Thursday 17 October 2013

मन के दहके दावानल

Sudha Raje
तुम अपने सीने में आग दबा लेना ।
मैं अपनी हर आह प्रबल
पी जाऊँगी।
तुम बस आना नहीं गाँव मेरे अबसे ।
पीर प्रतीक्षा लोचन जल
पी जाऊँगी ।
मेरी सब स्मृतियाँ तुम
जो जला सको ।
मैं भी सुधियों के सब गीत बेच
दूँगी।
तुम पलकों पर मेघ छुपा लेना हँस के

मैं सावन भादों छल छल
पी जाऊँगी।
मिटा सको हृत्पट से जो तुम नाम
मेरा ।
मैं ये महाकाव्य धू धू कर फूँकूँगी ।
तुम पलाश वन से जो कभी न
दहको तो ।
मैं ग़ुलमुहर वाटिका दल
पी जाऊँगी ।
हर पल जमता एक हिमालय ।
एकाकी।
मेरे वक्षस्थल में नीर नहीँ होगा ।
तुम वह सिन्धु ज्वार सारा ।
जो थाम सको।
इंदु बिंदु ये निलय अधीर
नहीं होगा ।
तुम ऋतुओं का परिवर्तन
ठुकरा देना ।
मैं समीर क्रंदन चंचल पी जाऊँगी ।
चलो अपरिचित हो लें लौटें बिछुङे
हम ।
स्वप्न सत्य को सत्य बिंब में ढल
जाये ।
व्याकुल करूणा व्यथा वेदना रख
भी दो ।
मीत प्रीत का विरह नेग भी पल
जाये
सुधा तुम्हारी निष्ठा पर ।
कोई प्रश्न न हो ।
बहका दहका मन हलचल
पी जाऊँगी ।
©सुधा राजे ।

2-5-2012at 5:00am ·

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