Sunday 27 October 2013

माँ की बङ बङ

Monday via Mobile
दिन भर बङबङ बङबङ बङ!!!!!
माँ है कि
एफ एम चैनल
जी करता है कोई म्यूट बटन
होता तो वॉल्यूम जीरो कर देती।
बाउजी कुछ नहीं कहते
बस कभी कभी जब बङबङ
ज्यादा हो जाती है कहीं बाहर निकल
जाते हाथ ठोक देते हैं ।
लेकिन माँ हैं कि तब और
ज़्यादा बङबङाती है ।
कभी कभी सोचती हूँ ये माँयें इतना बङबङ
क्यों करती हैं ।
बङी दया भी आती कभी कभी ।
मगर अक्सर मैं झल्ला ही जाती हूँ।
दादा की दवाई
पापा के कपङे जूते टाई
भैया की फीस नाश्ता ट्यूशन
मेरा भी हर वक्त पहरा
कहाँ थी? क्या पहना? किससे बोली?
वो कौन था? ये क्लिप कब ली?
पूजा नहीं छोङी कितने दिन बाक़ी है?
उफ्फ उफ्फ!!!!
ये माँ है या वाच टावर या आई बी.?
एक दिन बस यूँ ही कह दिया मैंने भोपाल
वाली मौसी से ।
आज तक पछताती हूँ ।
क्या बोली वो पता है??
ये
तेरी माँ मेरी जीजी कभी माँ से ऊपर कुछ
बन ही नहीं सकी।
पाँच साल की हम दोनों को सँभालने
लगी ।
दस साल की रसोई
पंद्रह की हुयी तो अम्माँ को
सत्तरह की सारा घर
और जब सबको इसने गोद ले लिया
तो सब बच्चे बिछुङ गये इसके।
ससुराल
आयी तो वहाँ भी डोली से उतरते
ही माँ बन गयी ।
और जब
खोजा सहारा तो मिली दुत्कार ताने
मार गालियाँ।
अब इतना सह पी झेल घोंट
गयी कि जीजाजी भी हार गये जीवट के
आगे।
जीजी जल गयी
माँ मर गयी
मर गयी औरत
रह गये सूखे कर्त्तव्य और गाँठें
लगा लगाकर जोङे रूखे नाते।
वह तो बस एक ढोलक बची है ।
ताङना की अधिकारी नीच नारी।
वह
चुनौती देती है
मारो मारो और मारो
क्योंकि अब जितनी ताङना
उतना ही शोर
मैं कई दिन से महसूस कर रही हूँ।
माँ चकित है
मैं अब जरा भी नहीं झल्लाती
बस हाथ बँटा लेती हूँ।
किंतु माँ फिर भी खुश नहीं है
यही
तो एकमात्र उपयोगिता रह
गयी थी उसकी
वह अब
ढोलक से स्त्री कैसे बने?
मैं
शायद उसकी माँ लगने लगी हूँ उसे
वह चुपचाप मेरी बात मान जाती है।
बरसों बाद वह रो पङी बस यूँ
जैसे भीगी सीली ढोलक कम आवाज़
करती है
आजकल माँ
बङ बङ नहीं करती
©®sudha Raje
Aug 1

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