Thursday 16 June 2016

सुधा राजे का लेख :- मेरा शहर मेरी कहानी।

"मेरा शहर मेरी कहानी "
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सुधा राजे "
१४.६.२०१६
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°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°इत चंबल उत बेतवा
',इत धसान उस टौंस ',छत्रसाल सौं लङन की रही न काहू हौंस ',
जब जब अपने नगर की स्मृति हृदय के बीहङ में हिलोर मारती है ऐसी अनेक
कहावतें मुहावरे और गाथायें गीत संस्मरण मन के किसी गहन गह्वर से किसी
झरने से प्रस्फुटित होकर लोचनों में झिलमिला ही उठते है हठात्,मन दौङ
उठता है सायंकाल को वन से लौटी लावरी गैया लक्ष्मी और जमुना के बछङों की
भाँति ',अपनी मिट्टी अपनी बोली अपनी जन्मभूमि से बिछङे मुझे एक एक दिन
करके लगभग बीस वर्ष हो गये, आज भी जब कोई नवेली वधू पास पङौस में आती है
तो मन की करुणा, पुनः गीली सीली मिट्टी सी अपने आरंभिक दिन याद कर लेती
है जब हम "दतिया "मध्यप्रदेश को छोङकर पाँच सौ किलोमीटर दूर बिजनौर उत्तर
प्रदेश आ गये थे ।
दतिया मध्य प्रदेश की एक शक्तिशाली रियासत रही है और बुंदेले राजाओं की
द्वितीय राजधानी । पहले पहल गढ़कुढ़ार से ओरछा फिर टीकमगढ़ फिर दतिया ।
दतिया के पुरातात्विक महत्तव को इसी से समझा जा सकता है कि यहाँ अशोक का
शिलालेख 'ग्राम परासरी 'में मिला था, यह नगरी अनेक पठारी ऊँची पहाङियों
के बीच कटोरे की भाँति बसी है इसीलिये शासकों ने हर पहाङी पर एक सैन्य
चौकी बना रखी थी जिस पर प्राचीन मंदिर और भवन आज भी है, विन्ध्य पर्वत
श्रंखला की ये पहीङियाँ है "उङनू की टौरिया, पंचकविजू की टौरिया, चिरई
टौरिया, भरतगढ़ की टौरिया हङापहाङ की टौरिया, और बङौनी के पहाङ ',इन सब
ओर से घिरे पहाङों ने नगरी को सुरक्षा दे रखी थी तेज हवाओं और शत्रु की
दृष्टि से भी, 'हम लोग बचपन में इन सब पहाङों पर खूब खेले लगभग हर
त्यौहार पर या जाङों की छुट्टियों में सहपाठी सखियाँ परिवार के सब बच्चे
और कुछ बङे जिनमें अकसर दो तीन भाभियाँ भी रहतीं 'गिटार बाँसुरी और छोटा
ड्रम लेकर अपने अपने लंच बॉक्स के साथ चल पङते नगर से खूब पथरीले पत्थरों
पर चढ़ने का ऐसा अभ्यास पङ गया कि जब कॉलेज में आए तो 'ऊँची हील्स के साथ
भी खटाखट हाथ पैरों की सहायता से चौपाये की भाँति सब मित्रों से पहले चढ़
जाते थे । खूब धौंकनी की तरह चलती साँस और तेज प्यास के साथ भी सबसे ऊँचे
शिखर पर चढ़कर विहंगम दृश्य सैकङों मील दूर तक फैली बिखरी लुढ़कती
चट्टानें हरे भरे गेंहूँ कभी बाजरा ज्वार मक्के तिलहन कभी दालों और
सब्जियों के खेत और चारागाह में चरते पशु भरभराकर चलती तेज हवा में उङते
हम सबके बाल कपङे और पूरी छाती भर खींचकर भरी ताजा हवा की सांस सारी थकान
दूर कर देती, 'मन कहता जो पहाङ कभी नहीं चढ़ा वह तो रह गया सङा का सङा
'आज ऐसा ही तो लगता है ',तराई भांबर खादर के बीच उमस और गरमी के दिनों
में दुर्गंध युक्त अजीब सी हवा आलस से भरी '। उङनू की टौरिया पर तब तीन
सौ पैसठ सीढ़िया थी, खङी चढ़ायी परंतु हम लोग पहाङी ढाल से लुढ़कती
शिलाओं वाले मार्ग से चढ़ते बंदरों की तरह, बचपन ऐसा ही होता है न, जब
सीढ़ी चढ़ते तो आधी सीढ़ियों पर हनुमान जी का मंदिर था और मन्नत माँग
लेते "जीतने की साथियों से "अक्सर जीत जाते, जब हार जाते और कोई और पहले
चढ़ जाता तो हनुमान जी पर कुट्टी करके गुस्सा निकालते, न जाने कितने चने
लायची दाने बकाया रह गये । दतिया नगर के बीचों बीच टाऊन हॉल है, 'घंटाघर
जहाँ बङी सी घङी लगी है हर कोण से दिखती, तब समय देखना आता ही नहीं था और
तिस पर रोमन लिपि के अंक तो बिलकुल समझ नहीं आते थे, परंतु उसी टाऊनहॉल
में बना पुस्तकालय खूब समझ में आता था और वहीं प्राथमिक पाठशाला के फरार
बच्चे भी, चूकगेक टॉलसटॉय शेक्सपियर गोर्की और प्रेमचंद जयशंकर महादेवी
सबको पढ़ डालते, 'सदस्यता तो घर के बङों की थी और उनकी पहचान हमें चाहे
जब चाहे जिस टेबल पर बँधी किताब पढ़ने देती, नंदन चंपक चंदामामा पराग
लोटपोट आर्ची फैण्टम मधुरमुस्कान सुमनसौरभ और अनेक विदेशी अनूदित
बालकथाये हम लोग थोक के हिसाब से पढ़ जाते, विशेषकर हम, लायब्रेरियन सर
ढेंगुलाजी अकसर चकित हो जाते, अरे!!! अभी इत्ती जल्दी कैसे पढ़ ली??
बिन्नू राजा फोटू देख कें धर दई का? हम हँस पढ़ते, इतनी तेज गति से
किताब पढ़ना, उन दिनों आश्चर्य की बात थी, दो घंटे में एक 'नवाह्न परायण
'पढ़ जाने का बालपन का अभ्य़ास भी उसी की देन था । दतिया को पहलवानों और
संगीतकारों की नगरी का नाम यूँ ही नहीं मिला था, वह गामा की नगरी रही,
जिसने विश्व विजेता पहलवान जेविस्को तक को एक नहीं तीन तीन बार हराया था
। राजगढ़ पैलेस जो कभी स्टेट की कचहरी था फिर भारतीय सरकार की अदालत वहीं
लगने लगी, 'बाद में वहाँ "म्यूजियम "बन गया उसी म्यूजियम में गामा की
पत्थर की नाल रखी है जिसे वह सैंकङों बार पहन कर व्यायाम करते थे और आज
तक कोई उसे उठा भी नहीं पाता, दतिया के चार दिशाओं में आठ महाफाटक है जिन
के दोनों तरफ सैन्य निवास बने हैं और आठों फाटकों के नगर बाहर की सीमा पर
तालाब बने हैं ',आज ये तालाब सरकारी सौतेलेपन के शिकार हैं परंतु हमारे
बचपन के तालाब पक्के घाट की सीढ़यों तक लबालब भरे थे, 'जिनके हर तरफ भोर
चार बजे से नगर के लोग पूजा पाठ स्नान ध्यान करते थे, 'कार्तिक स्नान के
एक माह के फलाहारी कठोर व्रत को धारण करके बुँदेलखंड की कन्यायें
सुहागिनें "कृष्णोपासना के भाव से भरी भोर अँधेरे ही गाती ''हरि कौं खोजत
खोजत आए, हमारे श्याम कितखों गये"""कार्तिक नाम से ही विशिष्ट भजन गाये
जाते है ''''सखियाँ बनाने की एक बङी सुहानी रीति है "घाट से स्नान करके
लौटती स्त्रियाँ पत्थर सङक से चुनकर किनारे डालतीं नित्य और कहती "डारो
ढेली मिले सहेली ""और पूर्णिमा के दिन पूरे इकतीस व्रत होने पर सखी
परस्पर "पेङा खिलाकर सखी पक्की गुइयाँ बन जाती,,, आगे से न उसी बुराई
करनी न सुननी और बुलावे पर मिलने भी जाना है "कार्तिक की गुइयाँ को आसान
नहीं निभाना । कर्ण सागर, लाला का ताल नया ताल बक्शी का ताल रामसागरताल
अगोरा का ताल बङौनी का ताल, सिरौल का ताल और अनेक तलैयाँ,,, । तलैयाँ पशु
स्नान और धोबी घाट के लिए थी वहाँ शुद्ध जल के लिये हर मुहल्ले में एक
पक्का कुआँ और कुएँ पर ही पीपल मंदिर महादेव और घिर्रा डोरी पत्थर की जगत
ढोरों के लिये जगत के जल को संचित करता हौज, 'प्यासे के लिए बाल्टी सदा
ही देखी,, अनोखी परंपरा थी तब, कन्याओं के पाँव छूने वालों की नगरी वहाँ
जल भरने कौन देता!!! हम लोग जल पीने जाते और पनिहारिन पनिहारा कोई न केवल
जल पिला देते बल्कि हम लोग नहा भी लेते और कपङे अनजानी वधुएँ धो देतीं,
ऊपर से पूजा करते लोगों से भरपेट प्रसाद मिला गौ दुग्ध के पेङे या देशी
घी की लपसी पूङी, नवरात्रि पर इन मंदिरों के आसपास से बिना भोजन किए किसी
कन्या का गुजर पाना असंभव रहता । ये उन दिनों की बात है जब टेलीविजन नहीं
था नगर में न थे मोबाईल और न ही कंप्यूटर थे न था सबमर्सिबल और न हैंडपंप
थे न ही लोग घरों में कैद थे । नगर के भीतर ही एक ऊँची पहाङी पर
सातमंजिला पुराना महल नाम से एक भव्य महल है जिसके पीछे ग्वालियर आगरा
हाईवे नंबर 75है और लाला का तालाब है आगे नगरकोट की नवदुर्गा "बङीमाता
"का मंदिर है 'जो कालान्तर में सटकर बसे भवनों से क्लिष्ट हो गया है
',मबल को वर्ल्ड हैरिटेज में तो अब शामिल किया गया, हमारी तो बालपन की
क्रीङास्थली रही है 'घर में दूर पास के कोई भी अतिथि आते या पूजा पर्व
नववधु आगमन बालजन्म होता "बङी मातन "के मंदिर पर उपस्थिति अनिवार्य रहती
और हम सब वहाँ "पुराने महल "में घुस जाते जो राजा वीरसिंह जू देव ने
बनवाया था "बङी हँसी आती है जब लोग "जूदेव "को जाति समझ लेते हैं!!! जू
"जी का ही बुँदेली रूप है बृज में भी जी के स्थान पर रहीम रसखान सूरदास
पद्माकर घनानंद आदि ने यथा तथा "जू "का ही प्रयोग किया है । देव शब्द
आदर सूचक पुछल्ला है जो बङी हस्तियों के लिए प्रयोग किये जाने का आज भी
रिवाज है । बुँदेली बोली ही सत्कार मिठास कर्णप्रिय ललित संगीतमय स्वर
सुर और शब्द लय से भरी है । दतिया का पुराना महल वास्तुकला का अद्भुत
नमूना है, यहाँ के हर बुर्ज हर खंबे पर हीरे जङे गये थे किवाङ सोने चाँदी
के थे जो अंगरेज और मुगल बाद में उखाङ ले गये हर कलश हर नोक हर खंबा भग्न
यूँ ही नहीं । एक मंजिल तो तलघर है । स्वस्तिक चिह्न की नींव पर बने चार
आँगनों का हिडोलेनुमा विशाल महल मध्यमंजिल पर एक भूल भुलैयाँ बनाता है ।
इनमें हम लोग खूब खेलते, और "गौरापत्थर "से लाख बार निशान लगावे पर भी भू
जाते "सिमिट्रीआर्टस "का जबरदस्त कमाल, हम जब नहीं पहुँच पाते कहीं तब
रोने लगते और महल के शिखर पर बने गणेश जी को पुकारने लगते "हे गनेश बप्पा
"जल्दी बचाओ कऊँ भूत न आ जाये । और सब बङे टोली के प्रकट होकर चिढ़ाने
लगते 'डरपोक '। हम
डरपोक तो नहीं थे वरना इसी महल के भीतर बनी 'जिंदपीर "की मज़ार पर जिन्न
से न डर जाते!! कहीं देखा है छठीं मंजिल पर मजार को?? कहते हैं गामा ने
बकरी चराते समय यहीं पर जिंदपीर से पहलवानी सीखी दूब खा कर बदन बनाया और
एक दिन? पीर को ही दीवार में ठूँस दिया 'आज भी रोशनदान पर पत्थर के बीच
पाँवों के कटाव जैसे निशान बने हैं ।
दतिया नगर से हर दिशा में जंगल के प्रारंभ पर प्राचीन शिकारगाह और
विश्राम स्थल के रूप नें बावङी बनी है ''खैरापति के हनुमान की बावरी,
चँदेवा की बावरी असनेई की झील जलमहल जो आज गोविंदनिवास पैलेस कहा जाता है
',नगर के हर ओर बसे गाँव में "गढ़ी है " ये सामंतों ताल्लुकेदारों
जागीरदारों सैन्यअधिकारियों के महल हुआ करते थे ।गढ़ी पर जाने के लिए एक
से दो किलोमीटर खङी चढ़ाई की सङक होती थी फिर सीढ़िया फिर पहाङी पर बना
छोटा किला या बङी हवेली को "गढ़ी कहते "। ये अधिकांश परमार या पँवार
क्षत्रियों के निवास थे जिनके सैन्य बल से बुँदेलखंड सुरक्षित रहता था ।
यदि आपने सनी दयोल फरहा वाली यतीम फिल्म देखी है तो उसमें 'बङौनी की गढ़ी
"की झलक देख सकते हैं । दतिया के सटे हुए कसबे "उनाव में बालाजी
सूर्यमंदिर 'के सामने बहती बेतवा के जल का चमत्कार माना जाता है कि
'असाध्य चर्मरोग भी ठीक हो जाते हैं । कुष्ठ रोगियों की वहाँ कतारें
लगीं रहती है "यह मंदिर भी छोटी सी पहाङी पर है एक फर्लांग चढ़ाई वाली
सङक से मंदिर के कई आँगनों वाले विशाल मंदिर में प्राचीन वास्तुकला के
साथ अखंड ज्योति के दर्शन भी होते है । आप वहाँ आदर्श दहेज रहित विवाह
होते भी देख सकते हैं मंदिर में अनेक बारातें रुक सकतीं हैं इतनी जगह है
। चर्मरोग से मुक्ति और उच्चपद प्राप्ति हेतु "सूर्यआराधना का बहुत
प्राचीन स्थान है ।
भाग 1

भाग ||
स्मृतियों के घने वनों में सब कुछ स्पष्ट तो नहीं, फिर भी अपनी जन्मभूमि
से स्वाभाविक जुङाव सबका रहता ही है 'दतिया नगर को छोटा वृन्दावन कहते
हैं 'हर सौ कदम पर एक भव्य मंदिर मिल जाता है 'आधा किलो मीटर भर के अंतर
से हर सङक पर एक महलनुमा मंदिर है विशाल द्वार और भव्य वास्तुकला से सजे
कुछ मंदिरों के नाम है "गोविंदजू का मंदिर " अटल बिहारी का मंदिर
"अवधबिहारी का मंदिर ''बाँकेबिहारी का मंदिर " कुंजबिहारी का मंदिर
''रामलला का मंदिर "तैलगमंदिर 'छोटी माता का नंदिर मङियामहादेव मंदिर,
वनखंडेश्वरमहादेव मंदिर, जो दो दशक से पीताम्बरापीठ के नाम से प्रसिद्ध
हो चुका है, खैरीवाली कालीमाता का मंदिर, भरतगढ़ का रामलक्षमण जी का
मंदिर ' बङे गणेश की बावरी, करनसागर का हनुमानमंदिर ।ऐसे अनेक मंदिरों का
आजादी के बाद स्टेट का हक खत्म होने से हश्र यह हुआ कि राजपरिवार ने जिन
जिन को पुजारी बनाकर जमीने देकर वेतन पर रखा था वे ब्राह्मण परिवार उन
मंदिरों में रहने लगे और वह उनका घर बन गया ',प्राचीन वास्तु से छेड़छाङ
करके नवीन निर्माण कर लिये गये । सब मंदिरों पर स्वर्ण कलश थे जो चोरी हो
गये और पूजापाठ तो चलता है, किंतु हमारे बचपन में जो भोर संध्या नगर
भ्रमणकर दर्शनों की परंपरा थी वह समाप्त हो गयी । करये दिन 'यानि
पितृपक्ष में घर घर अपने चबूतरे और बैठक में ''साँझी "सजाने की परंपरा थी
हम बालक सब उत्साह से अनेक दृश्य बनाते खिलौनों दीपको और भगवत्चित्रों
प्रतिमाओं के माध्यम से रँगोली और कृष्ण बाललीला ',रामबाल लीला के सजीव
दृश्य '। तब लोग संध्या को नगर भ्रमण पर निकलते घर घर साँझी देखते हुये ।
आज सोचकर अजीब लगता है जब लोग महीनों बाहर नहीं निकलते स्कूल ऑफिस तो तब
भी थे, रचनात्मकता का गजब कमाल थी साँझी । नवदुर्गा के दिन से क्वाँर
वाली, 'कुमारी लङकियाँ पूरेमुहल्ले की एक टोली बनाकर 'सूरज वेदी बनाती
सोलह सीढ़ी का वर्गाकार पिरामिड शेप का चबूतरा लगभग दो फुट वर्गाकार 'उस
पर गौरी शंकर और सूर्य चंद्रमा दीवार पर, जिनको काँच दर्पन कौङी मनका
'आदि से सजाते ये सब मिट्टी और कांकेरिया पतली ईट की सहायता से बनते ।
प्रथमा से पूर्णिमा तक तारों की छाया में भोर ही सब कुमारिया गौ गोबर से
चबूतरा लीपकर रँगोली बनाती "पत्थर के चूर्ण को विविध रंगों में ररँगकर
रँगोली चूरन तैयार होता 'गीत प्रभाती गाती, और पूर्णिमा को साऱे बच्चों
की दावत होती सब बच्चे मिलजुलतर स्वयं भोजन पकाते, नित्य संध्या को
''ढिरिया माँगी जाती "मिट्टी की बङी सी मटकी में सावधानी से अनेक छेद
करके अंदर तली में बारीक छनी हुयी राख रखकर उसपर बङा सा चौमुख दिया जलाकर
सिर पर रखकर लङकियाँ पूरे मुहल्ले " के घर घर जातीं गीत गाती और लोग
चंदा देते अनाज पैसा, और कन्याओं के चरण पूजते । पूर्णिमा को उसी राशन
चंदे से सब कुमारियाँ भोजन बनाकर खातीं और "वृत्तासुर वध " के उपरांत शेष
सामग्री 'ग्वालों में बाँट दी जाती । जिस लङकी का विवाह हो जाता वह
"सुआटा "उजमन करके बाहर हो जाती ।


दतिया नगरी भव्य और शालीन परंपराओं की नगरी रही है । बहिन बेटी भांजी की
प्रतिष्ठा ईश्वर के समकक्ष रही है । हर शुभ कार्य का प्रारंभ इनके आगमन
से ही होता है । जिसके भी बहिन नहीं है वह पास पङौस की लङकी को बहिन बना
लेता है क्योंकि बिना "मानदान की डलिया आये 'न तिलक चढ़ता है न विवाह का
दस्तूर हो पाता है । आधुनिकता सब लीलती जा रही है । नगर से कुछ किलोमीटर
की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ "सोनागिर "है जहाँ पहाङ पर सैकङा भर बङे
और सैकङों छोटे मंदिर है प्रतिवर्ष जैन महासंगम होता है । इनमें सर्वोच्च
शिखर पर "पीतल की भाँति आवाज करने वाली विशाल बजने वाली शिला बङे पठार से
प्राकृतिक सुषमा भरा मनोरम विहंगम पहाङी क्षेत्र मयूर और दुर्लभ पक्षियों
के दर्शन देखने लायक है, इसी पर बारीक मीनाकारी काँच कला का भी कार्य है
और समरसता का बढ़िया उदाहरण दतिया से अन्यत्र कहाँ मिलेगा कि हम सब तब ये
जानते नहीं थे जैन कोई पृथक धर्म है!! हम सब पूरी श्रद्धा से गर्शन करने
और कविसम्मेलन में कविता कहने भी जाते रहे । मेरी कवितायें प्रायः
सामाजिक विकृतियों को ललकारतीं सो बाल कवियत्री के तौर पर सराही भी जाती
। भारत के मूर्धन्य कवियों के साथ काव्यपाठ दतिया ग्वालियर सेंवढ़ा के
मंचों से ही संभव हो सका । दतिया से तीस किलोमीटर पर झाँसी और सत्तर पर
ग्वालियर है, दतिया की ही उप राजधानी "सेंवढ़ा "है जो कदाचित "शिवमढ़ा
"से विकृत है , सिंध नदी के सुंदर प्रपात और ब्रहमाजी के पुत्रों "सनक
सनंदन सनत्तकुमार की तपोस्थली रही है । यही लोकेंद्रपुर में एक बार हम
अपने वनअधिकारी पिताजी के साथ शिकारियों को पकङने के लिये गयी उङनदस्ता
काररवाही में मिले बाघ के शावकों तो कभी हिरण के छौनो तो कभी चीतल के
बछङों के साथ खेलते पढ़ते और सिंध के जल में तैरते, वहीं "राजराजेश्वरी
माता के मंदिर 'राजा पृथ्वीसिंह कवि रसनिधि "की मढ़िया से 'घूमते जिंदपीर
को पुराने किले और नये किले की बङी बालकनी से झाँकते तो हर तरफ से सिंध
के विहंगम दृश्य दिखते, जब बरसात आती तो पुल डूब जाता और डिरौली पार के
पहाङ पर बने मंदिर पर हवन में भाग लेने जाते तो ग्रामीण स्त्रियाँ तरह
तरह के वन फल भेंट में देतीं । दतिया के ही उपनगर इंदरगढ़ के आबादी से
बाहर वाले क्षेत्र, में कुंजावती की बावङी है । जो ओरछा महाराज "जुझार
सिंह की बहिन थीं "उनकी बङी मार्मिक कहानियाँ बुँदेली लोकगीतों को समृद्ध
करतीं हैं । जुझार सिंह और कुँवर हरदौल सिंह में रामलखन सा प्रेम था,
बहिन कुंजा का विवाह परमारों में हुआ , इस प्रेम को खटकना ही था मुगलिया
दरबार के चाटुकारों को क्योंकि वार हरदौल की तलवार से सब थर्राते थे, सो
जुझार के कान भरे गये रानी के देवर पर स्नेह को संदेह में रखकर जुझार ने
विष देकर "सतीव्रत "की परीक्षा देने को कहा, 'रानी के लाख रोने पर भी
जुझार नहीं पिघले । रानी ने विष खाकर मरने की बात कही तो "असती "होकर
मरना सिद्ध होगा, का कलंक लगे, की बात कही । विवश रानी ने देवर के समक्ष
विषैली खीर प्रिय आहार रखा, 'भाभी की दशा देखकर देवर सब समझ गया और
चुपचाप खाने लगा तो रानी ने विनती की लला आप न जीमो हम तो मजबूर हैं,
परंतु हरदौल भाभी पर कलंक न सह सके और मर गये । उस विष को ही उनके सब
समर्थकों तक ने खा लिया छीनकर और हाथी सहित सब मर गये ।

कुंजवती की बेटी के विवाह के समय जब वह 'भात माँगने "गयी तो जले भुने
सौतेले भाई ने कह दिया जाकर श्मशान में भेंट लो वहीं तेरा भाई है, 'कुंजा
वहीं गयी औऱ विलाप करते रोयी कि अब "चीकट उतारने कौन आयेगा कन्नर लेने ,
भात देने "।कहते हैं नगर सेठ दतिया 'मित्र थे हरदौल के, उनको सपना देकर
हरदौल ने गाङियाँ भर भर सामान बहिन के घर भिजवाया 'और मंडप में जब भाँनेज
दामाद ने घी परसते लोटे को पकङ लिया तो दरशन भी दिये ''कुंजा ने पूछा सब
हो गया नेग मगर मैं भैया कहकर किसके कंधे से लिपट कर भेंटूँ?? तो हरदौल
ने मंडप के खंबे से भेंटने कहा ',तब से लाला का ताल स्थित हरदौल के मढ़
पर सब निमंत्रण देने और नववधू के हल्दी हाथ छापने जाते हैं ',विवाह में
पलाश या आम का खंबा भी रखा जाता है ',जिससे कन्या की माँ हरदौल वीरन कहकर
भेंटती है ।हरदौल सबके मामा हुये इस तरह ।
दतिया नगरी वर्तमान में "बगसामुखी पीतांबरा पीठ के लिए सर्वाधिक विख्यात
है । हमारे बाल्यकाल में हमारे पिताजी के वन विभाग के बँगले के करीब ही
था 'राजगढ़ फाटक का 'वनखंडी "महादेव मंदिर ''जिसे स्थानीय लोग बलखंडी
कहते थे । तब वहाँ एक प्राचीन शिवलिंग और एक कुटिया तथा एक चौपरा था ।
चौपरा यानि चौकोर पत्थर से बना चौकोर छोटा तालाब । कुटिया में पचास साठ
के दशक में कहीं से एक वीतरागी "स्वामी जी "आकर रहने लगे और 'देश के
शत्रुओं के विनाश के लिए 'महाविद्या बगलीमुखी पीतांबरा ''की घोर आराधना
की । हमें याद है स्वामी जी कन्यापूजन करते थे मूढ़े पर बैठे रहते, और तब
सब खुला था माँसाहिब अकसर प्रसाद बनाकर ले जातीं "स्वामी जी प्रेम से
ग्रहण करते । आज कई एकङ में फैला भव्य पीठ है ।शास्त्री जी ने पैंसठ के
समय यज्ञ कराया माता धूमावती का यज्ञ प्रमं इंदिरागांधी ने बहत्तर के
युद्ध के समय करवाया था । लगभग सब राजनैतिक हस्तियाँ यहाँ विजय श्री का
रवदान माँगने आतीं है 'शांत और स्वच्छ वातावरण में हफ्तो रहकर यजन भजन
करतीं थीं राजमाता विजयाराजे और अटलबिहारीवाजपेयी तक । दतिया आज आधुनिकता
की चूहादौङ का शिकार है । यहाँ करीर ही काँक्सी बजरंगबली का जंगल में
स्थित सिद्ध धाम है, । संस्कृत हिंदी और संगीत की नगरी दतिया । यहाँ के
राजा कुदऊँ सिंह जू प्रसिद्ध पखावजी थे, जो पागल हाथी तक को पखावज बजाकर
वश में कर लेते थे । हमारे बचपन में अनेक शरदपूर्णिमाओं की यादें हैं जब
किले में 'असनई राजमहल में, अवध बिहारी, गोविंद मंदिर, अटलबिहारी, या
रामलला पर 'कविगोष्ठी और संगीतसभा चलती रही रात भर और बादाम काजू वाली
गाढ़ी सौंधी खीर मिट्टी के 'कुल्लहङ में भर भर कर सबको राह रोक रोक कर
बाँटी गयी । करीब ही जंगलों में है रतनगढ़ की माता का मंदिर 'जहाँ विष और
सर्प दंश बच्छू दंश का उपचार होता था ',करीब ही चंबल के भरके टीले ढांग
ढूहे चालू हो जाते है, 'डाकुओं की देवी कहा जाता है रतनगढ़ की माता को ।
किसी जमाने में डाकुओं से सिर्फ अत्याचारी धनवान डरते थे स्त्रियों का
डाकू सम्मान करते थे, क्योंकि वे लोग बागी क्रांतिकारी थे । बाद में डाकू
पापी हत्यारे होने लगे । ऐसे ही एक डाकू जिससे सब थर्राते थे हम कंधे
चढ़कर नीम पर झूला डलवाते थे बाद में समझा जाना डाकू कौन होता है ',जब
उनके एनकाऊंटर की खबर पढ़ी । दतिया किसी समय घने वन का क्षेत्र था ।
रामायण काल महाभारत काल की नगरी दतिया 'मुंडिया ब्राह्मणों की नगरी थी
गहरवाङ राजपूतों की नगरी थी 'शिशुपाल के साले दंतवक्त्र की नगरी थी जो
'शिव मंदिरों से भरी पङी थी । बाद में एक कवियत्री महारानी ने कृष्ण के
मंदिर सैकङों बनवा डाले । दतिया के राजा वीरसिंहजू देव 'ने बावन नींवे
डलवायीं थी झाँसी का किला, हर की पैङी हरिद्वार, मणिकर्णिकाघाट वाराणसी
बाँकेबिहारी वृंदावन, लगभग सवामन सोने का दान उन्होने किया था । हमारे
बचपन की दतिया में दो पार्क भी थे 'भवानी पार्क और गोविंद पार्क 'बङे थे
जहाँ हम रविवार की शाम माँ बापू के साथ फव्वारे के साथ खेलते ""ठंडी सङक
पर दोनों ओर नहर थी और खजूर के हजारों पेङ चथा दो फव्वारे और शीतल हवा
'आज सब नगरीकरण लील गया 'पक्की फुटपाथ दतिया के अलावा कहीं कहीं ही
बमुश्किल देखने को मिला । भारत पाक बँटवारे के समय सर्वाधिक सिंधी
शरणार्थी दतिया बसे घर घर लोगों ने शरण दी "महल अस्तबल हाथीखाने और
घुङयाल जेल मंदिर सब "सिंधी शरणार्थियों के लिए खोल दिये गये । बचपन में
तमाम हादसे के शिकार परिवार देखे पागल गोदूबाबा बीका देखा, बुरेधमधे में
बेटी को धकेलती माँ देखी, गली गली पीठ पर बरफ बेचते बच्चे देखे 'शूमर
चाचा की कुल्फी का स्वाद तो आज भी भूला नहीं 'मुँहबोला भाई था माँसा का
'कन्हैया सिंधी 'जो रोज चिढ़ाता " गुड्डो मरै मलीदा होय सब पंचन कौ
न्यौतौ होय, हम खाँए गुड्डो ललचाएँ " । सिंधङ मामा हम क्यों न खाएँ मलीदा
'पैले? सब हँस पङते तब कहाँ पता था ये पश्चिमी यूपी बदा है भाग में रोज
रोज का मरना । दतिया में यक्ष पूजा रक्क्स बाबा, और बाँबीपूजा का भी
रिवाज है । एक परंपरा और है "मामुलिया "जिसमें कँटीली बेर की डाल को खूब
फूलों मिठाईयों खिलौनों से सजाकर लङकियाँ तालाब में 'सिराती हैं "और लङके
तैरकर किनारे खींचलाते है पैसा खिलौने और मिठाई की पोटली बाँटकर खाते हैं
। लङके पलाश का पुलता बनाकर टेसू और होली का चंदा भी वसूलते हैं । दतिया
की अनोखी परंपरा देखी कि ',ताजिया जब निकलता है तो पहला कंधा राजपरिवार
का तिलकधारी राजा देता है । हिंदू मुसलिम कौन है पता न था खूब जर्दा
पुलाव बङी बङी बैलगाङियों पर देग भरकर गाँव गाँव से आते और सब बच्चे
"दोना भर कर बुला बुला कर जिमाये जाते । प्यार वहाँ देखा था हिंदू मुसलिम
के बीच जब बापू के लिए जानपर खेल गये अहसान चाचा और शाकिर हमारा भाई हर
राखी पर पिटकर भी बँधाने आ जाता राखी, हम सखियों में राबिया सूबिया आसमा
शमीम तो मुसलिम ही
थी, ये कब याद था 'खूब जाती सब मंदिर हम मजार और किसी को खसरा निकलता तो
चची बङीमाता पर जल देवली यानि चने की दाल चढ़ातीं । गौकशी न कभी सुनी न
जानी 'हर घर के सामने से जब ग्वाले गौओं की रेवङ लेकर गुजरते महिलाएँ
पूली भर दूबपत्ते और पहली रोटी खिसाकर गरदन सहलाती पाँव पूजती । गाएँ भी
चुपचाप चबूतरे के पास खङी हो जाती अलग अलग गाय का अपना ही द्वार, । जैसे
प्रशिक्षित हों ।
रूही तो संस्कृत से एम ए थी पीएचडी भी । साङी में ही देखी सब मुसलिम
महिलाएँ सफेद चादर ऊपर से । बुरका तब न फिल्मों में दिखता था न नगर में ।
मुसलिम औरतें बिंदी भी लगाती थी काँच प्लास्टिक की । संदल से माँग भरती
थी । न मानो पुरानी सौदागर देख लो अमिताभ नूतनवाली । आज यहाँ बरसों हो
गए एलियन ही रह गये । न सावन के झूले हैं न अक्ती की सोन का नेग न दूज के
अखाङे न होरी की पंद्रह दिन दमकती घमकती फागलीला है न कतिकारिनों को राह
में छेृकर गीत गवाते कृष्णवेशी गोप न बहिनों के चरन पूजते भाई न अनजानी
बेटी की विदाई पर गाँठ के पैसे देते नगर वासी । संस्कार और नगर 'बस
यादों में रह गये । सामने है चूहादौङ और बस सामान जुटाने की चिंता 'रात
को कविगोष्ठी?? संगीत?? तौबा औरतजात और पश्चिमी यूपी में ऐसी बात!!!
©सुधा राजे
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पूर्णतः मौलिक रचना ।


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