Thursday 17 October 2013

पत्थर चाकू लेकर सोयेगाँव शहर से परे हुय

Sudha Raje
Sudha Raje
पत्थर चाकू लेकर सोये
गाँव शहर से परे हुये

रात पहरूये बरगद रोये
अनहोनी से डरे हुये

कब्रिस्तान और शमशानों
की सीमायें जूझ पङीं

कुछ घायल ,बेहोश ,तङपते
और गिरे कुछ मरे हुये

रात-रात भर समझाती नथ-
पायल ,वो बस धोखा है

ख़त चुपके से लिखे फ़गुनिया
जब -जब सावन हरे हुये

फुलझङियाँ बोयीं हाथों पर
बंदूकों की फसल हुयी

जंगल में जो लाल कुञ्ज थे
आज खेत हैं चरे हुये

बारीकी से नक्क़ाशी कर
बूढ़े 'नाबीने 'लिख गये

पढ़ कर कुछ हैरान मुसाफिर
रोते आँखे भरे हुये

हिलकी भर कर मिलन
रो पङा
सूखी आँख विदायी थी

वचन हमेशा शूली रखे
चला कंठ दिल भरे हुये

ज्यों ज्यों दर्द खरोंचे मेरी
कालकोठरी पागल सा

मेरे गीत जले कुंदन से
सुधा "हरे और खरे हुये
©®¶¶©®¶SudhaRaje
Jan 24

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