Monday 28 October 2013

सुधा राजे की 8 कविताएँ।

1. भूख जब हो गयी मुहब्बत से बङी ऐ
ज़िंदग़ी!!!!!!!
बेचकर जज़्बात लायी भात
मैं तेरे लिये
दिल से ज्यादा पेट में जब
आग हुयी ऐ बंदग़ी!!!!!!
ख्वाब
सी पिसता रही दिन
रात मैं तेरे लिये
बुतपरस्ती से
ख़ुदा मिलता न था ,रोज़े से भी
रोटियों लिखती रही सफ़हात मैं तेरे
लिये
टूटती रह गयी बदन
की ख्वाहिशें पर्दों में यूँ बिक
गयी थी रेत सी हर
रात मैं तेरे लिये
आग लग गयी जब मेरे
रिश्तों के पुल पर ,भीङ थी
तैरती मुर्दों पे थी हालात मैं तेरे लिये
गाँव में गुरबत के जब सैलाब आया दर्द का
छोङ गये सब हाथ
खाली हाथ मैं तेरे लिये
हुस्न के परतौ पे आशिक़ भूख का मारा हुआ
नाचती रह गयी सङक
अब्रात मैं तेरे लिये
बस ज़ने -फ़ासिद थी उल्फ़त पेट के इस दर्द
को
मौत लायी कोख पर ज्यूँ
लात मैं तेरे लिये
सब चले गये छोङकर कल तक
जो मेरे थे वली
कब्र या ससुराल औरत ज़ात मैं तेरे लिये
एक टूटा ये कटोरा ज़िस्म ,दीवारें क़बा
साँस माँगे भीख ज्यूँ ख़ैरात मैं तेरे लिये
चंद टुकङे काग़जों के कुछ निवाले अन्न के
चंद चिंथङे ये
सुधा "औक़ात मैं तेरे लिये
चाँद तारे फूल तितली इश्क़ और शहनाईयाँ
पेट भरने पर हुयी शुहरात मैं तेरे लिये
किस नदी की रूह
प्यासी हूँ मैं सबकी प्यास में
रेत पी गयी शायरी क़ल्मात मैं तेरे लिये
चंद गीली लकङियों पर
आखिरी कुछ रोटियाँ
जोहते बच्चे हुयी शह -मात मैं तेरे लिये
बाप था ज्यादा कि बेटा कौन
भूखा क्या पता
खा गयी चोरी से आलू
सात मैं तेरे लिये
आज तक तो रोज
मिलती रह गयी उम्मीद
सी
आयी ना खुशियों की वो बारात मैं तेरे
लिये
सब कुँवारे ख़्वाब पी गयी इक
ग़रीबी की हिना ।
तीसरी बीबी सुधा ग़ैरात मैं तेरे लिये।

2. माचिसों में
तिलमिलाती आग सी ये लङकियाँ
माँओं के
ख्वाबों की खिङकी ताज
सी ये लङकियाँ
कालकोठी में
पङीं जो भी तमन्ना खौफ़
से
उस अज़ल का इक मुक्म्मिल राज़ सी ये
लङकियाँ
तोङकर डैने
गरूङिनी हंसिनी के
बालपन
हसरतें छू ती ख़ला परवाज़ सी ये लङकियाँ
घूँघटों हिज़्जाब में घुट गयीं जो चीखें हैं
दफ़न
वो उफ़ुक छूती हुयी आवाज़ सी ये लङकियाँ
ग़ुस्ले-आतश में
हुयी पाक़ीजगी के
इम्तिहाँ
इंतिहा उस दर्द के अंदाज़ सी ये लङकियाँ
आह में सुर घुट गये
रोटी पे मचली नज़्म के
तानपूरे औऱ् पखावज़
साज़ सी ये
लङकियाँ
अक्षरों चित्रों सुरों छैनी हथोङों की दफ
जंग खायी पेटियों पर
ग़ाज सी ये लङकियाँ
ग़ुमशुदा तनहाईयों में दोपहर की नींद सी
एक
बिछुङी सी सखी ग़ुलनाज़
सी ये लङकियाँ
दहशतों की बस्तियों में रतजगे परदेश के
पंछियों सँग भोर के आग़ाज सी ये लङकियाँ
वंशदीपक दे न पाने पर
हुयी ज़िल्लत लिये
कोख दुखते ज़ख़्म पर हिमताज़ सी ये
लङकियाँ
रूखसती के बाद से
हो गयी परायी धूल तक
गाँव से
लाती वो पाती बाज़
सी ये लङकियाँ
सब्र की शूली पे
जिंदा ठोंक
दी गयी हिम्मतें
बाईबिल
लिखती सुधा अल्फ़ाज
सी ये लङकियाँ।

3. पत्थर चाकू लेकर सोये
गाँव शहर से परे हुये
रात पहरूये बरगद रोये अनहोनी से डरे
हुये
कब्रिस्तान और शमशानों
की सीमायें जूझ पङीं
कुछ घायल ,बेहोश ,तङपते
और गिरे कुछ मरे हुये
रात-रात भर समझाती नथ-
पायल ,वो बस धोखा है
ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया जब -जब सावन
हरे हुये
फुलझङियाँ बोयीं हाथों पर
बंदूकों की फसल हुयी
जंगल में जो लाल कुञ्ज थे
आज खेत हैं चरे हुये
बारीकी से नक्क़ाशी कर बूढ़े 'नाबीने
'लिख गये
पढ़ कर कुछ हैरान मुसाफिर रोते आँखे भरे
हुये
हिलकी भर कर मिलन
रो पङा
सूखी आँख विदायी थी
वचन हमेशा शूली रखे
चला कंठ दिल भरे हुये
ज्यों ज्यों दर्द खरोंचे
मेरी कालकोठरी पागल सा
मेरे गीत जले कुंदन से
सुधा "हरे और खरे हुये।

4. पढ़ना सुनना आता हो तो पत्थर पत्थर
बोलेगा
जर्रा जर्रा,पत्ता पत्ता अफसानों पे
रो लेगा
वीरानों से आबादी तक
लहू पसीना महका है
शर्मनाक़ से दर्दनाक़ नमनाक़ राज़
वो खोलेगा हौलनाक़ कुछ हुये हादसे लिखे
खंडहर छाती पे
नाखूनों से खुरच
लिखा जो, इल्म शराफ़त तोलेगा कुएँ
बावड़ी तालाबों
झीलों नदियों के घाट तहें खोल रहे हैं
ग़ैबी किस्से पढ़ के लहू भी खौलेगा आसमान
के तले जहाँ तक
उफ़ुक ज़मी मस्कन से घर कब्रिस्तानों से
श्मशानों क्या क्या लिखा टटोलेगा चेहर
रिसाला
नज़र नज़र सौ सौ नज़्में हर्फ़ हर्फ़
किस्सा सदियों का वरक़
वरक़ नम हो लेगा
हवा ग़ुजरती हूक तराने अफ़साने
गाती सुन तो
"सुधा" थरथराता है दिल
भी ख़ूनी क़लम
भिगो लेगा ।

5. जाने किससे मिलने आतीं ' सर्द हवायें
रात गये
बस्ती से आतीं हैं सिसकती दर्द कराहें
रात गये
दूर पहाङों के दामन में छिपकर सूरज
रो देता
वादी में जलतीं जब दहशतग़र्द निग़ाहें
रात गये
चाँद को लिख्खे चिट्ठी
ठंडी झील बरफ के
शोलों पे
ख़ामोशी से कोहरे की
फैली जब बाँहे रात गये
परबत के नीचे तराई में हरियाली चादर
रो दी
फूलों कलियों की गूँजी
जब गुमसुम आहें रात गये
कितने आदमखोर मुसाफिर रस्ते से गुजरे
होंगे
मंज़िल तक जाने से डर गयीं लंबी राहें
रात गये
पेङ तबस्सुम नोंच के खा गये नाजुक
नन्ही बेलों के
धरती रोती शबनम भरके
मौत की चाहें रात गये
प्यार वफ़ा के गाँव में अमराई
पर लटकी लाशें थीं
सुधा" मुहब्बत छोङ के चल
दी
पीपल छाँहे रात गये।

6. मन के वन को जेठ जिंदगी
सावन बादल तुम साजन!!!!
थकते तन को मरुथल सा जग मनभावन जल
तुम साजन!!!!
पाँव के नीचे तपी रेत पर छल के गाँव
सभी नाते ।
कङी धूप में हरा भरा सा शीतल अंचल तुम
साजन!!
आशाओं के शाम सवेरे दुपहर ढलकी उम्मीदें

निशा भोर से पंछी कलरव चंचल- चंचल तुम
साजन ।
सुधा परिस्थियों के काँटे नागफनी के दंश
समय
हरे घाव पर चंदन हल्दी रेशम मलमल तुम
साजन!!!
डरे डरे दो नयन अँधेरों से रस्मों से
घबराये ।
स्मित अधर सरल आलिंगन । मंचल मनचल
तुम साजन
इकटक लक्ष्यबेध शर लेकर । मैं
भूली कर्तव्य सभी । मेरी सफलता पर
खुशियों के । नयना छल छल तुम साजन!!।

7. दिल में कुछ होठों पर कुछ है कलम लिखे कुछ
और सुधा।
जहां न हो ये हलचल इतनी चल चल चल उस
ठौर सुधा।
कल तक थी उम्मीद रोशनी की घुटनों पर
टूट गयी।
अक़्श नक़्श ज्यों रक़्श दर्द का ये है कोई
और सुधा।
किसे समझ
आयेगा वीरानों का मेला कहाँ लुटा ।
कौन सजाये नयी दुकाने रहे परायी पौर
सुधा।
बाँध लिये असबाब बचा ही क्या था बस
कुछ गीत रहे।
भँवरी हुये सिरानी सरिता रही एक
सिरमौर सुधा।
©® Sudha Raje
सुधाराजे
फतेहनगर
शेरकोट
बिजनौर
उप्र
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