Monday 16 December 2013

मैं ज्योतिर्पिण्ड हूँ

Sudha Raje
सृजन के पूर्व ही सृजक ने स्वयं
कृति का अंत
नहीँ लिखा वरन्
चाहा कि अमर हो किंतु
विधान के बंधन एक कण के
रूप में रचना के साथ जुङ गये
ये मरण था
जो जीवन की मज्जा रक्त
अस्थि वसा मेद
कहीँ भी छिप कर
जा बैठा
नैराश्य के महान्धकार में
जब जीवन से भय़भीत
कृति ने चाहा स्वयं
का समापन उस मृत्यु कण
का आकार औऱ संख्या बढ़ने
लगे
सृजन जीवन का रंग एक
तारा एक ज्योतिर्पिण्ड
एक दीप अग्निस्फुर्लिंग के
रूप में इस मरण कण के विराट
अंधकार से जूझता रहा औऱ
स्वयं एक के बाद एक पिंड
तमोमय मरण का अंश भाग
होता रहा ये संघर्ष था
प्रकाश पर्व की तरह
आता जाता एक के बाद
तिमिर सदावर्तमान
रहा हर ओर ये सत्य
था आलोक
की व्याख्या में तम
हारा किंतु मरण
की व्याख्या में हर
ज्योतिर्पिण्ड बुझ कर स्वयं
तम हो गया
एक जीवन एक मरण
दोनों के बीच
खङी आशा निराशा सुख
दुख सृष्टि प्रलय
औऱ
तब मैंने सुना स्वयं के भीतर
दोनों का राग
मैं ईश्वर को खोजने लगा मैं
स्त्री था मैं पुरूष था मैं
नपुंसक था मेरा विश्वास
नही दे रहा था मेरा साथ
कि कोई है ईश आस्था के
आडंबर मेरा भय़ न बन सके मैं
चीखा तुम कहाँ हो??
लोग चकित होकर सोचने
लगे यह चीख एक कृति है
कृति जीवन है
जीवन में मरण तत्वकण मेरे
रोने चीखने के साथ
बङा होता रहा लोग मुझे
रचयिता समझ रहे थे मैं
अंधकार मैं
समाता ज्योतिर्पिण्ड हूँ
©®¶©®¶
sudha raje
Feb
27 ·

No comments:

Post a Comment