स्त्री और समाज '''''लिव इन बनाम विवाह

लिव इन रिलेशनशिप चरित्रहीनता या समय की ज़रूरत या परिवारवाद का ह्रास?
(लेख) सुधा राजे
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अभी एक सरकारी विज्ञापन देखा जो अप्रवासी NRI दूल्हा चुनने से पहले की
सावधानी के बारे में था । यह विज्ञापन पहले जब आता था तब लिखा होता था कि
""-सुनिश्चित कर लें कि लङका अविवाहित है ""

अब इसकी भाषा बदल गयी है ।
अब लिखा है कि ""ज्ञात करलें कि आदमी "अकेला है ""

सही ही तो है
क्योंकि अब विवाहित या अविवाहित केवल दो ही विकल्प नहीं हैं ।
एक अविवाहित व्यक्ति समलैंगिक है या गे है या किसी गंभीर मनोविकृत पद्धति
का शिकार है या किसी के साथ लिव इन रिलेशन शिप में रह रहा है यह भी पता
करने की ज़रूरत है ।

लङका तलाशने से पहले ये बातें पता कर लें ।
1-लङका एड्स या किसी यौन रोग या मानसिक शारीरिक गंभीर समस्या से ग्रस्त तो नहीं?
2-लङका नपुंसकता अर्धनपुंसकता समलैंगिकता अप्राकृतिक दैहिक संबंधों और
अन्य विकृतियों से ग्रस्त तो नहीं ।
3-नशा शराब सिगरेट ड्रग्स आदि का आदी तो नहीं । अगर लङकी को पसंद नहीं तो
ऐसा जोङा ना बनाये वरना नरक जिंदग़ी होनी ही है
4-कमाई पढ़ाई आयु जॉब संपत्ति परिवार और अन्य जो विवरण बताये हैं क्या वे सही हैं?
5-लङका किसी तरह के असामाजिक अवैध और आपराधिक कार्यों में लिप्त तो नहीं ।

यहाँ सवाल तब उठता है जब कि लङकी के लिये वर तलाशने पिता चाचा भाई निकलते
हैं और लङकी को केवल एक कठपुतली की तरह सजा सँवार कर पसंद होने के लिये
बिठा दिया जाता है । घंटे भर की मुलाकात और दस बीच मिनट की बात चीत से
कोई घरेलू सामान्य लङकी केवल शक्ल और सामान्य एटीकेट्स के अलावा कुछ भी
नहीं समझ सकती।

विवाह
एक बंधन मानने वाले लोगों की कमी नहीं है फिर भी चाहे स्त्री की कुरबानी
से चले या पुरुष की या तालमेल से विवाह का विकल्प आज भी यूरोप अमेरिका तक
के बहुत खुले समाजों तक में नहीं पनप सका और अंत में परिवार एक विवाह की
मुहर के बाद ही बनना संभव हो पाता है वहाँ जहाँ बिना विवाह के भी बच्चे
पाले जा रहे हैं ।
भारत
के संदर्भ में एक शब्द आता है बङा प्राचीन अशालीन किंतु कदाचित इसका मतलब
देशी भाषा में लगभग वही है जो आधुनिक लिव इन रिलेशन शिप का है "रखैल "।
ये रखैलें धनवान अय्याश पुरुषों की लगभग पत्नी हुआ करतीं थी । मकान कपङे
गहने रुपया खरचा और सारी सुविधायें तो देता था पुरुष किंतु समाज के सामने
कभी स्वीकार नहीं करता था कि वह स्त्री उसकी शय्याशायिनी या प्रेमिका या
रखैल है ।
जबकि विवाहिता पत्नी को और समाज के करीबी लोगों को पता होता है कि दोनों
के बीच नजदीकी संबंध हैं ।
ऐसे संबंध बेशक बहुत से अमीरों और गरीबों में तक बहुतायत रहते आये परंतु
सामाजिक मान्यता और सम्मान कभी नहीं मिला ।

स्थानीय टोटम और कबीलाई रीतियों में "वह उसको राखें है "कहके निंदित और
बहिष्कृत किया जाता रहा ।
जबकि "छोङ छुट्टी "को मान्यता रही । और छोङ छुट्टी देकर कराव करने को भी
जनजातियों मजदूर वर्गों में "दूसरी कर ली "दूसरा कर लिया " को मान्यता दी
जाती रही ।

यानि विवाह अगर एक बार टूट गया तो दूसरी बार कराव सही था किंतु राखना अवैध।
आज
लिव इन रिलेशनशिप को कोर्ट से मान्यता का अर्थ समझने की ज़रूरत है ।
कोर्ट यहाँ पर स्त्री और बच्चों पर रखैल कह कर छीन लिये गये हक के प्रति
न्याय के लिये खङा है और घोषित करता है कि अगर किसी आपसी समझ और मान
सहमति से एक स्त्री पुरुष के साथ दैहिक संबंध रखते हुये पत्नी की भाँति
रहती है और दूसरे किसी पुरुष से कोई ऐसा नाता नहीं है और सब उसी तरह
परिवार की भाँति दोनों के बीच चलता है तब जो बच्चे पैदा होंगे वे पिता
माता की संपत्ति के वारिस होगे और ऐसी स्त्री अगर स्वावलंबी नहीं है
आर्थिक रूप से तब पत्नी की ही भाँति भरण पोषण और गुजारा भत्ता पुरुष को
देते रहना पङेगा । जब तक कि वह रिश्ते में है या और जब तक कि वह कहीं
किसी दूसरे पुरुष से विवाह या संबंध नहीं रखती । तब भी बच्चे जैविक रूप
पिता के वारिस होगे ।

ये दरअसल उस शोषण के खिलाफ फैसला है जहाँ एक स्त्री विवाह करने की पक्की
आशा में प्रेम के पक्के विश्वास में पति ही मानकर एक पुरुष के साथ रहती
रही और रिश्ता छिपाने की वजह कोई परीक्षा कैरियर समय परिजनों की नाराजी
या अन्य हालात रहे । समय बदलते किसी वजह से पुरुष का मन बदल गया और वह
किसी तरह छुटकारा पा लेने के लिये ऐसे रिश्ते से मुकर गया । तब जो बच्चा
हो चुका या होने वाला है वह हरामी ना कहलाये उसको पिता का नाम मिले वह
अनाथ ना कहलाये उसको माँ बाप की संपत्ति पर वारिसाना हक़ मिले । औरत
बेसहारा होकर दर दर ना भटके यौवन और सम्मान गँवाकर भी वह जी सके रोटी
कपङा मकान दवाई और जरूरी चीजों के साथ वैसे ही जैसे कि तब रहती थी जबकि
वह पुरुष उसके साथ पति पत्नी की भावना के साथ रहता था ।
यह लाखों मामलों में सिद्ध हुआ कि प्रेम में विश्वास और समर्पण के बाद
पुरुष ने धोखा दे दिया और स्त्री अवैध संतान को लेकर बदनामी ना सह पाने
की वजह से मार दी गयी या मर गयी या बदनामी झेलती रही और फिर किसी दूसरे
ने भी विवाह नहीं किया जीवन तबाह हो गया गर्भपात की असामयिक यातना सहनी
पङी या गर्भपात में जान चली गयी या बच्चा समाज के डर से घरवालों ने मार
दिया फेंक दिया या अनाथालय छोङ आये ।

ये दारूण विडंबना पुरुष के हिस्से नहीं आती क्योंकि समाज की सोच और
स्त्री देह की संरचना दोनों ही स्त्री के खिलाफ ही रहती आयी है ।
कानून जहाँ पॉलिगेमी बहुविवाह और बायोगेमी को अपराध घोषित करता है वहीं
किसी दूसरे की विवाहिता से दैहिक संबंध और भगा ले जाने को भी अपराध घोषित
करता है ।

लिव इन रिलेशनशिप केवल दो अविवाहित या दो तलाकशुदा या विधुर या अकेले ही
रह रहे व्यक्ति के बीच मान्य हो सकती है ।

किंतु अगर स्त्री विवाहित है और किसी अन्य के साथ पत्नी बनकर रह रही है
तब यह वैसा ही अपराध है जैसा एक विवाहित पुरुष पत्नी होते हुये किसी अन्य
स्त्री के साथ पत्नी पति की तरह रिलेशन शिप में रहता है ।

तब भी बच्चों के पैतृक अधिकार खत्म नहीं हो जाते ।

कोर्ट का कतई ये संदेश नहीं है कि विवाह का विकल्प लिव इन रिलेशन शिप है ।

केवल यह संदेश है कि लोग ये भ्रम ना रखें कि कोर्ट में या मंदिर में या
परिवार के सामने शादी नहीं की है तो सारे आजाद रहेगे और जब तक मन करेगा
मौज़ जब मन करेगा आजाद परिन्दे और पीछे कुछ नहीं रहेगा हाथ पैर पकङने
को!!!
ये भ्रम तोङ दें ।
क्योंकि विवाह करो या मत करो ।
बंधन है कानून का भी और प्रकृति का भी । जब दो व्यक्ति पति पत्नी की तरह
संबंध बनाकर साथ रहते हैं तो जोङा है और जोङा है रेग्युलर नियम के
सामान्य रूप में यह पतिपत्नी का ही रिश्ता है और वे सारे हक़ उन बच्चों
को उस स्त्री को प्राप्त हैं जो अगर विवाह कर लेती तो प्राप्त होते ।
अब कहें कि कहाँ बची आजादी? इस तरह के जोङे के सारे दायित्व और अधिकार जब
विवाहित पति पत्नी के हैं तब यह विवाह का विकल्प कैसे?
क्योंकि प्रकृति प्राणी जब प्रेम करता जोङा बनाता है तब किसी रस्म रिवाज
की मोहताज़ नहीं होती और अगर वैज्ञानिक उत्पादों से ना रोका जाये तो
बच्चे जन्म लेते है यही विवाह है ।
बाद में रिश्ते से मुकरना संभव नहीं । प्रकृति सुबूत छोङती है । मुकरते
ही प्रेम और जोङा बनाना ग़ुनाह हो जाता है । तब छला गया व्यक्ति क्या
करे? तब जो संतान हुयी वह कहाँ जाये? क्योंकि संतान का कोई गुनाह नहीं
प्रेम कोई अपराध नहीं । अपराध है धोखा देना अपराध है किसी को बेबस करके
बीच मँझधार में विगतयौवन स्थिति में अकेला छोङ देना समाज में चरित्रहीन
साबित करके ।

एक समझ विकसित करने की जरूरत है कि विवाह और परिवार के सिवा जोङे बनाकर
रहना किसी भी सभ्यता के विकास का अंग नहीं है । मनपसंद व्यक्ति के साथ
मुक्ति तो खुद ब खुद हो सकती है । विवाह संस्था को खत्म करने की बजाय
उसमें सुधार की जरूरत है ताकि विवाह किसी पर जबरन ना थोपा जाये और
कुरीतियों से मुक्त हो साथ ही अगर गलत विवाह हो गया दुर्भाग्य से वापसी
का मार्ग रहे ताकि विवाह बनाये रखना यातना ना बन जाये । लङकियाँ भले ही
जागरूक हो रही है किंतु
जहाँ एक और अति धनाढ्य और स्वतंत्र रहने वाली कामांध महानगरीय युवा पीढ़ी
है जो "रेव पार्टीज" डिस्कोथेक और पब कल्चर स्ट्रिप डांस और कैबरेट में
उलझती जा रही है ।

तो दूसरी ओर कसबों गाँवों औऱ गरीब मजदूर किसान तथा आम मध्यमवर्गीय
नौकरीपेशा दुकानदार कारीगर परिवार है ।
जहाँ लङकियाँ ही नहीं लङकों पर भी समय का हिसाब देने औऱ घर के लिये
कामकाज करने पढ़ने कमाने की हाङतोङ जिम्मेदारी है ।
इसी समाज में निठल्ले निकम्मे लोग जो परजीवी है औऱ कुछ नहीं करते दूसरों
का कमाया छीनते चुराते माँगते औऱ चढ़ावों में लूटते रहते हैं ।
समाज का असली संतुलन तो मुश्किल से सम्मान बचाकर रोटी कपङा मकान की लङाई
में पिसता आम आदमी है । जो सङक पर भीख नहीं माँग सकता और घर की तंगहाली
में भी गरीब कहलाना पसंद नहीं करता । बिल अदा करते करते हर पहली ताऱीख को
पुनर्जन्म लेता है ।

परिवार औऱ विवाह की आदर्श गरिमा अगर बची है तब तो आज तक इसी निम्न
मध्यमवर्ग और गरीबी रेखा से जरा सा ऊपर बचे साधारण आम आदमी की वजह से ।
क्र्मशः जारी
©®सुधा राजे
SUDHA RAJE
bjnr-dta

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