Monday 16 December 2013

स्त्री और समाज -6-

Sudha Raje
अभ्यास में ढल चुकीं हैं
वेदनायें
पहले पहल खेलते समय
तीखी आवाज़े!
भोजन की थाली में भेद
भाव
जन्मदिन मनाने
की दुनियावी खानापूरी के
बीच ज़माने से श्रेय लेते मन
और मन को कोई
समझौतों की आदत
होंये बेटियाँ साठ तोई
बाप की नाठ
फिर बदल गये खेल कंचे पतंगे
कबड्डी की जगह
गुड्डे गुङिये और
नन्ही गृहस्थी
क्रोशिये सलाईयाँ सुई
धागे बेलन कूचे झाङू और
बदल गये अभिव्यक्तियों के
स्वर
हास परिहास पर
तनी भौंहें
और दुपट्टे बटन आवाज के कसे
सुर धीरे बोलो धीरे
चलो धीरे खाओ
और फटाफट हाथ चलाओ बे
आवाज
बिंधे कान
दुखती पकती नाक
कमर के तीखे दर्द
बिछुओं पायलों से पङी चुभी ठेठें
दुखते मन तन और अहसास
बिछोङे
धुआँ भाप भूख प्यास नीँद प्रतीक्षा ताने
गालियाँ कटाक्ष य़ादें आशायें चाकू सुई
खुरपी दराँती आग बिजली थपकी के बीज
जलते कटते धुँधाते हम औरतें
दर्द होते रहते हैं
कामकाज में लगीं रहती है दुखता तन
घायल मन लिये
और कट जाना जङ से
तीखे सवाल होंठकाटकर
पीये गये खून के घूँट से ज़वाब
और हीनता के बोध रंग दहेज
रस्में बिछुङे परघर
की गलतियाँ मिले परघर के
अहसान
पेट पसली के दाग और बंद मुँह
रोकीँ हिचकियाँ
ये छलछल आँखें चुप्पी के खत
और लिख दिये मन पर सारे
कटाक्ष
वेदना अभ्यास बन
गयी साँसें लेने का पता कब
चलता है
बस तब याद आतीं हैं जब
ग़ुम हो जातें यादों के
हिमखंड पिघलते रहते हैं
ये पीर सदा नीरा रहती है
तभी तो झट से रो देती है
औरतें किसी भी बात पर
पूरी हूक के साथ
ये तत्काल नहीं पीछे
हिमनद गंगोत्री से आ
रही मंदाकिनी हैं
अक्सर पहनते चुभ कर रक्त
निकालती चूङियाँ
जल जाते
पूङी पकौङी पापृ तलते
हाथ
तवे से कलाईयाँ
प्याज के आँसू
दाईयों की व्यंग्य बातें
रोज गगरी भर आँसू
दफनाती औरतें
बतियाती हैं
तो कटूक्तियाँ और
खिलखिलाती हैं तो हसद
भीगे तकिये नम आँचल
हरी भऱी गृहस्थी के लिये
कितने बादल!?!!
©®¶©®¶
Sudha Raje
DTA/Bjnr
Mar 12 at

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