सुधा राजे का प्रकाशनार्थ लेख -- ""एक सेर आशा। ""

एक सेर माँस काटने की शर्त
रखी थी समय के सूदखोर ने
जब
भावुककोमल मन के संवेदनशील कवि ने
सहिष्णुतावश उधार दे दीं बहुत
सारी स्वर्णिम
घङियाँ
नातों की याचिका पर
शुभकामना के मंगलपर्व के लिये
ताकि
जीवित रहे कहीं भी प्रेम
न सही मुझमें
कहीं अन्य किसी टापू पर
कहीं किसी अन्य हृदयालिंगन के बीच ।
किंतु डूब गये जहाज आशाओं के
और
सारी मुहरें भी हुनर की डूब
गयीं ।
अवसर के स्वर्णभंडार जो जहाज पर थे आशा के कभी नहीं लगे किनारे ।
दरिद्र मन कैसे चुकाता सूद समेत
मूलधन!!!!
शर्त थी ताऱीख पर ऋण अदा करने
की
सो हाज़िर हो गया वचन कर्त्तव्य
के दरबार में ।
एक सेर मांस जिजीविषा का अदा करने के लिये ।
किंतु कब सोचा था ये जीवन का मांस पसली के ठीक
ऊपर बांयी तरफ से काटा जायेगा ।
कोई नहीं आया इस बार न्यायधीश
बनकर दया के गुण बखान करने रस्मों रीतियों के संविधान केवल सूदखोर समय के
पक्ष में रचे गये ।
और किसी सूदखोर को किसी मित्र
नातेदार ने नहीं रोका कि मांस
काटलो किंतु शर्त है कि साहस प्राण प्रत्याशा का रक्त
नहीं बहना चाहिये ।
मांस काटा गया और रक्त बहता रहा मैं
मांस कटने से नहीं मरती किंतु रक्त बहने
से मरी हूँ ।
कदाचित रक्त बहने से
भी नहीं मरती अगर मांस
बायीं पसली के ठीक ऊपर की बजाय
बायीं जांघ के सामने से लिया जाता ।
मगर किसी टापू पर मेरे स्वर्ण मुद्राओं
के ढेर पर प्रेम मिलन सुख संग्रह र से थके नाते भूल चुके
थे कि उनको दिये उधार के बदले नियत
तिथि पर मेरा एक सेर मांस गिरवी है ।
मैं
वह ऋण चुका देती ।
किंतु मेरी आशाओं
का जहाज डूब गया तकदीर के किनारे आते आते ।
मैं नहीं मरती अगर
जहाज समय पर मेरी विनिवेशित
अवसर की मुद्रायें ले आता ।
जिजीविषा प्रत्याशा का रक्त बहता रहा और बांयी पसली के
ठीक ऊपर रिक्त मांस से खाली स्थान
पर रखा स्वाभिमान का चाकू कहता रहा मैं निर्दोष हूँ
क्योंकि मांस तो तुमने
गिरवी रखा था ।
सूदखोर समय से ऋण लेते
तुमने ही शर्त मानी थी कि मुहरें
अदा नहीं कर पायीं तो नियत
तिथि पर समय रहते एक सेर मांस कहीं से
भी सूदखोर ले सकता है ।
मित्र अगर आते तो चाकू रोक सकते थे
मुहरें अदा करके क्योंकि जहाजतो मेरी अपनी आशाओं
का डूबा था ।
उनको तो तुम्हारे दिये
निवेश से लाभ के बेड़े मिले थे ।

तो सुनो अंतिम बयान
अब कोई किसी मित्र नातेदार के लिये
एक सेर मांस कहीं से भी निकालने
की शर्त पर उधार मत
देना ।
न देना वचन ।
क्योंकि हो सकता है आशा और नाते
दोनों ही समय पर मुहरें अदा करने ना आ
सकें ।
मुझे शाईलॉक ने नहीं मेरे आशावाद ने
मारा है ।
©®सुधा राजॆ
511/2, Peetambara Aasheesh
Fatehnagar
Sherkot-246747
bijnor
U.P
7669489600
sudha.raje7@gmail.com
प्रकाशनार्थ मौलिक रचना।

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