राष्ट्रवाद का सिरमौर बंगाल हाशिये पर क्यों??? --- सुधा राजे का लेख।


राष्ट्रवाद का सिरमौर बंगाल हाशिये पर क्यों ?
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••सुधा राजे का लेख 
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हम तो आज भी कहते हैं कि पत्रकारिता शिक्षा स्वराज्य हर तरह का पहला जागरण बंगाल से ही हुआ ।बंगाल देश की सबसे पहली आधुनिक शिक्षा संचार और जनजागरण की नगरी रहा है । बंगाल को केवल आज के सांप्रदायिक स्वरूप और बांगलादेशियों की समस्या से ग्रस्त जाननेव
और न जानने वाले समझ लें  कि 1905का बंगाल विभाजन उसी स्वराज एकता से उपजे आंदोलन को कुचलने के लिये हुआ था । न बंगाल बँटता न बंगाली राष्ट्रवाद घटता ।
बंगाल में आजादी की लड़ाई खुदीराम बोस की फांसी से प्रारंभ और सुभाषचंद्र बोस के लापता होने पर समाप्त हुयी ।वन्देमातरम एक बंगाली बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने ने रचा और जनगणमन भी एक बंगाली रविन्द्रनाथ टैगोर ने  ।पहला हिंदी समाचार पत्र उदंत मार्तंड पं.जुगलकिशोर  का  बंगाल से चला ।पहला अखबार ही बंगाल गजट था जेम्स आॅगस्ट हिक्की का जिसे जेल हुयी अंग्रेजों के खिलाफ सत्य के कहने के लिये ।पहली रूढ़िवादिता पर विरोध की कानूनन मान्यता बंगाल से मनवायी गयी सती प्रथा और बाल विवाह की रोक पर ।विधवा पुनर्विवाह की मुहिम और स्त्री शिक्षा की मुहिम ,कन्याओं का पाठशाला जाना बंगाल से प्रारंभ हुआ । भारत में स्त्रियों के प्रति रूढ़िवादिता का पहला विरोध बंगाल से हुआ । राष्ट्रवाद के लिये सुलग उठा पूरा बंगाल जब नेताजी को अपना एक एक पुत्र और तुलादान में सोना देकर आजाद हिंद फौज के लिये हर बंगाली आगे आकर निर्धन निर्वंश होने से भी नहीं डरा । बाल लाल पाल की तिकड़ी ने बंगाल से दिल्ली मुंबई तक स्वराज्य की लौ जगाकर हर भारतवासी को समझाया था कि अंग्रेज क्या कर रहे हैं। विवेकानंद ने विश्व में भारतीय हिंदू धर्म के आध्यात्मिक उच्चादरश की दृढ़ता से स्थापना की । राष्ट्रवादी और हिन्दू संस्कृति के बंगाली रूप में रचे बसे मुसलिमों वाला बंगाल साड़ी रेशम मलमल चित्रकला संगीत साहित्य कविता दार्शिक तर्क वितर्क और मित्रतावाद का अद्भुत उदारण रहा । अपने समाज की कुरीतियों से स्वयं बंगाली जितना जूझे और पार भी पाये उतना किसी और समाज में उदाहरण तक नहीं मिलता । कलकत्ता एक समय भारत ही नहीं लंदन तक राष्ट्रवाद स्वराज और भारतीयता की थर्राहट का नाम था ।
उपलब्धियां गिनाने बैठें तो बंगाल की कहानी से ही ग्रंथ पूरे भर जाये ।
भारत की प्रथम स्नातक महिला कादंबिनी गांगुली और चंद्रमुखी बसु रहीं । भारत की प्रथम महिला चिकित्सक कादंबिनी गांगुली ।फिल्मकार सत्यजीत राॅय ,अर्थशास्त्रीअमर्त्यसेन, महर्षिअरविन्द घोष,उपन्यासकार शरत्चंद्र,लेखक ताराशंकर वन्द्योपाध्याय,समाजसुधारक विद्यासागर, राजाराममोहन राॅय, वैज्ञानिक राजेन्द्र मित्र,डाॅक्टर आॅफ लैटर्स जोसफ घोष ,..............यह सूची बहुत लंबी है किंतु यहां हम केवल उस बात पर ध्यान दिलाना चाहते हैं जो है बंगालियत । सीमावर्ती बन गया राज्य जबसे बंगाल तबसे उपेक्षा की भी शिकार ही रहा है । 1947में ही 
विभाजित बंगाल को पाकिस्तान में दे देना ही पाप था ;वे मुसलिम हिंदू ईसाई जो जो बांग्लादेश चले गये तब तक बिंदी सिंदूर होली दुर्गापूजा बंगला गीत संगीत वसंतपंचमी दशहरा  मलमल ,रेशम ,हथकरघा ,तांत,  समुद्र ,मछली भात सोन्देश छैना रोसोगुल्ला और साझे तीज त्यौहारों रहन सहन से जुड़े थे ।पृथक होने पर  उन पर अत्याचार कट्टरवादी अलगाववादी  पाकिस्तानियों ने किये ही इसीलिये थे कि ,बंगला संस्कृति साड़ी केश बिंदी बंगाली सुहाती न थी उनको । "
"आमार सोनार बांगला "
गाते मरते गये हजारों लोग ;मुक्तिवाहिनी के साथ भारत निष्ठा के कारण ही जुड़े थे उनको लगा कि उनका घर एक भारत में ही रह गया ।
बांगलादेश पाकिस्तान से आजाद हुआ तब कई हजार बांगलादेशी भारत शरणार्थी बनकर आये तो यही मानसिकता थी कि उनका भारत से नाता है पुराना ।इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारतीय सीमावर्ती क्षेत्र में ही बसते चले गये बांग्लादेशी हिंदू भी थे मुसलिम भी और उनको लगता था अब यहीं शरण मिल जायेगी या वापस जाकर घर रोजी रोटी देश मिलेगा । गरीबी बेरोजगारी के तले पिसते लोग ,भड़काऊ पाकिस्तानी साजिशों और भारत में ही छिपे और प्रकट रह रहे भितरघातियों के संपर्क में आकर संक्रमित मानसिकता के शिकार होते चले गये ।जिसमें साफ साफ दो तरह की विचार धारायें काम कर रहीं थी वामपंथी कट्टर साम्यवाद और बंगाली को आधार बनाकर पूरा ही पूर्वी पश्चिमी बंगाल एक करके भारत से पृथक करवाने की अलगाववादी मजहबी कट्टरपंथी धर्मपरिवर्तनकारी प्रत्यक्ष और परोक्ष साजिशें । वहीं सीमा से सटे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों का आना जाना दोनों ही बंगाल से रहता रहा ढाका और कलकत्ता से जुड़ी रही सारी वैचारिक अलगाववादी सुलगन चुपचाप एक दिन में तो नहीं ज्वालामुखी बनी होंगी । बंगाल विभाजन से बहुत पहले ही भारतीय स्वराज्य के विरोध और समर्थन के दो पृथक समूह बंगाल में उदय हो चुके थे जिनकी ही साजिशों का सारा परिणाम पूर्बी बंगाल का पाकिस्तान में चला जाना था । वहां जाकर जब शिया सुन्नी और उर्दू फारसी बनाम बंगला असमी भाषी का विद्वेष हावी होता गया तो विरोध बढ़े जिनको दबाने के लिये हुये अत्याचारों की कोख से बंगलादेश का जन्म हुआ जिसमें दाईमाँ की भूमिका भारतीय मुक्तिवाहिनी के सिख बंगाली सैनिकों ने सबसे अधिक निभायी । जिस हार और विभाजन का घाव पाकिस्तान को सालता ही रहता है और वहीं से जहरीले षडयंत्रकारी वैचारिक अभियान संपूर्ण बंगाल के पृथक होकर एक नया देश बनाने के लिये चलते रहते हैं ।किंतु हर बात के दोष का ठीकरा पाकिस्तान के सिर फोड़कर भारतीय बरी नहीं हो सकते । भारतीय मध्य हिन्दी एवं सहायक भाषा भाषी पट्टी के लोग उनका मीडिया ,दिल्ली मास्को वाशिंगटन लंदन पेरिस मुंबई के बीच इतने अधिक मशगूल हो गये कि उनका ध्यान न तो चरमसीमा तक की दीवानगी जुनून पैशन बन चुके युवा साम्यवाद पर गया न ही तेजी से लुप्त होती गयी "बंगालियत "पर गया जिसमें गंभीर थियेटर था यथार्थवादी कालजयी फिल्में थी ,युगांतरकारी लेखन था काॅफीहाऊस ट्राम और छाजा बाजा केश तमाशा मेला की   अटूट हिस्सेदारी थी । जहां मुसलिम की बनी साड़ी दुर्गाठाकुर को चढ़ती और ईसाई के लिखे डायलाॅग धार्मिक मंचन में बोले जाते और हिंदू की बनायी मिठाईयां ईद और इफ्तार में खायीं जातीं । बहुत पीछे न जायें तो अमिताभ नूतन वाली सौदागर देखें वहां पता ही नहीं चलता कि नायक मुसलिम है या हिंदू और पहनावा बोली तीज त्यौहार रोजगार कला संगीत लेखन अभिनय व्यापार के बाद ईडन गार्डेन और माछ भात से एक ही जैसा पहनते बोलते खाते रहते बंगाली एक एक दिन थोडा और पृथक होते गये । इस पृथकाव में जेहादी कट्टरपन और वामपंथी नास्तिकता ने जितना काम किया उससे कम दोषी मध्योत्तरीय भारत की राजनीति और मीडिया नहीं ?हिंदी के किस चैनल और अखबार पर सीमावर्ती राज्यों पर चर्चा रहती रही ?कितना कम जानता है दिल्ली मुंबई जयपुर लखनऊ पटना  के बीच बसा भारतीय बंगाल आसाम मणिपुर त्रिपुरा सिक्किम नागालैंड मेघालय मिजोरम को ! पहले सब बंगाली महाभारतीय महाहिंदू महाराष्ट्रीयतावादी रहे 
बाद में सब जेहादी लोग वहां हावी हो गये और सोच रहन सहन हर जगह से "बंगालियत "मिटायी जाने लगी ।
यह पश्चिम बंगाल में भी षडयंत्र जारी है और पूर्वी बंगाल यानि बांगलादेश में भी ।शेखमुजीबुर्रहमान के समय तक भारत से ही बांगलादेश की आत्मा अधिक जुड़ी थी ।आज भी बंगाली संस्कृति बांगलादेश से मिटाने का षडयंत्र चल रहा है ।जिसमें दुर्गापूजा ,वसंतोत्सव ,गायन वादन ,कविता लेखन ,और साड़ी बिंदी बंगाली भाषा निशाने पर है ।पाकिस्तानी भारत में आसानी से पहचाना जाता है किंतु बांगलादेशी को पहचानना बहुत कठिन आज भी चाहे तसलीमा हों या खालिदा जिया या कोई भी बंगाली संस्कृति से गहरे से जुड़ा व्यक्ति कम या अधिक भारतीय ही लगता है ,किंतु आज बंगाल में बढ़ते कट्टरवाद की वजह से उस बंगाल में जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी के लिये तर्क वितर्क सभा खुले शास्त्रार्थ होते थे ,कलाकारो लेखकों और अभिनेताओं संगीतकारों तक पर जुबानी या वैचारिक या भीड़ का हुल्लड़वादी हमला हो जाने लगा है । 
वामपंथ का तीस साल नहीं ,सन् 1937से ही रूसी चीनी दीवारें खिसककर भारत तक आने लगीं थीं । रूस के प्रति नरमी के पीछे शोषण से मुक्ति का सुनहरा सपना था और कठोर साम्यवाद का माओवादी चिंतन दूसरी तरफ से तिब्बत को च्यांगकाईशेक सरकार को हड़पने फारमूसा को भकोसने के लिये सुनहरे वैचारिक जाल बुनने लगा था यह भारत की आजादी से पहले ही प्रारंभ हो चुका था ।
कानू सान्याल ज्योति बसु तो बहुत बाद की कहानियां हैं । लालढांग
और नक्सलबाड़ी
जगह के नाम थे किसी विचार के नहीं ।
यह विचार तो एक सपना बेच गये लोगों ने पैदा किया जो गरीबी बेरोजगारी अकाल पूंजीपतियों के शोषण मिलों के एकाएक बंद होने से उपजी त्राहि त्राहि पर एक फाहा नरम विचार की गरम सेंक का रखते थे कि हमारे दुखों का अंत पूँजीपतियों और ईश्वर के अंत में छिपा है ।
नारीमुक्ति की पहली खेप ही बंगाल से चली और दमन का थ्योरी आॅफ रिलेटिबिटी विस्फोट के रूप में साम्यवाद दबाया गया तो और और भड़का ......................तब भारतीय मुख्यधारा दिल्ली के आसपास से मास्को और वाशिंगटन तक ही झूलती रह गयी

उग्र राष्ट्रवाद का मतलब हिंदू नहीं हो सकता न ही दिल्ली की लखनऊ की पटना जयपुर अहमदाबाद भोपाल मुंबई का राजनीति । हमें सीमा तय करनी ही होगी देश के भूगोल की भी और राष्ट्रवाद के वैचारिक उग्रपन से वैश्विक मानव के मूल्यांकन के सामंजस्य की भी । क्षेत्रवाद और भाषावाद कोई बाधा नहीं एक रोचक वैविध्य ही लगेगा तब ।
यह बंगालियत की अंतिम सीमा का पराभव जैसा है ।बंगाल  राष्ट्रवाद का प्रारंभ शक्ति, सरस्वती की पूजा से जुड़ा है तो मुसलिम कला उदारवाद देशभक्ति से भी जो अपने को हिंदू से पृथक नहीं समझते थे ।आज वही बंगालियत बचेगी तो भारतीय उपमहाद्वीप में शांति और कला का भारतीय स्वरूप जीवित रहेगा ।
बांगलादेशी आपराधिक शरणार्थियों के बहाने बंगाली लोग और संस्कृति को आहत करने वाले लोग अपने गिरेबान में झांके कि उनके अपने कुल परिवार प्रांत गांव नगर जिले का भारत की आजादी विकास और संस्कृति में कितना योगदान है !!
आज दुख होता है बंगाल याद आते ही दुर्दशा गरीबी घृणा बेरोजगारी गंदगी पशुवत मानव परिश्रम बेघर लोग भिखारी और भारत का नाम खराब करने वाली पुरस्कृत फिल्में,मानवदेह  व्यापार , बंगाल के दंगे ,हिंदुओं का पलायन ,मुसलिमों में बढ़ता राष्ट्र के प्रति असंतोष ,जाति मज़हब की कुत्सित राजनीति ,तंत्र मंत्र के अंधविश्वास और घटिया धंधेबाजी ,पर्यटकों तक से बुरा व्यवहार ,अपराध और जलते कुटीर उद्योग उफ् ..........
कम से कम पुराने बंगाल और बंगालियत के लिये 
हम निजी तोर पर सकते हैं 
"आमार सोनार बंगाल आमि तोमाके भालो वासी "

स्वामी विवेेकानंद का भारत बंगाल में यदि आज वामपंथ के चंगुल में से जेहाद के पिंजरे में जा फँसा है तो कारण दिल्ली मीडिया और मुंबई जनसंचार के साथ चर्चा से नदारद सीमा वाले प्रांत भी हैं ।
आप देखे तो कि पूर्वोत्तर राज्यों के नाम तक कितने लोगों को सही सही याद है ?
कौन खबर लेता है मारवाड़ कच्छ में क्या घट रहा है ?
किसे सुध रही कि कश्मीर धीरे धीरे मसजिदों का राज्य बन गया ?
कौन याद रख पाया कि यहीं दिल्ली की नाक के नीचे पश्चिमी यूपी में तालिबान पनपने लगा ?
अतिथि सत्कार और अजनबी की मदद करने वाले घटते गये ।
यह हाशिये पर रह जाना ही तो गुनाहों के लिये अनुकूल जगह है।
बंगाल का बुद्धिजीवी वामपंथ की जकड़न में छात्रों को जकड़ कर एक भीड़ अपने लिये बनाकर सत्ता पर चढ़ता रहा ,उधर जोश खरोश से भरा बंगाली युवा वर्ग बेरोजगारी गरीबी के बीच बेहद विचारशील प्रतिभा कला से संपन्न होकर....
क्या करें की अवस्था में ,
 एक फ्रस्ट्रेशन में सामने आ पड़ा वामपंथी मार्ग ही समाधान मानकर अपनाता रहा । आग पर फूस का काम सोवियत और चीनी मार्क्सवादी समाचारों ने किया दल के दल बनते गये "राष्ट्र गौढ़ और वर्गवाद प्रधान हो गया । पूँजीपति कहकर शरणार्थी बंगलादेशी लगभग 99हजार लोगों के साथ बंगाल का गरीब वर्ग मिलकर एक भीड़ बन गया और कलकत्ते मिदनापुर दुर्गापुर के बीच वामपंथी होना सम्मान बुद्धिमत्ता महानता  की बात हो गया । विचारों की जकड़न ही ऐसी थी कि हर मजबूरी गरीब की हर समस्या का समाधान लगता था वामपंथी विचारधारा में ही है । एक बंगाली ही इस बंगालियत को खोते जाने का दर्द समझ सकता है । 
©®सुधा राजे

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