सुधा राजे का लेख --""तेरे पास जीने केलिए क्या है लङकी??""(भाग तीन)

लोग कुतर्क देते हैं कि स्त्री जब घर में रहकर पूर्ण कालीन गृहिणी होती
है तब वह "साक्षात देवी "कही जाती है!!!!!
इतना ही देवी समझते???? तो ये
जलती चीखती कुटती लतियाई
जाती माँ यें और बहुविवाह सहने के बाद
भी भी ठुकराई बीबियाँ """"कमाने
निकलतीं ही क्यों """आज सब पढ़े लिखे
लङके जॉब वाली बीबी चाहते है साथ में
मोटा दहेज भी और न कमाने
वाली स्त्री को तो बेटा ही साथ
नहीं रखता जवान होकर

गुलाम जब गुलामी छोङता है तो ऐसे
ही बिलबिलाता है हुकूमत
का आदी अत्याचारी पुरुषवादी दिमाग!
क्यों न अगले पाँच हजार साल पुरुष घर
सँभालें औरतें कमाई कर लेंगी यह साबित
हो चुका है।

क्यों मिर्चें लगतीं हैं इस बात से कि ""पुरुष बर्तन माँजे झाङू लगाये
कपङे धोये टॉयलेट्स साफ करें खाना परोसे कीज बटन रफू तुरपन करे बाग बगीचे
की निराई करे खाद पानी दे बच्चों को तैयार करे उनकी पढ़ाई कराये डायरी
चैक करे होमवर्क कराये और घर में बंद रहे सालों साल वही सुबह भोर सबसे
पहले उठना और सबसे बाद में सोना!!!!

क्यों बुरा लगता है किसी कमाऊ स्त्री का ऐसा पति देखकर??

सवाल है पुरुष वादी सोच का वरना तो एक व्यवसाय या ज़ब के रूप में तमाम
पुरुष ये सब काम करते ही है किंतु वही सब काम जब अपने घर में करने की
बारी आती है चाय बनाने का भी अहसान स्त्री पर चढ़ाते हैं चाहे वह पूर्ण
कालीन गृहिणी हो या कमाऊ गृहिणी घर के कामकाज तो स्त्री पर ही ""शोभते
""हैं क्योंकि ऐसा करने से पुरुष की पुरुषवादी हनक साख और घमंड को क्षति
पहुँचती है ।
अब बारी स्त्रियों की है उनको दासता की हीनभावना से निकलकर बराबरी न सही
किंतु मानवोचित सम्मान से जीने के लिये आत्मनिर्भर रहना ही होगा और घर के
काम आधे आधे बाँटने होगे ।
शुरुआत अनेक आदर्श परिवारों से हो चुकी है किंतु जमी जमायी सत्ता खोने से
डरे मर्दवादी उत्पीङक स्त्री शोषक आज भी यही उपदेश देते हैं कि स्त्री को
परदे करके घर में सङ सङ कर मर जाना ही भाग्य है । जबकि स्त्री पर कोई भी
अत्याचार गुजरने पर ये सब चुप रहते है ।
समय है बाहर निकलें और अपना हाथ अपनी कमाई अपने फैसले और समान सम्मान
समान हक की न्यायिक अवधारणा से ही घर बसायें ।वह घर नहीं जेल होती है
जहाँ एक स्त्री दासी और पुरुष मालिक होता है । कोई पुरुष परमेश्वर नहीं
है सारा रगङा कमाई का है । पहले स्त्रियाँ खाने पहनने रहने को पुरुष पर
निर्भर थी फिर कानून बने और हक तो दे दिये गये किंतु सामाजिक ताने बाने
ने कभी स्त्री का हक नहीं माना स्थायी संपत्ति पर आज भी बिगङी जिंदगी के
साथी तो वे माँ बाप तक नहीं बन पा रहे हैं जो कि ''पसंद तक नहीं पूछते
विवाह के वक्त और पटक देते है जहाँ बिरादरी का सस्ता मोल का लङका दिख गया
"इसलिये कहते हैं ''जो कमायेगा उसकी चार लात हजार बात औरत को मन मारते
खानी पङेगी । जूते चमङे रबङ कपङो के हो या कङवी अपमान जनक बातें किंतु
कदाचित ही कोई पूर्ण कालीन गृहिणी हो जिसे कभी
"दहेज और रूपरंग और कमाई "
के ताने न मिले हों ।
जवाब देगी तो गाली खायोगी और झगङेगी तो लात घूँसे डंडे ।
यह कहावत गाँव गाँव पसरी है और कोई भी ऐसी गृहिणी से जरा भी सहानुभूति तक
नहीं दर्शाता जो "कमाऊ पति ससुर के तानों और उपहास व्यंग्य कटाक्ष और
आदेशों "पर जवाब देती हो या विरोध करती हो अपमानित होने पर बोलना भी
गवारा नहीं । औरते ही कह पङती है ""बोल्ले जियादा ""जबान जियादे चलती है
"

दुख हो या सुख एक साथी है अपनी जॉब अपने नाम मकान और अपनी पेंशन अपना
बैंक बैलेन्स एक सर्वथा निजी धन और पहचान ''
इसे समझो
जो तुमसे प्रेम करता होगा उसे उस सबसे इनकार नहीं होगा ।
और जो तुम्हें जॉब से अपने नाम मकान जमीन बैक बैलेंस से रोकता होगा वह
कतई प्रेम नहीं करता क्योंकि उसको न तुम पर भरोसा है न तुम्हारी परवाह ।
©®सुधा राजे

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Sudha Raje
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