Thursday 31 October 2013

सपना देखें

Sudha Raje
एक शाम कोई नहीं था वहाँ ।
जहाँ हम थे ।
सिर्फ जंगल और हवा ।रेत और पानी ।
पत्थर और मिट्टी ।
पंछी और बनैले पशु ।
मुझे डर नहीं लगा ।
तुम जो थे साथ ।
मैंने कोयल से होङ लगाकर गाया ।
मृगी से होङ लगाकर दौङी ।मयूर से
प्रतियोगिता कर नृत्य किया ।
मैं झरने से जी तोङ खिलखिलायी ।
सारा ब्रह्मांड मेरे थिरकते पैरों के साथ
नाच रहा था ।
मैं देख रही थी सिर्फ तुम्हें ।सिर्फ तुम्हें
।तुमने देखा मुझमें चाँद सूरज तारे
तितली पंछी दरख़्त जंगल नदी और झरने ।
तुम डर गये ।तुम्हें लगा ये प्रकृति तुमसे
मुझे छीन लेगी ।
तुमने चाहा मुझे छिपाना ।
बया हो गयी मैं कठफोङवे की तरह रात
दिन तुम्हारे लिये का सृजन करती रही ।
तुमने कब बताया था कि ये तुम्हारे
नहीं सिर्फ मेरे लिये है ।
तय तो हुआ था हम दोनों का साथ ।
जब मैं तुम्हारे लिये क़ुदरत से होङ लेकर
इंसान रच रही थी तुम चुपके से मेरे रंग
आवाज अक्षर स्वर ध्वनि दृश्य स्पर्श गंध
रूप को छोङ आये बाहर ।
अब
तुम्हें भय नहीं था ।
नृता ताल लास्य यति तत्व
व्यष्टि टंकार रंग गांभीर्य ।
सब खो गये ।
तुम निश्चिंत हो गये ।
मैं जब तुम्हारा संसार रच कर
उठी तो देहली के ठीक नीचे खाई थी और
खिङकियों पर परदे ।
लेकिन तुम उदास क्यों थे ।मेरे पंखो पर
आते जाते ।
तुम सिर्फ बाघ खोजते मारते रहे ।
क्योंकि जंगल में न मोर थे न हरिण न
पंछी न झरने न नदी ।
चाँद टूट गया सूरज को ग्रहण लग
गया तारे धूँध में खो गये ।
पर तुम भूल गये ।
स्त्री थी मैं ।बचा के
रखती रहती रहती थी हमेशा एक बीज
हर पौधे का ।
मैने छत पर गमलों में जंगल बो दिया ।
तुम्हें आश्चर्य क्यों हो रहा हैं ।
आओ नृत्य करे ।
आज बहुत से फूल आये हैं पारिजात पर ।
©Sudha Raje
May 6

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