Saturday 12 October 2013

चाँद को छूने को बढ़ता ज्वार है।

ये समंदर रेत के आगोश में
दर्द के दरिया पिये
तरसा कभी
जलजले
जलती सुनामी सिर पटक
बेबसी बादल हुये
बरसा कभी
हो गया खारा कि आँसू
पी गया
कई सदी का दर्द लेकर
ज़ी गया
ये समंदर आह के टापू लिये
सूखते पर्वत लिये डर
सा कभी
इस समंदर की तली में आग है
दिल में जलते गीत हैं अनुराग
है
चाँद को छूने
को बढ़ता ज्वार है
सिर पटकती पीर बंजर
सा कभी
ये समंदर जल रहा
चिघ्घाङता
खुद हृदय ज्वालामुखी भर
फाङता
ये कलेजा चाक ले
अर्रा रहा
सूखती फसलों पे निर्झर
सा कभी
हद से ज्यादा बढ़
गयी पीङायें सब
चुभ रही दुनियावी ये
क्रीङायें सब
अपनेपन की प्यास में
जमता हुआ
ये तङपते ध्रुव शिखर भर
सा कभी
हैं कई धारायें अंधे पर्त
हैं
ये सुधा क़िरतास राज़े गर्त
है
लफ़्ज में कैसे भरेगा ये सदा
आबे आतश है ज़हर ज़र
सा कभी
©®sudha raje

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