Thursday 31 October 2013

अपने ज़खम दुखाने आते है

Sudha Raje
सूख रहे ज़ख़्मों पर फिर
फिर नमक
लगाने आते हैं।

भूल चुके सपनों में अपने आग
जगाने
आते हैं।

किसी बहाने
काटी लेकिन कट
तो गयी ये कब देखा।

बची हुयी दर्दों की फसलें
रोज़
उगाने आते हैं ।

उफ् तक कभी न की जिन
होठों से
पी गये हालाहल सब ।

सुधा उन्हीं पर
गंगा जमुना सिंध
तराने आते हैं।

आज़ न बह पाये तो फिर ये
आँसू आग
के दरिया में ।

अहबाबों अलविदा ज़माने
छेङ
बहाने आते हैं ।

एक लम्स भर
जहाँ रौशनी ना थी वहीं
ग़ुज़र कर ली।

हाँ हमको जलना आता है
अज़्म
बचाने आते हैं।

कौन तिरा अहसान
उठाता खुशी तेरे
सौ सौ नखरे ।

हम दीवाने रिंद दर्द के
पी पैमाने।
आते हैं ।

आबादी से बहुत दूर थे
फिर
भी खबर लगा ही ली ।

कोंच कोंच कर
दुखा दिया फिर।
दवा दिखाने आते हैं।

वीरानों की ओर ले
चला मुझे
नाखुदा भँवर भँवर।

जिनको दी पतवार
वही तो नाव
डुबाने आते हैं।

अंजानों ने मरहम देकर नाम

पूछा मगर हमें ।

जानबूझ कर डंक चुभोने सब
पहचाने
आते हैं ।

मासूमी ही था कुसूर बस
औऱ
वफ़ा की गुनह किया ।

हमको हमसे
मिला दिया ग़म यूँ
समझाने आते हैं।

वर्षों हो गये मरे हुये ।
शबरात मनायी तलक
नहीं ।

बाद मर्ग़ के सुधा ग़ैर
भी सोग़ उठाने आते
हैं
©सुधा राजे ।
©¶®©®Sudha Raje
Apr 27

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