Sunday 19 January 2014

स्त्री और जिजीविषा .

स्त्री और जिजीविषा .

मेरा सारा अस्तित्व खंड
खंड काट दिया गया
क्योंकि मैं जीवन और जिजीविषा से
भरी थी और
जब मुझे
काटा जा रहा था तब ये
छल था कि तुमसे जीवन
की बस्ती बसायी जायेगी लेकिन
एक के बाद एक सब
जिंदा अहसास उपलब्धियाँ
और सारे जिंदा लोग मुझसे काट
दिये गये मुझे
बनाया गया
मरी हुयी आशाओं और कपट से कत्ल
की हुयी निष्ठाओं का
मरघट
और मेरी अपनी अपने अस्तित्व
की चिता का ढेर
धधक कर
धू धू
जलाया गया
कभी सजाकर कभी नोंचकर
जो गट्टर
था वह
मेरा ही हिस्सा था
जिसपर
शव रूप
जली आशा आकाक्षा ईप्सा अभीप्सा प्रेम
निष्ठा विश्वास नव सृजन
और कोमल भाव
जब सब
राख हो गये
तो रस्मों की भीङ
आयी
अपने अपने स्वार्थ से और चुन
ली बची खुची अस्थियाँ डाल
दी आँसुओं की गंगा के तल में अब
महानता की एक तस्वीर
पर दो मालायें
टॅगी थी एक
छली गयी तुलसी जो मेरी बनायी थी कभ
और दूसरे
सूखे डाली से पृथक फूल जो मैंने ही लगाये
थे कभी
कुछ
दिन सबको याद आयी
मेरी महानता
कर्तव्यनिष्ठा
और
चरचा की फिर बस
मेरी तस्वीर एक
अनदेखा अभ्यास
हो ही गयी
मुझे दिखाकर हर हरे पेङ से मेरे
जैसा महान् बनने को कहा जाता
कभी कभी कोई
अनजाना पूछ लेता कौन है
और उस दिन
चर्चा हो जाती लेकिन
मरघट में टुकङे
कटी लकङियों पर कुछ फल
फूल थे और मेरा बीज निकल
पङा धधकती चिताओं के
बीच आकाश के रोने पर मैं
इन फूटते नव
मुकुलों को बचाना चाहती थी और
मैं खाद बन गयी खाद में
आकाश को चूमते पेङ
चिताओं के बीच खङे थे और
चिता के पास प्रेत
था मेरा मेरे प्रेत
की कथाये
डरातीं रहीं और मेरे
अस्तित्व को विस्तार
जो बस्ती के जीवन में
नहीं मिला था बस्ती की मौत
पर मिला लोग ज ल फूल
फल चढाते और मनौती करते
मैं मरकर
जी उठी थी मेरी बेटियों के
रूप में मैं
स्त्री थी जो जीवन से
नहीं मौत से खेलती थी
हाँ
मैं मौत की सहेली स्त्री जिंदगी का छल
समझ गयी
©®¶©®
Sudha Raje
Dta —Bjnr
Mar 8
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