Friday 31 January 2014

अकविता :मैं क्यों हूँ हताश

एक पतले झीने आवरण के सुनहरे सुहाने तारों वाली शायिका के पीछे छिपा
आभासीय अस्तित्व सतत निकट पहुँचने की चेष्टा और स्पर्श करते ही अदृश्य हो
जाने का भय आशंका वह चाहिये ही था किंतु हाथ लगाते ही कहीं फिर कभी सदा
को लुप्त न हो जाये भ्रम या आभास
पलता रहा
पलता रहा
मन हर कर्म क्रिया कलाप से असंबद्ध संबंधित सा हर बार उस पटावरण के
स्वर्णाभ रजताभ आभासीय परिकल्पित को देखता सोचता विचारता चलता रहा ।

एक के बाद एक कटते गये वर्ष के शाल्मली द्रुम और रह गया केवल एक साँस भर
अंतर पटवास के पंथावासीय आवरण और अंतश्चेतना के साक्षात्कार में ।
बहुत डरते डरते हटा दिया नयनतारिका के नेत्रपटल से करपल्लव की अवगुण्ठन
वाली आशंका की यवनिका
ओहह!!!!!!
ये क्या वहाँ तो कुछ भी नहीं था ।

एक सत्य जो निर्मम था ।
वह मेरी ही परिकल्पना की जिजीविषा के प्रत्यावर्तन का प्रतिबिंबित आलोक
था मेरा अपना ही छायारूप जो केवल आवरण पर ही पङ रहा था मेरी
अंतःप्राणोर्जा के आयाम से गुंफित
शेष न कुछ अतीत था न वर्तमान जिस प्रतीक्षा के लिये रोक दिये थे
रेणुघटिका के कण पतन से चलन से क्षण ।
वह निस्पंद आभास वास्तव में था नहीं ।
न स्पंदित न चित्रित न लिखित ।
आघात के शिविर से बाहर अब गाने का कोई बहाना नहीं था औऱ रोने का कोई कारण भी नहीं ।
जब कुछ कहीं था ही नहीं तो मैं क्यों हूँ हताश?
©®सुधा राजे

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