Sunday 26 January 2014

सुधा राजे की अकविता- ""वह जो शेष रह गया।'"

बेशक बहुत सफल व्यक्ति नहीं हूँ मैं ।
नहीं हैं मेरे पास उपलब्धियों के तमाम
आँकङे
न जुटा सकी हूँ सुख सुविधायें तुम्हारे
लिये ।
न छोङकर जा रही हूँ कोई खजाना ।
किंतु मेरे बच्चे!!!!!!
जब मुझे याद करना तो याद
करना कि मेरा होना ही किसी उपलब्धि
कम नहीं था तुम्हारे लिये ।
नहीं किये मैंने समझौते
तेरी किलकारियों और
कागजी उपलब्धियों के बीच ।
जब कुछ बच्चे पालने में पङे बोतल से दूध
पीकर डरे सहमे माँ को बिसूर रहे थे तुम
अपनी माँ के कंधे से चिपककर माँ का दूध
पीकर माँ की गोद में सो रहे थे ।
जब कुछ बच्चे डरे सहमे माँ को पुकारते
रोते डरावनी आवाजों से डरकर सुबककर
चुप होकर गालों पर निशान लिये
तमाचों और आँसुओं के अक्षर याद कर रहे थे
तब तुम चहकते हुये माँ के हाथों खीर पुआ
खाते हुये कहानी के शेर बंदर भालू
परी तोते वाले विद्यालय
की परिकल्पना में अनायास
ही हाथी गुरूजी के
द्वारा चिम्पांजी और घोङे
को पढ़ायी वर्णमाला गिनती सीख चुके
थे।
जब इत्र और मँहगे कपङों से तर बतर कुछ
माँयें देर रात को आकर आया और नैनी से
पूछतीं थी बेबी सो गया?
बुखार ठीक हुआ कि नहीं?
तब तुम
माँ की बनायी लोरी माँ की आवाज में
सुनकर माँ की छाती पर चिपके माँ के
दिल की धङकनों की ताल पर सुनकर
नींद में मुसकुरा रहे होते थे ।
और तुम्हारा हर सवेरा माँ के कान
पकङकर टटोलने के बाद नींद में ही माँ के
प्रभातमंत्र सुनने के बाद होता था ।
तुम्हारे बदन की हर
घटती बढ़ती हरारत पर माँ करीब
ही रहती पानी पट्टियाँ दवाई दुआयें
आँसुओं प्रार्थनाओं और संवेदनाओं
की संलग्नताओं के साथ ।
तब जब कुथ बच्चे माँ की प्रतीक्षा में मेवे
फल मिठाईयाँ चॉकलेट छोङकर भूखे
ही सो गये तब तुम माँ के हाथ के बने लड्डू
परांठे हलवे और दलिया मान मनौवल
की खिलवाङ के साथ खाकर छुपाछुपी खेल
रहे थे माँ के साथ ।
तब जब कुछ बच्चे पिट रहे थे सबक और
शब्द न बोल पाने पर तब तुम गीत
गाना और पढ़ना सीख चुके थे औऱ कह सकते
हो कि तुम्हारा हर पहला शब्द स्पर्श
दुख सुख कदम माँ ने बाँटा माँ ने
सिखाया पहला शब्द वाक्य मंत्र गीत
और कहानी भी।
ऐसा नहीं कि मैंने तुम्हारे लिये बेहतर
सामान जुटाने को श्रम नहीं किया।
किया औऱ न जाने कितनों से
ज्यादा किया ।
किंतु नहीं किया समझौता तुम्हारे लिये
मुकर्रर प्राकृतिक मातृत्व के पलों से ।
इसलिये
जब कुछ माँयें बच्चे घर छोङकर बाजार
जातीं थीं तब
तुम्हारी माँ तुम्हें पीठ पर बाँधे बेकार
पङे घेर में फल सब्जियाँ लगाती थी।
तुम्हारे पालने की डोरी खींचती उन
बच्चों को पढ़ाती थी जिनको घर में
बीमार दादी डाँटकर कहती चुप
जा जरा देर और माँ आती होगी।
वे बच्चे तुम्हारे बगीचे में तुम्हारी माँ के
लगाये फलों को खाते तुम्हारे सस्ते
खिलौनो से खेलते अपने मँहगे खिलौने
पकवान और आलीशान भवन भूलकर हँसते
चहकते ।जल्दी आते देर से जाते बेमन से।
तब जब तुम पढ़ने जाते टिफिन में
माँ की बनायी हर दिन
नयी चिज्जियाँ होतीं और
माँ विद्यालय के द्वार पर बाहें फैलाये
मिलती
जब कुछ सहपाठी बाजार का रेडीमेड
रोज वही नाश्ता मनमसोसकर खाते और
उदास थके जाकर रिक्शॉ में बैठ जाते
तुम अपने टिफिन की नई
चिज्जियाँ साथियों के साथ बाँटकर
चहकते मेरी माँ से मिलो।
ऐसा नहीं कि मैंने समय नष्ट होने
दिया और तुम्हारी जरूरतें पूरी नहीं की
जब तुम विद्यालय में होते मैंने काम
किया और पैसे बनाये परंतु हर बार मुझे
लगा कि तुम्हारे विद्यालय की "शिक्षक
-अभिभावक सभा"
मेरे दफतर के किसी भी गेटटुगेदर
से ज्यादा जरूरी है।
जरूरी है तुम्हारे लिये रोज घर आने पर
माँ प्रणाम के शब्द सुनकर माथा चूमकर
गले मिलना।
तब जब कुछ बच्चे कम अंक आने पर पिटाई
और दो दो ट्यूशन के ताने खा रहे थे।
तुम मैरिट सूची में नाम पाकर
अपनी माँ के गले लगकर शोर मचा रहे थे।
तुम्हें पहले स्थान पर न होने का अफसोस
था किंतु
मुझे बिना ट्यूशन बिना नकल
बिना सिफारिश और विशिष्ट
व्यक्ति की संतान हुये बिना पहचाने
जाने का संतोष था ।
उस दिन बुखार में तुम्हें जबरन
ना सुलाती तो तुम्हें पहले ही स्थान पर
पाती किंतु ये सह नहीं पाती।
अब तुम सब समझते हो सब निर्णय
तुम्हारे हवाले फिर अनुरोध है मेरे बच्चे
हो सके पूछना हर फैसले के पहले
क्योंकि तुम्हें तुमसे ज्यादा कोई है
जो समझता है क्या पता ये माँ कोई
नयी राह खोज निकाले।
याद करना मुझे तो इस रूप में कि अपने
हाथों पैरों नजरों और क्षमताओं के
दायरों में मैंने बहुत संघर्ष किये हर
छोटी बङी चीज के लिये और मुझे यूँ
ही याद रखना कि पाया मैंने चाहे कुछ
भी ना हो किंतु जीवन नियति और काल
ने जो भी सामने रखा उसको बेहतर करने
के लिये मैंने कठिन प्रयत्न और संघर्ष
किये
मुझे अपनी साङी हमेशा मँहगी लगी और
तुम्हारी पसंद का हर खिलौना हर
चिज्जी सस्ती।
क्योंकि मैं उन कुछ बच्चों में से हूँ
जिनको रात को मँहगे बिस्तर खिलौने
खाना तो मिलता रहा लेकिन तुम्हारे
हर सहपाठी हर शिक्षक का नाम याद
रखने
वाली माँ की लोरियाँ नहीं मिलीं डरने
के वक्त बङे कमरे में भगवान के चित्र रहे
दो कमजोर हाथों का स्पर्श नहीं।
मुझे उपलब्धियों के लिये नहीं मेरे संघर्ष
के लिये याद रखना मेरे बच्चे!!
©®सुधा राज

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