Friday 22 November 2013

देवियों को नहीं मानवियों को होता है दर्द

अक्सर जब जब आप किसी सामाजिक
अन्याय का विरोध करते हैं और वह
विरोध जाति या लिंग भेद
का मामला होता है तो
आम सोच मुख्यधारा की यही होती है
कि आपकी जाति और आपका स्त्री पुरुष
नपुंसक होना सवाल है ।
यह एक खुली हुयी बात है कि भारतीयों में
जातिगत भेदभाव और लैंगिग
श्रेष्ठता निकृष्टता कूट कूट कर भरी है ।
ये सवाल जब भी उठेगा कि स्त्रियों के
साथ कहाँ कहाँ कितने अन्याय
परंपरा और संस्कृति धर्म और समाज
की यथास्थिति बनाये रखने के नाम पर हैं

तभी कुतर्क रख दिये जायेंगे
कि स्त्रियाँ भी झगङा करती हैं
स्त्रियाँ देवी मानी जाती हैं ।
स्त्रियाँ भी पति के परिवार
वालों को पति से अलग करती हैं ।
आजकल की लङकियाँ तो ऐसे कपङे
पहनती है वैसे खाना बनाती है ।
और लङकियाँ बातूनी होती है
औरत ही औरत की दुश्मन होती है
औरत के हाथों पलता औरत का भाई
पति पिता पुत्र कैसे
अन्यायी हो सकता है तो फिर औरत
की भी गलती है ।
यहाँ एक और हास्यास्पद और कुत्सित सोच
महिला लेखक पर उछाल दी जाती है
कि आप के पिता पुत्र पति जेठ देवर ससुर
ननदोई के बारे में क्या खयाल हैं? ।
कोई ग़ज़ब नहीं कि आप स्त्री लेखक होने
मात्र से यह सोच लिया जाये
कि आपका लेखन स्त्री के
प्रति ही पक्षपात तो होगा ही । और
भी कि आपके जब ऐसे आक्रामक विचार है
तो आपके परिवार को भगवान बचाये।
ये फौरी तौर पर सोचने वाले लोग
कभी पूरी व्यवस्था में व्याप्त अन्याय
की जम चुकी सोच पर सोच बदलने
को तैयार नहीं होते ।
और जो वक्त के साथ
बदलता नहीं उखाङकर फेंक
दिया जाता है।
ये पृथ्वी गतिशील है और ब्रह्मांड का कण
कण परमाणु तक ।
प्रकृति ने न जातियाँ रची न मज़हब न
ही वर्ग ।
ये सब व्यवस्था में व्याप्त मत्स्यन्याय
की देन है ।
जो सुख में हैं सुख को क़ायम रखना चाहते हैं

जो दुख में है परिवर्तन की तलाश में हैं।
बहुत कम लोग होंगे जो सुख में से उठकर
दूसरों के लिये दुख हटाने पर सोचने
को भी तैयार होते है।
स्त्रियाँ इसी सोच का शिकार हैं।
हर औसत भारतीय परिवार का सुख
मजदूर और स्त्री पर टिका है ।
मजदूर का सुख भी स्त्री पर टिका है।
जितना ज्यादा दुख कष्ट श्रम स्त्री और
मजदूर उठा लेते हैं जितना त्याग संयम कम
से कम पर निर्वाह स्त्री और मजदूर कर
लेते हैं ।
घर और समाज उतना शांत दिखता है।
जब मजदूर ने पारिश्रमिक
बढ़ाया या स्त्री ने निजता के हक़ बढ़ाने
की बात की घर और समाज में
हंगामा हो गया।
जो अनजाने ही पुरुष और पूँजीपति के
मामूली आचरण थे वे स्त्री और मजदूर के
लिये बग़ावत ऐब माने गये।
आज भी औसत भारतीय घरों में ये
कल्पना कि स्त्री पुरुषों से पहले चाय
पी लेगी ।पुरुष से पहले नाश्ता कर
लेगी पुरुष से पहले खाना खा लेगी और
पुरुष से पहले सो जायेगी । या स्त्री के
दुखते पाँव
उसका पति दबा देगा या स्त्री पुरुष
दोनों ही जब समान रूप से घर के बाहर
काम करके कमाते हो चाहे खेत खलिहान
मजदूरी करके चाहे
मास्टरी डॉक्टरी करके तब भी घर में आते
ही चाय खाना नाश्ता बनाने बरतन
माँजने घर की झाङू पोंछा धुलाई सफाई
और बच्चों के पॉटी सू सू धोने
बच्चों का होमवर्क कराने उनको लंच
टिफिन देने और स्कूल के लिये तैयार करके
भेजने । काज बटन रफू करने मेहमान आने
पर अटैण्ड करने और घर की चीजें ठीक
जगह रखने याद करके सबकी दवाई पढ़ाई
और खुराक की परवाह करने के काम पुरुष
करेगें ।
याद रखे अपवाद समाज की मुख्य
धारा नहीं है हाँ बदलाव बर्दाश्त करने
लायक माहौल जरूर बनाते है ।सो ऐसे
तमाम पुरुष जो स्त्री को भी जीव मानते
है अपवाद ही कहे जा सकते हैं।
मजदूर की पत्नी मजदूर है और वह घरेलू
सेवायें पूरी करके फिर बच्चे
सँभालती हुयी मजदूरी करती है ।
किसान की पत्नी किसान है और वह घरेलू
सेवायें पूरी करते हुये बच्चे सँभाल कर खेत
खलिहान पर काम करने जाती है ।
शिक्षक वकील पत्रकार
पति पत्नी दोनों एक ही जैसी सेवायें घर
से बाहर करते हैं और बराबर कमाते हैं ।
फिर भी घर आकर पुरुष का आराम और
मनोरंजन अवकाश और निजी वक्त चालू
हो जाता है लिखने पढ़ने और दोस्तों का
जबकि स्त्री का रसोई बच्चे साफ सफाई
व्यवस्था और घर के प्रत्येक सदस्य
को अटैंड करने का काम अभी बकाया है।
जहाँ कहीँ भी इस घोषित व्यवस्था में
स्त्री और मजदूर ने आराम
करना चाहा या मदद माँगी या हक
वहीं कलह दमन क्रांति और आरोप
प्रत्यारोप चालू हो गये।
मँहगाई बढ़ गई!!!!!!!
कामवाली बाई को पचास रुपये महीने
अधिक चाहिये ।
मजदूर को पचास
रुपया दिहाङी ज्यादा।
और औसत हर मध्यम और उच्चवर्ग के वेतन
बोनस में भी इंक्रीज मेंट
हो चुका होता है।
लेकिन
नाक भौं मँहगाई पर सिकोङने वाले लोग
घर की झाङू बरतन पोंछा रसोई
आयागिरी चौकीदारी करने वाली
स्त्री को कुछ भी अतिरिक्त देने के लिये
राज़ी खुशी तैयार नहीं हैं!!
दहेज की सामग्रियों की लिस्ट बढ़ गयी।
रकम भी बढ़ गयी ।
और अब जबसे सरकार ने
बेटियों को पिता की संपत्ति पर
भागीदारी दे दी पति का दवाब भी बढ़
गया बात बात पर भागीदारी के बदले
रकम ले लेने का।
लेकिन
स्त्रीधन?????!????
वह क्यों घट गया!!!!
पूरे जीवन की एक सुरक्षानिधि स्त्री पर
चढ़ाया गया सोना चाँदी और मुँह
दिखाई पैर पखराई गाँठ बँधाई विदाई
और स्त्री को ससुराल मायके से
मिली नकदी और जेवर स्त्री के होते थे ।
अब???
ये अन्याय नहीं?
मुँह दिखाई के पैसे छीन लिये जेवर पुरुष
को जब मन किया बेच लिया गिरवी रख
दिया बेटी बहिन को दे दिया!!!
और दहेज का सब सामान पूरे परिवार ने
बाँटकर इस्तेमाल कर लिया ।
लङकी नौकरी करती हो या पूर्णकालीन
गृह्णी हो रसोई बच्चे साफ सफाई और
बाद में खाना बाद में सोना बाद में अपने
पर खर्च करना उसका ही कर्त्तव्य है ।
और अगर विवाद करे तो चुप रहना और
मार खाना परिवार बनाये रखने के लिये
अपमान दुख उत्पीङन
उपेक्षा पी जाना भी स्त्री का ही कर्त्तव्य
है।
उन घरों में शांति तो रहनी ही है
जहाँ हर भेदभाव ज़ुल्म अत्यातार औरत
चुपचाप सहन करती चली जाती है । और
वह औरत ही केवल देवी कही जा सकती है
जिसने सत्तर अस्सी साल तक
की पूरी उमर हर तरह से अपने आराम
अपने हक अपनी हॉबीज अपने हुनर अपने
सपने और
अपनी संपत्ति की कुरबानी बिना जताये
चुपचाप की हो ।
ये देवी उसका पुरुष नहीं कहेगा पुत्र कहेगे
या फिर बाद में ठोकर खाकर
पछताया पति कहेगा।
अगर ये छल नहीं है तो क्या है । कि हर
घर की शांति सुख और एकता केवल एक
स्त्री के जुल्म सहने की सीमा पर
टिका है?? ये बर्दाश्त अब
लङकियाँ नहीं कर रहीं है ।
कल्लन की घरवाली मायके जाकर बैठ
गयी धोखा करके ब्याह किया । दुकान
किराये की थी और निजी बतायी ।
जमीन नौ बीघे में चार भाई
पिता का हिस्सा जबकि बताई बीस
बीघे थी। कल्लन को बी ए
बताया जबकि हाई स्कूल फेल था । कल्लन
का घर गिरवी ऱखा पङा था और जमीन
पर तमाम लॉन था । कल्लन रोज शराब
पीने का आदी था और दूसरे गाँव में एक
लङकी से चक्कर भी था जो गैर जात
की होने से बाप ने डरा धमका कर
शादी कर दी ।
ममता जब गयी तो दहेज भी वापस
गया और थू थू हुयी सो अलग तब
भी दो लाख का घाटा उठाया ममता के
पिताजी ने । ममता नर्स हो गयी मगर
कोई ब्याह
को राजी नहीं क्योंकि जो पहला पति छोङ
आयी हो ऐसी स्त्री से कौन लगन करेगा!!!
एक बार
तो हिंदुस्तानी लङकी की शादी भारी मुसीबतों से
हो पाती है दुबारा कैसे कैसे होगी!!!! और
अब हो भी जाये तो क्या कोई निरदोष
मानेगा?? कौन कहेगा देवी??
हाँ वह देवी कहलाती अगर चुपचाप ये
धोखा पी जाती और सौतन को बहिन
मान लेती और सेवा करके बचत करके जेवर
बेचकर पिता से मदद लेकर
करजा चुकाती और मायके में पति की सबसे
तारीफ करती ।
अपने सत्त के बल और महानता से शराब
छुङाकर उस क्रूर नशाकीट छली ठग
को महात्मा बना देती ।
और
तब भी सास ससुर देवर जेठ
की सेवा करती जब पति पीटता और रात
सौत के घर गुजारता
येन केन प्रकारेण दो चार पुत्र प्राप्त
करने को रिझा रिझा कर पति को रूप
जाल से लौटा लाती ।
देवी हो जाती ममता ।
किंतु
वह तो खसम छोङकर चली आयी जुब़ान
ज़ोर औरत है ।
इसीलिये मारी मारी फिर रही है अब
बीमारों के खून हड्डी करती ।
भले ही ममता सुखी है और नर्स बनकर
इतना कमा लेती है
कि पूरी जिंदगी आराम से बिता सकती है
पिता माता अभी पैंतालीस के है
अस्सी नब्बे साल तक तो जियेंगे ही न ।
और तब तक ममता को सुखी रहने से कोई
नहीं रोक सकता । यानि पच्चीस
की ममता सत्तर साल तक
तो सुखी रहेगी ही
मगर नाक में दम कर रखा है
बिरादरी रिश्तेदारों परिचितों पङौसियों ने
। हर दुहेजू पाँच बच्चों का कई साल
बङा पुरुष उनको ममता के योग्य वर
लगता है और वे आये दिन
ममता पिता माँ और भाई
भाभी को नीचा दिखाने का कोई
मौका नहीं चूकते ।
ममता देवी नहीं है इंसान है ।
उसको पति के जूते थप्पङ से दर्द
होता था। गालियों पर अपमान
लगता था । पिता गरीब थे किंतु प्यार
भरा मायका था। ससुराल में पति से मार
खाती औरत को कोई नहीं बचाता मगर
मायके में
ममता को कभी माँ भाभी बुरा भला भी कहतीं तो पिता भाई
टोक कर ममता का मान रखते ।
ममता हाङ माँस की इंसान
थी उसको प्यार चाहिये था दैहिक और
मानसिक जबकि ससुराल में सब दौलत के
भूखे थे और पति तो मन से सौत
का था ही तन से भी सौत का ही रहा ।
ममता इस झूठ मूठ
की शादी को नहीं निभा पाई ।
क्योंकि ममता सती नहीं महान भारतीय
नारी नहीं देवी नहीं ।
वह हाङ माँस की औरत थी दिल
धङकता था प्रेमगीतों पर और रोमांस के
सपने देखती थी । ससुराल में मायका पाने
की ललक से ही किचिन सँभाला था ससुर
को पापा और जेठ को भाई साब
कहती थी ।देवर को भैया जी ।
ममता ने समाज का उसूल तोङा है
शादी के पवित्रबंधन का अपमान किया है
विवाह नामक संस्था पर से
भरोसा उठाने का अपराध किया है ।
ममता पिता के घर अपने बचपन के कमरे में
वापस रह रही है वह कमाई से नया घर
बनवायेगी और हो सकता किसी नये पुरुष
को स्वीकार कर ले । या हो सकता है
भाई भतीजों पिता माँ के साथ
ही बाकी जीवन मरीजों की सेवा में सुख
संतोष सम्मान से बिता दे ।
ममता देवी नहीं है ।
ममता सती नहीं है
हर स्त्री देवी हो ही नहीं सकती
¶©®™सुधा राजे

!!! ये सदियों से जमी काई है ।आराम से
सबकुछ पुरुष के फेवर में चल रहा है
बहुविवाह ।दहेज।बालविवाह।सती।
परदा।स्त्री की विदाई।मायके से संबंध
विच्छेद।संतान पर पिता का हक़।सरनेम
स्त्री का बदलना।भाई पिता पति पुत्र
के लिये व्रत उपवास।और सब
धङाम??????? ये मुआ क़ानून
उनको फूटी आँखों क्यों सुहाये???
जिनको स्त्री देवता परमेश्वर
ना बनाये????
देवी वही ही तो कहलायेगी जो राक्षसी अन्याय
सहकर भी पुरुष को परमेश्वर माने
जायेगी?? यही नही ईश्वर के दंड से
भी बचाने को तप करेगी!!!

लौटने का रास्ता बंद न हो अब यही युग
की माँग है विवाह अंतिम सत्य नहीं है।।
अक्सर जितनी देवियाँ हैं उनमें से
अधिकांश तो सिर्फ इसलिये देवी हैं
कि उनके पिता माता भाई भाभी बहिन
चाचा नहीं चाहते रहे कि वे मायके लौटे
और लोग सवाल करें ।।।।उत्पीङन
की भी आदत पङ ही जाती है और ज़वाब
देना भी धीरे धीरे आ ही जाता है
या फिर चुप रहकर बरदाश्त करना ।

लौटने का रास्ता जब हो तो ये आधी से
ज्यादा देवियाँ मानवी बन जायें ।

जो जो स्त्री पति और ससुराल
वालों का दिल जीत लेती है
वही वही सबसे सफल स्त्री है
यही कसौटी है भारतीय नारी की ।
हमारे छोटे भाई
का मित्र # विष्णु # दीक्षित #सेंवढ़ा -
अक्सर चिढ़ाता था ।
""मौंङियें काये खौं पढ़तीं ब्याव खौं ।
मौंङियें काय खौं सीकती कढ़ाई बुनाई
सिलाई बिआव खौं । सो बैन म्हाराज
चाँये कितेकऊ पढ़ लौ चूल्हो चौका बाशन
बारे बंडा तो कन्नेई परहै """
उस समय सेंवढ़ा के पिछङे इलाके से आते
किशोर का अज्ञान कहकर हम हँसी में
टाल जाते किंतु जीवन के इतने अनुभवों के
बाद यह स्पष्ट हो ही जाता है कि यह
एक मुख्यधारा की औसत भारतीय सोच है।
स्त्री का रूपरंग और घर किचिन बच्चे
सँभालने का हुनर और पति को प्रसन्न
रखना यही उसकी समग्र
सफलता कही गयी।एक
स्त्री बढ़िया वक्ता है शानदार
अकैडमिक रिकॉर्ड है और गुणों की खान है
किंतु रूप रंग
ऐसा नहीं कि पति फ़िदा रहे तो बेकार
है और हुनर घरेलू ऐसे नहीं जो ससुराल
वाले खुश रहें तो फेल है वह लङकी और पुत्र
पैदा न किया तो व्यर्थ है
उसका जननी होना ये तीन बातें इस क़दर
जङ में बसी हैं कि मायके वाले रात दिन
कोशिश करते रहते हैं कि लङकी बस
ससुराल जाकर पति की नजर में पास
हो जाये ।लेकिन आधुनिक लङकियाँ अब
खूब समझ चुकी है कि ससुराल में उसके मन
तन पर क्या गुजरी इसकी बजाय दहेज
रूपरंग और घरेलू सेवाओं का ही क्रेज है
सो अब परिवार को देवियाँ मिलनी बंद
हो गयीं क्योंकि चोट लगने पर
देवियाँ रो धो कर सह
लेती थीं मानवियाँ दर्द होता है
तो चीखती है और बोल पङती है ।ये
बोलना अनएक्सपेक्टेड हैऔर तब
कहा जाता है चुप बिलकुल चुप आवाज नीचे
।और अब थोङे ही सही परंतु दर्द में चोट
लगने पर आवाज नीचे
नहीं रखती मानवियाँ ।जो पीङा न
पी सके चुपचाप वह देवी नहीं मानवी है
।एक रिश्ता वहीं तक हर कुरबानी कर
सकता है जब पति प्यार करता है ससुराल
वाले हर तरह सुख दुख में साथी हैं तब
बाहरी हालात बिगङने
या अच्छा बुरा कुछ भी घटने पर परिवार
का अंग होने के नाते
स्त्री भी कुरबानी करे अपने सुख की और
कष्ट उठाये ।किंतु जब
स्त्री को परिवार का सेवक
समझा समझा जाये और सब सुख में हों तब
भी स्त्री को अपमानित पीङित
किया जाये तब?? तब ये कतई
देवी होना फ़र्ज़ नहीं । ये देवियाँ तब
या तो विवशता है या मायके
की उपेक्षा या अंधविश्वास

हालात कहीं आशा तो कहीं घोर
निराशा के है

भावुक फैसले चालाक संसार में हमेशा से
ही दुःख की वज़ह बनते हैं ।
स्त्री को भी दिमाग़ से हित अहित दूर
तक सोचना होगा ये भय
छोङना होगा कि धर्म या लोग
क्या कहते हैं
माता को विशेषाधिकार चाहिये
समानता से अधिक क्योंकि वह प्रसव
पीङा सहकर नौ माह बच्चे पेट में रखकर
डेढ़ साल दूध पिलाकर स्त्री हो पुरुष
या नपुंसक हो या विचित्र पालती है
।।।इसलिये स्त्री को समानता से अधिक
चाहिये
Like · Edit · Tuesday at 8:13pm
Sudha Raje
माता को विशेषाधिकार चाहिये
समानता से अधिक क्योंकि वह प्रसव
पीङा सहकर नौ माह बच्चे पेट में रखकर
डेढ़ साल दूध पिलाकर स्त्री हो पुरुष
या नपुंसक हो या विचित्र पालती है
।।।इसलिये स्त्री को समानता से अधिक
चाहिये।

No comments:

Post a Comment