Thursday 26 December 2013

एक प्रतिज्ञा।

एक प्रतिज्ञा की थी एक दिन कि सत्य
के साथ ही चलना है और सत्य की ही जय
कहनी है । किंतु इतना आसान
नहीं था सत्य के साथ ज़ी पाना पहले
ही पङाव पर अनेक चेहरे बेनक़ाब हो गये
जो मेरे अपने थे जिनपर अथाह विश्वास
था और मन
थरथरा गया कि अपनों को त्यागूँ
या सत्य को ऐसा सत्य मेरे किस काम
का? अपने सौगंध उठाकर
अपनों की लोकप्रिय मिथ्या बोलने लगे
और मुझे अकेले ही तय करना पङा आगे
का मार्ग ।
सोचा अब सत्य का साथ छोङने से
क्या लाभ जब सब साथ छोङ गये ।
किंतु तब वे लोग साथ हो लिये जो उन
अपनों के पराभव पर प्रसन्न थे और मुझे
गर्व होने लगा सत्यपथ यात्री होने पर
सत्य की जय जय कार गूँजी कई बार और
शांत हो गयी । यह षडयंत्र भी उधङ
गया और ज्ञात हो गया कि लोग मेरे
पीछे इसीलिये खङे थे
कि अपनों को खोकर अपनी विरासत जङें
और अनुवांशिक पहचान खोकर मैंने
अर्जित की थी एक पहचान क्रूर सत्यपथ
की मूर्ख यात्री और उपहास के
व्यवहारिक उपनामों के बाद भी एक
अटूट सम्मान । कोई तत्काल मान
लेता अगर वही बात मेरे
द्वारा कही गयी ये जान लेता ।
हुज़ूम एकाएक ग़ायब हो गया जब
घोषणा की मैंने सत्य के लिये एक एक
की परीक्षा लिटमस पत्र पर लेने की ।
अम्ल ऐर क्षार घोषित होने से डर गये
लोग और ।
अगले कई पङाव मुझे फिर अकेले ही तय
करने पङे ।
लोग और अपने सब जानते थे मुझे बहुत
गहरेमन में मानते भी थे कि मृत्यु की तरह
सुंदर और जीवन की तरह वीभत्स सत्य
ही मेरे सृजन हैं किंतु कोई
कभी भी किसी मंच से कभी नहीं ले
सका मेरा नाम ।
लोग एकांत में आते अपनी जरूरत के
मुताबिक मेरे सृजन में से
प्रेरणा की टहनियाँ काटकर ले जाते और
लगा लेते अपने अपने ग़ुलदस्ते में । सत्य
की क़लम पर उगे मिथ्या के फूल भी सुंदर
होते कि सत्य की खुशबू आती ।
वह सत्य नहीं था बस सत्य के कलम पर
लगाया झूठ का कलेवर था ।
लोग उसे ही सत्य समझते रहे औऱ भीङ
झूमती रही कालबेलिया के नृत्य पर ।
लोग धन वर्षा कर सत्य की जय कहते रहे
किंतु जिसे वे सत्य कह रहे थे वह सत्य
नहीं था वह केवल कपट था ।
कपट छल और कतरनों से जोङकर
बनाया षडयंत्र था क्योंकि सुंदर और
लाभकारी मिथ्या होते हुये भी
संस्कारवश लोग कभी नहीं कहते रहे
कि ""झूठ की जय""
सत्य अकेला निर्मम क्रूर और अकिंचन
ही घोर विजन में बेतरतीब
बढ़ता फलता फूलता जहाँ थे विषदंतक के
मगन महारास जिनकी धुन पर नाचते रहे
कालबेलिये और लोग कभी नहीं जानपाये
कि सत्य फणिक का नृत्य होता कैसा है ।
सत्य को केवल मृत्यु और सृजन ने
पहचाना और दोनों को एकांतवास
मिला ।
सृजन और मृत्यु के बाद उत्सव मनाते लोग
सत्य की जय कहते झूठ की धुनों पर नाचते
रहे ।
मुझे पता चल गया था कि मेरे सृजन
कभी झूठ के मंच पर स्वीकार नहीं किये
जायेंगे और ना ही कभी स्वीकार करेगे
कलम काट कर ले जाने वाले कालबेलिये
कि उनके गुलदस्तों में सत्य के चुराये सृजन
की उर्वरा है ।
क्योंकि झूठ के पांव और जङ नींव और
आधार नहीं होते ।
झूठ जब भी नाचता सत्य की जमीन पर
जङों पर आधार पर ही नाचता ।
अब मेरे अपने ही चेहरे पर थीं खराशें ।
मेरे अपने ही पाँवों थे छाले और मुझे
कभी स्वीकार नहीं कर
पाना था अपनी ही हाथों मार
दिया गया अपने में उगता झूठ. औऱ य़े
हत्या बोध कभी गर्व नहीं करने दे
सका कि किंचिंत आकार ही सही झूठ
का एक मुकुलन मुझमें से भी हुआ ..मृत्यु
की तरह सुंदर और जीवन की तरह
वीभत्स वह आत्मस्वीकृति कभी नहीं बन
सकी सृजन और मेरी छह उंगलियों में से एक
उंगली काटनी पङी मुझे झूठ
की उंगली जिसे काटने पर सबसे अधिक
पीङा सहनी पङी ।
जितनी पीङा कभी पंख और पांव काटने
पर भी नहीं हुयी तब क्योंकि सत्य
मेरा सर्वांग था और जो काटा वह सत्य
ही था सत्य की वेदना ग्राह्य मोहक
और क्रूर सह्य रही सदा।
स्वयं पर मुकुलित स्व स्वरूप सुंदर
मिथ्या को काटने की यातना के बाद मैं
नितांत एकांत में हूँ अब कोई नहीं ।
और अब सत्य मुखर नहीं समाधिस्थ है
कोयले की खान से हीरे सदियों बाद
निकाले जाते है ज्वालामुखी के तापमान
पर पिघल कर वज्र होते रहने
की पीङा अब जिस सृजन की ओर है
उसकी कोई काट कलम और खुशबू
नहीं होती केवल कौंध होती है चाहे
कभी सामने आये या दबा रहे अतल के काले
संसार में सात रंग की धूप से मिलने
की चाहत में ।
©®सुधा राज

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