं चौपट
राजा
भाजी भात बराबर
खाजा
5-
वे जो ए.सी.में सोते हैं चुपके
नोटो को ढोते
है
6
वे जो पहरों में चलते हैं पाँच साल पर घर
मिलते हैं
6-
वे जो जाते रोज
विलायत
जिनकी तोंद फोङने
लायक
7-
वे जो इंगलिश में
बतियाते
जात पाँत हिंदी
टर्राते
8
वे जो भौंके दंगा करने
रात
गली को नंगा करने
9
वे जो सिर्फ
विदेशी पीते
चोरी डायलिसिस
पर जीते
10-
जो कुनबे का ठाठ
बढाते
ज़ुर्मों का क़द काठ
बढ़ाते
11-
वे जो करते बहुत शोर
हैं
नेता ना हर्रामख़ोर
हैं
राजनीति के
"वही" चोर हैं
12-
वे जो बाँहे रोज
चढ़ाते
भाई भाई में बैर
बढ़ाते
13-
वे जो कुत्ते चमचे पाले ओहदों पर है
जीजा साले
14-
वे जो झक सफेद कुरते में टँगङी चबा रहे
भुरते में
15-
वे
जो पंचसितारा रूकते
जिनके घर जेनरेटर
फुँकते
16-.
पीते बस बोतल
का पानी
हैं डाकू बनते हैं दानी
17-.
जिन पर
लंबी ज़ायदाद है
जिनको पैसा
खुदादाद है
18-
वे जो बस उद्घाटन
करते
वे जो रोज उङाने
भरते
19-
जिनसे मिलने आम न
जाते
जिनको गुंडे लुच्चे
भाते
20
जिनकी हैं अवैध
संताने
बात बात पर अनशन
ठाने
जनहित के
मुरगी मरोर हैं
पृष्ठ दिखाते नचे मोर
हैं
अव्वल ये हर्राम ख़ोर
हैं
राजनीति के
यही चोर हैं

4. सोच के देखो जला गाँव घर कैसा लगता है

मरता नहीं परिन्दा 'बे -पर
कैसा लगता है ।
जिन को कोई
डरा नहीं पाया वो ही राही।

मार दिये गये मंज़िल पर डर
कैसा लगता है ।
आदमखोर छिपे
बस्ती में ,,अपने अपने घर । अपनों से
मासूम हैं थर थर कैसा लगता है ।
अभी शाम
को ही तो कंघी चोटी कर
भेजी ।
सङी लाश पर नोंचा जंफर
कैसा लगता है ।
इश्क़ मुहब्बत प्यार
वफ़ा की लाश पेङ पर थी।
श्यामी का फाँसी लटका
"वर 'कैसा लगता है ।
चुन चुन कर सामान बाँध
कर रो रो विदा किया ।
जली डोलियों पर वो जेवर कैसा लगता है

बाबुल
का सपना थी वो इक
माँ की चुनरी थी ।
शबे तख़्त हैवान वो शौहर कैसा लगता है

छोटे बच्चे आये बचाने
माँ जब घायल थी ।
वालिद के हाथों वो खंज़र कैसा लगता है

जाने कब खा जाये लगाना फिर भी रोज
गले ।
रिश्तों के जंगल में अजगर कैसा लगता है ।
सुधा कहानी कब
थी उसकी सुनी गुनी जानी। हुआ बे क़फन
ज़िस्म वो मंज़र कैसा लगता है ।???????
©Sudha Raje
©सुधा राजे।


सुधा राजे की कविता :- ""कारोबार रुपैये का ""

Sudha Raje
दिल की बस्ती लूट रहा ये कारोबार रूपैये
का।
लोकतंत्र या साम्यवाद हो
है सरकार रुपैये का।
बहिना बेटी बुआ खटकती क्यों है
रुपिया लगता है।
भैया पैदा रो ले 'हँस मत साझीदार रूपैये का।

प्यार खरा बेबस रोता है
मेंहदी जली गरीबी की।

उधर अमीर ले गया डोली सच्चा प्यार
रुपैये का।

क्यों गरीब का प्रतिभाशाली बच्चा ओहदे पाये सखे!!!!

अलग अलग विद्यालय
किस्मत है ललकार रुपैये का ।

वचनपत्र पर लगी मुहर है अंक तालिका पहचानो।

काग़ज असली नकली चलता यूँ दमदार
रूपैये का।

रूपिया है तो ननदी खुश है ननदोई देवर
सासू

बीस लाख का तिलक पाँच का भात बज़ार रूपैये का।

कोई ना हो तेरा फिर
भी जलवे जलसे दम होँगे

इकला ही रैबैगा रहा जो मारा यार
रूपैये का।

रूपिया दे वो ही 'सपूत है रूपिया दे
वो बीबी है

रुपिया दे वो ही तो माँ है दिल
दिलदार रूपैये का।

न्याय मिलेगा उसे कङक
जो रुपिया देय वकीलों को ।

सुनवाई होगी गड्डी दे थानेदार रुपैये का।

रूपिया दे दरबान
मिला देगा मंत्री से चटपट सुन ।

रूपिया दे तो वोट
मिलेगा ज़लवेदार रुपैये का।

रूपिया हारा नहीँ हार गये
जोगी भोगी संन्यासी ।

मंदिर गिरिजे मस्जिद चढ़ता है दरबार रुपैये का।

रूपिया होता बाबूजी तो हम
भी संपादक होते ।

शतक किताबेँ छप
गयीँ होती बेफ़नकार रूपैये का।

रुपिया हो तो आवे
रुपिया बहुरुपिया रिश्ता है "सुधा" ।

ऐब हुनर हैँ हुनर ऐब हैँ
फ़न दरकार रुपैये का

©©सुधा राजे

पूर्णतः मौलिक
सर्वाधिकार सुरक्षित रचना ।

संप्रति पता —
सुधा राजे
511/2
पीतांबरा आशीष
बङी हवेली
शेरकोट
बिजनौर
246747
उप्र


सुधा राजे की अकविता :- विखंडित खंड।

अपने ही विखंडित खंडों को बटोरकर छू छू
कर देखने का साहस न था मुझमें इसीलिये
चुपचाप चली आई मैं बिना यह कहे
कि जा कहाँ रही हूँ और
रुकना क्यों असंभव है ।
विखंडित अस्तित्व से बार बार कुछ गढ़ने
की मेरी चेष्टा व्यर्थ ही रही क्योंकि न
मेरे पास रंग बचे थे न न सुर न ही कूची और
लेखनी तूलिका और पृष्ठ '
कुछ कण थे गीली मिट्टी के और कुछ टुकङे
बांयी पसली के ऊपरी भाग के दुखते हुये
दांये हाथ की कुछ स्पंदित उंगलियां और
स्पर्श से अनुभूति के कातर अंतर्ज्ञान
'''''बस इतने से ही उगाना था मुझे बंजर
वीरान मरुस्थल में एक पङाव भर छाँव और
एक कुनबा भर
तृप्ति '''''उंगलियाँ जो थी तृप्ति के लिये
चबायीं जाती रही और बायां आलिंद
दांया निलय अनुभूतियों के लिये
उगाता रहा हर रोज एक पङाव भर
बहाना ठहरने का ।
हर बार सारे टुकङे याद आये किंतु न मैं
लौट सकी न वे मुझ तक आ पाये '
नयी त्वचा हर घाव पर आ गयी और
अंगों की जरूरत होकर भी फिर अब
कभी जुङने की संभावना ही न रही '
न आँखें थी न पांव न हाथ न ही उदर पृष्ठ
और पूरा मस्तिष्क '
वहाँ जहाँ यादें जमा होती है उस टुकङे
को लाते लाते 'बिखर गया वह यब
वहाँ जहाँ सब भूला और 'सहेजा जाता है ।
रीते ही थे सब टुकङे और क्लोन बनकर
खङा हो गया मेरा अस्तित्व
बिना इतिहास और बिना किसी जङ के
'मुझमें
जिजीविषा भी होती तो क्यों 'दूर दूर
तक सिर्फ मैं ही मैं थी और कोई नहीं था '
दांयें या बांये आगे या पीछे हर तरफ 'मैं
घूम कर देख चुकी थी '
सपनों के कफन और अरमानों की कब्रें
बनाकर पङाव छोङ दिये मैंने 'मुझे
किसी की प्रतीक्षा न थी न
था किसी लक्ष्य को पाने का चाव '
टीसते भभकते घाव धीरे धीरे ठूँठ हो गये
और 'मैं अपना ही वजूद लिये
अपनी ही तलाश में खोजती रही बाँह भर
अँधेरा 'वक्ष भर विश्राम काँधे भर रुदन
और कंठ भर हँसी '
परंतु
हर बार मुझे मिली आँचल भर उदासी और
आकाश भर तनहाई मुट्ठी भर अहसास
लिये मैं धरती से ब्रह्माण्ड
की यात्रा करती रोज छोङ जाती अपने
बचे खुचे टुकङे 'और 'सोचती अब इनमें वापस
नहीं लौटूँगी '
मैं मरती ही नहीं थी क्योंकि मेरे इतने
टुकङे होकर 'बिखर चुके थे इतनी दूर दूर
कि मुझे समेटा नहीं जा जा सकता था ।
मैं जीवित भी नहीं हो सकती थी कि मेरे
हर टुकङे में शेष प्राण अनंत यात्रा पर
रहा कभी लौटा ही नहीं '
विराट से पूछती रही ""मैं ही क्यों "
ये पीङा ही देनी थी तो ये
चेतना क्यों दी?
निश्चेतक सारे व्यर्थ हो हो जाते '
और
जब मेरी आवाज टकरा कर शून्य से वापस
आती तो मुझे पता चलता कि मेरे पास
तो ध्वनि ही नहीं है वह केवल अहसास है
मेरा कि मैं पुकारती हूँ रोज
'किसी निराकार को मूक '
और यूँ वायपविहीन शून्य सुरविहीन
संगीत मेरी वक्ष भर तनहाई को समेट
लेता "
प्रकृति मेरे हर टुकङे को अंकुरित
करती जा रही है और मैं विलीन
होती जा रही हूँ '
कभी कुछ भी हुये बिना 'ये एकांत मुझे
'मिटने नहीं देता और ये 'शोर मुझे पनपने
नहीं देता '
मुझे थोङी सी धूप जरा सी हवा और
थोङी सी नमी चाहिये थी '
किंतु इस 'मिट्टी के नीचे कुछ
भी नहीं सिवा अनंत प्रतीक्षा के '
यहाँ न मेरा कुछ है न मैं किसी से जुङ
पा रही हूँ '
मेरे टुकङे '
कभी नहीं समेटे जा सकेगे और औऱ मेरे
रिक्त हिस्सों का कोई विकल्प
प्रकृति बनाना ही भूल
गयी उगाना ही भूल गया विराट उस
मिट्टी हवा पानी पङाव और
सहजीवी 'ब्रह्माण्ड पदार्थ को 'जिसे
मेरा होना था '
इतना अकेला तो ईश्वर भी नहीं '
यह जानने के बाद '
नक्षत्र भर हँसी और रोयी में समय भर '
मैं अमर हूँ "
न मर सकती हूँ न नष्ट हो सकती हूँ '
क्योंकि मैं
'अपनी पीङा का ही निराकार हूँ और
मूर्त रूप हूँ अपने ही प्रेम के यथार्थ
की कल्पना का '
जब सारी कल्पनायें मर जायेंगी तब मैं
'समेटी जा सकूँगी एक मुट्ठी आँसुओं में एक
आलिंगन भर स्पर्श प्रेम के बिना कोई यूँ
कैसे मर सकता है!!!!!!
©®सुधा राजे


Sunday 30 November 2014

सुधा राजे की अकविता :- 2. ओस और मैं।

जब पहली पहली सरदी और
पहली तनहाई का अहसास महसूस हुआ 'तब
कोई कहीं धुंध के पार है ऐसा महसूस
भी हुआ '
थोङा सा अलग औरों से तनिक हटकर एक
और बात थी कि हर बात यह
नहीं लगा कि कोई अजनबी नया आने
वाला है 'बल्कि कुछ अजीब
सी ही अनुभूति रही कि मुझे
ऐसा लगता रहा कि कोई है जो मुझसे
बिछुङ गया है 'कब और कहाँ तो याद
नहीं किंतु हर बार पीले फूल
गुलाबी सरदियाँ और लाल
बोगोनबेलिया के गुच्छों के बीच झाँकते
नीले धुँध भरे आसमान के दामन पर तैरते
सफेद रीते बादलों में उस बिछुङे हुये एक
अपने की सदा सुनाई देती रही और हर
शाम सूरज डूबकर अहसास कराता कोई है
जो कहीं यूँ ही मुझसे बिछुङ कर चुपचाप
बैठा यूँ ही मेरी तरह सूनी झील के तट पर
आखिरी नौका के किनारे लौटने तक चप्पू
की आवाज और सायों के काले होते जाने
तक एक टक क्षिज पर सुरमई होते जाते
आकाश के बीच पहला तारा निकलने तक
चुप बैठा मुझे महसूस करता रहता है '
हर बार एक अजीब सी गंध और
उसकी कशिश खीच लाती मुझे उगते सूर्य
को सतखंड महल की छत या पहाङी से
निहारने को और डूबते सूरज की किरणों के
झील में समाकर सिसकने को महसूस करने '
ये गंध हर बार
कविता बनी कहानी बनी और बनी कई
बार चित्र मूर्ति छवि और 'जब जब
लगा कि आसपास कहीं ऐसी ही कशिश
भरी गंध आ ऱही है '
मैं हर अजनबी को निहारने लग
जाती कहीं ये
तो नहीं कही वो तो नहीं '
किंतु वह कहीं नहीं होता ।
एक बार छलावे की तरह कोई
'चेहरा आकार लेता और छूते ही पानी पर
रंग के वलय की तरह विलीन हो जाता ।
मुझे जब यकीन हो गया कि यह गंध अनंत है
अदेह है और मेरे लिये कोई नहीं आने
वाला कहीं से '
मैं बहुत रोयी बहुत उदास हुयी और
अपनी गंध छिपाने के लिये एक आवरण ओढ़
लिया ',
बहुत बरसों बाद पता चला कि यह
ऐसा बिछोङा था जो कभी मिलन
नहीं लाता '
अब हर शाम वह हूकता दर्द लिये विरह
की हिलकी भरकर सिसकती झील नहीं '
पर मैं अब भी उस दर्द को खोजने लग
जाती हूँ जब सरदियाँ सुलगने लगती है
अलाव में और गरमियाँ बुझने लगतीं है
घङौंची भर पानी में '
मेरी महक छिपाती मैं जान चुकी हूँ ये
मेरा बिछोङा 'मेरे अपने ही वजूद से
मेरी अपनी गंध से कभी मिलन नहीं होने
वाला तलाश अब नहीं पर ये किसने
कहा कि ये मेरा भ्रम है?
हर सच प्रमाणित कब हुआ?
हर चीज जोङे में कब होती है? हर
बिछोङा मिलन कब लाता है ।
हाँ मैं जी सकती हूँ बिना किसी तलाश के
सरदियों की शाम और बरसात की भोर में
भी तनहा क्योंकि वह गंध अब मुझे अपने
भीतर से आने लगती है जब दर्द बढ़ने
लगता है मैं गुनगुनाने लगती हूँ तब
©®सुधा राजे।


सुधा राजे की अकविता :- 1. ओस और मैं।

जब आसपास के शोर में मैं डूबने लगती हूँ तब
'और जब अपने भीतर की विराट
खामोशी से मैं ऊबने लगती हूँ तब '
जब चाँद मुझे घूरने लगता है और तारे
मुझपर हँसने लगते है तब '
सहसा कहीं से एक टुकङा तनहाई आकर मुझे
थाम लेती है और आसमान भर एकान्त
मेरा हो जाता वहाँ जहाँ हर तरफ सब
कुछ न कुछ बोल रहे होते हैं मुझे अकस्मात
सुनाई देने लगती हैं
'घुटी हुयी सिसकियाँ और 'मेरे कदम मेरे
बेजान शरीर से निकल कर बाहर उङने
लगते हैं सलाखों को मोङकर
उंगलियाँ वीणा के तारों तक
जा पहुँचती है और पैरों में नूपुर बाँधकर
थिरकने लगता है दर्द 'झरने लगती है
कविता ऊँची प्राचीर पर बादलों से और
भीग जाता है सारा प्रासाद खंड
वहाँ जहाँ मेरा बेजान बजन पङा हिल
भी नहीं पाता मैं उङकर सारे ब्रह्माण्ड
में खोजने लगती हूँ उसे जो मुझसे
सदियों पहले कहीं बिछुङ गया था 'रंग
गंध शब्द रूप स्पर्श और अनुभूति से परे
'सारा वायुमंडल मेरी रीती बाहों के
देहविहीन अस्तित्व में समा जाता है यूँ
जैसे मैं हूँ अंतरिक्ष का सन्नाटा और आकाश
के पिंडों के टूटने का शोर एक आर्तनृत्य
एक आप्त रपदन के बाद की 'वीरानी में
जब कभी 'नीला सागर मेरे पैरों को छूकर
पीछे हट जाता है मैं विराट से पूछने से रह
जाती हूँ "मैं ही क्यों "क्योंकि मेरे उत्तर
बिखर जाते है शब्द के सुर बनकर
एकाकी मेरी ही तरह कण कण खंड खंड
घुलते हुये आकाश की तरह मैं हूँ
ही कहाँ ',एक अहसास के सिवा कुछ
भी तो 'रातरानी के सारे फूल पारिजात
की सारी कलियाँ झरकर महक उठतीं है
और सारी दूब भीग जाती है मेरे आँचल
की तरह 'फिर एक और गहरी स्याह रात
की रहस्यमयी बातें सुनकर चुप रह जाने के
लिये 'दूर तक भटकते बिछुङ गये झुंड से पँखेरू
की तरह अंधेरी रात में सफेद परों पर 'गंध
और दिशा की तलाश में 'परिपथ है कहाँ?
कुहू की कूज से न कभी सन्नाटे टूटते हैं न
जागती है कभी खामोश चाँदनी ओंस के
सिसकने से 'डूब कर रो लेना और फिर
चुपचाप सवेरे 'किरणों के साथ
खो जाना 'चाहे वह मैं हूँ या ये ओंस
'क्या फर्क पङता है
©®सुधा राजे


Thursday 27 November 2014

सुधा राजे का लेख :- स्त्री और समाज :- पितृसत्ता और स्त्रीवाद

और जिन घरों में सास ननद
देवरानी जेठानी नहीं होती वहाँ???
और जो अविवाहित लङकियों पर ज़ुल्म
तेज़ाब रेप किडनैप चोरी करके वेश्यालय
बेचना और छल से प्रेम के नाम पर
छोङना होता है वह?? और
जो नन्हीं लङकियों की लाशें जगह जगह
नोची खाई मिलती है वे??
ये "पुरुष पुरुष का दुश्मन कम है??? सबसे
अधिक पुरुषों की हत्यायें युद्ध
डकैती गैंगवार सङक
दुर्घटना किडनैपिंग और
आतंकी वारदातों में होती है???
क्यों नहीं सारे पुरुष एकजुट होकर
अपनी जमात बिरादरी को सुधार लेते?
कम से कम पुरुष तो पुरुष को न मारे??
पुरुष घर में पिता से झगङता है
"नशा शराब बीङी सिगरेट और
दुश्चरित्रता की वजह से
""""अगली बात होती है जमीन और
मकान और
रुपया """"स्त्री की भूमिका तो खुद
""पुरुषों ने लिखी कि "जहँ लगि नाथ
नेह अरु नाते पिय बिन तियहिं तरणिहु
ते ताते """""फिर जरूरी तो नहीं हर
घर में सब भाई राम लखन हों? या सब
पिता 'चरित्रवान और उदार?? अकसर
बहू पर जुल्म दहेज की माँग से शुरू होकर
''नौकरानी बनाकर कैद करने मायके
को पूरी तरह त्यागने तक होता है
''''जो स्त्री विरोध करती है घर तोङू
कहलाती है? ""जबकि ये जिम्मेदारी उस
पुरुष की होनी चाहिये कि वह
उसकी रक्षा करे """ये
टीवी सीरियलों को आम घरों पर लागू
न करें ''उनकी कहानी प्रायः पुरुष
लिखी हुयीं हैं
ब्रह्मण ग्रंथ गृहसूत्र पुराण
स्मृतियों का सहारा लेकर "उत्तर
वैदिक काल से ही "वैदिक कालीन
मातृसत्तात्मकता को ध्वस्त करने के
षडयंत्र चालू हो गये थे जिसे बल
दिया विदेशी आक्रमण के बाद
स्त्रियों के अपहरण बलात्कार और
वेश्या बनाने ने ।अधिक से अधिक पुरुष
पैदा करना अधिक तर घरेलू कार्य
'कूटना पीसना धोना बिलौना छानना फटकना और
पकाना माँजना पीसना जल भरना सब
स्त्रियों पर ""कर्तव्य कहकर लाद
दिये गये "संतान का पिता कौन है इस
बात के निर्धारण हेतु स्त्री के
पुनर्विवाह और विधवा के पवित्रता के
नाम पर हक छीने गये 'कुमारी भोगने
की ललक ने 'स्त्री पर शर्तें
थोपी विवाह पूर्व प्रेम न करने और
पतिव्रता रहने की फिर 'बाल विवाह
कर दिये जाने लगे कि ''कहीं प्रेम न करे
कहीं अंतरजातीय विवाह न करे
कहीं 'विवाहपूर्व माँ न बन जाये '।और
बाहर बलात्कारियों "स्त्री चोरों और
बहलाकर प्रेम में फँसाने वालों का "डर
दिखाकर रक्षा सुरक्षा के नाम पर
स्त्री को """कैद करके पढ़ने और
यात्रा करने और कहीं भी आने जाने तक
से वंचित कर दिया गया "आज "ये
संक्रमण काल उसी फसल का फल है
"क्योंकि दिमाग तो कुदरत की देन है ।
मातृत्व की अतिरिक्त
पीङा मजबूरी और बच्चे
की जिम्मेदारी से उपजे "घर के भीतर
रहने के स्त्री के जननीपन से लाभ लेकर
"युगों से पुरुष छल करता चला गया 'और
स्त्री "सबकुछ जानकर या अनजाने में
"छल "मातृत्व परिवार और के बीच
''बाहरी आक्रमण से बचने को कैद और कैद
से बगावत करके बाहरी आक्रमण
सहती रही घरेलू कलह "गौर से देखें
तो "नशा फिजूलखरची लालची दहेज
लोभी परिजन और स्त्री पर
तानाशाही की पुरुषवादी क्रूरता की देन
है "माना कि 'अनेक घरों में
स्त्रियाँ आपस में झगङतीं है "परंतु "वजह
"कैद कमशिक्षा और बाहर अवसर न होने
की घुटन से शुरू होती है ।न मायके
जाकर रह सकतीं है न "पंद्रह
आदमी की गुलामी करने की दम है "न
पृथक रहे बिना पति बच्चे अपने हो सकते
हैं तब???
पितृसत्ता क्यों है?? क्योंकि बाहर
भेङिये बनकर घूमते पुरुष से बचाने के नाम
पर कैद करके रखी जाती औरतों की हर
आजादी घर में छीन ली जाती है

एक लङकी को छेङने की वजह से
सारा मुजफफनगर जल गया??
तो कितनी लङकियों को कैद मिली?
जल्दी शादी? बलात्कार? और बाद में
पति की निगाह में हीनता!!!!!!!! तो यूँ
कैद घुटन में कोई कैसे "खुश रहे? और
दुखी कैसे सुख बाँटे?

लङके प्रेम की बातें करते है ""लङकी से
होंठ सिलवा दिये जाने की आशा?
पति फ्लर्ट करता है परस्त्री??
पत्नी से सावित्री की आशा?? दामाद
का देवता सा स्वागत?? बहू में बंधुआ
मुफ्त की दासी?

पत्नी ही झगङों की जङ है अगर आप
यही कहना चाहते है तो ""ये
टीवी सीरियलों की भाषा है
""आटा नहीं पिसकर आया मुन्ने की फीस
जमा नहीं 'ननद के बेटे का भात
नहीं गया और बजट खत्म!!!!! सिगरेट
शराब देर रात बाहर रहना और मायके
से तवज्जो न मिलना भाई की ससुराल के
कैदी हालात ""न जाने आम औरत
सहती क्या क्या है गर्भवती तक
को पीटते हैं पुरुष!
रहा सवाल औरतों को दोष न देने
का????तो तरस आता है आप पर कि आपने
नहीं सुना सुख सागर '''अलिफ
लैला ''तोता मैना और "न ही धर्म के
उपदेश पर गौर किया औरत नर्क
का द्वार है माया है 'झगङे की जङ है
और मोह की पिटारी है।"मतलब??
नीयत खराब पुरुष की???परदे करे
औरते??काबू में नहीं चरित्र पुरुष का??
बेची खरीदी नचाई जायें औरते??प्रेम
निभा नहीं सका पुरुष?कुलटा कहलायें
औरतें और हरामी संतान छोङकर भागें
कायर पुरुष??और पतिता कहलायें
औरतें??भेङिया बनकर घूमे पुरुष?और बंद
करके रखी जायें औरतें?कितने इलजाम
तो अभी आपने ही औरत जात पर धर
दिये?एक दो दस बीस पुरुष का कार्य
निजी अपराध??और चंद
औरतों की कमी बेशी का ठीकरा फोङा जाये
पूरी ""स्त्री क़ौम पर???
पिता के घर बेटी होने पर मान सम्मान
के नाम पर स्वावलंबी बनाने री बजाय
"जात बिरादरी देखकर औकात के दहेज से
"""न कि प्रेम से विवाह कर
दिया जाये???? और पति के घर रुपये
कमाने का ताना दिया जाये??
पितृसत्ता क्या है "लङकी बनकर
सोचना।
आज भी जानबूझकर ऐसे हालात घर से
बाहर तक पुरुषों की पूरी संगठित
साजिश का परिणाम है कि लङकियाँ न
पढ़ सकें न खेल सकें न जॉब या बिजनेस करें
"वरन शादी करके बेटा पैदा करके
रोटी पकाये और घर सँभाले,,,, जिस घर
पर न हक न हुकूमत?


Saturday 22 November 2014

सुधा राजे का लेख :- ""स्त्री बीज शोषण के ""

Sudha Raje
पचास करोङ स्त्रियों के लिये देश
की """"क्या नीति है?????
पिछली सरकारों के पैंसठ साल बनाम
""पाँच साल ""अब नयी सरकार के
"""गिनती चालू है """""
एक करोङ यूपी वासी स्त्रियाँ कब
हिसाब
माँगेगी जाति बिरादरी मजहब से
ऊपर उठकर """"माँ बेटी बहिन
की भावना पक्षपात से ऊपर उठकर
"""""नारी प्रकृति और
जननी """होने की जाति के लिये
सुरक्षा न्याय और शांति पूर्ण
सृजनात्नक अवसर????
We can't wait for Beasts """
उठो और गाँव गाँव महिला दल बनाओ
",,मर्द पर औरत फ़िदा होती है मर्द
के साये में औरत बेखौफ़ सृजन करती है
मर्द की परवरिश में औरत परवान
चढ़ती है ",",","बलात्कारी ""मर्द
नहीं
कोहनीबाज नोंच खसोट करने गंदे
इशारे गीत और परस्त्री को जबरन
छूने की चेष्टा करने वाले मर्द नहीं ।
मर्द का अर्थ यौनिकता स्े
नहीं पराक्रम वीरता धीरज साहस
परहितार्थ जांबाजी और दिल
दिमाग से ताकतवर होकर ताकत
को समष्टि की सुरक्षा हेतु लगाने से
है """""""
बलात्कारियों को समूल नष्ट करने
वाले कृष्ण ही पुरुष हैं भीम पुरुष है
लक्षमण पुरुष हैं और पुरुष है वे सब
पुलिस सेना स्वयंसेवक जवान प्रौढ़
जो "स्त्री के अपमान को सहन
कभी नहीं करते अपराधी को दंड देते
हैं ।
वे सब पुरुष है जिनको परवाह है
अकेली दुकेली अच्छे बुरे मौसम में
आती जाती स्त्री को कोई नुकसान न
हो । जो चलते मार्ग पर
स्त्री को पहले निकलने देते हैं वे पुरुष
है वे पुरुष है जो स्त्री बूढ़े और
विकलांग के लिये रक्षक है और बस
ट्रेन ऑटो में उनको जगह देते है
सामान उतारने चढ़ाने में मदद करते हैं
"""वे पुरुष हैं जिनकी कलाईयों में
छेङखानी करने वालों के पंजे मरोङने
की ताकत है
तो डूबती माँ बेटी को बचाने
का साहस भी है ।
मर्द और पुरुष केवल यौनिकता के शब्द
जो समझते हैं
उनको लङकियाँ कभी आदर
नहीं देती प्यार नहीं करतीं ।
कोठे पर जायें या धोखा देकर घर
बसा लें "।
माँ बहिन बेटी पत्नी बहू
भतीजी भाँजी भाभी दोस्त
का प्यार इन राक्षसों के लिये है
ही नहीं """""""""
मर्द का बच्चा है तो औरत का दिल
जीतेगा जिस्म को बिना विवाह के
कभी नहीं छुयेगा ।
मर्द के साथ महफूज महसूस
करती लङकी के दिल में हर उस रक्षक
पुरुष के लिये आभार है कृतज्ञता है
नमन और प्यार है श्रद्धा और स्नेह है
विश्वास है """""जो घर मेले बाजार
कॉलेज बस ट्रेन दफ्तर में
""उसको यकीन दिला पाते हैं
कि """मैं हूँ न """
दिल से हर लङकी चाहती है कि जब
वह घर में अकेली हो एक मर्द
उसकी रक्षा के लिये
हो पिता पति भाई पुत्र कजिन
या पङौस का मुँहबोला नाता दोस्त
सहपाठी """""""
जब वह बाहर जाये तो भी कोई
अपना बेहद करीबी भरोसेमंद साथ
रहे ।
पर कौन?????
और किस पर भरोसा करे??
स्त्री के सब दुख और रहस्य हृदय में
रखकर भी कभी कहीं मुँह न खोलने
वाला मर्द दोस्त सहपाठी """"""
हर वक्त टोक टाक करते रहने पर
भी पूरी तरह उस स्त्री के पहनने
खाने पीने सोने पढ़ने की चीजें
जुटाता बाप और बङा भाई ....
दिन रात चिढ़ाता धगङता लेकिन
हर समय साथ देता अनुज ""
हुकुम चलाता लेकिन सेवक की तरह
फरमाईशे पूरी करने को दिन रात
खटता पति ।
साहस बँधाता और मजाक
उङाता कलीग सहपाठी ।
स्त्री कोई ""एलियन नहीं है "वह
पुरुष वादी समाज की आधी आबादी है

लगभग तीन अरब स्त्रियाँ
मर्द केवल बलात्कारी हत्यारा होने
का मतलब है तो बाकी सब फिर?????
कौन हैं?
मर्द शब्द को बङे ही सीमित मायनों में यौनसंबंध स्थापित करने में सक्षम
नर मात्र होने से ही 'रूढ़ 'होकर लिया जाने लगा है ।
भारत जैसे देश में लोग भूल क्यों जाते हैं कि "अर्जुन "को नपुंसक होना
पङा और शिखंडी भी नपुंसक था, किन्तु वीरता पर कोई सवाल दोनों के ही कभी
नहीं उठाया गया ।नवग्रहों में शनि राहु केतु और बुध को भी नपुंसक कहा गया
है ज्योतिष में किंतु सबसे बलवान यही ग्रह माने भी गये हैं ।
पौरुष शब्द का अर्थ परुष अर्थात कठोर कर्कश बलवान और वीर से ही ध्वनित
होता है ', बात बात पर बचपन से ही मध्यम वर्गीय और गरीब परिवार की
लङकियों को ताने और हिदायतें दे दे कर सिखाया जाता है कि ""तेरी फलां कमी
अमुक गलती कोई मर्द 'तो कतई बर्दाश्त ही नहीं करेगा और अगर कोई "मील्ला
या मसालापिसऊआ मिल गया तो चलाती रहना अपनी अपनी "
इसी तरह के मिलते जुलते वाक्य सुनकर औसत कसबाई छोटे नगरों और गांवों की
लङकियाँ बङी होतीं है । मर्द स्त्री से दबकर नहीं रहेगा, मर्द औरत की कही
सलाह या बात नहीं मानेगा, मर्द औरत के साथ दया और सहानुभूति नहीं बल्कि
रुतबा हुकूमत और आतंक का व्यवहार रखेगा, """"""आदि इत्यादि बातें इस तरह
फ़िजा में तैर रही हैं कि न चाहते हुये भी दुष्ट होते जाते हैं कम या औसत
बुद्धि के युवा और तबाह कर लेते हैं अपने ही हाथों अपना परिवार '।
एक अज़ीब सी दुष्टता जबरन सिखाई जाती है "कुछ मुंबईया फिल्मे सिखातीं है
बाकी सब 'खुद घर और पास पङौस की औरतें तक प्रेरित करतीं है ।छिः क्या
लौण्डियों वाली तरियों रो रिया!!!!
छिः क्या पिंकी बना फिर रिया!!!
क्या छोकरी का माफिक माँ से डरता है पिओ बिन्दास '

और जब किशोर से युवा और युवा से प्रौढ़ होते होते सही गलत की परख होती है
तब तक देर हो चुकी होती है ।
प्रकृति की योजना में माँ कोनल होकर पालनहार और पिता कठोर होकर रक्षक
होयही सृजन और संसार के अनवरत रहने का नियम रहा ',इसे इसी अर्थ में समझा
जाना जरूरी भी है 'आज का हर लङका कल के लङके लङकियों का एक रक्षक पिता
होगा ।
जिस तरह लङकी को टोका और सिखाया जाता है उसी तरह लङकों को भी अब टोकने और
सिखाने की जरूरत है और यह काम लङकियाँ यानि आज की मातायें बहिनें बुआ
भाभी मौसी काकी ताई और दोस्त सहपाठी करेंगी ।""
मर्द या नामर्द औरत या किन्नर नहीं ""मनुष्य बनो पहले जिम्मेदार मनुष्य
साहसी और विश्वसनीय मनुष्य "
©सुधा राजे


Wednesday 19 November 2014

सुधा राजे का लेख --" पुरुषवाद""

अच्छे पुरुष
सुबह उठते हैं और पत्नी को टहलाने ले जाते हैं दूर तक पीछे पीछे या साथ,
पत्नी के आगे आगे होती है कुत्ते की जंजीर और कुत्ते की चेन पकङ कर खींचे
रखते "अच्छे पुरुष बतियाते हैं सिर्फ, पत्नी की सुन्दरता, बच्चों के लिये
निवेश और घरेलू सामानों की सूची के बारे में ।

अच्छे पुरुष सुबह पहले उठकर 'चाय बनाते हैं दूध पकाते है और अलार्म की
तरह सब छोटे बङे बच्चों को समय से जगाते हैं और 'जोङों के दर्द से परेशान
माँ और खाँसी से बेहाल बाबूजी को बेड टी गरम पानी देकर बगीचे की सिंचाई
करते हैं ।

अच्छे पुरुष जब तक बच्चे बूढ़े नाश्ता नहीं कर लेते पत्नी के साथ रसोई घर
के कामों में हाथ बँटाते है । सब्जी धोना आटा गूँथना और प्लेट टेबल पर
रखना 'बच्चों को स्कूल या स्कूल वाले वाहन तक छोङने जाना ।


अच्छे पुरुष
पत्नी के साथ जो भी जैसा भी नाश्ता मिले खा लेते हैं और जरूरत पङने पर
बना कर भी खिला देते हैं और यदि घर नाश्ता न भी मिले तो दफ्तर या दपकान
या अपने मिल कारखाने की कैण्टीन से चाय ब्रैड पर भी गुजारा खुशी खुशी कर
लेते हैं ।

।अच्छे पुरुष
खुद कभी गुस्सा नहीं करते अलबत्ता बङबङ करती पत्नी 'झल्लाती माँ और
ठुनकते बच्चों का मूड ठीक करने के लिये हँस कर माहौल को हलका बनाते और
'गुस्से में बङबङाती पत्नी के टेढ़े मेढ़े चेहरे पर फ़िदा होते रहते हैं



अच्छे पुरुष अपनी कमाई का सारा पैसा रुपया सीधे सीधे पत्नी की झोली में
रखकर 'फुरसत हो जाते हैं और महीने के आगामी दिनों के लिये पाई पाई से
हिसाब देकर पेट्रोल और बाहर की चाय तक के पैसे संकोच के साथ माँगते रहते
हैं ।


अच्छे पुरुष
समय से घर से निकलते हैं और बिना सूचना दिये कहीं नहीं जाते ।ठीक समय पर
कार्यस्थल से घर वापस आते हैं वाहन कभी चालीस की रफ्तार से आगे नहीं
चलाते और "ऊपरी कमाई या ओवर टाईम के पैसों से घर आते समय पत्नी बच्चों की
पसंद के उपहार या खाद्य पदार्थ रास्ते से लेकर घर आते हैं ।


अच्छे पुरुष
कभी पत्नी के सिवा किसी दूसरी स्त्री को घूरकर नहीं देखते और हमेशा दीदी
बहिनजी माताजी कहते हैं या समझते हैं 'कोई अगर गले पङना भी चाहे तो गंदगी
समझकर पीछा छुङाते हैं ।
!
!
पत्नी के साथ हर ससप्ताहान्त पर बाहर घूमने जाना और बच्चों को चिज्जी
खिलाना सिनेमा दिखाना नियम से पूरा करते हैं और सापितीहिक साफ सफाई में
मेहनत वाले सब काम पहल करके खुद करते हैं.
!
अच्छे पुरुष
सास को माँ और ससुर को पिता कहते हैं और समझते हैं । साले साली को अजीज
भाई बहिन समझते हैं ।
अपनी माँ की चिढ़ और पिता की शिकायतों की परवाह किये बिना ससुराल वालों
से मिलवाने समय समय पर पत्नी को ले जाते हैं हर समारोह जो ससुराल के
नातेदारों के यहाँ होता वहाँ जाते है और उपहार भी देते है कामकाज में हाथ
भी बँटाते हैं और जरूरत पङने पर मदद भी करते हैं तन से मन से धन से ।

अच्छे पुरुष
न पत्नी का जन्म दिन मनाना भूलते हैं न विवाह की वर्षगाँठ न बच्चों का
फीस डे न जन्मदिन और न ही माँ पिताजी की रोज की दवाई रात को पैर दबाना
सिरहाने पानी रखना 'बीमे और आरडी की किश्तें भरना और न ही 'बहिन को
मनिऑर्डर भेजना और न ही बच्चों का होमवर्क और पेरेण्ट्स मीटिंग भूलते हैं


अच्छे पुरुष
को हमेशा पता होता है कि उसकी पत्नी की पसंद का रंग गंध स्वाद और जरूरत
दैहिक मानसिक और दैनिक जीवन की क्या है वह बिना कहे ही सब निभाता और पूरी
करता है


अच्छे पुरुष
अपने हर खाते पेंशन 'जमीन मकान और निवेश में "नोमिनी "पत्नी को बनाते हैं
और मकान तो सदा ही पत्नी के नाम कर देते हैं हर खाता जॉईन्ट और निवेश भी
सहकारी करते हैं ।

अच्छे पुरुष
पत्नी की हॉबी हुनर और प्रतिभा को अवसर देते हैंऔर कमी या नुक्स पर कभी
मजाक नहीं बनाते बल्कि धैर्य से टालकर उत्साह बढ़ाते हैं ।पत्नी की उदासी
दूर करते हैं और खुशी देने के हर संभव प्रयत्न करते हैं ।बेटा बेटी में
भेद नहीं करते हिंसा मारपीट गाली नशा नहीं करते ताने या दहेज तो सवाल ही
नहीं आता ।

"
!
!अभी बाकी है और भी किंतु
अंत में अच्छे पुरुष
हैं कौन?
सबको अच्छी पत्नी की 'सीमा और गाईड लाईन याद है '
किंतु
क्या "ये सीमा खुद पर भी लागू होती है?
©®सुधा राजे


Saturday 15 November 2014

लेख::-""स्त्री और समाज।""सुधा राजे

स्त्री और समाज
सुधा राजे का लेख
""""""""""""""""""
वेश्या? तवायफ? रंडी? रखैल?
गाली नहीं हुज़ूर ',देश की एक बङी जनसंख्या में रची बसी स्त्रियों की
हक़ीकत है!!!!!!!!!
°°♦°°♦°°
भारतीयों को बात बात पर हवा पानी दोस्तों परिजनों तक को गाली देने की आदत
है 'और ग़ज़ब ये कि लगभग सब गालियाँ "स्त्रियों "को लक्ष्य करके दी जाती
हैं और उस पर रोना ये भी कि अपने स्वयं के परिवार की स्त्रियों के लिये
ठीक वैसी ही गालियाँ जब कोई दूसरा दे तो 'मरने मार देने पर उतारू!!!!!!
गणिका वेश्या नगरवधू नर्तकी तमाशेवाली नचनिया और बेङनी पतुरिया और तवायफ
रंडी और न जाने किन किन बदनाम संज्ञाओं से जानी जातीं हज़ारों लाखों
स्त्रियों के जीवन का सच है "देह व्यापार "कुछ दशक पहले तक यह कलंक केवल
महानगरों और मेट्रोपॉलिटन शहरों तक ही सीमित था 'किंतु इंटरनेट और
टेलीविजन मोबाईल क्रांति सङक परिवहन और रेल परिवहन के विस्तार के साथ ही
'
''देह व्यापार का कोढ़ "
छोटे नगरों और कसबों तक भी फैल चुका है। अपने विकृत और सबसे खराब रूप में
यह हाईवे किनारे के गांवों में पहले से ही मौज़ूद था, फिर कुछ जातीय
जनजातीय पारंपरिक व्यवसाय के रूप में सारी शर्मलाज ग्लानि और सुधारेच्छा
छोङकर पीढ़ियाँ बदलता रहा ।

कितनी अज़ीब सी बात है न!!!!!!!
आज लोग बङी बङी बातें करते हैं 'दलित शूद्र सवर्ण 'जनजातीय नागर देहाती
'परंपरा के अच्छे बुरे व्यवसाय समझे जाने के कारण हुये भेदभावों को
समाप्त करके 'शोषित 'वर्ग को संरक्षण देकर समाज में आगे और मुख्य धारा
में रखने के लिये आवश्यक हर उपाय को अपनाने और कानूनी बल देकर सबको मानने
पर विवश करने की!!!!!!!!
किसी को ""शूद्र या दलित जाति ""सूचक शब्द कहने पर 'एक्ट लग जायेगा सजा
होगी ज़ुर्माना होगा!!

किंतु "किसी स्त्री को एक बार किसी भी कारण से "देहव्यापार ''में धकेले
जाने के बाद ''वेश्या ''का नाम देने के बाद न तो स्वयं उसकी वापसी संभव
है, न ही उसकी संतानों की????

कम से कम दो तीन मामले ऐसे हैं जहाँ की हमें जानकारी है कि वह लङकी
मेधावी छात्रा थी 'पढ़लिखकर पीएचडी की लीलिट् किया 'प्रोफेसर हो गयी,
विवाह किया ',किंतु
पूरा नगर जानता था कि वह 'तवायफ की बेटी है 'और इसी कारण कॉलेज में उसे
लगातार फिकरे 'सेक्स आमंत्रण 'सुनने पङते रहे, उससे बात करते ही 'लङके
बदनाम हो जाते और लङकियों को परिजनों की चेतावनियाँ मिलने लगतीं । विवाह
टूट गया और बेहद सुंदर बेटी लेकर वह बूढ़ी माँ के साथ रहने लगी
',पारिवारिक मैत्री के कारण दूसरे प्रोफेसर की "रखैल का खिताब मिला "और
वह एक लेखिका होकर भी साहित्य जगत में अस्पृश्य ही रही ।
मन हमेशा उसके संघर्ष को नत मस्तक रहा, किंतु समाज के सामने कितनों का
साहस रहा कि वह किसी भले के घर सच खुलने के बाद आ जा सकती?
दूसरे मामले में उसकी माँ नर्तकी थी 'बेटी का प्रेमआसक्ति में विवाह हुआ
रईस युवक से और परिणाम स्वरूप उस युवक को परिवार ने बहिष्कृत किया
बिरादरी ने भी दस में से पाँच संतानों का विवाह हो नहीं सका, एक का विवाह
होकर बेटी को ससुराल छोङनी पङी, 'दूसरी बेटी के पति ने दूसरी शादी कर ली
और नर्तकी की दौहित्री होने के कारण परिवार से बाहर ही रहना पङा उस लङकी
को । लङके को एक दरिद्र घर की लङकी से विवाह केवल जाति में मिलने के लिये
करना पङा, और तब भी ',चौथी पीढ़ी के विवाह और सामाजिक जीवन पर उसका 'असर
ये है कि पीठ पीछे लोग बातें बनाते हैं और रिश्ते 'टूट जाते हैं ।

सवाल है कि जब "नर्तकी तवायफ या वेश्या होना इतना बुरा और दूरगामी पीढ़ी
दर पीढ़ी होने वाला बुरा प्रभाव है तो कोई स्त्री "क्या सहर्ष वेश्या
बनती होगी???
©®सुधा राजे


Monday 10 November 2014

सुधा राजे का लेख :- " दिखावा या प्रेम???"

दैहिक संबंध बनाना अगर प्रेम होता तो हर ग्राहक से वेश्या को और हर भोगी
हुयी कालगर्ल या वेश्या से "वेश्यागामी पुरुष को "प्रेम? होता ।
मनुष्य होने के अपने बंधन और अपनी स्वतंत्रतायें हैं जिनमें से एक है कि
कोई "मर्द ये नहीं चाहता कि मेरी पत्नी प्रेयसी और सहवासिनी को कोई दूसरा
पुरुष ""उस ""नज़र से देखे जिससे वह अपनी स्त्री को प्रेम करता और दैहिक
संबंध बनाता है ।
जब एक पशु कुत्ता बिल्ली गधा और सुअर सरेआम यौन संबंध बनाते हैं तो 'सभ्य
मानव ऐसी बातों से अपने अबोध बच्चों और परिवार की स्त्रियों लङकों तक को
अलग रखना चाहता है ।
कारण है ""यौन व्यवहार संक्रामक उत्तेजना फैलाता है औऱ दूसरे प्राणियों
के यौन व्यवहार असमय ही उन लोगों में भी यौन उत्तेजना ला देते है जो अभी
सेक्स करने जोङा बनाने की स्थिति में नहीं हैं ।
जरा सोचकर देखें कि ''यौन बुभुक्षित आपराधिक सोच वाले कितने ही लोग आसपास
मँडरा रहे हों तब "एक जिम्मेदार पुरुष क्या अपनी पत्नी या प्रेयसी के साथ
प्रेमालाप कर सकता है?
क्यों नहीं?
क्योंकि वह समझता है महसूस करता है कि वह जो जो कुछ व्यवहार पत्नी या
प्रेयसी के साथ करता है वह सब "वे दर्शक बुभुक्षित तमाशबीन आपराधिक सोच
वाले लोग "कल्पित करने लग सकते हैं खुद के लिये ',
यह
सुनने पढ़ने लिखने में खराब लगे पर सच कङवा होता है ',।
जो भी सचमुच आजीवन प्रेम और विवाह निभाना चाहता होगा वह पुरुष कभी अपनी
स्त्री को दूसरे पुरुषों के सामने यौनव्यवहार से प्रदर्शित नहीं करेगा ।
बल्कि वह एकान्त खोजेगा और दूसरे नरों से छिपाना चाहेगा अपनी प्रेमिका
अपनी स्त्री को ।
अनेक बार "स्त्री में यह प्रदर्शन आ जाता है
"He is my man "
और वह अपने पति या प्रेमी से एकांत की बजाय भीङ औऱ समूह में कुछ नटखट
प्रेम प्रदर्शन भले ही दिखाने लगे ।
किंतु "विवाह और परिवार बसाने के प्रति गंभीर पुरुष शायद ही कभी दूसरे
किसी नर "के सामने अपनी पत्नी प्रेयसी को "यौन व्यवहार से दिखाना चाहे '
क्योंकि वह कभी नहीं चाहता कि वह जिस नजर से उसे देखता है जो जो कल्पनाये
करता है जैसे नाते है वैसा कुछ "कोई अन्य पुरुष उस लङकी के लिये सपने तक
में सोचे '।
इसलिये
ये किस हग और लव के आम प्रदर्शन रिसर्च के विषय हैं कि ""अगले वेलेन्टाईन
डे तक टिकेगें?? या
प्रायोजित जोङे बनाये गये?
भोजन वस्त्र आवास की तरह ही "प्रेम और सेक्स भी मानवीय जरूरत है "
किंतु जिस तरह हर "अभावग्रस्त गरीब हलवाई की दुकान की प्लेटें नहीं चाटते
फिरता 'जैसे झोपङी वाले बंगलों में हल्ला बोल नहीं कर देते न दरिद्र
कपङों की दुकाने लूट लेते हैं 'वैसे
ही ।
प्रेम के अभाव में भी मानव पशु नहीं हो जाता न ही सेक्स ही प्रेम का
अनिवार्य हिस्सा है 'वरना '
वर्तमान जितने भी परिवार हैं उनमें से आधे से अधिक तत्काल बिखर जायें ।
और वे जोङे एकदम अलग हो जायें जिनमें स्त्री या पुरुष कोई एक दैहिक
असमर्थता के के शिकार हो गये या किसी कारण एक दूसरे से दूर दूर रहते हैं

प्रेम को "व्यक्त करने का आखिरी स्तर यौनसंबंध है किसी के लिये तो कोई
"दैहिक संबंध होने की वजह से प्रेम कहता है ।
मानवीय मन की जटिल संरचना में यह भी विचित्र सत्य है कि अनेक परिवार ऐसे
जोङों के हैं जिनमें जरा भी प्रेम नहीं ।फिर भी कर्तव्य निभाते सारा जीवन
साथ रह लेते हैं । और दूसरी और ऐसे भी जोङे है जिनमें प्राण लुटाने जैसा
प्यार है किंतु यौन संबंध नहीं रहे कभी ।
या बहुत जल्द सदा को खत्म हो गये ।
यौवन पंद्रह से पैंतालीस या पचपन तक की सीमित अवधि का काल है किंतु जीवन
तो सौ साल से भी ऊपर हो सकता है ।
विवाह पच्चीस ले तीस के आसपास ही अकसर लङके लङकियों का होता है ।
तो क्या पंद्रह से तीस 'और पचास के बाद के सौ साल तक के बीच की अवधि के समय "
वह जीवित न रहेगा?
जोङा तोङ देगा?या साथी से नाता तोङ लेगा?

ये "प्रेम प्रदर्शन के नाम पर "राजनीतिक नुमान्दगी से अधिक कुछ नहीं ।
बेटा बहिन बहू पौत्री दौहित्री भाञ्जी भतीजी सब प्रेम करने को स्वतंत्र हैं किंतु
"हर संरक्षक कोई गुलाम नहीं कि पाले पोसे पैसा कमाकर लगाये पढ़ाये लिखाये
सब करे "किंतु 'युवा होती है छुट्टा छोङ दे किसी के साथ भी 'दैहिक संबंध
बनाने को???
यह भी मालूमात न रे कि वह लङका कमाता क्या है कल को बीबी बच्चों को कहाँ
रखेगा क्या पहनायेगा खिलायेगा और कब तक??????
चुंबन
अगर प्रेम का हिस्सा है तो प्रेम सेक्स का और सेक्स का परिणाम संतान
परिवार कुटंब की जिम्मेदारी है जो "नाता स्थायी न हो उसके दम पर परिवार
नहीं बसाया जा सकता "।
और जो प्रेम परिवार क्रियेट नहीं करता 'अभिभावकों को परिवार में शामिल
नहीं करता वह "आवारा पशुओं के सेक्स स्वछंदता के प्रदर्शन से अधिक कुछ
नहीं ।
जितने जोङों ने सङक पर चुंबन लिये क्या वे "स्थायी जोङे हैं? या ऐसी
भावना है? शोध का विषय है ।
यौन व्यवहार जोङे के नितांत निजी एकांत की चीजें हैं ।
क्योंकि कोई सच्चा साथी कभी दूसरे को अपने साथी पर "नजर डालता उस नजर "से
कभी पसंद नहीं कर सकता ।
copy right ©®Sudha Raje



Saturday 1 November 2014

सुधा राजे का लेख :- " स्त्री और पर्वों का समाजशास्त्र।"

हर बात को नकारात्मक दृष्टिकोण और
"नारी/पुरुषवाद ''के चश्मे से
देखना समीचःन नहीं है । भाईदूज
'इसी का एक उदाहरण है ',बहुत
लोगों का मत है कि इसमें भाई
की श्रेष्ठता जतायी गयी है '
चलिये समझते है '
सर्वप्रथम तो इसकी कथा ',यमुना यम
दोनों भाई बहिन कभी पृथक होकर
रहना नहीं चाहते थे
'यमुना को लगता कि उसके भाई से श्रेष्ठ
पुरुष कोई हो ही नहीं सकता 'और वह
भाई जैसा ही 'वर 'चाहती है
नहीं तो अविवाहित रहेगी और 'यम
'समझाते हैं कि यह असंभव है बहिन
को तो विवाह के बाद घर छोङकर
जाना ही पङेगा और तब यमुना हिमालय
यमुनोत्री से मथुरा वृन्दावन आतीं हैं ।
यम वचन देते हैं कि जो भाई 'इस दिन
'बहिन के घर जाकर बहिन के हाथ से जल
लेकर यमुना स्नान करेगा उसे, और
जो बहिन के घर भोजन करके
दक्षिणा अन्न वस्त्र स्वर्ण धन देकर
बहिन के चरण पूजकर मान सम्मान
करेगा उसे पूरे एक वर्ष अकाल मृत्यु असमय
यमपीङा से "मैं यम "मुक्त
करता रहूँगा ।"बहिन के हाथ से तिलक
करवाकर ही बहिन को दक्षिणा देकर
भी "आज भाई भोजन करे "।
यह परंपरा आज विविध नामों से विविध
प्रान्तों में जारी है ।
आप कुछ भी सोचें परंतु यहाँ देश काल और
परिस्थितियों को ध्यान रखें, बृज
बुन्देलखंड सहित अनेक प्रान्तों में भाई
"छोटी हो या बङी "बहिन के चरण पूजते
हैं और कभी अधोवस्त्र नहीं धुलाते जूते
नहीं उठवाते, जूठा खाना या जूठे बरतन
नहीं छूने देते ।पवित्र व्यक्ति की तरह
हर शुभ कार्य में बहिन आगे रहती है ।
विवाह के समय भी भाई 'धानबोने
'की रस्म के साथ बहिन
की डोली को कंधा देकर "मंगलमय जीवन
की शुभकामना ''करते हैं ।
यूरोप हो या भारत अकसर विवाह के
बाद लङकियाँ घर छोङकर "पति 'के घर
रहने चलीं जातीं हैं ।
राखी "भाईदूज "मधुश्रवा सिमदारा ''
ये बहाने भाई को बहिन के घर चाहे
"स्नेहदुलार या समाज या धर्म या रस्म
लोकलाजभय 'या कर्त्तव्य
जो भी जिसको विवश करे '।
अब से कुछ ही पहले तक 'हर भाई पर ये
भार रहता ही था कि उसे "टीका कराने
जाना है ""
यह त्यौहार केवल बहिन ही नहीं भाई
पर भी समान नियम
रखता था बिना टीका कराये
''पानी नहीं पीना न भोजन करना "।
इसलिये एक दिन पहले ही बहिन के घर
पहुँच जाया करते थे भाई ।
साल में दो भाईदूज मनाई जाती है एक
होली के दूसरे दिन एक दीवाली के तीसरे
दिन । होली वाली दूज पर बहिन मायके
आ जाती और दीवाली वाली दूज पर भाई
बहिन के ससुराल जा पहुँचते ।
यह समय होता है चावल आने और गेंहूँ बोने
का "चावल ज्वार बाजरा ''और बीज
बोने के "बहिन की दक्षिणा के गेहूँ
""लेकर भाई जा पहुँचता ।
मेल मिलाप की खुशी ',हालचाल
का सिलसिला और उपहार का फर्ज़ ये सब
मिलकर बनता दिल से निकला आशीर्वाद
"दुआयें "
कि मेरा वीर जुग जुग जिये और
विजयी रहे ।
नयी फसल बोने का प्रारंभ
देवोत्थानी एकादशी से होता है और
पहला आशीर्वाद "बहिन से
लिया जाता ।
बहिन अभाव में न रहे ।अकेली और
उपेक्षित न रहे ।
दरिद्र और दुखी न रहे ।भाई भूल न जाये
कि उसकी हर शुभ शुरुआत पर सबसे पहले
बहिन का आशीष जरूरी है ।
मनीषियों ने सोच समझकर त्यौहार रचे
।लोगों ने कालान्तर में विकृत कर डाले ।
सब बंधुओं को आज भाईदूज पर
शुभकामना नमन और 'सन्देश कि ""पहल
कीजिये रिश्ता चाहे खून का हो या बस
मानी हुयी बहिन जाकर देखें दूज पर घर
और महसूस करें नवीन
होती रिश्तो की दुनियाँ । यह भी देखना समझना और महसूस
करना सुखद है कि ""जब सब दरवाजे बन्द
हो जाते हैं जाति धर्म और लिंग भेद के
नाम पर 'तब भी भारत में 'केवल रक्त
संबंधी ही नहीं दूसरे जाति मज़हब के लोग
भी भाई बहिन होकर निभा लेते हैं सुख
और दुख 'एक बिना शर्त
की स्थायी मैत्री मतलब --बहिन भाई।
©®सुधा राजे


Saturday 18 October 2014

सुधा राजे का लेख :- ""सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री।"

सुहाग की अवधारणा और भारतीय स्त्री '
★सुधा राजे ★का लेख ''कॉलम "स्त्री के लिये "
"""""""
एक नर और मादा जीव युवा होने पर दैहिक रासायनिक तत्वों की क्रिया
प्रतिक्रिया से परस्पर आकर्षित होकर जोङा बनाते सेक्स करते और बच्चे पैदा
करके 'पालते 'और मर जाते है परिवार में सहयोग सहजीवन के साथ, 'इतनी सी
कहानी है विवाह की ।किंतु भारतीय विवाह "दैहिक या प्रजनन की बजाय दैवीय
और परलोक तक की अवधारणाओं से जोङे जाकर सेक्स पार्टनर या बच्चों का
जन्मना मात्र नहीं है । ये न सतयुग त्रेता द्वापर है न ही सती का युग ।
फिर भी आज भी ऐसी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह 'जहाँ पिता भाई चाचा ने
कर दिया चलीं गयीं ',वहाँ पहले दूसरे दिन हफ्ते या साल बीतते बीतते जान
गयीं कि धोखा हुआ है और पति नामक प्राणी 'वैसा नहीं न ससुराल वाले जैसे
बताये गये 'फिर भी ',सोच लेतीं है, संस्कार ही ऐसे हैं कि अब जो हो गया
सो हो गया 'विवाह 'तो बस एक बार ही होता है दोबारा नहीं अब यही तकदीर है
।वे लौटने की बज़ाय निभाकर जगह बनाने और सब कुछ ठीक करने की कोशिश में
जुट जातीं हैं । परंतु अपवादों को छोङ दें तो बहुत कम मामलों में बदलती
है तकदीर ',ऐसी शादियाँ एक "रस्म "वचन और संस्कारों की लाश बनकर रह जाती
है ।
कहीं शिक्षा दीक्षा का धोखा कहीं हैसियत और घर खेत स्थायी संपत्ति की
झूठी बातों का धोखा, कहीं कमाई वेतनमान आय को लेकर बोले गये झूठ 'तो कहीं
आयु और कभी कभी जाति बिरादरी धर्म तक के धोखे, 'फिर भी, वही की वही
अवधारणा, '
"""अब तो जो जैसा होना था सो वैसा तकदीर के लिखे मुताबिक़ हो ही गया विवाह ""
अब क्या हो सकता है, अब जैसा भी है जो भी है "यही "वर है पति है संसार का
भाग्येश है,और यही है ""सुहाग""।
जिस सौभाग्य को पति के प्रेम गलबहियाँ सहजीवन दैहिक संबंध मानसिक समाधान
सहयोग समर्थन आस्था निष्ठा विश्वास 'रति प्रणय श्रंगार से जोङकर देखा
जाता है, वही ""सुहाग """?
इस तरह की धोखा खायी छली गयी ठगी गयी स्त्रियों के लिये ''केवल पति का
जीवित होना बनकर रह जाता है ।
न पति साथ सोता खाता पीता बोलता बैठता घूमने जाता है न ही बहुत बात चीत
किसी मुद्दे पर होती है 'फिर भी '""सुहागिन ""है और इतना उस कमनसीब
भारतीय स्त्री के लिये पर्याप्त होता है ।
वह पति का घर साफ करती है ।पति के माता पिता भाई बहिनों के प्रति सारे
दायित्व निभाती है और चाहे निःसंतान रहे या किसी बच्चे को गोद ले या
'किसी तकनीक से पति के अंशबीज से या नयी पुरानी तकनीक से 'क्षेत्रज
'बच्चे जन्म दे, परंतु वह '''''सुहागिन """बनी रहती है ',बिन पति की
प्यारी प्रणयिनी और शैया शायिनी हुये ही वह "सिंदूर बिंदी चूङी बिछुये
मंगलसूत्र पहने ""स्वयं को सुहागिन बनाये रखने के लिये तीज वट सावित्री
करवाचौथ आदि अनेक कठोर व्रत करती है ।जबकि पति न तो चूङी बिंदी सिंदूर
बिछुये लौंग साङी खरीद कर देता है न ही अपेक्षा होती है कि वह ठीक समय पर
दल अन्न तक ""व्रत खोलने को अपने हाथ से दे देगा।
एक आधुनिक दिखने वाली उच्चशिक्षित सक्षम स्त्री जिसकी बाहरी समाज में
अपनी स्वतंत्र पहचान है और लोग यकीन ही नहीं कर सकते कि वह स्त्री जो
अनेक मुद्दों पर बेहद मजबूत नज़र आती है उसकी अपनी भावनायें संस्कार
मान्यतायें और व्यक्तिगत जीवन इतना दुःखपूर्ण भी हो सकता है कि वह जिस
"सुहाग "के लिये वर्ष भर एक के बाद एक कठिन व्रतोपवास करती और घर सँवारती
बच्चे पालती 'कमाकर घर चलाती और पति की हर जरूरत का ध्यान रखती है वास्तव
में इतनी अकिंचन है कि 'चंद्रोदय के बाद पति के हाथ से दो घूँट जल और एक
ग्रास अन्न तक माँग नहीं सकती न ही वह स्वप्रेरणा से देने वाला है "चुपके
से पति को देख लिया आरती कर ली और तसवीर मंदिर में पूजकर 'सुहाग 'के अचल
अखंड अनंत अमर होने का वरदान माँग कर पति की जूठी थाली में से एक कौर खा
लिया 'एक घूँट पी लिया ', ।
आधुनिक नारीवाद के सब विचार अपनी जगह 'और 'सुहागवादी अवधारणा अपनी जगह '।
विचित्र है संस्कृति जिसमें वही स्त्री, शब्द अपशब्द पर झगङती नजर आती है
'यदि विवाह के प्रारंभिक वर्षों के 'फल स्वरूप संताने हो गयीं तो, या
नहीं हुयी संतान तो भी, 'वही स्त्री उसी पति से झगङती या मौन साधे अनबोल
रखती असंपृक्त असंबंधित असंलग्न पृथक होकर उसी पति के घर रहती या कई
मामलों में अलग घर नगर रहती भी '''सुहाग ''की कामना करती है प्रकट रूप
में पति से जूझती लङती या नाराज बोलचाल बंद किये नज़र आती स्त्री हर पल
मन ही मन 'पति की अच्छी स्हत रहे 'पति की अच्छी कमाई प्रतिष्ठा और हर शुभ
कार्य में विजय रहे, आयु लंबी शताधिक हो कीर्ति अखंड हो """""आदि तरह तरह
की कामनायें अपनी प्रार्थनाओं में करती है।
उसके जीवन में पुरुष तत्व का सर्वथा अभाव है और वह स्वयंसिद्धा स्वयं का
पुरुष होकर भी अपने संस्कार नहीं छोङ पाती ।
न तो कभी कोई पास पङौसी जान पाता है न कभी कोई, नाते रिश्तेदार सखी सहेली
बहिन माता या भाभी 'और देवरानी जेठानी, न ही स्वयं पति ही अकसर समझ पाता
है कि 'जिस स्त्री को वह एक डिब्बी सिंदूर तक खरीद कर नहीं देता, 'वह
अपनी कमाई से मंदिर के बाहर से बिंदी सिंदूर लेकर "सुहाग "धारण करती है
और कपङे अपने खुद बनाती या खरीदती है 'अपनी कमाई पति की घर गृहस्थी में
लगा देती है, फिर भी '"सुहागिन कहती कहलाती है खुद को वह जिसे 'न तो
कुँवारी के अधिकार प्राप्त कल्पित सपनों के 'न समाज विधवा की सहानुभूति
दया दे सकता है ',न वह सुहागिन के सौभाग्य की तरह हर बार सुख दुख में
अपने पीछे पति को खङा पाती है ।
ये स्वाभिमानी समवयंसिद्धा स्त्रियाँ ऐसा जीवन अंगारों पर चलकर विवाह
निभाती हुयी क्यों जीती है? वे चाहें तो उनके हर कष्ट का पल भर में समापन
और उनपर अत्याचार करने वाले पति और ससुराल वालों को तुरंत दंड मिल सकता
है ।वे नया परिवार बसा सकतीं हैं ।परंतु वे खयालों सपनों और कल्पना तक
में ऐसा करना नहीं चाहतीं ।क्यों? कौन सा भय है उनको? बदनामी या नेकनामी
का सवाल तो ऐसी स्त्रियों से पृथक है क्योंकि "पतिप्रिया "नगीं होने से
आसपास की सचमुच भाग्यवान पतिप्रियायें उसकी किंचित हँसी उङातीं ही हैं ।
सुहाग में वैराग का ये भारतीय 'जीवन केवल भारत में ही संभव है ।हम ऐसी
कुछ स्त्रियों को जानते है 'अपने हाथ पर रखे आँवले की तरह 'और आपके परिचय
के दायरे में भी हो सकता है ऐसी 'सुहागिनें "हो सकतीं है ।क्या वे यश के
लिये अपना यौवन बिता देती है तनहाई में, क्या पति के ज़ुल्म उपेक्षा अभाव
सहकर वे कोई नोबेल पपरस्कार जीतेगी? या उनको कहीं समाज बहुत सम्मान मान
देने वाला है? कुछ भी तो नहीं!!!!
बल्कि होता ये है कि बच्चे अगर हैं तो 'धीरे धीरे पहले पिता से नफरत करने
लगते हैं बाद में माँ की उपेक्षा और अंत में वह 'पुनः एक नाउम्मीदी का
शिकार होतीं है जब जीवन बीत जाता है और यादों में रह जाती है सूनी रातें
उदास दिन कर्कश शब्द तीखे ताने भीगे तकिये और हाहाकार करती दुखती काया '।
क्यों करतीं है ऐसा न करें न!!!!!
मूर्खता है ये!!
आत्महनन है ये
अंधविश्वास और संस्कारों की जकङन है ये,
ऐसा "पवित्रता "सतीत्व और एकपुरुष वादी 'ऑर्थोडॉक्स विचारों की वजह से होता है ।
आज रॉकेट युग है 'सती 'युग नहीं ।
आप नहीं समझा सकते उनको । वे आपके साथ हर टॉपिक पर बहस कर लेगीं संभव हुआ
तो चाँद पर भी चलीं जायॆंगी, रॉकेट उङा लेगीं किंतु ''सुहागवादी
""अवधारणा से बाहर नहीं निकलना चाहतीं ।
आस्था या निष्ठा ने उनको दिया क्या?
कोई भी पूछ सकता है 'किंतु क्या ये सब कुछ पाने के लिये होता है???
भारतीय विवाह की नींव में ''कम या अधिक इसी ""सुहागवादी ''अवधारणा का ईंट
गारा चूना पत्थर सीमेन्ट लगा हुआ है ।
ये पीढ़ी दर पीढ़ी "व्यवहार से ही एक स्त्री दूसरी को सिखा डालती है ।
घरेलू हिंसा औऱ स्त्री शोषण के पीछे भी
यही ""सुहागवादी "अवधारणा जकङी रहती है ।जिससे धीरे धीरे अत्याधुनिक नई
पीढ़ी भारमुक्त हो रही है।
न तो कोई थोपता है न विवश करता है न ही आशा अपेक्षा से कोई स्त्री जानबूझ
कर ऐसे जीवन को चुनती है ',।ये देन है हालातों की फल है परवरिश और अध्ययन
का और चाहो भी तो इन कङियों को 'तोङना आसान नहीं '
एक विवाह की नींव कमज़ोर या पुख्ता इस पर नहीं कि पुरुष क्या कमाता या
लङकी पर कितने गहने कपङे पाती है, 'वचन जिनको न स्त्री याद रख पाती है न
पुरुष 'याद रहती है तो ""सुहाग की अवधारणा ।
ये सुहाग पति का शरीर नहीं 'पति का घर नहीं 'स्त्री का विवाह होना न होना
तक कई मामलों में नहीं 'बस एक विचार एक अहसास एक 'अमूर्त सोच है ।बूढ़ी
पुरानी औरतें जल्दी जल्दी चूङी बिंदी बिछुये बदलने को मना करतीं है
।कहतीं है जगतमाई ने सबको नाप तौल कर दिया है सुहाग सो घोल पीस कर पहनो
'मतलब जब तक चले तब तक पहनो नया तब ही लेना जब पुराने की अवस्था न रहे
'बच्चे जन्म या परिवार में सगोत्र की मृत्यु पर ही नयी चूङियाँ बदलने का
विधान बताती है वरना 'चूङी तब तक पहनो जब तक चले ।
""""आधुनिक उपयोगितावाद बाज़ारवाद ने 'फैशन का रूप कितना ही दे दिया हो
फिर भी 'सुहागवाद 'इन चमकतीं चीजों के भीतर कहीं गहरे बैठा है "अपर्णा
"बनकर '।
इसे समझने के लिये स्त्री होना पङता है 'कदाचित ही कोई पुरुष इसे समझ सके
',निभाना तो स्त्री को ही पङता है, लाख कानून बन जाये और हजार आधुनिकीकरण
हो जाये 'किंतु सुहागवाद कहता है ''फटे को सिला नहीं रूठे को मनाया नहीं
मैले को धोया नहीं तो 'गृहिणी स्त्री का जन्म बेकार ही गया ।
कहाँ कहाँ ये च्यवन की सुकन्यायें तुलसी की रत्नावलियाँ और यशोधरायें
जसोदायें 'है उनके सिवा कदाचित ही कोई जान सके और जाने भी क्यों उनका
जीवन उन्हे जीने दो ये वे चितायें हैं जो ज़िंदा जलती है हर रोज और शांत
होने पर कोई शोर नहीं होता कहीं 'न फूल चढ़ते है ।
©®सुधा राजे


Thursday 16 October 2014

सुधा राजे का लेख :- " पुनर्दास भव"।

टाई '
एक व्यर्थ चीज है ।
न तो बदन ढँकती है ।
न ही मुँह पोंछ सकते हैं न हाथ पाँव न
ही कुछ बाँध सकते हैं न ही लाज ढँक
सकती है 'न ही सरदी गरमी बरसात के
संरक्षण से ही इसका कुछ लेना देना ।
हालांकि प्रोफेशन की विवशता और
स्कूल की अनिवार्यतावश हमें
भी पहननी पङती रही ',
किंतु हर बार जब भारतीय दुपट्टे अँगोछे
'पिछौरे 'शॉल 'गुलूबंद 'से
तुलना की तो टाई '
सिवा एक """"अंग्रेज मानसिक
दासता '''''की निशानी के कुछ
भी नहीं लगी ।
इतना ही नहीं ये टाई जिसकी 'नॉट
'इस तरह की लगती है
जो जरा सा ही पिछला सिरा खीचों तो 'पहनने
'वाले की ज़ान ले
लो 'फाँसी का लटकता नमूना ।
और क्राईम के अनेक मामलों में
यही पाया भी गया कि 'टाई से
गला घोंटकर मार डाला, या टाई से
हाथ पाँव बाँध कर डाल दिया 'या टाई
से लटका कर छोङ गये ',
क्योंकि एक आदर्श टाई 'व्यक्ति की कद
के लंबाई की ही होती है, '
मँहगी इतनी कि एक टाई की कीमत में
एक 'ग्रामीण की पूरी पोशाक
या बिस्तर आ जाये!!!!!
सिलाई का ढंग कटाई
का सलीक़ा इतना बेहूदा कि 'टाई
निकालने के बाद थान के थान कतरन
बचती है ',
इसके विपरीत एक ढाई मीटर
का दुपट्टा या अँगोछा 'हज़ारों काम
का '
पहन लो 'कपङे बदल लो 'सामान बाँध
लो 'बच्चा पीठ पर बाँध
लो 'गाङी टो करने को रस्सी ' शिशु
का झूला '
जरूरत पर चादर ओढ़ कर सो जाओ और
मजबूरी में कछोटा पहन कर लाज ढंक
लो 'सिर पर बाँधो तो धूप सरदी बचे
'कमर में कस लो तो 'लङने मेहनत करने में
पेट न हिलने दे ।
हथकङी बना दो तो चोर बाँध
लो मरना मारना हो तो ऐंठ कर
कोङा बना दो 'ढोर की रस्सी और
'सुसाईड करनी हो तो भी हर वक्त
हाजिर '
छाया देनी हो तो चार कोने तानकर
बच्चा सुला दो 'परदा तो है ही ।मुँह
छुपाना हो तो देखते भी रहो दिखने न
दो '
खिङकी तोङनी हो तो गीला करके
गिरहबाँध ऐंठ कर तोङ दो '
पुराना हो जाये तो रूमाल पोंछे
बना लो ।
कीमत '
?एक टाई के बदले एक दरजन अँगोछे
दुपट्टे '
कब
मानव होकर हम अनुपयोगी आडंबरों से
मुक्त होंगे?
©®सुधा राजे
लेखमाला क्रमशः ''पुनर्दासभव "


सुधा राजे का लेख :- " चिंता और चिंतन।"

अतृप्त वासना और धनेच्छा
किसी भी परिवार, व्यक्ति,
दंपत्ति और समाज को घुन की तरह
खा जाती है ।
व्यक्ति 'दबाता रहता है
दबाता रहता है दबते दबते एक बिन्दु
चरम गर्त का आकर ठहर जाता है दमन,
'वहाँ से 'जिन इच्छाओं
को दबाया जा रहा है वे भी भौतिक
पदार्थ की तरह, विकृत होकर खंडित
और पिसकर अन्य पदार्थ में बदलने
लगती हैं ।
कलह के मूल कारण यदि खोजें
तो "वासना ''और धनेच्छा ''
कहीं न कहीं रहती ही है,
यूँ नहीं मनीषियों ने कहाँ है कि "मैले
पदार्थ को धोना मैले पदार्थ से संभव
नहीं 'स्वच्छ पदार्थ से ही मैला पदार्थ
धुलता है ।
तो वे सब भावनायें जो जो "आहत "हैं
उनके मूल में जाकर देखें कि, शिक़ायत किस
किस बात की है? और तब जब मन में
क्रोध शिकायत या दुख उत्पन्न हुआ तब
"कारण "कोई
नयी पुरानी इच्छा 'वञ्चना या अभाव
'ही रहा होगा ।
एक प्रेयसी अँगूठी सस्ती होने पर इस
तरह रूठी कि बोलचाल बंद
हो गयी "प्रेम है दावा है किंतु
बातचीत बंद "
पति नाराज
क्योंकि थकी हारी पत्नी करवट बदल
कर सो गयी और पति की इच्छायें
अधूरी रह गयीं, 'प्रारंभ में दोस्ती,
प्रेम, दांपत्य या, सौहार्द्र के
किसी भी नाते में 'संकोच रहता है, दूसरे
को खुश करने और अपना प्रभाव बढ़ाकर
दिल जीतने का, अंतर्निहित प्रेरक
तत्त्व रहता है, किंतु लंबी नातेदारी में
अंततः संकोच कब तक, और जब ये बातें
सामने खुल रर कही सुनी कटाक्ष में
'प्रक्षेपित की जाने लगती हैं तब '
आक्रोश य़ा क्षोभ पैदा होता है और,
कहीं विनाश तो कहीं सृजन ',
किंतु 'न तो हर कोई कालिदास
मीरा तुलसीदास ध्रुव और च्यवन बन
पाता है न ही 'यही समझ पाता है
कि "उसके नातों में घुली कङवाहट प्रेम
से घृणा में बदलते जाने की मूल वजह
''इच्छा लोभ वासना मोह और
अपेक्षा है, '
वरना वह 'व्यक्ति न बुरा है न
ही घृणा या दंड के लायक अपितु
यदि अपनी वासना और धनलोभ पर
नियंत्रण रखा जा सके तो, भरभराकर
गिर पङे हर
नफरत की दीवार ',
©®सुधा राजे
अपने ब्लॉग से ''wILD SONG ''''''''
Goodnight FRNZ
शुभरात्रि
©®सुधा राजे।



सुधा राजे का लेख :- " पुनर्दास भव"।

अतृप्त वासना और धनेच्छा
किसी भी परिवार, व्यक्ति,
दंपत्ति और समाज को घुन की तरह
खा जाती है ।
व्यक्ति 'दबाता रहता है
दबाता रहता है दबते दबते एक बिन्दु
चरम गर्त का आकर ठहर जाता है दमन,
'वहाँ से 'जिन इच्छाओं
को दबाया जा रहा है वे भी भौतिक
पदार्थ की तरह, विकृत होकर खंडित
और पिसकर अन्य पदार्थ में बदलने
लगती हैं ।
कलह के मूल कारण यदि खोजें
तो "वासना ''और धनेच्छा ''
कहीं न कहीं रहती ही है,
यूँ नहीं मनीषियों ने कहाँ है कि "मैले
पदार्थ को धोना मैले पदार्थ से संभव
नहीं 'स्वच्छ पदार्थ से ही मैला पदार्थ
धुलता है ।
तो वे सब भावनायें जो जो "आहत "हैं
उनके मूल में जाकर देखें कि, शिक़ायत किस
किस बात की है? और तब जब मन में
क्रोध शिकायत या दुख उत्पन्न हुआ तब
"कारण "कोई
नयी पुरानी इच्छा 'वञ्चना या अभाव
'ही रहा होगा ।
एक प्रेयसी अँगूठी सस्ती होने पर इस
तरह रूठी कि बोलचाल बंद
हो गयी "प्रेम है दावा है किंतु
बातचीत बंद "
पति नाराज
क्योंकि थकी हारी पत्नी करवट बदल
कर सो गयी और पति की इच्छायें
अधूरी रह गयीं, 'प्रारंभ में दोस्ती,
प्रेम, दांपत्य या, सौहार्द्र के
किसी भी नाते में 'संकोच रहता है, दूसरे
को खुश करने और अपना प्रभाव बढ़ाकर
दिल जीतने का, अंतर्निहित प्रेरक
तत्त्व रहता है, किंतु लंबी नातेदारी में
अंततः संकोच कब तक, और जब ये बातें
सामने खुल रर कही सुनी कटाक्ष में
'प्रक्षेपित की जाने लगती हैं तब '
आक्रोश य़ा क्षोभ पैदा होता है और,
कहीं विनाश तो कहीं सृजन ',
किंतु 'न तो हर कोई कालिदास
मीरा तुलसीदास ध्रुव और च्यवन बन
पाता है न ही 'यही समझ पाता है
कि "उसके नातों में घुली कङवाहट प्रेम
से घृणा में बदलते जाने की मूल वजह
''इच्छा लोभ वासना मोह और
अपेक्षा है, '
वरना वह 'व्यक्ति न बुरा है न
ही घृणा या दंड के लायक अपितु
यदि अपनी वासना और धनलोभ पर
नियंत्रण रखा जा सके तो, भरभराकर
गिर पङे हर
नफरत की दीवार ',
©®सुधा राजे
अपने ब्लॉग से ''wILD SONG ''''''''
Goodnight FRNZ
शुभरात्रि
©®सुधा राजे।



Tuesday 14 October 2014

सुधा राजे का लेख :- बच्चे " अथ बाल-पाठशालायन"

बच्चे और स्कूल ',एक
नयी श्रंखला 'लेखमाला के अंश
""""""""""""
""""सफेद जूते क्यों?
क्यों सफेद यूनिफॉर्म?
यदि काले जूते ही पूरे छह दिन स्कूल
पहने जायें तो हर साल तीन
जोङी सफेद जूते और मोजे ना खरीदने
पङें माता पिता को ।
क्योंकि, 'ये सफेद जूते महीने में केवल
दो या तीन बार पहने जाते है
',सेकेण्ड सटरडे की छुट्टी होती है ',
और किसी शनिवार को ''राष्ट्रीय
छुट्टी या प्रादेशिक
छुट्टी या स्थानीय अवकाश पङ
गया तो 'रह बस '।
काले जूतों को ही हर दिन
की यूनिफॉर्म बना दें न!!!
बजट भी खराब न होगा और व्यर्थ
पङे पङे छोटे हो हो कर फिंकते
जूतों की बरबादी रुकेगी ।
इसी तरह हर शनिवार सफेद
यूनिफॉर्म भी एक
"चोंचला ढकोसला शो दिखावा है
"बस ।
अतिरिक्त आर्थिक बोझ और क्या, बे
वजह 'नील टिनोपाल ब्लीच 'लगाते
इस्तरी करते 'माँयें हलकान 'और,
महीने में केवल एक या दो या हद्द से
हद्द तीन बार पहनने को ',बोझ ।
ऊपर से शनिवार को ही गेम्स क्लासेस
'ताकि सफेद कपङों की जमकर
सफेदी को बिगाङा जाये ।
कारण 'है 'क्रिश्चियन धार्मिक
प्रथा जब 'सॅटरडे 'पूजा का चर्च
का दिन हुआ करता था ।पूजा के लिये
चर्च सफेद कपङों में
जाया जाता था और वे कपङे विशेष
तौर पर साफ करके घरों में अलग रख
दिये जाते थे ।
आज स्वतंत्र भारत में गरीब मध्यम
वर्गीय परिवारों की आधी कमाई ऐसे
फालतू के ढकोसलों में
जाया हो जाती है ।
बजाय इसके बच्चों को हर शनिवार
''स्पोर्टवीयर पहन कर खेलने
को आधादिन दें तो बच्चे भी खुश और
अभिभावक भी ।क्रमशः जारी
©®सुधा राजे बच्चे और स्कूल ',एक
नयी श्रंखला 'लेखमाला के अंश
"""""""""


Saturday 11 October 2014

सुधा राजे का शब्दचित्र -"" छलनी - छलनी चाँद"""

मुझे अच्छा लगता है ज़मीन से चाँद
को देखना ',
तब से जब से कोई नहीं था उस चाँद और
मेरी टकटकी लगी दो आँखों के बीच '
चाँदी की कटोरी में खीर और
चाँदी की थाली में पेङे नारियल पूङे
खङपुरी बताशे दूध और परमल के साथ
चौमुख दीप बाती से सजी थाली से चाँद
देखने की बेला से पहले से ही चंद्रमा के
अमृत से शीतल खीर सदा से ही चुन चुन
कर काजू बादाम चम्मच में भरकर
खाना ',तब से जब से कोई
नहीं था मेरी खीर की कटोरी और
चम्मच के मेरे मुँह तक बिना झिझके चलते
रहने के बीच ',
कभी अधीरता नहीं आई न
कभी चंद्रमा की प्रतीक्षा लंबी लगी ',कदाचित
विचित्र ही हूँ मैं और चित्र के सिवा कुछ
नहीं मेरे लिये ये सारी सृष्टि ',फिर मेरे
और चंद्रमा के निहारने के बीच एक
चेहरा आ
गया 'तुम्हारा 'अजनबी अपरिचित
सर्वथा अलग ',मेरी हर बात से, चाँद
तुम्हारा हो गया और
निहारना भी 'मेरा न रहा, न
रही खीर पर पहली कटोरी का अमृत
मेरा वह भी तुम्हारा हो गया और सारे
बादाम काजू भी चुनकर स्वमेव
स्वचालित हाथों ने अपनी प्याली से
निकाल कर दूसरी कटोरी में रखते
जाना सीख लिया ',कल्पनाओं के
पारदर्शी सफेद चित्र 'लाल
गुलाबी पीले इंद्रधनुषी होते होते रह
गये 'पीला चाँद पूरा होते होते
तुम्हारा हो गया और मेरे हिस्से में आ
गया अनंत तारे 'निहारने का हक 'और
'कदमों की चाप पर
दिनचर्या को चलाने की अभ्यस्त आँखें मन
के भीतर से गंध शब्द रंग स्पर्श आभास
की सब परिकल्पनायें 'आकार लेते लेते रह
गयीं 'चाँद ज़मीन पर नहीं आ सकता 'मैं
पहाङ को सामने से नहीं हटा सकती 'छत
पर चढ़कर चाँद देखना मुझे पसंद नहीं '
हो तो हो क्या इसीलिये मेरे हिस्से
का चंद्रमा सदा ही दो घंटे चार
घङी देर से ही निकलता रहा है ',मुझे
मालूम है चांद कभी धरती पर
नहीं आयेगा वह एक उपग्रह है और
वहाँ जाना मेरे वश में नहीं ',मैं चांद
को निहारने से पहले एक
जलता दिया एक छलनी सदा लिये
रही हाथ में और तारों को निहारने से
पहले 'धुँधली डबडबायी बूँदे आँखों और
तारों की गिनती के बीच आतीं रहीं 'तुम
'इसी तरह मेरे और चांद तारों के बीच
आते रहो, हँसते, हुये 'इसीलिये तो चाहे
परिकल्पित ही सही 'चंद्रशेखर अमृतेश
और सुधाकर की कल्पना करके विध्नेश के
निराकार रूप को 'तुम्हारे पीछे
खङा करके अपनी साँसों का बँटवारा कर
लेती हूँ हर साल हर वर्ष, बस
उतनी ही साँस जब तू है पास 'ये मंत्र न
सही न सही विधिवत प्रार्थना न
सही तुम्हारा इन सब बातों में यकीन
और भले ही मैं चाहूँ कि आने
वाली पीढ़ी की कोई लङकी 'जब तक
चाहे तब तक चाँद निहार सके,
बिना किसी छलनी दिये और
धूपबत्ती कपूर के 'न जल छोङे न अन्न,
किंतु मैं कैसे छोङ सकती हूँ ये सब तुम न
चाहो तब भी 'ये
मेरा अपना ही तो वचन है
अपनी ही तो प्रतिज्ञा और
अपना ही तो संकल्प ',न सही तुम
परमात्मा न सही तुम परमेश्वर ढेर
सारी शिक़ायते तुम्हें मुझसे है और
मेरी बस एक 'काश कि तुम मुझे समझ पाते
'न मुझमें कोई सुधार आने वाला है न तुम
कभी मुझे समझ सकोगे ',मेरा परमेश्वर
निराकार ही रहेगा 'और
रहेगा अनादि अनंत विराट्
ही मेरा दाता फिर भी न आसक्ति न न
मोह न क्रोध न लोभ ' न जाने किस
अजीब सी भावना से भरी में बिना कोई
विशेष श्रंगार सजाये
बिना किसी प्रकार का आडंबर धरे
'अनंत ईश्वर से हर बार
यही कहती रहूँगी 'मुझे वे सब साँसें
नहीं देना, ताकि में पहले यह
दुनियाँ छोङ सकूँ तुम्हारे सामने
ही 'हो तो अच्छा नहीं तो कहीं भी 'वहाँ जहाँ ये
पता चलता रहे तुम सुखी हो खुश
हो स्वस्थ हो और मेरे बिना भी तुम्हें
कोई तकलीफ नहीं । जीवन
जैसा चाहा था वैसा नहीं रहा, हम
भी जैसा तुमने चाहा वैसे नहीं रहे ',न तुम
वह हो जैसा मैंने अनुमान
लगाया था ',तुम्हारे पास ध्वनियाँ है
शब्द हैं और हैं अधिकार सारे ',मेरे पास
प्रार्थनायें हैं दुआयें हैं, मौन है और हैं
कर्त्तव्य अनंत ',कुछ हो न हो मेरे बाद
भी ये चंद्रमा तो निकलेगा ही ',याद
रह सके तो कहना चाहती हूँ देखना और
सोचना कि अब 'तुम्हें चांद
ज़मीन से देखने की जरूरत नहीं 'तुम छत
पर जाकर चांद देख सकते
हो ',बिना किसी, दीपक
छलनी धूपबत्ती और कलश करवा कटार के
',जिससे नजर हर बार उतारी वह राई
नमक चोकर भी अब नहीं धुँधायेगा न
गुलाबी पाँव गीले होगें ठंड में रजाई से
निकलकर ',बस हो सकता है
मेरी कल्पना में कहीं आकाश से ओंस टपक
कर तुम्हे भिगोने की कोशिश करे ',न ये
दावा है न शिकवा 'इसलिये इसे
भी कदाचित तुम तब जानो पढ़ो जब
',हम न हो और चाँद
अकेला ही पूरा का पूरा तुम्हारी खिङकी पर
हो जब तुम्हें उठकर न जाना पङे हरी दूब
पर और यूँ ही 'कदाचित तुम कभी न जान
सको 'कि ये सब है तो है क्या 'मैं न जाने
क्यों हर साल सोचती हूँ दिन जरा धीरे
धीर ढले चाँद
जरा आहिस्ता आहिस्ता निकले 'कैसा है
ये धैर्य न जिसमें तृषा न थकान न
बुभुक्षा न कोई शोर ',मन
हमेशा की तरह भीगा और आँखें
हमेशा की तरह सूखी ',जकङन
संस्कारों की कह सकते हो तुम और मैं? मैं
क्या कहूँ? मुझे तो हर वो बहाना 'खोजते
रहने की आदत पङ चुकी है ताकि मैं 'इस
असंपृक्त चित्र सरीखे संसार से खुद
को किसी बहाने जोङ सकूँ तुम और
तुम्हारा सारा परिवेश, जब नहीं बाँध
पाता तो घुल जाती हूँ में
हवा चाँदनी गंध शब्द रूप रस स्पर्श
ध्वनि और विचार में 'सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
होकर 'मैं कभी नहीं कह
सकती तुम्हारी तरह कि मुझे तुमसे प्रेम
है 'न कभी नकार सकती हूँ कि मुझे तुमसे
प्रेम नहीं है 'यह क्या है जो मैं
ही नहीं जान सकी तो तुम्हें
क्या समझाऊँ ',तुम्हारे पास
सारा संसार है ',और मेरे पास 'तुम संसार
में होने का एक बहाना ',काश कोई दुआ
करता कि मेरी हर दुआ जो तुम्हारे लिये
हो वह पूरी हो जाये 'ताकि मैं संसार से
कटने से पहले देख लूँ कि तुम्हें वह सब कुछ
संसार से मिल गया जो जो तुम्हें चाहिये,
न सही 'अब 'कभी भी चाहे मेरे जाने के
ही बाद 'तुम एक बार तो यकीन कर
सको कि 'ईश्वर और तुम्हारे बीच एक
चाँद बराबर फासला देखने वाली इन
तार्किक आँखों के पीछे एक
सदियों पुराना मन भी है
जो देखता रहा कि 'ईश्वर जब
भी "मूर्तिमान होता तो 'तुम
उसकी प्रतिमा विग्रह होते 'किंतु न
मेरी आस्था कदाचित इतनी बलवान
थी कि में निराकार को सशरीर
पा लेती 'न
मेरी कामना इतनी बङी कि मैं साकार
के लिये शरीर हो पाती ',ज्योति पुंज
को मुट्ठी में धरे में आज भी सोचती हूँ मुझे
वह सब होना था जो तुम चाहते थे,
'नहीं हूँ क्योंकि मैं मनुष्य हूँ ईश्वर
नहीं 'मेरी आस्था जब तुममें
परमात्मा देखती है तो ये प्रश्न क्यों!!
और ये प्रश्न है तो तुम
परमात्मा की मूर्ति भर
हो परमात्मा कहाँ है ',मेरी निष्ठा मुझे
धिक्कारती है और चेतना ',इन
मान्यताओं को उखाङ कर फेंक
देना चाहती है ',किंतु मैं संकल्प वचन और
मन कर्म से 'जो भी हूँ
जैसी भी कभी कदाचित ही तुम्हें
पता चले कि ',चांद निहारने
की कल्पना में तब से तुम रहे हो जब तुम
कहाँ हो पता ही नहीं था 'चाँद
को छलनी दिखाने की आस्था में भी तुम
रहे हो जब कि तुम्हें कभी ये कोई
नहीं बताने वाला कि तुम
किसी का संसार हो 'संसार वहीं से शुरू
वहीं से समाप्त हो जाता है जहाँ से तुम
मुस्कुराते और रूठ जाते हो 'मेरे मौन और
तुम्हारे शब्द के बीच की धारा पर
तैरकर 'रोज ही तो होती है करवा चौथ
कोई इसरार नहीं जल्दी घर आने और
बगीचे की दूब पर चलने का '
चंद्रमा का क्या है घटता बढ़ता रोज़
ही तो समय बदल कर निकलता है '
हाँ मेरे लिये तब केवल तब ही ये
चंद्रमा निकलता है जब 'तुम उसके सामने
आ खङे होते हो '
हर रोज भले ही नहीं होती तो बस एक
छलनी 'दिया और थाली ',तुम्हें
पता ही कब चलता है जब अर्ध्य के जल में
गिरतीं हैं कुछ बूँदें आँखों से भी 'और
माथा झुकने के साथ झुक जाती हैं
हिमश्रंखलायें
ताकि तुम उठा सको झुके हुये पारिजात
द्रुम और महक सके कम से कम एक शाम हर
वर्ष 'इसी बहाने
©®सुधा राजे।