सुधियों के बिखरे पन्ने- एक थी सुधा - संस्मरण - सेंवढ़ा।

संस्मरण ..
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सेंवढ़ा
सनकुआ मार्ग के मोड़ पर फाॅरेस्ट बंगले के पास ही ऐन सड़क पर एक पंडित जी खूब ऊँचे चबूतरे पर तुलसी चौरे के सामने बैठे देवी जाप और भजन करते रहते थे । हम बच्चे जब सनकुआ प्रपात या गुफा वाले शंकर जी या राजराजेश्वी पूजा के लिये टोली में निकलते या वहीं तब किंडर गार्टन था वहाँ जाते तो पंडितजी जोर से मंत्र बुलवाते राह छेंककर ,हम कुछ तेज थे सीखने में सो जैसा बोलते कह देते ,बाद में याद रह जाता ""नमस्तस्मै""सो उन पंडित का कोड नेम हम बच्चों में हो गया नमस्तस्मै पंडितजी । वहीं पास में बी एस एफ रेजीडेन्स थी और कंपनी कमान्डेन्ट भीम सिंह थापा जी हम लोगों को रोक कर मारवाड़ी गीत सुनाते "
,,,,पैदल चलना मन्ने ना सुहाता ल्याओ मोट्टर कार अजी पम् पम् पम्
"छूट गयी नौकरी मिले न पगार कां से ल्याऊँ मोट्टर कार ""अजी पम् पम् पम् ......

और उनका नाम रख लिया '""पम् पम् काका ""

हमें तब पीछा छुड़ाकर सिन्ध में नहाने और वहां प्रपात की अर्राती धारा को देखने की शीघ्रता रहती सो ""दो पंक्तियाँ जल्दी गा देते फ्राॅक घुमाकर नाचते हुये हमें सिखाने के चक्कर में भीमसिंह काका ,अपनी खाकी हाफ पैन्ट तो कभी खाकी फुल पैन्ट पकड़ कर लड़की वाली मुद्रा बनाते ,हम सब हँस देते और काका हम सबको कुछ चिज्जी देकर जाने देते ।

उधर नमस्तस्मै पंडित जी का यही हाल था कि कन्याओं के चरण छूकर प्रसाद देते परंंतु पहले "
"जय श्रीकृष्ण राधे श्याम ""कहना पड़ता कई बार तब प्रसाद मिलता ।मिश्री तुलसीदल पेड़ा हमारी प्रिय मिठाई रही । हम कह तो देते परंतु हथेली नन्हीं सी ऊपर कर देते और नीचे का प्रसाद छिपाकर दुबारा प्रसाद ठग लेते ।
फिर दूर जाकर मुँह चिढ़ाते हुये कूदकर भागते हुये चिल्लाते """सीताराम सीताराम राम राम राम """
पंडित जी दंड कमंडल धोती सँभालते कुछ दूर पीछा करते _ठैर जाओ ठैर जाओ धौंचाली कऊँ के हमिन सिर्री समज लओ अबई बतईत कैसी राम राम ""

हम सब बहुत प्रसन्न होते । हमारे साथ हमारी सहेलियां भी रहतीं लीडर तो हम ही रहते बालटोली के ।जब किंडर गार्टन या सनकुआ से वापस आते तो फिर पम् पम् काका
राह छेंक लेते , हम कभी मूड होता तो पहले ही सुना देते "
"दादा मारवाड़ में दीनी रे दीनी रे औछौ पहिरौ घाघरो मैं लाजन मर गयी रे ""

,,,बाजरा जी का जंजाल मोरा बाजरा ,,

पम् पम् काका नेपाल के थे और वहाँ मेरी ही आयु की उनकी बेटी थी जो खूब नाचती गाती कूदती रही होगी जैसा वे कहते थे । उनकी आँखें भर भर जातीं कभी कभी और कभी कभी खूब लड़की की तरह बंदूक रिवाॅल्वर सबकुछ बांधे भी नाचने लगते हैट मुँह पर रखकर ।

टैक्स था कविता सुनाना और पुरस्कार थे मैस के फल
,
उधर तनिक ही पग बढ़ते नमस्तस्मै पंडितजी पंथ छेंक कर आ जाते दंड खटकाते अब कओ कितखौं निकर हौ वानर यूथं ??हम सब हँकर हाथ जोड़कर दूर से ही नारा लगाते ""जयश्रीकृष्ण राधे श्याम ""
हाँ अब कई नौनी ,
बौ कभऊँ जिनकईयो जौन पैलऊँ कै रये ते ,
हम सब हाँ में सीधे बनकर मुंडी हिलाते ।
आगे दौड़कर निकलते और फिर नारे लगाते

""सीताराम सीताराम जय श्रीराम राम राम राम ""
पंडित जी फिर पीछे आने का उपक्रम करते दौड़ते फिर ठिठक सुनाते
~""कढ़ियो काल दुआरे सैं हम बतैहें कैसौ सीताराम "

आज यादों में यूँ ही आता है कि न तो पंडितजी कभी ठगे गये न बुद्धू बने बल्कि हम सब को दो बार चार बार हथेली छिपाते देखकर भी अनजान बनते थे और न ही वे हमारी सीताराम या नमस्तस्यै को नमस्तस्मै कहने से ही चिढ़ते थे वह प्रसाद रिश्वत नहीं बालकों को प्रोत्साहन था ।
न ही पम् पम् काका हमें गाने नाचने के बदले फल देते रहे बस उनकी नेपाल में रहती बेटी की यादें उनको हमारी सूरत में कुछ पल का पितृत्व सुख देतीं रहीं ।
नमन आप दोनों को ।पता नहीं कौन कहां है ।
बरसों बाद रिटायरमेन्ट के कहीं दूर से पम् पम् काका आये तो रहे एक बार परंतु तब हम हाईकोर्ट के वकील बन चुके थे । बस दो चार बातें की चकित से देश लौट गये । हम कह ही नहीं पाये कि पम् पम् काका आप हमारे बचपन की सबसे सुन्दर स्मृतियों में से एक हो । शब्द कहां साथ देते हैं हर जगह ।तब हम धाय माँ कौँसाबाई की देखरेख में रहते थे क्योंकि माँ साथ नहीं रहतीं थीं वे बहुत व्यस्त सामाजिक जीवन में दूर नगर में रहतीं थी ।
आज ,
यह क्यों नहीं समझते लोग कि बच्चों में यह प्रवृत्ति होती है कि आप चिढ़ोगे तो वे और और चिढ़ायेंगे । बस हिंसक हो उठते हैं ।

कहीं कोई चिप होती मस्तिष्क के बालपन के चित्रों को निकालने की तो बड़ी मोहक मुद्रा होती थी पम् पम्
काका की
ये तो बाद में पता चला कि यह पम् पम् दरअसल मोटर की आवाज का भोंपू है ,
कुछ स्थूल से ठिगने नेपाली काका ,वरदी में हैट मुख पर लगाकर बिना अपने असिस्टेन्ट कर्मचारियों और सिपाहियों की परवाह के छोटी बच्ची बनने का अभिनय करते नाचते तो हम सोचते काका को ठीक नहीं आता हम अधिक होशियार हैं और सारे स्टेप ठीक करके ठुमकने लगते ।

नमस्तस्मै पंडितजी तो बस राम नाम से चिढ़ने के बहाने ही राम राम कहते कहाते साथ ही देवीसूक्त भी ।
तब कहाँ समझ आता था तब तो लगता था हम बालक ही विजेता है पंडित जी तो बुद्धू बन गये हमने प्रसाद भी दुगुना तिगुना ठग लिया और फिर से रामसीतारमा भी कह दिया

हाँ क्योंकि वे पहले राजस्थान रहे और वहाँ बरसों रहकर आये थे ,हम लोग राजपूत हैं और उनको कदाचित वह सब बढ़िया लगता रहा । वे स्वयं भी राजपूत ही थे । सशस्त्र बल के लोग कब कहां रहते हैं पता नहीं । यहां यहीं बहुत विचित्र बात है आज कि नेपाली वे स्वयं आपस में बतियाते परंतु हम लोगों के लिये हिन्दुस्तानी गीत गाते ।भारत से प्रेम था परिवार के मित्र रहे

हमारे पिताजी और काका शाम की किसी छुट्टी में पीने खाने बैठते तो पिताजी भोजपुरी गीत बहुत गाते थे ।

हमें जैसे बुन्देली प्रानन प्यारी लगती है। 

ग्वालियर अथवा झाँसी से बस मार्ग है ,दतिया जिले में कसबा है तहसील है ,और प्राचीन उप रियासत है ,
आदिब्रह्म के चार पुत्रों की तपोभूमि है सेवढ़ा ,यहां सिन्ध नदी पर प्राकृतिक प्रपात है पहाड़ हैं जंगल है और किसी समय बाघ थे ,
परिजनों के साथ शिकार पर फिर लिखेंगे। 

नमस्तस्मै पंडित जी के घर के पास ही एक पटैरिया जी का घर था और उन दिनों बहुत धनिक परिवार रहे वे लोग ,उस समय चर्चा करते सब कि उनका पोता ही दादा का पुनर्जन्म है वह पिछले जन्म की बातें सुना रहा है । हम बच्चे कुछ किस्से सुनने के शौकीन थे ही ,घर में ग्वाला रहते थे और एक अर्दली भाई थे ,उनकी कहानियों में धन सदा ही चूल्हे के नीचे ही छिपा निकलता था ,
तो उसी कल्पना में एक बार हमारी बाल टोली उनके घर किसी पूजा में गयी तो पूछ लिया कि ""चूल्हे की नीचे भी खोदकर देखा कि नहीं ""सब ने इतना हँसा कि खिसिया कर रह गये ,,,चले थे विद्वान बनने। 

तब बहुसुन्दर हरा भरा और रामलीला कृष्णलीला की नगरी थी । बहुत सारे तो बहुरुपिये रहते थे जो नगर में तब निकलते तो हम लोग चकित होकर पीछे लग जाते । उस समय एक फूफाजी वहां पशुचिकित्सक थे सो पशु अस्पताल के सामने वाले अस्पताल के सामने तक जाने की छूट थी और वहीं डाॅक्टर फूफा जी के बंगले पर छुट्टी के दिनों में एक शाम डाॅक्टर बुआजी को रोज तंग करती बिल्ली हम चारों कजिन्स ने बंद कर ली बच्चों वाले कमरे में । बिल्ली कपड़ों की लकड़ी वाली आलमारी में एक काँच टूटा होने से छिप गयी हम बहादुर बालिका बनने के तमगे में बिल्ली को हाथों से दबोच बैठे ,बिल्ली ने पूरी ताकत से दाँत मार दिये उंगलियों पर हमने चीखकर बिल्ली छोड़ दी बुआ जी घबरातीं आयीं तो देखा मध्यमा के नाखून से पार हो गये दांत ,
बहुत सारी डाँट पड़ी पट्टी सुई और रोज की मरहम पट्टी के बाद जब दर्द कम हुआ तो तमगा मिल ही गया "एक बात तो है हमारी बिटिया है बहुत निडर बहादुर "खदेड़ कर हाथों से बिल्ली पकड़ ली तब से आयी ही नहीं .....

अब तो बहुरुपिया शब्द केवल लेखन में रह गया है तब हम लोग सचमुच के बहुरुपिये देखते थे ,,,
एक कक्का मास्साब थे और कमला भैन जी ,वे हमें विशिष्ट खोपड़ी कहते रहे ।
उस समय कामिनी दी सेंवढ़ा काॅलेज में पढ़तीं थी बहुत सुंदर थी बंगले के ही सामने से सब निकलते काॅलेज तब किले में ही था अब का तो पता नहीं , मामा जी के लड़के उस समय सहपाठी थे उनके और खरे जी तब वहां हिंदी के व्याख्याता थे ,
हमारी यादें कुछ धुँधली हैं परंतु याद हैं कि तब चुनाव हो रहे थे और इंदिरा जी के विरोध में कोॆई कुछ बोलता नहीं था परंतु ऊपर काॅलर पर "गाय बछड़ा "नीचे बटन पट्टी के दीपक का निशान दिखाकर चुपके से सब वोट माँगते थे ।
सायनी मुहल्ला में रामलीला होती थी और नाजिर की बगिया से ताजिये निकलते थे ।हम सब वी आई पी ही जैसे जाकर सबसे आगे बैठते और रामलीला देखकर खूब रोते

बहुत गूढ़ है सेंवढा वहां के कवि रहे ""अक्षर अनन्य ""राजा पृथ्वीसिंह "रसनिॆधी " बहुत सारे डर लगते थे हम बच्चों को जब रात को देर में बड़ों के साथ मरघटों के करीब से निकलते ,रामलीला देखकर । तब चूँकि पहले चंबल किनारे रहे फिर सिन्ध किनारे सो डाकू शब्द से डर नहीं लगता था । कई लोग ऐसे थे बहुत बहुत बाद में पता चला अरे ये तो डाकू थे ।

फूलन के समय हम लोग शिवपुरी क्षेत्र में आरोन थे वहां आगरा बाॅम्बे हाईवे पर फूलन का दल अकसर मँडराता रहता था परंतु आतंक नहीं रहा वैसा जैसा मोहर सिंह माधो सिंह मलखान सिंह और दऊआ का था बेहमई कांड के बाद फूलन कानपुर इलाके में जाकर छिप गयी थी ,
छोटे मोटे डाकू सीधे सामने नहीं पड़ते थे तब "आशा गोपालन बहुत दिलेर एसपी रहीं ग्वालियर की और अनगिनत एनकाऊन्टर कर डाले ""

पूरी रात वहाँ लोकगायक सनकुआ के मेले में नाचते गाते थे । मेला तो पुल पार टेकरी वाली माता तक लगता रहा । तब पुल नीचे वाला था नये की नींव पड़ने लगी थी नीचे पुल पर पावस में जल भर जाता रहा । हम सब मीलों दूर फैले मेले में हिंडोला झूलते । बाद में सेवढ़ा हर साल कवि सम्मेलन में जाते रहे बसंत पंचमी पर मेले में ही राजराजेश्वरी जी के सामने पहाड़ी पर मंच लगता जहां कभी सोमठाकुरजी कभी अवस्थी जी कभी भैयालाल व्यासजी जी और पूरे भारत के अनेक कवियों के साथ देर रात तक काव्य पाठ भी किया हरिकेश जी ने तब किशोरमन की वीर कविताओं पर घर बुलाकर लड्डू खिलाये मैथी सोंठ वाले और "मीरा "पर हस्ताक्षर करके आशीर्वाद स्वरूप कुछ किताबें भी दीं । करये दिनन में जब महालया की लक्षमी पूजा चलती हम कन्याओं को ""रोज सोरह "ढारने जाना बढ़िया लगता । एक बार बह गये होते सनकुआ में कई घूँट पानी पी गये तब सनकुआ से नीचे शांत जल में पत्थर पर स्नान कर रहे थे नियम था सोलह करके एक स्नान हुआ और ये फिर सोलह बार करना है ,लोटे से ही सिर पर दूब लगाकर ढारने थे सो लोटा तेज धार में बह गया ,सोचा पानी कम है पकड़ लेगें किंतु कुँआर का पानी तेज बहाव बह गये ,वे तो वहाँ एक अजब सिंह भदौरिया जी थे बापू के कलीग उनकी पत्नी भदौर्नी काकी रहीं लंबी मजबूत भिंड की ठकुराईन कूद कर पकड़ लिया वरना आज ये कहानी नहीं लिख रहे होते ,

गोलकोठी में अकसर लुका छिपी और उछलकूद के लिये साथियों सहित पहुँच जाते सब ही अपने थे रोक टोक तो थाने से काॅलेज तक कहीं थी ही नहीं । नाक कान तक तो वहीं मेले में बिंधवाये रहे हमारे । पकड़ा दिये पेड़े बताशे और जड़िया जी ने कब कान में बालियां डाल दी पता ही नहीं चला । नाक बिंधी तो बड़ा झगड़े हम धाय मां से और बापू से भी । तब एक रस्म ही थी कर्णवेॆध लड़कों के भी होते थे । गुरूमंत्र वहीं मिला पहली रामायण पाठ वहीं राजराजेश्वरी के दरबार में अखंड पाठ से हुआ और पहली चौपाई ही वही ""संपुट ""याद हुआ ...देवि पूजि पद कमल तुम्हारे सुर नर मुनि सब होंहिं सुखारे ....
तब से बरसों हुये नवाह्न परायण जब भी उठा संपुट कोई रखा परंतु "सहसंपुट यही रहा ,,

पहली रोटी वहीं मेले से खरीदे नन्हे चौका चूल्हा गृहस्थी के उर्साबिल्ना पर ही से सीखी । कौंसाबाई थी एक ढीमर थीं वहीं हमारा भोजन पकातीं थीं एक डोंगर सिंह थे डिरौली पार के एक सेंगुवा के गंधर्व सिंह थे सब की बहुत देखभाल रहती । हुकुमसिंह यादव उस समय परिवार के आल इन वन प्रबंधक रहे । कोंसा बाई डरतीं कि कहीं बापू ने देख लिया रोटी बेलते तो डांट पड़ेगी परंंतु हम जिद करके सीखते । गुड्डे गुड़ियों के घर में एक पिल्ला पाल लिया "मोती" कुछ सहेलियां थीं तो पूजा का लोटा उनकी देखा देखी मांजते रगड़कर रेत से फिर तुलसी कक्का डांटते प्यार से ये आपका काम नहीं हमिन करन देओ ।

जिंदपीर के जंगलों भरे क्षेत्र में तब स्त्रियाँ ""बिलना खाने ""जातीं थीं । और वहाँ खंडहरों में बने मंदिर मजार पर हम लोग डरते कि कहीं यहा भूत आयेगा तो ,
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दूर लोकेन्द्रपुर के किसी गांव में बहुत ऊँची सी पहाड़ी पर एक मंदिर है देवीमाँ का धुँधली सी याद है कि वहां डिरौली से होकर जीप से हमलोग शिकार पर गये और वहीं ,से बाघ के बच्चे किसी शिकारी से छुड़ाये गये थे एक हिरण शावक भी जो बहुत दिनों तक हमारे साथ ही खेलता कूदता रहा फिर एक दिन राहत कार्य मे वनवासियों को जो अनाज बाँटा जाता था उसके भंडार में हम सब जा छिपे ,वह शावक अनाज खाने लगा ।नादान बालक हम समझ ही नहीं पाये कि यह खतरा है सो खाने दिया ,वह बहुत ही अधिक अनाज खा गया हम खुश कि अब जल्दी बड़ा होगा ,किंतु उसका पेट फूलता गया और जब तक सही इलाज हो पाता शावक मर गया । हम सब कई दिन रोते रहे छिप कर । लाल सफेद सुनहरा वह हिरण शावक आज तक ूाँहों के स्पर्श से मन की वीडियों चलचित्र में जैसे बड़ी बड़ी बड़ी काली आँखों से देखकर हमारी तरफ दौड़ लगा देता है ।

बाघ के बच्चे बिल्ली बराबर बड़े प्यारे थे ,एक चीतल भी बहुत दिन पला रहा ,फिर एक परिजन ले गये ,नेवला गिलहरी सफेद चूहे और भी बहुत सारे जीव आते जाते रहे ।

सचमुच सबसे प्यारी जगह ,,,,तब कन्या जेवाईँ जातीं तो एक नया पैसा मिलता था चौकोर ,उससे पाँच टाॅफी आती थी एक बड़ी कुल्फी आ जाती थी आज तो वैसी कुल्फी बननी ही बंद हो गयीं बस कभी कभी घर पर बनाने का प्रयास करते हैं परंतु फ्रिज से वह पेटी वाली कुल्हड़ की कुल्फी नहीं बन पाती



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