कविता:अस्तित्व का संघर्ष

Sudha Raje
अस्तित्व
का संघर्ष तो कब से प्रारंभ
हो चुका था!!!!!!
जब मुझसे पूर्व की कोख को एक छल
सहना पङा था
छल
जो तुमसे पूर्व के पुरूष ने कहा कि वह
उसका है
जब
उसने विश्वास कर लिया कि वह सत्य
कह रहा है
वह मान गयी
विश्वास की हत्या
तो तब भी हुयी थी जब वो पूछे
बिना ही उसके पीछे चल दी कि कोई और
स्त्री को वह कहीं और छलकर
तो नही छोङ आया
कहीं और कोख को कहीं और प्रेम
को किसी और विश्वास
को तो नही तोङ आया
उससे पहले के पुरूष ने
भी यही किया था उससे पहले
की स्त्री के साथ
छल
वह पुरूष होकर पुरूष से छल कैसे करता
स्त्री के लिये
पुरूष से कैसे लङता
वह लङ सकता था केवल स्त्री से
युद्ध तो पहले ही प्रारंभ हो चुका था
जब
पुरूष से पहले के पुरूष की संपत्ति कह कर
प्राप्त स्त्री छल बल से छीन ली थी
वह लङा
परंतु स्त्री के लिये नहीं
मान
अपमान
अभिमान के लिये
पुरूष की संपत्ति में क्षेत्र
में कोई अतिक्रमण कर ले ये पूरूष का अन्य
पुरूषों के बीच अपमान था
वह हार गया
स्त्री को पुरूष से छीनकर जीतकर हार
गया
हारना
पुरूष को सहन नहीं और
वह भी पुरूष से
पुरूष
किसी और पुरूष द्वारा छल बल से छीन
ली
भोग ली
या अभुक्त निर्दोष
या दोषी किसी स्त्री
को
पुनः छीनकर
जीतकर
पाकर पुरूष से सिर्फ प्रतिशोध
लेता आया है
वही उसने किया
लेकिन
स्त्री को वह पुनः पाकर
भी अपना नही सकता था
यही
जूठन की अवधारणा
अभिमान हो गयी
अन्यथा
पुनः प्राप्त स्त्री में दैहिक सुख
उतना ही था
क्षुधा तो वह मिटाती
तृप्ति का सुख तो देती
कृतज्ञ भी होती
ये कृतज्ञता की अवधारणा भी पहले
ही प्रारंभ हो चुकी थी
एक प्राकृतिक क्षुधा
जो स्त्री पुरूष दोनो में थी
स्त्री की होने पर व्यभिचार
पुरूष की होने पर उपकार पुरूष ने
ही बतानी प्रारंभ कर दी
जब स्त्री को क्षुधा शांत करने
वाला पदार्थ मान लिया और मान
लिया कि उसे भक्षण करके वह उपकार
कर रहा है
ये प्रकृति नहीं थी
क्योंकि स्त्री भी देह थी पुरूष से
दोगुनी
पुरूष हर स्त्री को भक्षण करके तृप्त
ही होता
परंतु हर बार स्त्री की क्षुधा को तृप्त
कर पाना उससे संभव नहीं हो सकता था
इसीलिये फिर
क्षुधा को स्त्री का कर्तव्य बना दिया
क्योंकि हारना पुरूष को सह्य नहीं था
और
स्त्री के जितना बल उसमें नहीं था
वह कर सकती थी
संघर्ष अस्तित्व का
©®¶©®Sudha Raje
Jan 20, 2013

Comments