Monday 28 October 2013

ग़म यूँ समझाने आते हैं

Sudha Raje
सूख रहे ज़ख़्मों पर नश्तर - नमक लगाने
आते हैं।

भूल चुके सपनों में अपने से आग जगाने आते हैं।

किसी बहाने किसने कैसे कितनी काट
गयी कब कूता।

बची हुयी दर्दों की फसलें लूट चुराने आते
हैं ।

उफ् तक कभी न की जिन होठों से पी गये
हालाहल सब ।

सुधा उन्हीं पर गंगा जमुना सिंध तराने
आते हैं।

जब जब गूँगे अश्क़ बहे तो आबशार आबे-आतश।

अहबाब-औ-अख़लाख ज़माने बाँध गिराने
आते
हैं ।

एक लम्स भर
जहाँ रौशनी ना थी वहीं ग़ुज़र कर ली ।

तिल तिल मरे हमें तिनकों से अज़्म बनाने
आते
हैं।

कौन तिरा अहसान उठाता खुशी तेरे
नखरे ।
भी उफ्


हम दीवाने रिंद दर्द पी पी पैमाने आते
हैं ।

आबादी से बहुत दूर थे फिर भी खबर
लगा ही ली ।

कोंच कोंच कर दुखा दिया फिर
दवा दिखाने आते हैं।

वीरानों की ओर ले चला मुझे नाखुदा भँवर-भँवर।

जिनको दी पतवार वही तो नाव डुबाने
आते हैं।

अंजानों ने मरहम दे घर नाम न पूछा मगर
हमें ।

जानबूझ कर डंक चुभोने सब पहचाने आते हैं

सुधा हमारी मासूमी सिन वफ़ा ग़ुनाहों में थे बस ।

हमको सिला मिला सच का" ग़म यूँ समझाने
आते हैं।
©सुधा राजे ।
Apr 26
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