Sunday 12 January 2014

अकविता:-बस एक भ्रम था

Sudha Raje
बस एक भ्रम था पर जब यह
था तब नहीं था भ्रम होने का सा
लगता था सब ओर से बरस रहा है
प्रेम
ओर मैं उस प्रेम की मृग
मरीचिका को पीने के लिये हर
बार और अधिक उत्साह में भरकर
दौङ उठती थकती टकराती करकश
धूल तपी धूप किंतु भ्रम ने
कभी पता नहीं लगने
दिया कि वहाँ दूर मीठा जल
नहीं सदियों से चला आ रहा छल
था सब भ्रम था नगर नागरिक
संबंध और रीतियाँ भ्रम हर बार
एक नये मानव रूपी रिश्ते की शक्ल
में ढल जाता और एक दिन
मेरी सारी यात्रा सारे बुने
रिश्ते छीन लिये गये अब फिर
वही मरीचिका वही दौङ
वही रिश्ते और
वही सच्चा सा लगता भ्रम प्रेम
मानव का प्रेम हरिण सा मन और
तपी धरती यात्रा का संधिकाल
था तो केवल निराश हुये अतीत से
नये भविष्य का मिलना जो एक
ही पल में अतीत हो गया और रह
गया स्मृति में परिवरतन
उपलब्धि कुछ नहीं थी कुछ
नहीं था अब भविष्य कुछ
नहीं था वर्तमान और थक कर
बैठा हरिण अब भी यह जानते हुये
कि ऐसा संभव ही नहीं कहीं नकार
को सुरों में सोचता है काश अब
यहीं चलकर आ जाती झीलें और मैं
पीता नहीं डूब मरता प्रेम में
परंतु ऐसा होता नहीं प्रेम में
नहीं मरता कोई मरीचिकायें
मारती हैं जिलाती हैं को ये सच
लगती जानबूझकर
चाही गयी मिथ्या तृषाओं
की तृप्ति की संभावनायें
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Sudha Raje
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Mar
7 ·

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